1.
नयापन से उकताहट
एक दिन नयापन से भी उकताहट होने लगेगी
रोशनी की चकाचौंध से तंग आकर
कहीं एकान्त को तलाशते हुए लोग
चांदनी रात को याद करते नज़र आएंगे
लोग एक बार फिर से
लौटना चाहेंगे
पुराने दिनों में
वे ढूंढते हुए नज़र आएंगे
गठरी में बांधकर रखी
अपने उन्हीं पुरानी चीजों को
जिसे नये के आकर्षण में
कबाड़ समझकर फेंक दिया था
एक बार फिर से
गठरी से ढूंढकर निकालेंगे
अपने पुराने कपड़े को
जो समय के साथ
थोड़े घिस गए
जिसका रंग थोड़ा फीका पड़ गया
लेकिन जिनमें गरमाहट
अब भी बची हुई थी
ठीक वैसे ही जैसे
पुराने रिश्ते
वर्षों दूर रहकर भी
मोह बांधे रखते हैं।
०००
2.
परिस्थितियां
परिस्थितियां
हर वो बात सिखा देती हैं
जिसे उम्र नहीं सिखा पाती है
भूख
कभी उम्र नहीं देखती है
वह, बचपन में ही उम्रदराज बना देती है
वह सब सिखा देती है
जो हमें रोटी दे सके।
सबने कहा -
अभी तुम्हारी उम्र
बहुत कम है
दुनिया को समझने के लिए
सुनकर वह मुस्कुराया
और कहा-
दुनिया मेरे लिए
सिर्फ एक रोटी है
जो मेरी ज़रूरत भी है
और ज़िंदगी भी।
०००
3.
बेघर हुए लोग
बस्तियां उजड़ गई
शहर को शहर बनाने में
बेघर हुए लोग
मज़बूर हुए
शहर - दर- शहर भटकने को
जाने कितनी ही सांसें टूटी
जाने कितनी ही आसे छूटी।
शहर इतराता
अपने होने पर
उसे मालूम नहीं
वह किसकी कब्र पर
ठाठ से बैठा है
शहर की यह शान- ओ - शौकत
किसी ग़रीब की कर्ज़दार है।
०००
4.
भागते हुए लोग
भागते हुए लोग
जल्दी-जल्दी में
भर-भरकर रख रहे हैं
धूप को
हवा को
मिट्टी को
कल शायद कम न पड़ जाएँ
कल अकाल पड़ेगा
धूप
हवा और
मिट्टी का।
०००
5.
तुम बिन
जब कुछ नहीं था
तो सबकुछ था
तुम थीं
तुम्हारा प्रेम था
जिसने उन सभी रिक्त स्थानों को भर दिया था
जो ख़ाली थे
आज सबकुछ हैं
तो तुम नहीं हो
तुम्हारे प्रेम के बिना तो
सबकुछ अधूरा है।
०००
6
शायद वह लौट आया हो
देर तक
सांकल बजता रहा
गए जो देखने
वहां कोई न था
बाहर सूखी हुई पत्तियां
टूट कर बिखरी हुई थी
जैसे कोई अभी - अभी
वहां से चलकर गया हो
सांकल के बजने की आवाज़
देर तक गूंजती रही कानों में
जैसे कोई मिले बिना ही दूर जा रहे हो
आंखें हर आहट पर अब भी चौंक उठती हैं
शायद वह लौट आया हो ...
०००
7
गृहणी की कविता
हाथ में कलम लेकर
कविता लिखने बैठी ही थी
कि तभी
याद आ जाती है कि
चूल्हा पर अदहन चढ़ाकर भूल आई हूं।
चावल धोकर डाल आई और एक बार फिर से
कलम पकड़ लेती हूं कि तभी
तेज़ आवाज़ आई
भात के खदबदाने की
उठकर मांड़ पसा आई
सोचा,अब लिख लूंगी कि तभी
मांड़ की खुशबू को सूंघते हुए
बढ गई थी भूख, बच्चों की
बच्चे खाते हुए मुस्कुरा रहे थे
उधर कविता रुठकर मुझसे
दूर जा खड़ी हुई
मैंने झांककर देखा
बच्चों की आंखों में
कविता वहीं थीं
बच्चों की पुतलियों संग
आंख-मिचौली खेल रही थी ।
8
गुम होते रिश्तों के नाम
एक दिन
रिश्तों के नाम
गिने - चुने ही बचें रह जाएंगे
नई सोच
थोड़ा देकर
कितना कुछ छिनती जा रही है
संवेदनाएं छीजती जा रही है
हम खुश हैं या भरमायें हुए हैं इस चकाचौंध से ?
अंधेरा तेजी से अपना पांव पसारता जा रहा है
बच्चे उदास हैं
चुप -चुप से रहते हैं
शायद अकेलेपन के शिकार हैं
उसके साथ नहीं रहती है नानी या फिर दादी
जो उसको दुलारती , किस्से सुनाती
उसके साथ नहीं रहते हैं चाचा ,बुआ या फिर मामा, मौसी
जो उन्हें रिश्तों की गहराई का अहसास कराते
बाहर धूप फैली है मरियल सी
बच्चे पार्क के आखिरी बेंच पर बैठकर
इंतज़ार करते हैं
मम्मी - डैडी के घर लौटने का।
०००
9
वो तुम थीं
जीवन के मुश्किल दौर से गुजरते हुए
जब सबके सवालों से
घिरा हुआ मैं
ख़ुद को बेबस और
लाचार समझ रहा था
उस समय
वो तुम थीं
जिसने
सिर्फ मेरी आंखों को पढा़।
०००
10
नेमप्लेट
बड़े ही शौक से हम
जिस घर को सजाते रहे
किसीने आकर
बड़े ही रोब से कह दिया
इस घर की ईंटें तुम्हारी नहीं,
इस घर की मिट्टी तुम्हारी नहीं
घर के बाहर नेमप्लेट में लिखा
नाम भी तुम्हारा नहीं
यह घर तुम्हारा नहीं है
मैंने समेटना चाहा
वहां से अपना सामान
मेरी झोली में उस घर का
मिट्टी की खुशबू थीं
और कुछ यादें
ता -उम्र जिन्हें मैं संभालें रहा।
०००
11
टूटना
सबने कहा कि
टूटने पर
आवाज़ तो होगी ही
मैंने उसकी ओर देखा जो
कई बार टूटी थीं
बे- आवाज़।
किसीको उसकी आवाज़
सुनाई नहीं दी ।
०००
परिचय
जन्म - 10 मार्च, सहरसा, बिहार
शिक्षा - एम.ए ,नेट
पी.एच.डी( अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)
कुछ प्रकाशित रचनाएं -
कादंबनी, मधुमती ,अभिनव- प्रत्यक्षा, ककसाड़ , आलोक पर्व
अरण्य - वाणी, रचना - उत्सव, सदीनामा, जनसंदेश टाइम्स, परिवेश- मेल, सांदीपनी आदि कई पत्र - पत्रिकाओं में, हिन्दवी आदि वेबसाइट पर तथा कई साझा काव्य - संग्रह में कविताएं प्रकाशित।
अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई वंदना जी, अच्छी कविताएं हैं
जवाब देंहटाएं