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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अक्टूबर, 2015

ग़ज़ल : मुग़ल बादशाह बहादुर शाह 'जफ़र'

अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह 'ज़फ़र'(1775-1862) के बारे में हम सभी ने पढ़ा-सुना है; उन्होंने अंग्रेजों का खुला विरोध किया, क्रांतिकारियों का समर्थन किया, फल-स्वरूप अपने परिवार-जनों को गँवाया, देश से निकाले गए, बाक़ी ज़िन्दगी बर्मा(म्याँमार) के रंगून में नज़र-बंदी में गुज़ारी, वहीँ इन्तेक़ाल हुआ और आज उनका मज़ार देखने लोग वहाँ जाते हैं। इन्हें क्लासिकल उर्दू शायरी इतिहास के सबसे बढ़िया शायरों में गिना जाता है। ये महान शायर शेख़ इब्राहीम 'ज़ौक़' के शागिर्द थे। ग़ज़लगोई का अनूठा अंदाज़, मुहावरों पर ग़ज़ब की पकड़ और नाना प्रकार के शब्दों का बेहतरीन इस्तेमाल ऐसी ख़ासियतें हैं जो इनको दूसरे शायरों से अलग करती है। आज इनकी ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक) पढ़कर आप ख़ुद इस बात का अंदाज़ा लगाएँ और टिप्पणियाँ दें:

1.
नहीं इश्क़ में इसका तो रंज हमें कि शकेब-ओ-क़रार ज़रा न रहा
ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा, कोई और बला से रहा न रहा
(रंज - दुःख; शकेब-ओ-क़रार - सब्र और आराम; ग़म-ए-इश्क़ - इश्क़ का ग़म; रफ़ीक़ - साथी)

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर, रहे देखते औरों के ऐब-ओ-हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा
(ऐब-ओ-हुनर - बुराइयाँ और अच्छाइयाँ)

'ज़फ़र' आदमी उसको न जानिएगा, हो वो कैसा ही साहिबे-फ़हमो-जक़ा
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही, जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा
(साहिब-ए-फ़हम-ओ-जक़ा - ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्ति)

2.
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
(दयार - क्षेत्र/इलाका; आलम-ए-ना-पाएदार - नश्वर संसार)

कह दो इन हसरतों को कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
(हसरतें - इच्छाएँ; दिल-ए-दाग़-दार - ज़ख़्मी दिल)

उम्र-ए-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तेज़ार में
(उम्र-ए-दराज़ - दीर्घ आयु; आरज़ू - ख़्वाहिश)

काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़-बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
(चमन - बाग़; बाग़-बाँ - माली/बाग़ की देख-भाल करने वाला)

बुलबुल को बाग़-बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ले-बहार में
(सय्याद - शिकारी; फ़स्ल-ए-बहार - बहार का मौसम)

दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गयी
फैला के पाँव सोएँगे कुंज-ए-मज़ार में
(कुंज-ए-मज़ार - क़ब्र)

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कू-ए-यार में
(कू-ए-यार - प्रियतमा की गली)

3.
टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार-पाँच
सुर्ख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार-पाँच
(सुर्ख़ाब - लाल पंख वाला एक पक्षी)

मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार-पाँच
फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार-पाँच
(बिस्मिल - जान न्यौछावर करने वाला प्रेमी; बोसा - चुम्बन; ख़ंजर-ए-क़ातिल - क़ातिल का ख़ंजर)

दो-चार लाशें अब भी पड़ी तेरे दर पे हैं
और आगे दब चुकी हैं तले गिल के चार-पाँच
(दर - दरवाज़ा; आगे - पहले; गिल - मिट्टी)

दो-तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार-पाँच
(जूँ - ज्यों; वहशत - अकेलेपन का एहसास; ज़िंदाँ - क़ैदख़ाना/जेल; सलासिल - ज़ंजीर)

फ़रहाद-ओ-क़ैस-ओ-वामिक-ओ-अज़रा थे चार दोस्त
अब हम भी आ मिले तो हुए मिल के चार-पाँच
(फ़रहाद, क़ैस, वामिक, अज़रा - चार लोग जिनके नाम प्रेमकथाओं में मशहूर हैं)

नाख़ूँ करे है ज़ख़्मों को दो-दो मिला के एक
थे आठ-दस सो हो गए अब छिल के चार-पाँच
(नाख़ूँ - नाख़ून)

गर अंजुम-ए-फ़लक़ से भी तादाद कीजिए
निकलें ज़ियादा दाग़ मेरे दिल के चार-पाँच
(अंजुम-ए-फ़लक़ - आकाश के तारे; तादाद - गिनती)

मारें जो सिर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस-पाँच टुकड़े सिर के हों और सिल के चार-पाँच
(क़लक़ - बे-चैनी; सिल - पत्थर जिस पर चटनी आदि पीसी जाती है)
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तीनों ग़ज़लें क्रमशः इनके फ़लसफ़े(philosophy), निजी ज़िन्दगी और इनके फ़न(कला/रचनात्मकता) से जोड़कर पढ़ें तो आप इनकी शायरी को और भी अच्छी तरह से समझ पाएँगे।

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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
सुबह की सार्थक शुरआत।
तीनों ही ग़ज़लें उम्दा। किसकी बनी है आलम ए ना पायदार में। वाह।
शुक्रिया फरहत जी।

अनुप्रिया आयुष्मान:-
तीनों गज़ले बहुत ही अच्छी है ।
एक एक लाइन दिल को छु रही है ।
शुक्रिया इसकी प्रस्तुति के लिए।।

सुषमा अवधूत :-
N thi hal Ki.........to nigah main koi bura n raha,    sabhi gajle ek se badhakar ek, wah kya bat hai ,bahut bahut dhany

मनीषा जैन :-
ऊपर की दोनों ग़ज़ल बहुत ही बेहतरीन।
पड़ी अपनी बुराइयों जो नज़र तो निगाह में कोई न मिला....बहुत उम्दा
बुरा जो देखन मैं चला बुरा मिला न कोय
जो घर झांकौ आपना मुझसे बुरा न कोय।

फ़रहत अली खान:-
आज की ग़ज़लें मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़लों में से हैं।

पहली के दूसरे और तीसरे अशआर बेहतरीन फ़लसफ़े पर आधारित हैं। तीसरा शेर हासिल-ए-ग़ज़ल है।

दूसरी ग़ज़ल इनके जीवन का आईना है। ज़रा तसव्वुर कीजिये कि कोई शख़्स तमाम अपनों को खोकर अपने देश से दूर पराए देश में निर्वासन की ज़िन्दगी जी रहा हो, उम्र का आख़िरी पड़ाव हो और वापसी की कोई सूरत न दिखाई देती हो तो उसके ज़ेह्न में क्या चल रहा होगा। इस ग़ज़ल को पढ़कर आप उनकी ये कसक महसूस कर सकते हैं। ग़ज़ल का तीसरा और आख़िरी शेर बेहद मशहूर हुए। कई गायकों ने इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी।

तीसरी ग़ज़ल का ज़रा रदीफ़ तो देखें- 'चार-पाँच'। इस रदीफ़ पर ग़ज़ल कहना अपने आप में एक कमाल है। साथ ही इसमें प्रयुक्त शब्दों की रेंज भी देखें- 'नाख़ून', 'सिल', 'गिल' से लेकर 'सुर्ख़ाब' तक। एक-एक शेर दिल-फ़रेब है। अगर कोई आपसे पूछे कि 'नाख़ून' पर कोई शेर सुनाईये तो इसका छठा शेर सुना दें, ख़ुश हो जायेगा। इसके अलावा दूसरा, चौथा, पाँचवाँ, सातवाँ और आठवाँ शेर भी बढ़िया हैं। ये ग़ज़ल शायर के फ़न और रचनात्मकता को दर्शाती है।

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