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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 अक्टूबर, 2015

लेख : क्या भारत वाकई कृषि प्रधान देश है ? : निरंजन श्रोत्रिय

आज बहस के लिए बीज लेख निरंजन श्रोत्रिय जी ने लिख है. उन्होंने लेख के मार्फत हमारा ध्यान किसानों की ओर आकर्षित करने की कोशिश की है...और लेख को पढ़ते हुए कुछ प्रश्न भी हमारे मन में उठते हैं. मित्रो मित्रो हाल ही में अखलाक़ हुए हमले और दलित परिवार पर हुए हमले से हम वाक़िफ हैं. न दलित पर यह हमला पहला है, और न अखलाक़ पर. जब भी ऐसे हमले होते हैं...राजनीतिक पार्टियाँ, सामाजिक कार्यकर्ता, एन जी ओ कर्मी और लेखक आदि संवेदन शीलता दिखाते हैं. हमदर्दी दिखाते हैं.विरोध प्रदर्शन करते हैं . मुद्दे को इस तरह से उठाते हैं कि सभी का ध्यानाकर्षित हो जाता है...फटाफट पीड़ितों को मुअवजा भी घोषित हो जाता है....और जो जो कार्यवाही तुरंक करने की ज़रूरत होती होने लगती है...
ऐसा होने की एक वज़ह तो यह है कि जाति और साम्प्रदायिकता
की राजनीति करने वालें की भरमार है...ज्यादर फंडिंग ऐजन्सिया भी इन्हीं मुद्दों पर काम करने वालों को देती हैं...इनके नेता, आदि सभी बहुत मुखर है और सरकार पर दबाव बना लेते हैं....लेकिन मैं लम्बे समय से यह देख रहा हूँ...रोज़ अख़बारों में अनेक किसानों की आत्महत्या और हत्या की ख़बरे छपती है...कम जगह में छपती है...पर छप रही है...
सवाल यह है कि किसानों के मरने पर लगभग सभी मौन है...न्यूज चैनल...बहस नहीं होती..एफ बी पर कोई नहीं लिखता. कहीं धरना ..रैली कुछ नहीं...जबकि मरने वाले किसानों में भी सभी जाति सम्प्रदाय के किसान होते हैं
..कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने यह मान लिया है कि किसान तो मरने के लिए ही है...पता नहीं इस विषय पर सभी साथी क्या सोचते हैं..!
मैंने संक्षेप में बात रखनी चाही थी पर लम्बी हो गयी है...माफ़ी चाहता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि...कम से कम सरकार की तरह...न्यूज़ चैनलें ऐर आदि माध्यमों की तरह हम समूह में इस विषय को इगनोर न करे....
खुल कर बात रखे....आप रोज़ चुपचाप मर रहे किसान के बारे अपना मत ज़रूर रखे....

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

मनीषा जैन :-: बहस के लिए प्रस्तुत लेख

क्या भारत वाकई कृषि प्रधान देश है ?
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'भारत एक कृषि प्रधान देश है।' मित्रो, यह किसी स्कूली निबंध की वह पहली पंक्ति है जिसे हज़ारों बार लिखा-पढ़ा जा चुका है। फिर इस वाक्य को प्रश्नवाचक बनाने के पीछे मेरी मंशा केवल यही है कि इस कथित कृषि प्रधान देश के नायक किसान के बारे में भी सोचा जाये। उस किसान के बारे में जिसे अन्नदाता कहा जाता है और ऐसे 3 लाख से भी अधिक अन्नदाता पिछले 18 वर्षों में आत्महत्या कर चुके हैं। वैसे यह दौर अकादमी पुरस्कारों, दादरी, वल्लभगढ़ और कल बर्गी,दाभोलकर, पानसरे की हत्या पर चर्चाओं का है (यहाँ मकसद इन घटनाओं के महत्व को कम करना नहीं है) और ऐसे में किसानों की आत्महत्या पर बात करना अप्रासंगिक लग सकता है।लगना भी चाहिए क्योंकि किसान वह बदहाल व्यक्ति है जो सदैव हाशिये पर रहने को मजबूर है। उसकी 'जय' केवल नारे में है। किसी को उसकी दुर्दशा पर चिंता करने की फुरसत नहीं। न राजनेताओं को, न लेखकों को और न ही आमजन को क्योंकि उसकी आत्महत्या अब अखबार का एक रूटीन कॉलम है जिसे हम तटस्थ भाव से पढ़ लेते हैं ज़्यादा हुआ तो च्च्चचच........भाव से सहानुभूति प्रकट कर देते हैं।
इसका कारण यह है कि इस देश में किसान को लेकर सियासत का वह पोटेंशियल नहीं है जो अन्य मसलों में है। किसान की आत्महत्याओं से किसी बड़े उद्वेलन की सम्भावना इस देश में नहीं है।इसीलिए सभी चुप हैं---लेखक, बुद्धिजीवी, राजनेता और जनता जिनके पेट भरने के लिए यह किसान रात-दिन खेतों में मौसम से लड़ते हुए खटता है।
2009 के बाद इस वर्ष भीषण अकाल की स्थिति है। देश का आधा हिस्सा सूखे से प्रभावित है।मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र,तेलंगाना, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और बिहार में स्थिति बदतर है। क़र्ज़ में डूबा किसान या तो आत्महत्या या हृदयाघात का शिकार हो रहा है। कीटनाशक को फसलों में डालने के बजाय अपने गले में उंडेल रहा है। देश में हर घंटे एक दर्जन किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। क्या कभी हमने कारणों की पड़ताल की है। इस देश में हर उत्पादक को अपने उत्पाद बेचने के लिए एक व्यवस्थित-सज्जित बाज़ार उपलब्ध है सिवाय किसान के। बाज़ार पर उसका कोई नियंत्रण नहीं। वह अथक परिश्रम से फसल पैदा कर ऐसे हाथों में सौंप देता है जो हर चरण पर मुनाफा कमाते हैं।जमाखोरी, कालाबाजारी,तस्करी के जरिये किसान के उत्पाद से वह हर कोई मालामाल है जिसने कभी खेत का मुँह भी न देखा है।महाराष्ट्र में जिन किसानों ने ख़ुदकुशी की उनमें से 95 प्रतिशत किसान कपास उगाते थे। पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में बी टी कपास पर सफ़ेद मक्खी लगने से वहाँ कपास की फसल नष्ट हो गई जबकि कृषि वैज्ञानिकों का दावा था कि कपास की यह नस्ल पूरी तरह से कीटमुक्त होगी। मध्य प्रदेश में किसान पिछले कई वर्षों से सोयाबीन उगा रहा है लेकिन अब इसमें नुकसान हो रहा है। मेरे गुना की मंडी में ही जो सोयाबीन ट्रालियों में भरकर आता था अब वह बोरियों में है। नतीजा फिर वही कर्ज का बोझ, हताशा, बेबसी और अंत में आत्महत्या। सरकार द्वारा किये जाने वाले फसल बीमा की असलियत भी जान लें कि अव्वल तो किसान को इसे लेने में ही पसीना आ जाता है और यदि बीमा राशि मिली भी तो वह लागत की 6 से 10 प्रतिशत होती है। ओला वृष्टि और रोग ग्रस्त फसल का सरकारी मुआवजा तो हास्यास्पद है जैसे 25 या 100 रुपये तक।
फिर वही सवाल कि हमें दो जून का भोजन उपलब्ध कराने वाले इस बदहाल अन्नदाता के प्रति हम इतने असंवेदनशील बल्कि क्रूर क्यों हैं ? महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने किसानों की आत्महत्या के बारे में कहा था कि --"आत्महत्या भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत एक अपराध है लेकिन क्या हमने एक भी किसान को इस अपराध में पकड़ा ?" जब किसानों पर राजनीति करने वाले ही ऐसा बयान देंगे तो फिर क्या उम्मीद बचती है! आप उस भयावह समय की कल्पना कीजिये जब ये त्रस्त किसान एकजुट हो खेती छोड़ने की घोषणा कर दें। मुझे वह समय बहुत दूर नहीं दीखता। मसला यही है कि साम्प्रदायिकता, दलित दमन और असहिष्णुता के इस दौर में किसानों की आत्महत्याएं एक झकझोर देने वाला मुद्दा है जिस पर हमारा अपेक्षित ध्यान ही नहीं है। किसानी और किसानों को हिकारत से देखने का ही परिणाम है कि कृषि हमारे जी डी पी में मात्र 15 प्रतिशत का योगदान कर रही है। तभी यह वाक्य एक प्रश्न में तब्दील हो जाता है कि -"क्या भारत वाकई एक कृषि प्रधान देश है ?"
अंत में फैज़ अहमद फैज़ की पंक्तियाँ.........
खेतों के कोनो, खुदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो।

निरंजन श्रोत्रिय
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टिप्पणियाँ:-

किसलय पांचोली:-

लेखक या कोई भी संवेदनशील व्यक्ति  किसान को कैसे उसका अपेक्षित स्थान और हक दिलवा सकता है? पहली नजर में लगता है शायद नहीं। क्योंकि  राजनैतिक इच्छा शक्ति , जो देश को चलाती है, की प्राथमिकता सूची में किसान को कभी कोई स्थान मिला ही नहीं।
तो प्रश्न यूँ रूपांतरित हो जाता है कि लेखक राजनीतिज्ञों के बोद्धिक सेल में किसान को केंद में लाने के विचार को कैसे दाखिल करवा सकते हैं?
तकनीक के उपयोग से यदि  लेखकों विचारकों पत्रकारों वकीलों जजों आम बोधिक् लोगों के मध्य सतत विचारों की आंधी बहे तो कदाचित मजबूरीवश ही सही सत्ता के गलियारों में किसान को लेकर कुछ सकारात्मक और कंक्रीट नीतिगत निर्णय लिए जाएं। जो भारत को वाकई एक कृषि प्रधान देश बनाने की दिशा में एक एक कदम बढ़ाने में मददगार साबित हो।

मनीषा जैन :-
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि त्रृण के नीचे दबे हमारे किसानों को ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ रहा है और सरकार का ध्यान अभी भी नही है इस ओर। मंहगे बीज होने पर सूखा पडने पर तथा सरकार का फसल कम मूल्य पर खरीदने से किसान त्रृण के नीचे दबता जाता है और कोई रास्ता न देख वह आत्महत्या कर लेता है। समाज को संगठित होकर कुछ तो सोचना होगा।
कल टी वी पर देखा एक स्कूल के बच्चों ने मिल कर अपने जेबखर्च से थोड़ा थोड़ा बचा कर पैसे इकट्ठा कर किसानो के परिवारो को दिऐ है। इस तरह के प्रयास सराहनीय है। लेकिन इस समस्या की जड़ में कर सरकार को ही समाधान खोजने होन्गे। बीज की कीमत कम करके और फसल का दाम लागत से ऊँचा तय करके।
इस ज्वलंत समस्या को ऊठाकर निरजंन जी ने महत्वपूर्ण व्कतव्य लिखा है।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
हिंदुस्तान का किसान आज भी मुंशी प्रेमचंद की पूस की रात से बाहर नहीं निकल पाया है ।
आजादी के सड़सठ सालों के बाद भी किसान देशी साहूकारों के चंगुल में और तो और ग्रामीण बैंको राष्ट्रीयकृत बैंको का प्रमुख शिकार बना है बनता रहेगा । सिंचाई योजनाओं का जो जंजाल सरकारों ने बिछाया है वह जरूरतों के सामने नगण्य है  उस पर सरकारी काले निर्दयी अफसर जुल्म करने से कभी बाज नहीं आते है । परार्यवर्ण के दूषित होने का श्राप बारिश की अति अन्नावर्ति के कारण अन्नदाता बाहरी संसाधनों पर ही निर्भर रहने को मजबूर है कर्ज भारतीय किसान की नियति है वह उससे वह कभी न बचा है न बचेगा
चंद्रशेखर बिरथरे

संध्या:-
बहुत बढ़िया आलेख चिंता में डालने वाला ।अभी गुड़गांव जाना हुआ था वहां कई नव धनाढ्य लोगों से मिलना हुआ वार्तालाप से मालूम हुआ बहुत अच्छी कीमतों  पर अपनी ज़मीन बड़े बड़े उद्योगपतियों और बिल्डरों को बेच दी गयी है ।पूरे गुड़गांव में बड़ी बड़ी कंपनियों गूगल इनफ़ोसिस माइक्रोसॉफ्ट केंबे और भी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बहुमंज़िला इमारतों से भरा पड़ा है  ।मालूम हुआ ये सारा का सारा गुडगाव पहले खेतिहर सम्रद्ध किसानो का था ।जिन्होंने अपनी ज़मीन अच्छी कीमतों पर बेची हैं ।ये वो तबका है जो ज़्यादा पढ़ा लिखा नही है और विरासत में सामंती जड़ें लिए है ।इस तरह सभी प्रदेश बिकने को लगभग तैयार खड़े हैं ।खेती की ज़मीन कम हो रही है उनकी बातों से लगा वो ज़मीन की अच्छी कीमत पाकर खुश हैं और अब कभी खेती जी और नहीं लौटना चाहेंगे ।एक और प्रगति के नाम पर भूमी अधिग्रहण कानून है दूसरी और किसानो की बढ़ती आत्महत्या ।गांधी जी विकास का ढांचा नीचे से ऊपर ले जाना चाहते थे जिसमे कुटीर उद्योग और खेती के लिए जगह थी ।नेहरू विज्ञान और उद्योग को बढ़ावा देते रहे मूलत:अगर हम कृषि प्रधान हैं तो हमें विज्ञान सम्मत खेती को बढ़ावा देना था ।आज भी अधिकतर हमारा किसान मानसून पर ही निर्भर करता है।और आधुनिक खेती के औजार अनुपलब्ध हैं उसे ।आयातित बीजों पर  नियंत्रण आवश्यक था जिसके फलस्वरूप खेती की ज़मीन एक या दो फसल के बाद बंध्या हो जाती है ।उन्नत बीज उसे क्यों प्राप्त नहीं है ?
बहुत से सवाल जो अनुत्तरित रह जाते है ।और चिंता को बढ़ाते हैं 
निरंजन जी का आलेख सामयिक और चिंतित करने वाला

अभी दैनिक भास्कर में खबर है दमोह पथरिया में शुक्रवार सुबह आत्मदाह कर लिया पांच लाख का क़र्ज़ था उस पर और सोयाबीन की फसल बर्बाद हो गई थी ।(किसान लल्लन यादव )

टीकम शेखावत:-
Patelji ka abhaar prastuti ke liye....
Vastvikta ke dharatal KI hakeekat bayan hui hai
Afsos yahi hai ki kisaan  aam aadmi hai....use puraskar nahi milte jise vo lauta sake!  Aur manav samaj, lekhak va rajneeti dono nishthoor hai jo iss vishay per chuppi saad leti hai....ve tabhi jaagte hai jab unki biradari prabhavit hoti hai
Main bhi samaj ka hissa hone ke naate doshi hoon
Apne apne kaushalya,kabiliyat  ya hoonar ke madhyam se iss vishay ko jagrit kare....Jaise Niranjanji ne kiya hai.....maharashtra me Naam Foundation (Nana patekar va Makrand anaaspure) ke saath aam janta Aage aayi hai....bahut kuch ho raha hai...humare ek WhatsApp kavitao ke samuh ke madhyam se aise gaoon KO lekar kaam kiya jaa raha hai.....
Bahut innovative hone ke bajay Jo bhi sambhav ho wo jaroor  kare

प्रदीप कान्त:-
किसान की फ़िक्र है किसको

टीकम शेखावत:-
Dikkat hai...humari choices.... Hume  udayprakash ya Munnawar sahab KE puraskar lautane per yaad aata hai ki Kalburgi sahab KI hatya Hui hai....aam taur per samvednaye tabhi jagrit hoti hai jab koi badi hasti ko him relate karne lagte hai......aap hi dekhe KI  aapke aas paas ke kitne kisanon ke naam aapko yaad hoge jinhone aatmhatya KI? Chunki wo  aaj aadmi hai....social media me yah viahay dhadalle se nahi chalta ...sabhi bhul jaate hai.....mujhe lagta hai Jo bhi ho....yatha sambhav karen

Pranay Kumarji....aapko shayad jawaab mil gaya hoga ...bijooka jaise samuh par bhi kisaano ka mudda Sahitya lautane walo se piche reh gaya.....yahi vastvikta hai.... Samadhan koshishon se milenge.....
Haa...agar udayprakash ya aur koi bade Lekhak aaj sham ko is a viahay per koi innovative vaktavya de de....then pure bharatvarsh me ek khaas  Lekhak varg ki  samvednaye jaag jayegi.....anntt me yah  prarthhna ki kisano ki awaaz lekhako KI kalam tak  pahuche

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
संजीव जी का नया उपन्यास " फांस " बाजार में है। यह किसानों की आत्महत्या के कारणों की गहनता से पड़ताल करता है। यह लेखक के दीर्घकालिक शोध और विदर्भ के किसानों के साथ कई वर्षों तक रहने के उपरांत लिखा गया उपन्यास है। समस्या के साथ समाधान की भी तलाश करता उपन्यास।

मनीषा जैन :-
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि त्रृण के नीचे दबे हमारे किसानों को ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ रहा है और सरकार का ध्यान अभी भी नही है इस ओर। मंहगे बीज होने पर सूखा पडने पर तथा सरकार का फसल कम मूल्य पर खरीदने से किसान त्रृण के नीचे दबता जाता है और कोई रास्ता न देख वह आत्महत्या कर लेता है। समाज को संगठित होकर कुछ तो सोचना होगा।
कल टी वी पर देखा एक स्कूल के बच्चों ने मिल कर अपने जेबखर्च से थोड़ा थोड़ा बचा कर पैसे इकट्ठा कर किसानो के परिवारो को दिऐ है। इस तरह के प्रयास सराहनीय है। लेकिन इस समस्या की जड़ में कर सरकार को ही समाधान खोजने होन्गे। बीज की कीमत कम करके और फसल का दाम लागत से ऊँचा तय करके।
इस ज्वलंत समस्या को ऊठाकर निरजंन जी ने महत्वपूर्ण व्कतव्य लिखा है।

आशीष मेहता:-
टिकमजी, आपसे विनम्र असहमति है। दोनों मुद्दों की तुलना अव्वल तो है ही नहीं। और, बिजूका या किसी भी मंच पर किसी भी मुद्दे के समाधान की उम्मीद भी ग़ैरवाजिब है। मंच के प्रमुख उद्देश्यों  में साहित्यिक, कला तत्वों का साझा होना, उन पर चर्चा करना (विचार विमर्श, तर्क वितर्क) शामिल हैं । इसी तरह अन्य सामाजिक मुद्दों पर मत, विचार, पक्षधरता तो साझा की जाती हैं, पर समाधान की अपेक्षा, अति महात्वाँक्षा है। (आपसे असहमत होते
हुए भी हमराही हूँ, संवेदनशील मुद्दे पर दिल समाधान ढूंढता ही है।)

"किसान आत्महत्या" बतौर मुद्दा दो परतों वाला है। पहली परत परोक्षरूप से 'किसानी - खेती जनित समस्याओं ' की बानगी है, तथा दूसरी "सामाजिक विकटता का मकड़जाल"।

कृषि की पूरी तरह से मानसून पर निर्भरता, मौसम से जुड़े जोखिम, जो फसल  के बिकने तक किसान के सर मंडराते हैं। इससे अलग, सिंचाई के लिए नदी-नहरों का बचाव एवं संवरण का न होना भी कुछ 'सामाजिक-शासन सम्बन्धित' साझा जिम्मेदारियाँ हैं। उस पर भी, बाजार तो, साथ साथ खून चूसने के लिए है ही।

निरंजन सर, गुना (और कुछ अन्य स्थानों पर) सोया क्रशिंग प्लाँट बन्द पड़े हैं। पिछले साल अमेरिका में बम्पर क्राप होने से, क्रशिंग पैरेटी नहीं थी । किसान आत्महत्या के साथ, एक जीता जागता सच यह भी है कि किसान की "होल्डिंग कैपेसिटी" बड़ी है। इस बार तो म.प्र. में मौसम की दोहरी मार पड़ी है। खड़ी फसलें तबाह हुई हैं, बुआई के लिए पानी नहीं पड़ा। सोया पिसाई में बड़ी बड़ी कम्पनियों ने घाटे उठाए है और दो सालों से वेतन वृद्धि नहीं की है।
ज्यादातर नीतियाँ और कार्यक्रम (तथा उनका बेहद भ्रष्ट एवं लचर क्रियान्वयन) किसान को अपेक्षित लाभ नहीं पहुंचा पाए हैं। मगर बढ़ते 'बाजार' ने हिन्दुस्तानी अनाज पैदावार को भी नई उचाईयाँ दी हैं। कई किसानों को व्यवस्थित व्यापार के मौके उपलब्ध कराये हैं। आपका बीज वक्तव्य निश्चित तौर पर एक गम्भीर मुद्दे को छूता है  (आभार) और विचार विमर्श के लिए प्रेरित करता है। लिखते लिखते, वागीश जी की सटीक एवं महत्वपूर्ण टिप्पणी पढ़ी।

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