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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 दिसंबर, 2024

मीता दास की कविताऍं


एक 


मैं कोई खेत हूँ 













मैं कोई खेत हूँ ...

मैं कोई युद्ध भूमि हूँ

मैं कोई सीमा रेखा हूँ 

मैं कोई जमीन हूँ 

मैं कोई पुश्तैनी जायदाद हूँ


कि मुझे चीरा जाए 

फाड़ा जाए , लकीर खींच कर 

तेरा मेरा किया जाए 

पासे फैंक कर मेरा भविष्य निर्धारित किया जाए 


मेरे ही जन्मने से धरा पर 

अजन्मे से बुद्धि - विवेकहीन 

भीड़ बन जुटे रहे 

लक्ष्मण रेखा खींचते 

सीमा रेखा बनाते 

पासे पर दाॅंव लगाते 


हे वीर पुरुष 

मेरी ही गलती थी कि 

तुम्हे जन्म देते वक्त बल के संग जो वीर्य भी तुम्हें सौंपा था

उसे जल बना क्यों न दिया !!


गलत निगाह उठते ही तुम्हारी पुष्ट भुजायें

लिथड़ कर अवश हो जातीं और

वीर्य का नाचन 

खून बन तुम्हारी ही देह से झरे 

और देह नारी की अपने नाखूनों में इतना बल भर ले कि 

तुम्हारी देह से उस अंग को नोच ले 

चील - कौओं को खिलाने के लिए


हे नारी तुम उनकी देवी नहीं 

खुद की देवी बनो 

तुम पुरुषों को जन्म देना ही निरस्त कर दो 


तुम बाॅंझ बन जाओ 

तुम बाॅंझ बन जाओ 

तुम यकीनन बाॅंझ बन जाओ ....!!

०००

दो


मगरमच्छ माथा टेकता है 


माथा टेक 

रोने वाले  और  मगरमच्छ में भेद नज़र नहीं आता जनाब !


रिरिया कर , गरिया कर , नीचा दिखाकर 

खुद को काबिल बताने वाले 

दुम दबाकर कहाँ छुपे हैं नज़र नहीं आते आज जनाब ! 


स्कूल , ऑफिस कॉर्पोरेट जगत सब खुले 

पर दिन भर संसद में टेबल ठोंकने वाले 

चुने हुए परिंदे अब नज़र नहीं आते जनाब ! 


ठंड बीती , गर्मी की मार सही 

पैरों के मवाद सूख गए 

राह पर प्रसव पीड़ा झेलती माँ गुजर गई कईं 

मुर्दे अपने कफ़न को तरसते गल गए कई 

नाकामियों से पस्त हैं धन्वन्तरियाँ भी 


मगरमच्छ से बैर भी तो गुनाह है इस दलदल में

जैसे झेल रहे हैं वरवर और कई अर्बन नक्सली ।

०००











तीन 

मासूमों का स्वर्ग 

                  

अरकान से यमन , 

फ़िलिस्तीन ये सीरिया ,

सिर्फ और सिर्फ शिशु हत्याओं का उत्सव 

सीरिया के शिशु जब बनकर शरणार्थी 

समंदर के नमकीन जल में 

नाव सहित डूबकर मर रहे थे 

तब यमन के शिशु मर रहे थे 

सऊदी- अमेरिकी गठबंधन के बमबारी से 

जब सीरियाई बच्चे आईएस-विद्रोही-पश्चिमी गठबंधन 

और सीरियाई सरकारी बलों के क्रॉस फायर में मर रहे थे, 

तब यमन के बच्चे अकाल पर खाई में पड़ 

बिना आहार के मर रहे थे।

पृथ्वी पर स्वर्ग का एक टुकड़ा,

होता है दुनिया के बच्चों का शुद्ध , मासूम, मन

जिसे दूषित करने में , मृत्यु के भय को जिन्दा रखकर 

और भी वीभत्स और भयावह बनाने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी 

क्या कहेंगे हम की दोबारा जन्म लो 

दोबारा घुटनो - घुटनो चलो और हम बम दाग कर 

राइफल कानों से सटाकर 

तुम्हारे ही नन्हे अबूझ निगाहों के सामने 

तुम्हारी मां - बहनो को उठा लें और उनका बलात्कार करें 

जिससे और भी मासूम अवैद्य संतान जन्म लें 

फिर किसी ताकतवर के इशारे पर 

वापस गहरी , मूर्छित नींद तुम्हें सुलाकर 

अपनी ताकत का परचम लहरायें | 


पश्चिमी कद्दावर देशों के क्लस्टर बम, 

रासायनिक बम, विमान बम, तोप बम, 

ड्रोन के बमबारी से थर्राये मासूमों के चेहरे और चीथड़े 

क्या तुम सह पाते हो ? 

ऐ शर्मसार होती मानवता 

मासूमों को दो बख़्श दो यार | | 


मासूमों का स्वर्ग है उनकी माँ की गोद 

बख़्श दो उन्हें | | 

०००


चार

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी 

एक


जवाहर टनल पर हो रही है बर्फ बारी 

बेनिहाल के द्वार रुद्ध कर 

खड़े हैं हिम् हुए प्रश्न  !

खोजी दस्ते लगे हैं खोज में 

अलार्म बज रहा है खतरे का

सिपाही हैं तैनात 

और जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी ।


बजेगा सायरन ( अलार्म )

पूरे पौने चार किलोमीटर लंबी सुरंग के भीतर 

पर आवाज मुहाने तक आकर जम जाएगी 

क्योंकि बेनिहाल के द्वार है रुद्ध 

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी ।।


आग उगलते अक्षरों और हिमालय पर सूर्योदय को 

जमता हुआ देख रहे हैं अखबारों में सुर्खियों में हम

रक्त पिपासु है कलम मीडिया की

जमाखोरी में लीन जमाखोर 

कौन भागा बर्फ बेच 

उस पार ...........

और किसकी गली हुई देह आई 

`इस पार ............


खामोश है भाषा का दानव 

अपनी - अपनी आत्मा छुपाये 


नर्म - नर्म बर्फ बारी में 

आग उगलते अक्षर 

रो रहे हैं 

सड़ी गली देह पर 


जवाहर टनल पर हो रही है बर्फ बारी 

बेनिहाल के द्वार रुद्ध हैं 

खड़ी है , खड़े ही रहेंगे 

हिम् हुए प्रश्न 


खोजी दस्ते भी आज 

जमी बर्फ में गुम हैं !!

०००



दो

   

हटा है तीन सौ सत्तर

और 

जवाहर टनल पर हो रही है बर्फबारी 

गुलमर्ग है स्वर्ग 

बर्फ का ठंडा एहसास 

इन बर्फ़ों के तले 

धधकती हैं ज्वालायें 

जब - जब हो रही होती है बर्फ बारी 

बढ़ जाती है भीतरी तपिश इनकी भी 


चिनार सफेदी ओढ़

झेलम में कूद कर ली आत्महत्या 

ऐसा महसूस होता है 

घरों के ढलुआ छत पर जमी हुई है बर्फ 

बंदूकों की नली में बर्फ उदास बर्फ 

डरी - सहमी फ़ातिमा 

दो चोटी गुंथा हुआ है महीनो से 

स्कूल जाने को तरसती 

गले में बर्फ का गोला रख  

चुनमुन ठुमकता 

फौजी वाली गन चाहिये 

सफेद बर्फ के गोले के बदले 

उसे नहीं समझ 

होता क्या है 

कर्फ्यू  .... 

पर बंदूकची ढेर समझते हैं 

लाल - लाल निगाहों वाले पर 

अब उन लाल आँखों में भी 

जमी हुई है बर्फ   .... और 

होंठों पर बर्फ जमा ली है उन्होंने 


जल में बर्फ 

     नल में बर्फ 

          डल में बर्फ 

            शिकारों ने भी डल में कूद कर ली आत्महत्या ।।


स्तब्ध सी रूह उन शरणार्थियों की 

क्या यही है 

उनका स्वर्ग ! 

तीन सौ सत्तर का या 

तीन सौ सत्तर के बाद का !!

०००




चित्र 

आदित्य चड़ार









पॉंच 

 कविताऍं बतियाती हैं, चुपचाप ! 


कविताऍं बतियाती भी हैं, 

गुनती भी हैं इतिहास , 

चुपचाप ! 


कब किस इतिहास के पन्ने पर था बिम्बिसार 

कहाँ थीं मोहन जुदाड़ो की खंडित मूर्तियाँ 

या 

किस क्षण सिन्धु शब्द परिवर्तित हुआ 


हिन्दू शब्द में 

राम जन्म अयोध्या में और बाबर ने 

कब विध्वंस किया मंदिर 


मुझे क्यूँ महसूस होता है कि 

वहॉं एक झील थी 

शायद वहां खिलते थे कमल , फ़ैल जाती थी जलकुम्भियाँ 

क्या वहॉं किसी ने जलाये थे दिये ? 

क्या किसी ने सुनी थी अजान शांत मन से ??

कविताएँ बतिया रही हैं 

गुन रही हैं इतिहास  .... चुपचाप 

०००

 


स्टालिन , बुद्ध , मुसोलिनी न सद्दाम 


लिखो 

यदि लिखनी ही पड़े 

हिटलर की मूॅंछों के बारे में नहीं 

लिखो उसकी प्रेमिका के टूटे हृदय की झॅंकार लिखो 

लिखो हिटलर के जहर मिले भोजन को खाने वाली उस महिला के साहस की व्याख्या,

चिन्हित करो 

बुद्ध के वियोग में यशोधरा का विलाप 


उद्धरण हैं बिखरे 

मार्क्स , माओ , लातिन या मार्किन युग

हंगेरियन  या कह लें हंगरी युग  ...... अकाल 

अकालेर सॉनधाने के  सत्यजीत रे  ...... ... 

कभी सद्गति में प्रेमचंद को पुकारते रहे 


रवि बाबू के चार अध्याय की एला

खुले पन्नों से झांकती है

जिसे देश की स्वाधीनता के साथ ही 

नारी मन की भी स्वतंत्रता चाहिए 

और नष्ट नीड़ की माधवी दूरबीन के छोटे से लैंस से 

देखती बाहरी अंजान विस्तृत जगत को 

विस्फारित नजरों से 

दर्शक मन्त्र मुग्ध से गहरे उतरते - चढ़ते 

साहेब बीबी और गुलाम का वह भग्न स्तूपों तले दफ़न 

जर्जर , धूल धूसरित हाथ का कंगन और कंकाल 

यह सब चित्र नहीं शब्द हैं 

इन्हे शब्दों में चित्रित किया हैं

ये इतिहास हैं या कविता - कहानियों की शब्द - कलियाँ 

लोर्का , गार्शिया मार्खेज़ , नजीम हिकमत 

कविताओं के

पन्नों में

 करते है आवाजाही  ..... चुपचाप !

और वह

 इथोपिया का नग्न क्षुधार्थ शिशु की तस्वीर 

पुलित्ज़ार पुरष्कार प्राप्त केविन कार्टर

दुखित हो अनगिनत रातें 

जिसने

जाग कर काटी

और आत्महत्या कर ली 

लिखना है तो लिखो यह पाशविकता 

या उससे ज्यादा लिखो उसके मन में

उपजी मानवता को | 

बार - बार हम लिखते हैं इतिहास और क्यों लिखते है वर्तमान ?

लिखो उस क्षुधार्थ नग्न शिशु की बात 

लिखो उस भूखे गिद्ध की बात 

लिखो उस नग्न बच्चे की घटित होती मृत्यु 

लिखो उस गिद्ध की भूख को 

लिखो उसकी तृप्ति को


लिखो केल्विन की कलात्मकता को 

भूख को परिभाषित करते दृश्य को

लिखो

वह पाशविक था या मानवीय

इसे इतना लिखो कि

स्याही ही शेष न रहे || 

०००

छः 


गुल्लक


बड़ा कठिन समय है यह 

जब मुनिया 

मुन्नू - चुन्नु की गुल्लक तोड़ी जा रही है 


शताब्दी खड़ी है सम्मुख 

देना पड़ रहा है हिसाब 

अपनी जमा राशि का ही नही 

उन मुस्कुराहटों का भी जब 

पापा दफ्तर से लौटकर रेजगारियां धर देते थे मुस्कराहट के संग 

देखने को आतुर रहते चुन्नू की मासूम मुस्कुराहट 

गिनता मुन्नू भी अपनी हथेलियों की गर्माहट को 

यह गर्माहट उस मजदूर के पसीने की थी 

जिसे आज दिहाड़ी मिली थी 

कहता बापू बस इत्तो सेई ?

दुलारता हुआ ठंडी सांस का हिसाब रखता है गुल्लक भी 

हाँ बाकी अगले सनीचर को 

मुनिया रोई 

माँ तुमने चुपके से मेरी गुल्लक क्यों तोड़ी 

कब ? माँ ने इंकार किया बेमन से 

उस दिन जब बुआ लोग आये थे 

माँ की आँख में आँसू तैर गये 

मुनिया बोली अब न कहूँगी 

बाबा एक तारीख को नई गुल्लक लाएंगे 

लाएंगे न माँ ?

गुल्लक चुप 

इतना लंबा इंतजार 


गुड़िया की हर माह , हर हफ्ते नई गुल्लक 

पिगी बैंक सब फुल्ल ! 

गुड़िया की पिगी बैंक नहीं खँगाली गई

नहीं तोड़ी गई गुड़िया की गुल्लक ,

गुड़िया आज फ्लाईट से जा रही है अमेरिका 

डिज़्नीलैंड , उसके हाथों में है गुल्लक 

खड़ी है सिक्युरिटी चैकिंग के लिए 

चैकिंग बेल्ट पर नही हुई कोई आवाज 

गुल्लक में सिक्के नही , नोट थे 

चिल्हरों को बेल्ट पकड़ लेती है 

नोट को बाहर धकेल देता है 

गुड़िया खुश है अपनी गुल्लक पाकर 

गार्ड बोला बेबी जाओ 

गुड़िया ने थेंक्स कहा 

उसका चेहरा दिपदिपा रहा था 

डिज़्नीलैंड , डिज़्नीलैंड 

गुल्लक अभी तक उसके नन्हे कोमल हाथों के घेरे में थी 

आँखों में एक तसल्ली की चमक । 


मुनिया 

चुन्नू - मुन्नू 

की ही गुल्लक क्यों ???


प्रश्न है 

शताब्दी से ! 

०००



चित्र 
शशिभूषण बढ़ोनी 










सात 

एक बैठी - ठाली औरत  


जरा बैठी है 

एक बैठी - ठाली औरत 

 

क्या कहा सुनाई नही पड़ा ?

जरा बैठी हूँ  ...... करीब आकर कहो 

बैठी हो ? ..... तुम तो अंट - शंट किताब पलट रही हो 

और यह टीवी भी बेमतलब म्यूट कर रखा है , 

जब देखना ही नही तो कर दो ऑफ 

खामख्वाह ही .....


जरा बैठी ही थी सुकून से वह बैठी - ठाली 

लेकिन यह कैसा शोर 

बिल्ली हो शायद !

देखा दूध जमीन में फैलकर जगह बना रहा था 

दिशा ढूॅंढ नही रहा था धार देख हम बता ही सकते है कि

उधर ढाल है 

बैठी - ठाली ने सोचा मन ही मन 

क्या हम दूध भी नही !

सिर्फ स्तन दायिनी भर हैं ,

पर हम किसी सार्वजनिक स्थल पर सुकून से 

स्तनपान भी तो नही करा सकते बैठे - ठाले 

ढूंढना होता है एक सुरक्षित कोना , 

एक भूखे रिरियाते बच्चे को चुपाते हुए 

न .... न ... बेटा रोते नई हैं न .... एक मिनट 

यह सब दुधमुंहा कहाँ बूझता है , यह इशारा होता है 

उन बेशर्म, नासमझ उद्भट कापुरुष जत्थों  के लिए 

उठकर वे फिर भी नही जाते 

जाती हैं ये बैठी - ठाली ही 

घूरते हैं ऐसे जैसे व्यंग बाण के संग चूस जाना चाहते हैं 

वे भी 

दूध मुंहे के हिस्से की चंद बूँदें 

बैठी - ठाली बूझती है सब कुछ 


बैठी - ठाली बैठे - बैठे ही 

बूझ लेती है अम्मा की गठिया , ससुर की खांसी , ननद का पीटा जाना 

बैठी - ठाली गुल्लक गिन लेती है मन ही मन 

अबकी बेटा लौटेगा तो गिनकर चंद रुपये धर देगी उसके हाथ 

कहेगी अपना भी जमा इसमें जोड़कर भेज देना बुआ को 

बैठी - ठाली ने सोच रक्खा है इस बार अम्मा को लिवा लाएगी कात्तिक में 

०००


परिचय 

जन्मतिथि - 12 जुलाई सन 1961, जन्मस्थान - जबलपुर मध्यप्रदेश, स्थाई पता 63/4 नेहरू नगर वेस्ट , भिलाई, छत्तीसगढ़ 490020 

सम्प्रति - जसम भिलाई पूर्व अध्यक्ष एवं तत्कालीन संरक्षक , बंगीय साहित्य संस्था भिलाई की संरक्षक , मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की सदस्य , भारतीय अनुवाद साहित्य की सदस्य | 

पुरस्कार और सम्मान--खूबचंद बघेल सम्मान , राष्ट्रभाषा प्रचार प्रसार समिति से महात्मा गांधी सम्मान , बांग्ला में - कवि रवींद्र सूर सम्मान । बांग्ला साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ से सम्मानित , प्रेमचंद अगासदिया सम्मान , अनुवाद के लिए सप्तपर्णी सम्मान। 

अब तक मेरी बांग्ला भाषा से हिंदी में नवारुण भट्टाचार्य की प्रतिनिधि कविताओं के अनुवाद प्रकाशित  बांग्ला से हिंदी और हिंदी से बांग्ला में कई काव्य संग्रहों और कहानियों, उपन्यासों का अनुवाद किया है ।

1. नवारुण भट्टाचार्य की प्रतिनिधि कविताओं का बांग्ला से हिंदी अनुवाद किया, ज्योति पर्व प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

2. हिंदी के चुनिंदा कवियों की कविताओं के अनुवाद बांग्ला में भाषा बंधन (कोलकाता ) प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

3. जोगेन चौधरी की कविताओं का अनुवाद - अंधेरे में उजाले का फूल, बांग्ला से हिंदी में इण्डिया टेलिंग प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

4. जोगेन चौधरी का संस्मरण का अनुवाद बांग्ला से हिंदी में मेरे गांव की पूजा इण्डिया टेलिंग प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

5. सुकांत भट्टाचार्य का समग्र अनुदित... प्रकाश की ओर 

6. अग्निशेखर की हिंदी कविताओं का बांग्ला में अनुवाद, संकलन का नाम संग्रहालय काटा पा भाषा संसद (कोलकाता) से प्रकाशित।

7. उर्मिला शिरीष का हिंदी उपन्यास "खैरियत है हुज़ूर" का बांग्ला अनुवाद भाषा संसद (कोलकाता) प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।

8. चुनिंदा हिंदी कहानियों का संकलन बांग्ला में " काठेर स्वप्न " भाषा संसद (कोलकाता)प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

9. चुनिंदा हिंदी कहानियों का संकलन बांग्ला में "समकालीन हिंदी गल्प" भाषा संसद (कोलकाता ) प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

10. "खोई हुई चीजों का शोक " सविता सिंह के हिंदी काव्य संकलन का बांग्ला अनुवाद भाषा सांसद ( कोलकाता से प्रकाशित हुई है।

11. "एक नारीवादी की कहानी " बांग्ला उपन्यास हिंदी में अनूदित की है, प्रकाश की ओर 

12 . सियार पंडित की राम कहानी ( बच्चों के लिए ) बांग्ला के प्रसिद्ध रचनाकार उपेन्द्रकिशोर राय चौधुरी के कुछ कहानियों  के अनुवाद प्रकाशित हुआ है । 

13 .  स्वयं की 2 काव्य संकलन बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुई है ।

14 . देश द्रोह की हांड़ी काव्य संकलन { हिंदी में स्वयं की }

इसके अलावा हिंदी और बांग्ला के अनेकों पत्र - पत्रिकाओं में मेरे अनुवाद छपते हैँ यहाँ तक की  बांग्लादेश की पत्रिकाओं में भी हिंदी से बांग्ला में अनुवाद किये और वे प्रकाशित हुए है ।

विशेष -- हिंदी शार्ट फ़िल्म -**आभा** में अभिनय भी किया है ।

स्थाई पता - 63/4 नेहरू नगर, भिलाई, छत्तीसगढ़। पिन - 490020

फोन नम्बर - 9329509050

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