आज पेश-ए-नज़र हैं वर्तमान उर्दू ग़ज़ल की पहचान माने जाने वाले और हर-दिल-अज़ीज़ शायर वसीम बरेलवी साहब(जन्म-1940) की चार ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक);
पढ़कर साथी अपनी-अपनी टिप्पणियाँ दें:
1.
अपने हर-हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे, तुमने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा
(मसअला - मस्ला/समस्या)
मुझको चलने दो, अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ए-वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बे-वफ़ा हो जाऊँगा
(अहद-ए-वफ़ा - वफ़ा का वादा)
2.
उसूलों पे जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुद-मुख़्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है, कहाँ जाना ज़रूरी है
(ख़ुद-मुख़्तारी - स्वच्छंदता/पूरी आज़ादी)
थके-हारे परिन्दे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
(सलीक़ा-मंद - सभ्य/शिष्ट/संस्कारी)
बहुत बे-बाक आँखों में तअल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
3.
अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे
घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएँ कैसे
(तसव्वुर - कल्पना)
क़हक़हा आँख का बर्ताव बदल देता है
हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आएँ कैसे
कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे तो समुन्दर नज़र आएँ कैसे
4.
कौन सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे, देख न पाए दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होठों से हँसी जाती है
क़र्ज़ का बोझ उठाए हुए चलने का अज़ाब
जैसे सिर पर कोई दीवार गिरी जाती है
(अज़ाब - कष्ट/यातना)
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समुन्दर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-
अनुप्रिया आयुष्मान:-:
वाह
मैं हमेशा यही कहती हूँ की
दिल खुश हो गया पढ़कर
पर वाकहि मैं खुश हो जाती हूँ ऐसी गज़ले पढकर ।।
सारी गज़ले बहुत ही अच्छी है और सबसे ज्यादा जो मुझ तक पहुंची वो ये लाइन है कि...
सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है खुदा है तो नज़र आना जरुरी है ।
बहुत बहुत शुक्रिया ऐसी बेहतरीन प्रस्तुति के लिए
रूपा सिंह :-
जो जिन्दा हो तो जिन्दा नज़र आना जरुरी है...रास्ता रोका गया तो काफ़िला हो जाऊंगा....क्या कहने।बहुत खूब जी।
Manchanda Pani:-
पहले दो ग़ज़ल जगजीत सिंह ने गायी हैं। इसी सप्ताह 10 अक्टूबर को उनकी चौथी पुण्यतिथि थी। अच्छा लगा इन ग़ज़लों को आज यहाँ पढ़कर। शुक्रिया।
अल्का सिगतिया:-
फ़रहत जी जीवन का सच बयाँ करती। ग़ज़लें। एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने .............सच कभी कुछ। कह ना पाऊँ पर यह समूह कितना कुछ सिखाता ।
वसुंधरा काशीकर:-
क्या बात है फ़रहतजी। आज तो जी ख़ुश हो गया। क्या ग़ज़ले है। अपने चेहरे से जो जाहीर है जगजीत सिंग साहब की आवाज़ से सुनी थी। पर बाकी ग़ज़ले भी बहुत बढ़िया। कम बार एेसा होता है सभी की सभी ग़ज़ले और अशआर पसंद आये। आज ये हुआ है। बहुत बहुत शुक्रिया फरहतजी।
शिशु पाल सिंह:-
हरदिल अज़ीज शायर डा वसीम बरेलवी साहब का अपना अलग ही अंदाज़ ए बयां है।बात की गहराई तक जाकर सरल शब्दों में कहना उनकी खासियत है। उनकी किसी ग़ज़ल की पसंदगी या नापसंदगी का कोई मामला ज़ेहन में नहीं उतरता।मैंने उनको बहुत सुना है। फरहत जी का बहुत बहुत शुक्रिया।
फ़रहत अली खान:-
रेनुका जी, मीत जी, गरिमा जी, अनुप्रिया जी, रूपा जी, मनचंदा जी, सुषमा जी, सुवर्णा जी, सुरेन्द्र जी, अल्का जी;
आपकी पुर-ख़ुलूस हौसला-अफ़ज़ाई और सार्थक टिप्पणियों के लिए धन्यवाद।
मेरी कोशिश यह रहती है कि चयन में विविधता के साथ गुणवत्ता बरक़रार रहे।
इसीलिए कई बार पुरानी और बहुत पुरानी ग़ज़लें लाने की कोशिश करता हूँ तो कई बार नई और आसान ज़ुबाँ की ग़ज़लें।
आपको पसंद आयीं तो मुझे अच्छा लगा।
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