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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अक्टूबर, 2015

संस्मरण : अनुप्रिया अंशुमान

आज समूह की साथी अनुप्रिया अंशुमान जी का एक मार्मिक संस्मरण दे रहे हैं। अनुप्रिया की लिखावट में बहुत परिपक्वता व मार्मिकता है। जब मैंने यह संस्मरण पढ़ा तो मुझे हल्की सी हैरानी हुई कि इतनी युवा वय में इतना सधा हुआ संस्मरण। आप भी अपनी प्रतिक्रिया दीजिएगा जिससे युवा लेखिका को प्रोत्साहन मिले।

फुटपाथ पर सोया बालक और मेरा ममत्व

मुझे ये लगता है कि माँ होना या माँ बनना, दोनो ही बातें, अपने में एक विशेषता लिए आती है । हमेशा ही मेरी आँखें माँ के नाम पर नम हो जाती है; और माँ बनने की अभिलाषाओं को त्वरित कर देती है । कहते है कि स्त्री तब तक माँ नहीं बनती जब तक की उसे कोई माँ कहने वाला ना हो ।  जब माँ याद आती है तो उनका प्यार याद आता है; जब माँ याद आती है तो अस्तित्व की करुणा याद आती है । माँ से ही प्रेम शब्द का शायद निर्माण हुआ होगा । बचपन से ही मेरी कई इच्छाओं में एक इच्छा हमेशा ख़ुद से ही जुड़ी रही है—कि मेरा अपना परिवार हो, जिसमे मेरा बेटा हो, मेरी बेटी हो, और मेरा जीवनसाथी हो; और हम सब साथ –साथ एक खूबसूरत जीवन को अंजाम दें ।

एक रात— न जाने वो कैसी थी; कहाँ से अवतरित हुई थी मुझे नहीं पता । उस रात का अनोखा पल, मेरी जिंदगी को बेसुमार अनुभव के ख़ज़ाने से भर गया जो मेरे लिए किसी धर्मांतरण से कम ना था । जैसे मैंने माँ का धर्म उपलब्ध कर लिया हो । मानो ऐसा लगा कि दुनिया की समस्त माताओं का ममतत्व मैंने अपने भीतर एक साथ समग्ररूप से देख लिया हो ।

उस रात मै थोड़ी उदास थी जिंदगी में चल रहे ऊहा–पोह को लेकर तथा जिंदगी में असफल हो जाने पर हो रहे उस दर्द का स्वाद ले रही थी जो यकीनन अति कड़वा होता है । और फिर चुपचाप खिड़की से बाहर मैं आते-जाते  लोगो को अनायास ही देखे जा रही थी । वहाँ शोर था पर मेरे भीतर सन्नाटे से सनी एक अकंप शांति थी । हवाएँ चल तो रही थी पर उनके छुअन से मै अनभिज्ञ थी; मै एक जिंदा लाश की तरह न जाने क्यूँ उस खिड़की पर निगाहें जमाये बाहर की तरफ नजरें किए बैठी थी ।

अचानक मैंने देखा कि एक सुंदर, अति सुंदर बालक नीचे फुटपाथ पर सोया है । उस बालक की निर्दोष भावदशा ने मेरे भीतर के अन्तर्मन में जो मातृत्व के भाव का अनुभव कराया वह निश्चित तौर पर आज भी मेरे लिए यथावत अवर्णनीय है । उसके रूप तथा उस रूप से निर्मित जो एक सहज भाव मेरे भीतर उत्पन्न हो रहा था वो मेरे लिए चाँद की सुंदरता को निहारते हुए अनुभव से जरा भी कम न था । मानो जैसे किसी सुखद हवा ने साँसो को राहत पहुंचाई हो; जैसे बारिश की बूंदों ने धरती की गर्मी को शांत किया हो । जैसे कि सूर्य की किरणों ने खुद को इंद्रधनुष के रूप में परिणित किया हो ।

इस सारे सौन्दर्य का सीधा सबूत और एहसास था वो बच्चा । उस सोये हुए बच्चे की बाहरी काया बिल्कुल धूल धुसरित थी पर उसके चहरे की लालिमा, उसके ऊपर प्रतिबिम्बितपीला रंग, निश्चित रूप से एक ठहराव लिए हुए था । मै उसे अपने ममत्व के भाव से दूर से ही चूमने लगी थी । मै यह देखना चाहती थी कि जिस बच्चे के सोये हुये रूप ने मेरे भीतर की माँ को जगा दिया वह जब अपनी निद्रा से बाहर आता और अपनी खुली आँखों से दुनियाँ को देखता तो कैसा प्रतीत होता ? उस समय मेरे हृदय की अटूट अभिलाषा थी कि वह उठे, जागे और मुझे देखे कि मै उसे अपने नयनों से कबसे स्पर्श कर रही थी । मेरे हृदय की धड़कनें तथा मेरे अंग प्रत्यंग का रोम–रोम उसकी तरफ खिचा जा रहा था ।  यही अभिलाषा जागृत हो रही थी कि मै बस उसके सिर पर अपना हाथ फेरु और इस बात के लिए धन्यवाद दूँ कि मेरे उदास पलों में तुमने मुझे मेरे होने का प्रमाण दिया है ।

चाहती तो थी कि मै पूरी रात उस बच्चे की निगहबान बनी रहूँ पर मै पूरी रात ऐसा नहीं कर सकती थी ।  क्योंकि कोई और हर पल मुझे अपनी ओर केन्द्रित रखता है । फिर भी मैं कई बार उसे निहारने हेतु खिड़की पर आ जाया करती थी । इतना आकर्षण और इतना माधुर्य था उस बच्चे की आभा में  ख़ुद को एहसास करना; मगर जब जब देखा उसे, बस सोये हुए ही पाया।

उस दृश्य ने मुझे पूरी रात सोने ना दिया । ऐसे जैसे कि वो चतुर्दशी का चाँद हो । वह ऐसा था जैसे मेरे भीतर का बच्चा मुझे... माँ... माँ... पुकारता हो । और उसकी वो छवि आनन्द्श्रु का आभास करा रही हो । वो बच्चा फूटपाथ पर सोया था तो इसका इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि वह करुणा के योग्य था । वह तो स्वयं किसी के भी हृदय में अनायास ही एक बच्चे की अभिलाषा की पूर्ति करता था उससे मिला जो एहसास है। मुझे, उस अनुभव को मै अपना श्रृंगार समझती हूँ और अपने माथे पर उसका टीका लगाती हूँ । शारीरिक रूप से माँ बनना या माँ होने के ऐहसास से परिपूर्ण हो जाना, एक बात है, मगर मैं तो उस बच्चे को देखने मात्र से ही पूर्ण हो गयी थी । और आज भी जब कभी उसकी याद मेरी कल्पनाओं में  थिरकती है तो यकीन मानिये उस एहसास या अनुभूति से मेरा रोम-रोम नाचने लगता है । मै उसे अपनी कल्पनाओं में ही जिंदा कर लेती हूँ ।

मेरे लिए माँ शब्द का कोई सटीक अर्थ नहीं है जिसमें माँ के प्रति मेरी भावनायें जो है उसे परिभाषित किया जा सके । वह मातृत्व ही था जो एक स्त्री में मौजूद होता है । और उस प्यारे बच्चे ने तो अपनी बाल छवि की मनमोहक आभा से मेरे अन्तर्मन को झकझोर दिया था । जब उसकी शान्त प्रिय भंगिमा ने मुझे मेरे भीतर से माँ शब्द का एहसास कराया उस वक़्त तो वह अजनबी मुझे अपना सा लगा था; मेरे तन, मन व वज़ूद का हिस्सा लगा था । वह ना जाने कौन था, कहाँ से आया था, उसकी सूरत भी अब ना जाने कैसी होगी पर जिसका मैंने रसास्वादन किया वह ईश्वरीय अनुभूति से जरा भी कम ना था । वह रात मेरी जिंदगी की कई कहानियों या कई रातों का एक छोटा सा पल है, जो मेरी आत्मा को सजाता है । जैसे उस पल का होना मेरे भीतर की माँ को एक पुकार दे गया है।
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टिप्पणियाँ:-

मनचन्दा पानी:-
सच में भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत सुन्दरता से की गयी है। इस प्रकार की लेखन शैली वाकई परिपक्व लेखनी से उतरती है। अनुप्रिया जी को शुभकामनाएं।

अपने विवेकानुसार कुछ सुधार के सुझाव दे रहा हूँ। हो सकता है मैं ही गलत हूँ।

माँ से ही प्रेम शब्द का शायद
शायद माँ से ही प्रेम शब्द का
या
माँ से ही शायद प्रेम शब्द का

एक इच्छा हमेशा खुद से जुडी रही
एक इच्छा हमेशा "मुझ" से जुडी रही

जो मातृत्व के भाव का अनुभव
"जिस" मातृत्व के भाव का अनुभव
या मातृत्व के "जिस" भाव का अनुभव

निहारते हुए अनुभव से
निहारने के अनुभव से

नयनों से कब से स्पर्श कर रही थी
नयनो से कब से स्पर्श कर "रही हूँ"

सादर।

अल्का सिगतिया:-
दूसरे  से इतना  लगाव।बहुत। प्यारी भावनाओं  को। अनुभूत करना। फिर  इतनी  प्यारी अभिव्यक्ति

किसलय पांचोली:-
लिखावट में परिपक्वता और मार्मिकता कहने के बजाए अगर हम यह कहें कि लेखन में परिपक्वता और मार्मिकता तो शायद बेहतर होगा।
निसंदेह, यह मन को छूने वाला संस्मरण है।

अनुप्रिया आयुष्मान:-
भाव और शब्द: दोनों की एक अलग अस्मितायें हैं। मेरे भीतर के भावों के लिए मैं एक शब्द जगत का निर्माण करने की कोशिश करती हूँ। मेरी उसी कोशिश का एक नन्हा सा फूल था यह संस्मरण।

इस शब्दगत भावजगत को इतने पुष्प समर्पित किये गए बिजूका की ओर से, इस बात से बहुत ही आह्लादित हूँ।

विशेषकर बृजेश कानूनगो जी का, दीप माला जी का, किसलय पंचोली जी का, मनीषा जैन जी का, कीर्तिराणा जी का, अल्का जी का, प्रज्ञा दी का तथा सुषमा जी को जिनके शब्दों ने मुझे एक नयी ऊर्जा से सराबोर कर दिया है।

मनचंदा पानी जी को शब्दों के सही समायोजन के लिए ह्रदय से कोटि कोटि धन्यवाद देती हूँ।

ब्रजेश कानूनगो:-
ऊपर के वक्तव्य से 'एक' शब्द की आवृति को हटा दीजिये।कथन और संवर जाएगा।करके देखें।

फ़रहत अली खान:-
मातृत्व द्रव्य है न ऊर्जा। लेकिन ये संस्मरण पढ़ कर ऐसा लगा गोया लेखिका मातृत्व के सागर में ग़ोते लगा रही हैं। बेहद सधी हुई भाषा-शैली के साथ-साथ हिंदी शब्दकोष का अच्छा ज्ञान भी है अनुप्रिया जी को। एक युवा लेखिका के क़लम से एक अच्छे स्तर का लेख देखकर ख़ुशी हुई।
बधाई।

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