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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 जुलाई, 2025

पंद्रह कोड़े

 

अनवर इकबाल  

1977 की सैनिक क्रान्ति के बाद जब ज़िया उल हक़ पाकिस्तान में सत्ता में आए तो मैं एक अख़बार में ट्रेनी पत्राकार था। तब से अब तक बीस साल से ज़्यादा अरसा गुज़र गया, पर उनके शासन काल के कई ऐसे दृश्य हैं जो आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा हैं।

जनरल पर इस्लामिक क़ानून और पारंपरिक इस्लामिक सज़ा का जूनून सवार था। भरे बाज़ार बीच मुजरिमों को पत्थर से मारने या उनके हाथ काट देने जैसी सज़ाओं पर अक्सर ग़ौर किया जाता, पर जनरल ने सबसे ज़्यादा तरजीह मुजरिम को जनता के बीच कोड़े मारकर सज़ा देने पर दी। यह सज़ा इस्लाम की क़ानूनी आचार संहिता के अनुसार तो थी ही, साथ ही पकिस्तान में इसके व्यापक प्रचलन में ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार की परंपरा का भी हाथ था। कोड़े मारने की सज़ा देना पाकिस्तान के जेलों के लिए तो आम बात थी, पर जनरल ने उसमें एक मौलिक परिवर्तन कर उसे सार्वजनिक बना दिया था।


जनरल ज़िया उल हक़ ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेते ही कोड़ेबाज़ी का एक विशाल सार्वजानिक आयोजन किया, जिसे देखने के लिए मुझे बतौर रिपोर्टर जाना पड़ा। मुजरिम सफ़ेद पायजामे, ढीली सफ़ेद कमीजें और सफ़ेद टोपियाँ पहने एक लाइन में खड़े थे। अपने रिंग मास्टर के चाबुक की फटकार के इंतज़ार में खड़े वे बिल्कुल सर्कस के जानवरों की तरह लग रहे थे। सभी मर्द थे और ज़्यादातर अधेड़ थे। उनके चेहरे ज़र्द थे और वे डर से काँप रहे थे। जब कोड़े लगने शुरू हुए तो कुछ के पायजामे गीले हो गए, पर कोड़े बरसाने वालों और उन डॉक्टरों पर उसका बहुत कम असर हुआ, जिनका मुख्य काम हर मुजरिम की जाँच कर उसे कोड़े झेलने के लिए फ़िट क़रार देना था।


रावलपिंडी के पुराने इलाके और नयी राजधानी इस्लामाबाद के बीच एक बड़ा मैदान था, जिसके बीचों बीच खुली जगह पर जहाँ अमूमन बच्चे फुटबॉल, क्रिकेट और हॉकी खेलते थे, एक बड़ा-सा स्टेज बनाया गया था। लगभग पंद्रह फीट ऊँचा एक प्लेटफार्म था, जिसे मैदान के हर कोने से देखा जा सकता था। प्लेटफार्म के बीचोंबीच मुजरिमों को बाँधने के लिए लकड़ी का एक फ्रेम बनाया गया था। उन सबका चेहरा स्टेज के उस तरफ़ होता था, जहाँ पुलिस के ऊँचे अफसर, मजिस्ट्रेट और दूसरे वी आई पी बैठते थे। प्रेस रिपोर्टरों के लिए एक ख़ास जगह बनायी गई थी, ताकि वे कोड़ेबाज़ी को नज़दीक से और बारीकी से देखकर विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर सकें। बाकी आम दर्शकों को मुजरिम के शरीर का पीछे का हिस्सा दिखाई देता था, जहाँ कोड़े की मार लगती थी। लकड़ी के उस चौकोर ढाँचे पर मुजरिम के मुँह के नज़दीक एक माइक्रोफ़ोन फ़िट किया गया था, ताकि अपराधी के चीख़ने- चिल्लाने की आवाज़ें हर एक को सुनाई दे सकें। स्टेज के बीचोंबीच एक लंबा-चौड़ा पहलवान क़िस्म का आदमी अपनी कमर पर एक तहमद लपेटे खड़ा था, जो अपने पूरे नंगे बदन पर तेल चुपड़ रहा था। उसके बाद उसने अपनी छाती और हाथ की पुष्ट मांसपेशियाँ दिखाने के लिए कुछ कसरत की। फिर उसने कोने में राखी हुई आधा दर्ज़न छड़ियों में से एक बड़ी-सी छड़ी उठाकर तेल में डुबोयी और उसे ज़ोर से हवा में घुमाया। जितनी बार छड़ी हवा को तेज़ी से काटती हुई घूमती, एक भयानक सरसराहट भरा शोर हवा में उभरता। कोड़े बरसाने वाला ख़ुद भी एक  मुजरिम था जिसे इस काम के लिए ख़ास तौर पर जेल से बुलाया गया था। उसे बेहतरीन सेहतमंद खाना खिलाया जाता था और वह अपना अधिकांश समय कसरत करने में बिताता था। पकिस्तान में उसकी मांग अचानक बढ़ गई थी क्योंकि एक शहर से दूसरे शहर, जहाँ भी सरकार लोगों को डराने-धमकाने की ज़रूरत महसूस करती, उसे आमंत्रित किया जाता। उसका डील-डौल भयावह था। अपनी मांसपेशियों को कसते हुए अब वह कोड़े बरसाने के लिए तैयार था।


अब तक हज़ारों लोग मैदान के हर ओने-कोने में इकट्ठा हो गए थे। मैदान से जाने वाली सड़कें और गलियाँ तक भर गई थीं। मकानों की छतों पर लोगों के जत्थे के जत्थे जमा थे। पेड़ों के ऊपर और बिजली के खम्भों तक पर लोग चढ़े हुए थे। कुछ ग़रीब लोग इस पूरे नज़ारे से एक सावधान तटस्थता बनाए चुपचाप खड़े थे, क्योंकि आकाओं की ज़रूरत पड़ने पर उन्हीं के तबके को मुजरिमों की सप्लाई के लिए इस्तेमाल किया जाता था। रईस तबके का बर्ताव अलग था। वे तमाशा देखने अपनी गाड़ियों से या मोटर साइकिल पर आते थे और तमाशा शुरू होने तक इधर-उधर चक्कर काटते रहते थे। चुस्त जीन्स और रंगीन भड़कीली पोशाकों वाले बहुत से रईस नौजवान अपनी प्रेमिकाओं को भी साथ ले आते थे। संभवतः उनमें से कुछ वे सारे जुर्म भी करते होंगे जिनके लिए पंद्रह कोड़ों की सज़ा दी जाती थी। जैसे शराब पीना और अपनी बीवियों के अलावा दूसरी औरतों से संबंध रखना। लेकिन यह सब करते हुए भी वे सुरक्षित थे क्योंकि उनका रिश्ता उस तथाकथित ‘वी आई पी क्लास’ से था जहाँ कोई क़ानून या धर्म लागू नहीं होता। शराब पीने और औरतों का उपभोग करने के लिए उनके पास बेहतर और सुरक्षित जगहें उपलब्ध थीं। इसके लिए उन्हें उन सस्ते होटलों में जाने की ज़रूरत नहीं थी, जहाँ कभी भी पुलिस की ‘रेड’ पड़ सकती थी। अधिकांश मुजरिमों को पुराने शहर के निम्न मध्यवर्गीय इलाके के होटलों से ही उठाया जाता था। सुनने में आया था कि इस बार पचास से ऊपर मुजरिम शराब पीते हुए या औरतों से संबंध रखते हुए पकड़े गए थे। तीन दिन तक सब पर मुक़दमा चलाया गया था। जिनकी उम्र पचास से ऊपर थी, उन्हें कोड़े झेलने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था। कोड़े झेलने के लिए उपयुक्त मुजरिमों को ही वहाँ लाया गया था।


अब कोड़े लगाने का काम शुरू होना था। छड़ी वाले पहलवान ने संकेत दिया कि वह तैयार है। एक अफसर स्टेज पर आया। उसने लकड़ी के फ्रेम से माइक्रोफ़ोन को अलग किया और पहले आदमी का नाम सुनाया जिसे कोड़े लगाए जाने थे। उसके बाद उस आदमी पर लगाए जुर्म पढ़कर बताए गए और सुरक्षा गार्ड को उसे स्टेज पर लाने का आदेश दिया गया। दो संतरी उसे पकड़कर स्टेज पर लाए। वह पूरी तरह असहाय लग रहा था। वह काँप नहीं रहा था। वह उस जानवर की तरह लग रहा था जिसे ज़िबह होने के लिए लाया जा रहा है, और जो यह समझ पाने में असमर्थ है कि उसके साथ क्या होने जा रहा है। उसे शब्दों में दिए गए आदेश समझ में नहीं आ रहे थे। आगे चलने का आदेश मिलने के बाद भी वह जहाँ का तहाँ खड़ा था, इसलिए उसे हरकत में लाने के लिए एक संतरी ने उसे आगे धक्का दिया। वह हिला और आगे बढ़ता चला गया। अगर दूसरे संतरी ने थाम न लिया होता तो वह स्टेज के दूसरे सिरे पर जाकर गिर पड़ता। ऐसा लगा जैसे उसके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया है। उसके हाथ और पैर अलग दिशाओं में जा रहे थे। संतरी ने उसे लकड़ी के फ्रेम के बीच में खड़ा कर दिया। अब डॉक्टर ने आकर उसका परीक्षण किया, स्टेथेस्कोप लगाकर उसकी धड़कन की जांच की और उसे कोड़े खाने के लिए ‘फ़िट’ घोषित किया। आदमी ने तटस्थता से घोषणा को सुना जैसे उसका इससे कोई सरोकार न हो, फिर जैसे डॉक्टर की घोषणा पर स्वीकृति देते हुए दो बार सिर हिला दिया। तब तक भीड़ में सन्नाटा छा गया था। आइसक्रीम और फल बेचने वाले भी चुप हो गए थे। संतरियों ने आदमी को उठाकर लकड़ी के फ्रेम तक पहुँचाया और उसके हाथ-पैर चारों ओर फ्रेम से बाँध दिए। उन्होंने कोड़े लगाने का निशाना साधने के लिए एक कपड़े का टुकड़ा उसके कूल्हों पर बांधा। फिर सब एक तरफ़ हट गए। अब सारी आँखें उस पहलवान पर स्थिर हो गईं, जो हवा में अपने कोड़े को बार-बार फटकार रहा था। भीड़ इस कदर शांत थी कि माइक्रोफ़ोन हवा में की गई कोड़े की फटकार को दूर-दूर तक पहुँचा रहा था। तख्ते से बंधा हुआ आदमी अब तक शांत था, पर माइक्रोफ़ोन पर कोड़े की फटकार के स्वर ने उसे एकाएक बदल दिया। वह काँपने लगा और फिर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। लाउडस्पीकर ने उसकी आवाज़ भीड़ तक और भीड़ से पार भी पहुँचाई, पर वह एक शब्द भी नहीं बोला। अब मजिस्ट्रेट ने कोड़े लगाने का आदेश दिया। पहलवान ने आख़िरी बार हवा में कोड़ा आज़माया। फिर वह दौड़ता हुआ आया और मुजरिम से एकाध फुट की दूरी पर खड़े होकर उसने कोड़े का ज़ोरदार वार किया। कोड़ा मुजरिम की त्वचा को भेदता हुआ उसके मांस में धंसा और बाहर आ गया। आदमी दर्द से बेतहाशा चीख़ा। स्टेज पर बैठे हुए लोगों ने उस जगह से ख़ून रिसता हुआ देखा। ‘एक!’ कोड़ों की गिनती करने वाला अफसर बोला। आदमी अब सिसक रहा था और दूर-दूर तक लाउडस्पीकरों पर इसे सुना जा रहा था। पहलवान फिर अपनी जगह पर लौटा और मजिस्ट्रेट के संकेत के साथ ही फिर दौड़ता हुआ आया और दूसरे कोड़े का निशाना फिर उसी जगह पर पड़ा। कोड़ा फिर मांस में धंसा, आदमी असहाय भाव से चिल्लाया, पहलवान पीछे लौटा। यह सिलसिला तब टूटा, जब डॉक्टर ने फिर आकर मुजरिम की जांच की। जांच के बाद उसने कोड़े वाले जल्लाद को काम जारी रखने की अनुमति दी। पंद्रह कोड़ों के बाद जैसे ही संतरी ने आदमी के हाथ-पैर खोले, वह स्टेज पर गिर पड़ा। एक स्ट्रेचर लाकर उसे हटाया गया। अब दूसरे आदमी की बारी थी।

यह मेरे लिए सार्वजानिक कोड़ेबाज़ी का पहला दृश्य था। कई महीनों बाद रावलपिंडी के एक बड़े मैदान में मुझे जाना पड़ा, जहाँ एक अंधी लड़की को यौन दुर्व्यवहार के लिए कोड़ों की सज़ा भुगतनी थी। सैकड़ों लोग उस स्टेज के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े थे, जहाँ उस पर कोड़े बरसाए जाने वाले थे। उस भीड़ में लोगों के चेहरों पर कोई दुःख या संवेदना नहीं थी। कोड़ेबाज़ी का इंतज़ार करते हुए वे राजनीति या स्पोर्ट्स की बातें कर रहे थे। तभी एक पुलिस अफसर आया और उसने घोषणा की कि उच्च अदालत ने उस औरत पर कोड़ों की सज़ा को मुल्तवी कर दिया है। जब उसने लोगों से घर लौट जाने को कहा, तो भीड़ में निराशा और प्रतिरोध के स्वर फैलने लगे। लोग वहाँ मजमा और तमाशा देखने आए थे। उन्हें एक औरत की बेबसी देखनी थी और उसका मज़ा लेना था। सच तो यह है कि मैं भी उनकी निराशा में भागीदार था। हालांकि मैं शुरू से ही सार्वजनिक कोड़ेबाज़ी के ख़िलाफ़ लिखता रहा था, पर मैं भी उस तमाशे को देखने वहाँ गया था। वापस जाकर मैं शायद अपने टाइपराइटर पर बैठकर इसकी भर्त्सना ही करता, पर मैं तमाशा छोड़ना नहीं चाहता था।


अपने बारे में इस दुखद हक़ीक़त को जानकर मुझे काफ़ी तकलीफ़ हुई। साथ ही अपने तथा अपने इस मुल्क के प्रति एक तीख़ी घृणा, गुस्से और अवसाद का भी अहसास हुआ, जो आज भी लगातार मेरे साथ बना हुआ है।      

                                                                                          

‘ग्रांटा’ से साभार

(रचनाकाल 1998)


मूल  अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुधा अरोड़ा

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