आज पढ़ते हैं लेखको व ब्लाॅगरो की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले महत्वपूर्ण कवि अशोक वाजपेयी की कविताएं। कविता पर अपने विचार अवश्य रखें।
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प्रेम के लिए जगह
उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई
बुहार कर अलग कर दिया तारों को
सूर्य-चन्द्रमा को रख दिया एक तरफ
वनलताओं को हटाया
उसने पृथ्वी को झाड़ा-पोंछा
और आकाश की तहें ठीक कीं
उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनाई
मौत की ट्रेन में दिदिया
ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग
बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही
उतरने और न ही कहीं अंदर
बैठने की जगह पाने की उम्मीद में
बिना उम्मीद के इस सफर में
दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी
या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी
और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं
दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके
न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई
कहीं सीट पर
बरसों पहले आई कुछ महीनों की बहन भी है
जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफेद दाढ़ीवाले
मंत्र बुदबुदाते बाबा भी
न कोई नाम है न संख्या न रंग
सब एक दूसरे से बेखबर हैं और बेसामान
न ट्रेन के रुकने का इंतजार है न किसी के आने का
नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते
जूनू डुल्लो दूबी चिंकू
उस ट्रेन की किसी खिड़की से
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?
अधपके अमरूद की तरह पृथ्वी
खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी।
पृथ्वी को ढोकर
धीरे--धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ।
अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू।
एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिए है
मेरी बेटी।
अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
युवा जंगल
एक युवा जंगल मुझे,
अपनी हरी पत्तियों से बुलाता है।
मेरी शिराओं में हरा रक्त बहने लगा है
आँखों में हरी परछाइयाँ फिसलती हैं
कंधों पर एक हरा आकाश ठहरा है
होंठ मेरे एक हरे गान में काँपते हैं :
मैं नहीं हूँ और कुछ
बस एक हरा पेड़ हूँ
– हरी पत्तियों की एक दीप्त रचना!
ओ युवा जंगल
बुलाते हो
आता हूँ
एक हरे बसंत में डूबा हुआ
आऽताऽ हूँ...।
पूर्वजों की अस्थियों में
हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं-
हम उठाते हैं एक शब्द
और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य-विन्यास
विचलित होता है,
हम खोलते हैं द्वार
और आवाज गूँजती है एक प्राचीन घर में कहीं -
हम वनस्पतियों की अभेद्य छाँह में रहते हैं
कीड़ों की तरह
हम अपने बच्चों को
छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास
काम पर जाने के पहले
हम उठाते हैं टोकनियों पर
बोझ और समय
हम रूखी-सूखी खा और ठंडा पानी पीकर
चल पड़ते हैं,
अनंत की राह पर
और धीरे-धीरे दृश्य में
ओझल हो जाते हैं
कि कोई देखे तो कह नहीं पाएगा
कि अभी कुछ देर पहले
हम थे
हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं
विश्वास करना चाहता हूँ
विश्वास करना चाहता हूँ कि
जब प्रेम में अपनी पराजय पर
कविता के निपट एकांत में विलाप करता हूँ
तो किसी वृक्ष पर नए उगे किसलयों में सिहरन होती है
बुरा लगता है किसी चिड़िया को दृश्य का फिर भी इतना हरा-भरा होना
किसी नक्षत्र की गति पल भर को धीमी पड़ती है अंतरिक्ष में
पृथ्वी की किसी अदृश्य शिरा में बह रहा लावा थोड़ा बुझता है
सदियों के पार फैले पुरखे एक-दूसरे को ढाढ़स बँधाते हैं
देवताओं के आँसू असमय हुई वर्षा में झरते हैं
मैं रोता हूँ
तो पूरे ब्रह्मांड में
झंकृत होता है दुख का एक वृंदवादन –
पराजय और दुख में मुझे अकेला नहीं छोड़ देता संसार
दुख घिरता है ऐसे
जैसे वही अब देह हो जिसमें रहना और मरना है
जैसे होने का वही असली रंग है
जो अब जाकर उभरा है
विश्वास करना चाहता हूँ कि
जब मैं विषाद के लंबे-पथरीले गलियारे में डगमग
कहीं जाने का रास्ता खोज रहा होता हूँ
तो जो रोशनी आगे दिखती है दुख की है
जिस झरोखे से कोई हाथ आगे जाने की दिशा बताता है वह दुख का है
और जिस घर में पहुँचकर, जिसके ओसारे में सुस्ताकर, आगे चलने की हिम्मत बँधेगी
वह दुख का ठिकाना है
विश्वास करना चाहता हूँ कि
जैसे खिलखिलाहट का दूसरा नाम बच्चे और फूल हैं
या उम्मीद का दूसरा नाम कविता
वैसे ही प्रेम का दूसरा नाम दुख है।
जन्म
16 जनवरी 1941, दुर्ग (म. प्र.)
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कविता, आलोचना, वैचारिकी
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह
शहर अब भी संभावना है, एक पतंग अनंत में, अगर इतने से, जो नहीं हैं, तत्पुरुष, कहीं नहीं वहीं, घास में दुबका आकाश, तिनका तिनका, दु:ख चिट्ठीरसा है, विवक्षा, कुछ रफू कुछ थिगड़े, इबारत से गिरी मात्राएँ, उम्मीद का दूसरा नाम, समय के पास समय, अभी कुछ और, पुरखों की परछी में धूप, उजाला एक मंदिर बनाता है
¤ आलोचना
फिलहाल, कुछ पूर्वग्रह, समय से बाहर, कविता का गल्प, सीढ़ियाँ शुरू हो गई हैं, पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज, कभी कभार, बहुरि अकेला
¤ संपादन
बहुबचन, समास, पूर्वग्रह, कविता एशिया (सभी पत्रिकाएँ), तीसरा साक्ष्य, कुमार गंधर्व, प्रतिनिधि कविताएँ (मुक्तिबोध), पुनर्वसु, निर्मल वर्मा, टूटी हुई बिखरी हुई (शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं का एक चयन), कविता का जनपद, जैनेंद्र की आवाज, परंपरा की आधुनिकता, शब्द और सत्य, सन्नाटे का छंद (अज्ञेय की कविताएँ), पंत सहचर, मेरे युवजन मेरे परिजन, संशय के साए (कृष्ण बलदेव वैद संचयन)
¤ अनुवाद
जीवन के बीचोंबीच (पोलिश कवि तादेऊष रूजेविच की कविताओं का अनुवाद), अंत:करण का आयतन (पोलिश कवि ज्बीग्न्येव हर्बेर्त की कविताओं का अनुवाद), खुला घर (चेश्वाव मीवोष की कविताओं का अनुवाद),
¤ सम्मान
दयावती मोदी कवि शिखर सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कबीर सम्मान, आफ़िसर ऑव द आर्डर आव आर्ट्स एंड लेटर्स (फ्रांस सरकार), आफ़िसर ऑफ द ऑर्डर ऑव क्रॉस (पोलिश सरकार), भारत भारती सम्मान
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हिन्दी समय से साभार
प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-
प्रदीप मिश्र:-
Mujhey to ashok jee ki kavitayen hamesha hee ausat lagateen hain. Unka gadhya jyada prabhav shalee hai. Pradeep mishra.
Hindi mein sausat se kam bahut saare hain. Aur hamesha hee aisa raha hai. Yah meree pasand aur samajh ki baat hai.isliye mere kahane se kavitayen ausat ya badee naheen ho jayengee. Yah to samagra pathak varg ke nirnay par tay hota hai.
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