आज समूह के साथी की चार कविताएं दे रहे हैं। आप पढ़े व प्रतिक्रिया अवश्य दें।
1
॥प्रकृति की परीक्षा॥
हजारों सदियों से ले रही है,
प्रकृति अपनी अनोखी परीक्षा।
सब जीव जन्तुओं के लिए,
हमेशा, एक सी, अनवरत सदा।
मानव प्रजाति के अस्तित्व के लिए भी
प्रकृति_परीक्षा का उत्तीर्णनांक है, तयशुदा।
तक़रीबन पचास प्रतिशत नर,
और लगभग पचास प्रतिशत मादा।
वे अनुतीर्ण हैं आज, या होंगे कल,
जो कन्या भ्रूण हत्या कर पा रहे हैं 'थोथी प्रवीणता'।
उन्हें नहीं मालूम इस परीक्षा का अनोखापन
जिसमें उत्तीर्ण और प्रवीण होना नहीं है अलहदा।
2
॥ संबंधों का सुख ॥
कितना मुश्किल होता है,
अपनों से अपनों को तौलना।
नातों से स्वतंत्रता की उड़ानों को रोकना।
या रिश्तों के गुंथे कपड़ों पर,
कैंची चलाना।
बहुत दुश्वार होता है होंठों को सी रखना,
तब जबकि आँखें डबडबा कर
कहने को हों आतुर, सब कुछ।
सच जब बनाता है अपने
अनेक प्रतिबिम्ब,
बड़ा पीड़ादायी होता है
एक चुनना वस्तुनिष्ठ।
जितना कुछ चाहा जिंदगी से,
अभी तक पाया है भरपूर,
समझ नहीं आता अब कतरा_ कतरा
क्यों कर छिन रहा है संबंधों का सुख?
इसलिए तो नहीं कि घर की अवधारणा
अब वह नहीं रही,
जो मैंने जानी भोगी थी बचपन में कभी।
कि तेज रफ़्तार जिंदगी ने बदल दी है
संबंधों की परिभाषा ,
आजकल में अभी अभी।
कि अब ब्लड रिलेशन से ज्यादा
ताकतवर बन पड़े हैं
स्वार्थ पैसा और स्टेटस के बंधन।
कि सिर्फ दर्शना रह गया है
खो चुका है जीवन दर्शन।
3
॥ शुभ दीपावली ॥
अपना दर तो साफ स्वच्छ
और गली के मुहाने पर कचरे का स्तूप .
कौन जाने उसी मोड़ से आती हो
लक्ष्मी छम-छम .
क्या पता उसी के पाँव चुभ जाए
काँच की किरच कोई,
उलछ जाए पोलिथीन के ढेर में
पद्मा की पायल कहीं.
अपना घर तो दमकता चमकता
और आसमान में रचता आतिशी धुआं.
कौन जाने उसी रास्ते से अवतरित हो
चंचला छम-छम
क्या मालूम चिरमिरा उठें
धूम्र से उसके नयन,
दूभर हो जाए विषाक्त होती हवा में
चपला का साँस लेना.
आओ इस दीवाली एक बीड़ा उठाएँ
श्रिया की अगवानी में
संरक्षित करें पर्यावरण,
बुहार दें प्रदुषण.
कौन जाने चुनने चली हो क्षीरजा
भारत को अपना इस सदी का घर
हो मंगल धरती, मंगल दीवाली
और सुनें हम सुमंगला की छम-छम !
4
॥ इंद्रधनुष ॥
चौथे पहर
किरण ने कहा पानी से,
आओ खेलें खेल .
अनमने पानी ने टाला,
आज नहीं कल सही .
किरण तो ठहरी
किरण.
उर्जा से भरी
समय की मुंह लगी,
वह कहाँ थी मानने वाली .
लगी आग पानी में
बूँद-बूँद, अणु-अणु,
पानी पानी न रहा
बन गया इन्द्रधनुष .
कोण कोण रंग छिटकाता
सतरंगा इन्द्रधनुष!
और किरण?
दुबक गई मासूम बच्ची-सी
पानी की ही किसी बूँद में .
दिशाएँ बोलीं
अद्भुत है,अद्भुत !
हवा ने जोड़ा
सचमुच बेजोड़ !
दिन ने गर्दन हिला
भरी हामी !
और धीरे से मुस्कुराया सूरज
बीती रात
चाहत ने कहा तन से,
आओ खेलें खेल .
अलसाते बदन ने टाला,
अभी नहीं फिर कभी .
चाहत तो ठहरी
चाहत .
ऊष्मा से भरी
दिल की मुंह लगी ,
वह कहाँ थी मानने वाली .
लगी आग तन में
रेशा रेशा , कोष कोष ,
तन तन न रहा
हो गया इन्द्रधनुष .
साँस-साँस प्यार महकाता
रति रंगा इन्द्रधनुष !
और चाहत?
दुबक गई मासूम बच्ची-सी
पलकों की ही कोर तले .
दिशाएँ फिर बोलीं
अद्भुत है, अद्भुत !
हवा ने जोड़ा पुन :
सचमुच बेजोड़ !
रात ने गर्दन हिला
भरी हामी !
और मंद मंद मुस्कुराया चाँद !
000 किसलय पंचौली
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टिप्पणियाँ:-
अनुप्रिया आयुष्मान:-
संबंधो का सुख
बहुत ही अच्छी लगी मुझे।ये एक भावना लिए है और पारिवारिक जीवन के यथार्थ को दर्शाती हैं ।
प्रकृति की परीक्षा
इस कविता में ये लाइन बहुत अच्छी लगी की
वे अनुतीर्ण हैं आज, या होंगे कल,
जो कन्या भ्रूण हत्या कर पा रहे हैं 'थोथी प्रवीणता'।
इंद्रधनुष
भी बहुत अच्छी लगी मुझे।
ब्रजेश कानूनगो:-
कोशिश करते रहेंगे तो निखार आएगा।अभी बहुत अभ्यास और कविता के बारे में अध्ययन मदद करेगा।शुभकामनाएं।
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