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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 अप्रैल, 2019

भावना सिन्हा की कविताएं






भावना सिन्हा

स्त्री 

दरवाजें न हों, तो
दीवारें जुड़ती नहीं आपस में
एक खुली जगह को
रहने लायक बनाता दरवाजा

स्त्री भी
एक दरवाजा है
जहाँ,  जिन परिस्थितियों में वह रहती है
हो कर
उस जगह को
तब्दील कर देती
घर में ।
०००



 कब सोचा था


मैं बाजार जाती हूँ
लेने .....
अपनी पसंद की कोई चीज़

तो उस चीज़ के
विकल्प में मुझे
ऐसी अनेकों  चीजें दिखाई जाती हैं
जिनके विषय में
मुझे  कुछ  मालूम नहीं होता

मैं असमंजस में पड़ जाती हूँ

इससे पहले  कि--
ले सकूँ कोई  निर्णय
उन चीज़ों के बारे  मुझे
अधिक से अधिक
जानकारियां दी जाती हैं

अब...
मैं ...
उन चीज़ों पर गौर करने लगती हूँ

ये चीजें इतनी चिकनी  होती हैं
कि सरलता से
दिल में अपनी जगह बना लेती हैं

और देखते-देखते
अधिक उपयुक्त प्रतीत होने लगती हैं

मैं इन चीजों को  लेकर
खुशी खुशी  लौट आती हूँ

पसंदीदा चीज़ों के बारे में
कब सोचा था
एक दिन ...
इन्हें  नहीं  खरीद   पाने का
गम भी नहीं रहेगा   ।
००







धान रोपती औरतें


धान रोपती औरतें
आँचलिक भाषा में
गाती हैं जीवन के गीत
अबोध शिशु की तरह
पुलक उठता है खेत का मन
उनके हाथों के स्पर्श से

बड़े जतन से
खुरदुरे हाथों से रोपती हैं धान
पानी में , कीचड़ में

साथ में रोपती हैं
भात , रोटी , कपड़े
और टूटे छप्पर के स्वप्न

दिन भर मौसम के तेवर पीठ पर झेलतीं
शाम चूल्हे की आग में सुलगतीं

धान रोपती औरतें
श्रम की साधना में लीन
कभी कहती भी नहीं
झुके - झुके
दुख रही है रीढ़ की हड्डी
अब सिर्फ़ सोना है उन्हें

भूख , रोटी , बच्चे और मर्द
सेवा और प्यार के घेरे में
क़ैद है उनकी दुनिया

धान रोपती औरतें
गायव हैं
अर्थशास्त्र के पन्नों से
जैसे- भूगोल के नक्शे से
कोई बस्ती
नगरीय विस्तार के पदाघात से .।
००




अहम अप्रियम


शब्द भी रखते हैं रुआब

अपने अपने  मायनों में

मूँछों पर देते ताव


लिखने के बाद

बदल देने से

अपमानित  महसूस करते

आखिर हैं तो वे शब्द ही

भले

आपकी जरूरत के नहीं


मेरा आग्रह है आपसे

लिखने से पहले करें

शब्दों का  चयन

सोच समझ कर

अन्यथा--

नाहक ही दुखेगा उनका दिल

तीन बच्चों  में बीच वाले की तरह

सोचकर ---

अहम्

अप्रियम्  ।
०००




पिता ने कहा था


मनाने  से  मिटती  है  कटुता

बांटने  से  बढ़ती  हैं  खुशियाँ

पूछने  से  बचा  रहता  है  सौहार्द

निभाने  से  टिकता  है  रिश्ता


साथ  साथ  रहना  सीखो  ! बेटा

साथ  साथ  रहना---

साथ  साथ  रहने  से

देखते  देखते  कट  जाती  हैं

रास्ते  की  लंबी  दूरियां

साथ  साथ  रहने  से

बड़े  से  बड़े  दुख  में

जूझने  का

मिलता  है  हौसला

अन्यथा

अकेलापन  खा जाता है  अंतःकरण

घुन  की  तरह

आदमी

अपनी  ही  आत्मा की

प्रफुल्लता  से  चूकता  है  और

सुख  के  तलाश  मे

जीवन   पर्यंत   यात्री  बना  रहता  है-------


अपने   स्नेहिल  हाथों  को

मेरे  माथे  पर   हौले  से  फेरते  हुए

पिता ने  कहा  था


बाद  पिता  के

विलुप्त  होती  गौरैया की  तरह

धीरे-धीरे  कम होता  गया

साथ साथ  का अभ्यास ।










गौरैया


मेरी उदासी जब

आंसुओं में

ढल जाती है


चहचहाकर

एक गौरैया

मेरा ध्यान बांटती  है ...!





सपने


इस रंग के....
उस रंग के....
सपने !
रंग-रंग के...

सपने देखना और
सपनों को पूरा करना
दो अलग बातें हैं--

नानी कहती थीं--
छलिये होते हैं सपने
छीन लेते हैं  तुमसे  तुम्हारा वर्तमान
भविष्य भी रहता निरापद नहीं

मेरी मानों तो
मत भागना उन सपनों के पीछे
जो पांव- पांव  साथ चलते  तुम्हारे

और
चुराकर चुपके से  नींद तुम्हारी
असमय ,
बूढ़ा बना देते हैं तुम्हें
अंततः
एक  उदास आदमी।

०००



घृणा  की  नजर चुभती है उम्र भर

आतताइयों की
नृशंसता के क्या कहने
उनके लिए
हत्या करना
 कंघी करने जैसा है सामान्य बात
 वे तो
हरदम रहते ही हैं आतुर
गोलियों से
भून देने के लिए
मुझे और  तुम्हें

 ऐसे में बचने की
तमाम कोशिशों के बावजूद
गर कभी  घिर ही जाओ आतताइयों से
तो बजाय भयभीत होने के
तुम  देखना उन्हें घृणा
भरी नज़र  से
गो कि
गोलियों से  घातक,
घृणा की नजर
चुभती है उम्र भर ।
००


नदी की कविता


1

नदी
हमसे मिलती है
हमारी खुशियों के साथ

हम भी
नदी से मिलें
नदी की
खुशियों  के साथ  !!!!









2

नदी


क्या नदी सिर्फ
इसलिए बहती है
कि बहना उसकी नियति है

या इसलिए कि  पूर्वजों  को दिए वचन से वचनबद्ध है

नदी को फर्क नहीं पड़ता
कितने पेड़ों को सिंचा उसने
कितने उजाड़ों  को बसाई  है
उसने अपना कितना हिस्सा दिया तुम्हें

नदी फिक्र में है

देखती है तुम्हें
किनारों पर बैठ
कोक के डब्बे जलधारा में फेंकते

तुम्हारी बेफिक्री पर
रोती है नदी

सोचती है
क्या तुम्हें उसकी
छुअन भी याद नहीं !!
००


 बूढ़ा आदमी



एक झक  हरदम  उसपर सवार रहती है --

वह हमेशा कुछ न कुछ  ढूंढता रहता है

कभी वह  चश्मा  ढूंढता है

कभी वह दवाईयां ढूंढता  है

कभी  जुराबें  ढूंढता है

तो कभी   डायरी  ढूंढता है 

और ढूंढते  ढूंढते

इन चीजों को जब

वह  नहीं पाता

अपनी-अपनी  जगह पर

तो   चीखने  लगता है

उसे शक होता  है

किसी  ने  जानबूझ  कर  छुपाया   है

मगर , तब  वह  हतप्रभ  रह जाता है

जब  अचानक  ही  चीजें निकल आतीं हैं

उसी के आस पास से

 वह इस रहस्य पर  आश्चर्य  करता  है

लेकिन समझ   नहीं  पाने के कारण खीझ कर

 खिड़की  के  बाहर  देखता  है

वह पेड़ से गिरते पत्तों  को देखता है

और  गहरी उदासी में  डूब जाता है

अब वह अपने आप को  ढूंढ  रहा होता है  ।
००






पेड़

पेड़ को देखते ही
स्वतः ही
मन में  उत्पन्न  होता  विश्वास

उसका मौन आमंत्रण
अधिकार  का हरदम कराता  रहा एहसास

लांछनों से घबराकर
मैं जब जब  घर  से भागी
बिना प्रश्न के
पेड़ ने दिया आश्रय
और
वितंडा खड़ा किए बगैर
पेट  भर भोजन

ढक कर रखा  मेरी लाज
जमाने भर की नजरों से
उसकी आजादी के विस्तार में
खिल उठी  मैं फूलों की तरह

मैं
बार  बार
लौट सकी हूँ
उन बेमुरव्वत लोगों  में

तो रीझ  कर
उस पेड़ पर
जिसने मुझे
कभी टूटने नहीं  दिया।
००


परिचय:

नाम: डाॅ भावना सिन्हा
जन्म तिथि  : 19 जुलाई
शिक्षा: पीएचडी (अर्थ शास्त्र)
निवासी: गया , बिहार

प्रकाशित कृतियाँ: कादम्बिनी,  परिकथा, अंतिम जन,  पुस्तक संस्कृति,  यथावत,  आदि।




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