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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अक्टूबर, 2015

जयश्री रॉय की कहानी : कस्तूरी मृग

आज प्रस्तुत है जय श्री राॅय की कहानी। आप पढ़े और जरूर  बताएं कैसी लगी ?

जय श्री राॅय

कस्तूरी मृग

फिर झगड़ा- रोज़ की तरह! सर गरम हो गया है. कनपटियों की नसें धड़क रहीं हैं बेतरह. लग रहा है खिंचकर तड़क जायेंगी. एक कप चाय मिल जाती तो... नहीं! अब अनन्या से कोई बात नहीं हो सकती. मैं स्टडी में आकर अपने पीछे ज़ोर से दरवाज़ा बंद करता हूं और दीवान पर ढह पड़ता हूं. बहुत थकान है. शारीरिक से अधिक मानसिक! नफ़रत हमें छीज कर रख देती है. कब तक बना रह पाऊंगा इस तरह से रात-दिन सुलग कर! नसों में खून स्याही हो गया है. अब सिगरेट की तलब हो रही है. सिगरेट सुलगा कर खिड़की से बाहर देखता हूं- आषाढ़ की एक तेज़ी से गिरती हुई शाम, अनवरत बरसती हुई बूंदों के शोर में एकदम मौन. लगातार का कोलाहल भी अंतत: मौन ही बन जाता है! भीतर कुछ मथ रहा है. एक भंवर, क्रमश: गहराता हुआ. बरसते हुये पानी की घनी स्लेटी चादर के उस पार अब कुछ भी नहीं दिख रहा. रात पसर रही है तेज़ी से. मुझे घबराहट-सी होती है. टाई की गिरह ढीली करता हूं. कितनी ऊमस हो रही है. कुछ सोचना नहीं चाहता, मगर भीतर बवंडर है. इसी तरह जाने कितना समय बीता था. आज फिर कुछ लिखना-पढ़ना हो नहीं पायेगा. समय, उर्जा की बर्बादी. जाने कब से!

लैपटॉप ऑन करता हूं, यूनिकोड की फाईल खोल कर ’जनमत’ के लिये लिखे जाने वाले अपने लेख को पूरा करना चाहता हूं. सम्पादक ने कई बार रिमाइंडर भिजवाया है, मगर... बैठा रह जाता हूं! लैपटॉप का स्क्रीन देर तक चमकने के बाद बुझ जाता है. भीतर ग्लानि है, दुख है, मगर हाथ नहीं चलते. कुछ अच्छा नहीं लगता इन दिनों. सबसे असम्पृक्त-सा हो चला हूं. एक गहरी विरक्ति! भीतर सब कुछ धूसर, मटमैला हो गया है. कहीं कुछ साफ, उजला नहीं बचा है. उस दिन प्रोफेसर जावेद कह रहे थे, तुम पर कोई आसेब उतरा है सलिल! पतझड़ की तरह ज़र्द दिख रहे हो. डिप्रेशन में हो. कुछ करो. उनकी बात सच थी, मगर मैं क्या करता! जानता हूं इस तरह एक दिन किसी घुन खाये दरख़्त की तरह गिर पड़ूंगा!

दूर पुल पर गुज़रती ट्रेन की धरधराहट बारिश की आवाज़ को चीरती हुई यहां तक पहुंच रही है. सात बज गये होंगे. मैं अपनी घड़ी देखता हूं. नहीं, साढ़े सात! यह ट्रेन कभी समय पर नहीं आती. शादी से पहले कॉलेज के दिनों में जब हम छिप कर मिलते थे, इस ट्रेन को कई बार पुल से गुज़रती हुई देखते थे. चमकती खिड़कियों की एक-दूसरे के पीछे तेज़ी से भागती कतार... तब ज़िन्दगी की हर बात में अर्थ, रोमांच हुआ करता था! हम अपने भीतर से ही कब इस तरह बीत जाते हैं... सोच कर हैरत होती है.

बगल का कमरा बिल्कुल ख़ामोश है. अनन्या दो घंटे से दरवाज़ा बंद किये अंदर पड़ी है. इस तरह उसका दम नहीं घुटता! कितनी बदल गई है वह! पहले कभी दो पल भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थी! अब उसे देख कर लगता नहीं उसे कभी जानता था. पहले लगता था, उसे खुद से ज़्यादा जानता हूं. उसके शरीर की लाल-नीले तिल की तरह उसके मन की छोटी-छोटी गांठें, ग्रंथियां, भय, असुरक्षा, सपने... उसकी नज़र की चुप्पी पढ़ लेता था, झिझक समझ लेता थ, मान-अभिमान भी... वह भी तो समझती थी मुझे- 'इतना मुस्कराने से अच्छा है तुम रो ही लो, यू विल फील बेटर! नीड नॉट प्रीटेंड...' अब... क्या हो गया है! हम दोनों रात-दिन चिल्लाते हैं मगर अपनी बात एक-दूसरे तक नहीं पहुंचा पाते. इतने सारे शब्द, भाषा सब व्यर्थ! अब समझ में आता है, हर चीज़ को अर्थ हमारी भावनायें देती हैं. बिना अर्थ के शब्द खाली शंख-सीपियां हैं. मन नहीं तो कुछ नहीं, मै करवट बदलकर ख़त्म होती सिगरेट से दूसरी सिगरेट जलाता हूं. बुझी हुई सिगरेट ऐस ट्रे में डालते हुये मेज़ पर रखी तस्वीर पर नज़र पड़ती है- हमारी शादी की तस्वीर! कितने खुश दिख रहे हैं हम दोनों! अनन्या का चेहरा दिप रहा है. मेरे चेहरे पर भी दुनिया जीत लेने का-सा भाव है. खुद से रश्क़ होता है. काश ख़ुशी को पालतू बनाया जा सकता. यहां कोई फलसफा, कोई थ्योरी काम नहीं आया. सारी साइकॉलॉजी, कौंसिलिंग धरी की धरी रह गई. स्टुडेंस को लेक्चर देता रहता हूं, पत्रिकाओं में पाठकों के सवालों के जवाब देता हूं... और खुद! ज़िंदगी में क़िताब की बातें काम नहीं आतीं.
लेटा-लेटा सुनता हूं, अनन्या ज़ोर से दरवाज़ा खोल कर पैर पटकती हुई बाथरुम गई. थोड़ी देर बाद उसी अंदाज़ में बेडरुम में वापस आ गई. दरवाज़े की तेज़ आवाज़ जैसे मेरी कनपटियों पर हथौड़े बरसाती है. गुस्सा अंदर एक घुमेड़ की तरह उठता है. ये रोज़-रोज़ के नाटक... आज किस बात पर झगड़ रही थी? अब मुझे याद भी नहीं. बात कहीं से भी शुरु हो, झगड़े पर ही आकर ख़त्म होती है. महीने भर से तो फेसबुक को लेकर ही सर खाये जा रही है- रमिता की तस्वीर पर वैसा कमेंट क्यों किया, उस लेखिका को फ़्रेंड रिक्वेस्ट क्यों भेजा, कल रात किससे चैट कर रहे थे... शक करने की भी हद होती है! मैंने गुस्से में आकर अपना फेसबुक अकाउंट ही डिएक्टिवेट कर दिया था. साथ ही फोन भी चलती गाड़ी से दूर फेंक दिया था. भीतर की शिकायतें, गुस्सा जाने किन-किन बातों में निकलतें है! बस कोई कमज़ोर सतह मिल जाये अंदर की ज्वालामुखी को फूटने के लिये!

मगर फोन के बिना एक दिन भी नहीं चला. कल ही नया स्मार्ट फोन खरीद लाया था. साथ नया सिम कार्ड भी. मगर झगड़े के चक्कर में नये फोन की बात भूल ही गया था. ख़्याल आते ही उठकर फोन पैकेट से निकाल कर देखा था. सिम दूकानदार ने फोन में डाल दिया था. कहा था २४ घंटे में एक्टीवेट हो जायेगा. फोन को देखते हुये मैं कुछ देर के लिये सब भूल गया था. जी मेल में अपना अकाउंट खोल प्ले स्टोर से एक-एक कर बहुत सारे ऐप्स डाउन लोड किये थे. व्हाट्स अप भी! व्हाट्स अप एकदम नया है मेरे लिये. इन दिनों अक़्सर लोग पूछते हैं- आप व्हाट्स अप पर हैं क्या? थोड़ी देर ऊहापोह में रहकर मैंने फेसबुक भी इन्स्टॉल किया था. क़सम खाई थी अब कभी फ़ेसबुक का मुंह नहीं देखूंगा, मगर किसी चीज़ की लत इतनी आसानी से कहां छूटती है! अनन्या के ताने याद करते हुये मैंने झिझक के साथ फर्ज़ी नाम से एक नया अकाउंट खोल लिया था. असली दुनिया में तो उससे निस्तार नही, कम से कम आभासी दुनिया में कुछ शांति रहे! इस बार पुराने फ़्रेड लिस्ट से कोई नही! सर्च में जा कर नये प्रोफाईल देखते हुये एक स्टेटस पर नज़र ठहर गई थी- 'स्नेह-निर्झर बह गया है, रेत ज्यों तन रह गया है.' मेरी प्रिय पंक्तियां,  निराला की. प्रोफाइल में किसी इन्सान की तश्वीर नहीं, बस एक अधखिला गुलाब- ओस में भीगा, हल्का पीला. उस तश्वीर को देख कर जाने मुझमें क्या घटा था. अपने घर के सामने छोटे-से गार्डन में खिलने वाले रंग-बिरंगे गुलाबों का ख़्याल आया था. शरद की सुबह इसी तरह ओस में भीगे. धूप में झिलमिलाते हुये. नाम अनामिका अनाम!

मैंने ’हाय’ लिखा था. कोई जवाब नहीं आया था. थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद मुझे चिढ़-सी हुई थी. लगता है किसी नकचढ़ी औरत का अकाउंट है. फोन का फ्लैप बंद करने ही जा रहा था कि स्क्रीन पर शब्द चमके थे-नमस्ते, वह भी हिन्दी लिपि में. मैंने भी जवाब में नमस्ते लिखा था. इसके बाद रुक-रुक कर हमारा संवाद चल पड़ा था- आपका नाम अनोखा है!
जवाब- 'वाट्स इन अ नेम!'
इस जवाब से मुझे चिढ़ हुई थी. लिखा था- 'जी, फिर भी एक अदद नाम की दरकार तो पड़ती ही है!'
दूसरी तरफ से एक लम्बी चुप्पी के बाद संदेश आया था-हाहा! और आपका नाम भी कुछ कम अजीब नहीं- 'अजनबी!'
मैंने भी लिख दिया था- 'वाट्स इन अ नेम!'
दूसरी तरफ से झट जवाब आया था- 'ओके! चलिये संधि कर ले. अब इस मुद्दे पर नो बहस, नो झगड़ा! मैं अनामिका और आप अजनबी, पीरियड!'
मैंने तंज से लिखा था- 'कुछ ही पलों में हमें नाम की ज़रुरत पड़ ही गई! वैसे आपका कोई चेहरा भी है या यहां भी व्हाट्स इन अ चेहरा?'
 दूसरी तरफ से एक लम्बी चुप्पी के बाद जवाब आया था- 'मेरा कोई चेहरा नहीं, उसी की तलाश में हूं...' पढ़ कर उदास हो गया था. जाने क्यों!

इसके बाद देर तक हम चैट करते रहे थे. अनामिका की बातें अनोखी थीं. उनसे रहस्य और उदासी की बू आती थी. उसकी उलझी-उलझी बातें, हर पंक्ति में एक शेर... धीरे-धीरे मेरे जेहन में उसकी एक तश्वीर-सी बन गई थी- ’साहब बीवी गुलाम’ की मीना कुमारी जैसी कोई. बिखरी लटें, नशे में डूबी आंखें और बड़े पलंग की सफ़ेद चादर पर फैला उसका रेशमी आंचल. पूछने का मन हुआ था, आप शराब पीती हैं क्या? मगर साहस नहीं कर पाया था.

होश तब आया था जब अनन्या ने आकर दरवाज़ा भड़भड़ाया था- 'कुछ खाना है?'
मैंने भी बेरुखी से जवाब दिया था- 'नहीं! तुम्हारी बातों से ही पेट भर गया है!' दरवाज़े के बीचो-बीच खड़ी वह जलती नज़रों से मुझे देखती रही थी फिर मुड़कर तेज़ी से चली गई थी.

मैंने मोबाइल की ओर देखा था. अनामिका ने मेरे आख़िरी सवाल का जवाब नहीं दिया था. ना जाने मुझे क्यों अचानक से बहुत अकेलापन का अहसास हुआ था. रात के दो बज गये थे. उससे बातें करते हुये समय का अहसास ही नहीं हुआ! वाकई नाम में क्या रखा है! संवेदना के धरातल पर नाम, चेहरे बेमानी हो जाते हैं, खूशबू को भले बाहों में समेटा ना जा सके, उसे सीने में समोया ज़रुर जा सकता है, जीया जा सकता है सांस-सांस..

(भाग  2)

इसके बाद अनामिका से रोज़-रोज़ चैट होती रही थी. एक अजीब-सा संबंध जुड़ गया था उसके साथ. बिना किसी अपेक्षा के, नाम के. उसने ही लिखा था एक दिन- दोस्ती को समय के पैमाने से मत परखिये. हम किसी के साथ सालों बिता देते हैं फिर भी अजनबी रह जाते हैं,  "कभी तो ये मन कहीं मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आये जन्मों के नाते..." ये पंक्तियां पढ़ते हुये जाने क्यों मेरी आंखें भीग आई थीं. कितना बड़ा सच है इन शब्दों में! कुछ बहुत पुराने दिन अपने ऊपर से धूल की चादर हटा कर मेरे सामने आ खड़े हुये थे- कॉलेज में पढ़ती अनन्या, गहरी सांवली, उदास आंखों वाली... उन आंखों में मुस्कराहट इन्द्रधनुष-सी दिखती थी. जल भरे मेघों के बरस कर फीके पड़ जाने के बाद का इन्द्रधनुष! तब हम एक-दूसरे को सुनते थे, अब बस सुनाते हैं. क्या हो गया हम दोनों को? मेरे ख़्याल के नाज़ुक तंतुओं को तोड़ते हुये अनामिका के संदेश आते और मैं फिर उसकी बातों में डूब जाता. कई बार चाह कर भी अनन्या को मैं अपने नये फेस बुक अकाउंट के बारे में बता नहीं पाया था. मेरे भीतर कोई चोर आ बसा था.

मैं इन दिनों दो चरम बिन्दुओं के बीच जी रहा था. एक तरफ अनन्या के साथ अन्तहीन बहसें, झगड़े, कटुता, तिक्तता और दूसरी तरफ अनामिका की खूबसूरत, उदास बातें... उसकी बातों की डोर थामे जैसे एक बार फिर मैं खुद को, अपने अतीत को जीने लगा था. ऊसर पड़ गये इस जीवन में उन यादों का इस तरह सहज लौट आना... जैसे सख़्त-शुष्क ज़मीन पर नर्म दूब उग आये! अनामिका की बातें मुझे अनन्या की तरफ खींच ले जाती थीं और अनन्या के तिरस्कार एक बार फिर मुझे अनामिका की ओर लौटने के लिये मजबूर कर देतें.

अनामिका बहुत धीरे-धीरे खुली थी. मैं उसके संशय, संकोच को समझ सकता था. इसलिये उसे अपना वक्त लेने दिया था. उसकी बातों से समझा था, वह भी अपने शादीशुदा जीवन से ख़ुश नहीं है, बहुत अकेली है. अपने पति के साथ मन-मुटाव के कारणों को वह समझा नहीं पाती थी. बताते हुये उलझ जाती थी. बार-बार कहती उससे प्यार करती है, मगर जाने क्या उन दोनों के बीच आ गया है कि दोनों एक-दूसरे के क़रीब आ नहीं पाते! ये ग़लतफहमी है, मान-अभिमान है या आहत अहंकार? शायद हां, शायद नहीं! अंत में थक कर वह लिखती- शायद हम एक-दूसरे के लिये पुराने, बासी, बेस्वाद हो गये हैं...

उसकी बातें मुझे अपनी ओर मुड़ने पर विवश कर देतीं. क्या यही सब कुछ हमारे बीच भी नहीं घट रहा है? मुझे अनन्या का बेतरतीव चेहरा याद आता- मुसी हुई साड़ी, क्रमश: भरता और बेडौल होता शरीर... पहले किस तरह सज-संवर कर रोज़ शाम को मेरे दफ़्तर से लौटने का इन्तज़ार करती थी. अब तो जैसे मेरे लिये दरवाज़ा खोलते हुये भी उसे विरक्त्ति होती है. रात-दिन फोन पर लगी रहती है या अपने क्लब की किटी पार्टियों में. मैं अब उसके जीवन में कहीं नहीं हूं. क्या सचमुच! सोचते हुये तकलीफ होती है. कब और कैसे हम इस तरह से एक-दूसरे के भीतर से ख़त्म हो गये, समय की तरह बीत गये. अनन्या का दीवार-सा सपाट चेहरा, पत्थर बन गई आंखें... सब कुछ दंश देता है, हम कहां से कहां पहुंच गये... झगड़े में बहस, गाली-गलौज से हम कितनी बार मार-पीट तक उतर आयें... उस दिन अनामिका को यह सब लिखते हुये मैं ग्लानि से भर कर रोया था- 'यह सब कहां जा कर रुकेगा कह सकती हो?'
जवाब में अनमिका ने लिखा था- 'तुम्हारे इस सवाल पर मैं हंस भी नहीं सकती, रो भी नहीं सकती... होंठ फटे हैं- मगर हां, बढ़ती हुई ठंड से नहीं!'

उसका मैसेज़ पढ़कर मुझे अनन्या के होंठ याद आ गये थे- बैंजनी और सूजे हुए. मैं चैट ज़ारी रख नहीं पाया था. तकिये में चेहरा छिपा कर रोता रहा था. कभी इन्हीं होंठों को प्यार करते मैं थकता नहीं था. कितनी कवितायें लिखी थी उन पर. भीतर सालों से जाने कितने पहाड़, नदियां इकट्ठी हो गयी हैं. इन्हें गलने-बहने का कोई रास्ता नहीं मिलता. अनामिका से संवाद का शायद यही सबसे बड़ा सुख था- बांटने का, सांझा कर सकने का! जो किसी से कहा नहीं जा सकता, वह अनामिका से कहा जा सकता है. क्योंकि वह मेरे रिश्तों की, पहचान की दुनिया में नहीं है. उसक कोई चेहरा, नाम भी नहीं है. उससे कहना जैसे किसी अरण्य में बैठकर रोना. पकड़े जाने का, पहचाने जाने का कोई खतरा नहीं. यह बेचेहरा, अनाम मित्रता हमें रास आ गई थी. हमने एक-दूसरे के भय और विवशता को समझते हुये एक-दूसरे की निजता में कभी सेंध नहीं लगायी थी. बस बिना किसी उम्मीद, कमीटमेंट के साथ हो लिये थे और दूर तक अबाध बहते चले गये थे.

बातों के लम्बे सिलसिले में जाने कब हम संवेदना के स्तर पर इतने घनिष्ठ हो आये थे. एक-एककर वर्जनायें टूटी थीं. अब हम अपने मन की गोपन बातें, इच्छायें और फैंटसी शेयर करने लगे थे. अनामिका से चैट करते हुये मुझे अह्सास हुआ था मैं भीतर से कितना अकेला हो गया था. प्यासे मरु-सा मन थोड़ी-सी नमी, छांव और शीतलता के लिये तरसता रहता था. अनन्या के साथ हुये जाने कितना अर्सा हो गया था. जब सीधे मुंह बोलना संभव नहीं तब प्यार का सवाल कहां. पहले-पहल कई बार रातों को अपने अकेलेपन से घबरा कर उसका बंद दरवाज़ा खटखटा कर अपमानित लौट चुका हूं. कभी उसने दरवाज़ा नहीं खोला तो कभी मैंने उस पर दरवाज़ा बंद कर दिया. कभी सोचता हूं हम दिल दुखाने वाली बातें तो बड़ी आसानी से कर लेते हैं, मगर प्यार की बातें जुबान पर लाना मुश्क़िल लगता है. सही वक़्त पर कहे गये दो मीठे शब्द शायद बहुत-सी ग़लत बातों को सही कर सकते है.

रातों के निर्जन में किसी औरत के इतने क़रीब हो जाना, उसकी इच्छायें सुनना... कई बार मन का तटबंध टूटने लगता था. अनन्या का चेहरा अनमिका की परछाई से गडमड हो इससे पहले ही अनामिका खुद को सम्हाल लेती. मैं दग्ध हो कर रह जाता. मैंने कई बार उससे बात करने की क़ोशिश की थी, मगर वह तैयार नहीं हुई थी. शायद वह इस संबंध को लेकर अब तक किसी उलझन में थी. मैंने उसे परेशान नहीं किया था. मगर मुझे इंतज़ार था- जाने किस बात का, कैसा!

अनन्या और मेरे बीच संवाद लगभग ख़त्म हो गया था. अशांति से बचने के लिये मैं उससे यथासंभव दूर रहता. छोटे-छोटे पुर्जों में लिखे दो-चार शब्दों के माध्यम से ही हमारा सम्पर्क बना हुआ था. ऑफिस के लिये निकलते हुये वह एक पुर्जे मे लिख जाती- 'आज मैं देर से लौटूंगी, फ्रिज़ में खाना है. अवन में गरम कर लेना.' पढ़ कर मैं भी मैसेज छोड़ देता-' आज सेमिनार है. वही लंच कर लूंगा!'

यह फ्लैट हमने कितने चाव से खरीदा था. पूरब की तरफ के कमरे सुबह-सुबह धूप से भर जाते. दूसरी तरफ के खुले मैदान से खूब हवा आती. बैल्कनी में अनन्या ने कितने सारे क्रोटोन्स और फूलों के गमले रखे थे. सुबह की पहली चाय हम यही बैठ कर पीते थे. उससे पहले ही अनन्या नहा लेती थी. उसका धुला-धुला चेहरा, भीगे बालों से टपकती पानी की बूंदें... अब सब कुछ स्वप्नवत लगता है. कितने दिन हुये, ये छोटी-छोटी ख़ुशियां प्रवासी पंछियों की तरह किसी और देश चले गये हैं. अब मैं एक ख़्याल, एक परछाई के साथ रहता हूं- एक वर्चुअल दुनिया में. सारे सच मेरे लिये झूठ हो गये हैं.

अनन्या की शिकायतें और अनामिका की उदासी दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही थी. इसके साथ ही अनन्या से निकल कर मैं अनामिका में डूब रहा था. अनन्या मुझसे कहती- 'आई एम फेड अप विथ यू. अनामिका लिखती- 'अब बर्दास्त नहीं होता'. अनन्या मुझसे मुक्ति चाहती थी और अनामिका मुझमें आश्रय. मैं अपनी पत्नी के लिये बोझ था और अनामिका के लिये आधार... एक मैं दो अलग-अलग व्यक्ति के लिये कितना अलग अर्थ रखता था! सोच कर मुझे हैरत होती थी.

और आख़िरकार एक दिन झगड़े के बाद अपने कुछ सामान समेट कर अनन्या घर से चली गई थी. जाते हुये उसने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा था. मैं भी बिना एक शब्द कहे पीछे से उसके कांपते कंधे देखता रहा था. हमारे बीच की सारी बातें अंतत: ख़त्म हो गई थीं. जाते हुये अपने पीछे उसने सारे पुल भी तोड़ दिये थे. उसे लौटना नहीं, ना मुझे खुद तक आने देना है!

जब मैंने इसकी सूचना दी थी, अनामिका पहली बार मुझसे मिलने के लिये तैयार हो गई थी. कहा था, तुम जहां कहोगे आ जाऊंगी मिलने. अनन्या के पीछे अपने घर के साथ मैं भी एक खाली मकान में तब्दील हो कर रह गया था. कितना डर लगा था अचानक अकेले घर में! हाथ-पैर ठंडे हो गये थे. पहली बार दिन के समय फ्रिज़ से बीयर की तीन बोतलें निकाल कर एक के बाद एक पी गया था और फर्श पर बेसुध हो कर सारा दिन पड़ा रहा था. दरवाज़े पर नौकरानी बेल बजा कर लौट गई थी, फोन की घंटी बजती रही थी मगर मेरी आंख नहीं खुली थी. देर शाम को मैं हड़बड़ा कर जागा था और घड़ी में समय देख रेल्वे स्टेशन की ओर भागा था. गुलमोहर पट्टी में अनामिका से मिलना तय हुआ था. जाते हुये अनायास याद आया था, कॉलेज के दिनों में अनन्या और मैं क्लासेज बंक करके कैसे यही मिला करते थे. बारिश के शुरु के दिनों में सुर्ख गुलमोहर बिछी सड़क पर हम दोनों का साथ-साथ दूर तक चुपचाप चलना... तब मौन भी कितना अर्थमय हुआ करता था! भरा-भरा, बोलता हुआ! यादें रास्ते भर आंखों में नमी बन कर तैरती रही थीं. अनामिका का साथ मुझे अक़्सर अनन्या की ओर ले चलता है.

गुलमोहर पट्टी पहुंच कर मैंने दूर से ही उसे देखा था, परछाई की तरह चुपचाप खड़ी हुई. जाने कब से मेरा रास्ता देख रही होगी! मैं जल्दी-जल्दी चल कर उस तक पहुंचा था और बेतरह चौंक पड़ा था- मेरे सामने अनन्या खड़ी थी! अनन्या भी मुझे देख कर हैरत में थी. सकते की हालत में देर तक खड़ी रहने के बाद अनन्या ने किसी तरह रुक-रुक कर कहा था- 'तो तुम... अजनबी!' उसकी बातों से जैसे मैं भी गहरी नींद से जागा था और किसी तरह अपने आंसुओं को रोकते हुये कहा था- 'नहीं! सलिल.. तुम्हें यहां देख कर अहसास हुआ, मैं तुम्हारी तलाश में ही निकला था. चलो, तुम्हें घर ले जाने आया हूं. अनन्या बिना कुछ कहे मेरे साथ चुपचाप चल पड़ी थी- घर की तलाश में कई बार हम घर से आगे निकल आते हैं! मैं आंसू और मुस्कराहट से उस क्षण भरा हुआ था।  कुछ कहने में असमर्थ.

चलते हुये अनन्या ने कहा था- 'स्टेशन के क्लॉक रुम से मेरे सामान लेने होंगे पहले.' मैंने सर हिलाते हुये अपना नया फोन निकाल कर अनन्या के हाथ से उसका फोन ले लिया था- उससे पहले इन्हें नदी में सिराना है! अनन्या चुपचाप मुझे देखती रही थी. मैंने उसके डुएल सिम फोन से पुराना सिम निकाल कर दोनों फोन सामने बहती नदी में फेंक दिया था. उसी समय सामने पुल पर से धरधरा कर गुज़रती ट्रेन के तेज़ शोर में फोन के छपाक से पानी में गिरने की आवाज़ खो गई थी. मैंने घड़ी देखी थी- साढ़े सात! थैंक्स गॉड! ट्रेन आज भी लेट थी!

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परिचय

जन्म            :       18 मई, हजारीबाग (बिहार)
शिक्षा          :       एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय
प्रकाशन         :       कहानी संग्रह
                        अनकही,  खारा पानी (शिल्पायन)
                        ...तुम्हें छू लूं जरा (सामयिक प्रकाशन)
                        कायांतर (वाणी प्रकाशन)
                        उपन्यास
                        औरत जो नदी है (शिल्पायन)
                        साथ चलते हुये, (सामयिक प्रकाशन)
                        इक़बाल (आधार प्रकाशन)
                        तुम्हारे लिये (कविता-संग्रह)
प्रसारण         :       आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण
सम्मान          :       युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
संप्रति                 :       कुछ वर्षों तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन।

000 जयश्री रॉय

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टिप्पणियाँ:-

अनुप्रिया आयुष्मान:-

बहुत ही अच्छी  कहानी
भावनाओं की खूबसूरती यहाँ पर खूब देखने को मिला । कहानी कही बोर नहीं की ।

रेणुका:-
Is tarah Ka plot bahut padha aur tv serials Mein dekhne ko mila hai.....shuruat Mein hi pata chal Gaya kahani ka unt..suspense nahi bana...

मनचन्दा पानी:-
चौथी कक्षा में चार लुटेरों की एक कहानी पढ़ी थी। जिसमे लूट का बंटवारा करने से पहले चारों एक दुसरे को जहर खिला देते हैं और मर जाते हैं।
लेखन बहुत सुन्दर है। कही कहीं ता ती ते के गलती हुई है; पता नहीं लेखक से टाइपिंग में हुई या वो चीजों को वैसे ही पुकारती हैं।

कहानी में जो कहानी होती है वो नयी नहीं आ पायी है।
और ये भी अतर्कसंगत बात है की फेसबुक जैसे माध्यम से, जिसपर असंख्य लोग उपस्थित है वे ही दोनों मिल बैठे। ये पुराने ज़माने के माध्यमो में ही फिट बैठता था। यहाँ तो अपने ही नाम के पैंतीस सौ लोग मिलते हैं खुद को नहीं खोज पाते।

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