कवि वीरेन डंगवाल जी के निधन से हम सब शोकाकुल हैं। आज वीरेन डंगवाल जी को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी कुछ कविताएं दे रहे हैं। वीरेन जी हमारे समय के विरल कवि थे। वीरेन जी हिन्दी कविता का उजाला व उनकी कविताएं मनुष्यता की पहचान हैं। सहज शब्दों में गम्भीर बात कह देना उनकी विशेषता। तो आइये पढ़ते हैं उनकी कविताएं।
      
वह-सवेरे 
मुंह भी मैला 
फिर भी बोले 
चली जा रही 
वह लड़की मोबाइल पर 
रह-रह 
चिहुंक-चिहुंक जाती है 
कुछ नई-नई-सी विद्या पढ़ने को 
दूर शहर से आकर रहने वाली 
लड़कियों के लिए 
एक घर में बने निजी छात्रावास की बालकनी है यह 
नीचे सड़क पर 
घर वापस लौट रहे भोर के बूढ़े अधेड़ सैलानी 
परिंदे अपनी कारोबारी उड़ानों पर जा चुके
सत्र शुरू हो चुका 
बादलों-भरी सुबह है ठण्डी-ठण्डी 
ताजा चेहरों वाले बच्चे निकल चले स्कूलों को 
उनकी गहमागहमी उनके रूदन-हास से 
फिर से प्रमुदित-स्फूर्त हुए वे शहरी बन्दर और कुत्ते 
छुट्टी भर थे जो अलसाये 
मार कुदक्का लम्बी टांगों वाली 
हरी-हरी घासाहारिन तक ने 
उन ही का अभिनन्दन किया 
इस सबसे बेखबर किंतु वह 
उद्विग्न हाव-भाव बोले जाती है 
कोई बात जरूरी होगी अथवा 
बात जरूरी नहीं भी हो सकती है
       
लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल 
हरा बस किंचित कहीं ही ज़रा-ज़रा 
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर-डांडे श्वेत-श्याम 
ऐसा हाल !
अद्भुत 
लाल !
बकरियों की निश्चल आँखों में 
ख़ुमार बन कर छा गया 
आ गया 
मौसम सुहाना आ गया
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे
फिर फिर निराला को
1.
स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था 
अकेला
प्लेटफार्म नंबर दो पर।
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ।
बाबा संत न था
ज्ञानी था और गरीब।
रिक्शेवाले की तरह। 
दोपहर की अजान उठी।
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ।
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
दूर थी उनकी अयोध्या। 
2.
टेम्पो
खच्च भीड़ 
संकरी गलियाँ
घाटों पर तख्त ही तख्त
कंघी, जूते और झंडे
सरयू का पानी
देह को दबाता
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
चारों और स्नानार्थी
मंगते और पण्डे। 
सब कुछ था पूर्ववत अयोध्या में
बस उत्सव थोडा कम
थोडा ज्यादा वीतराग,
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
तीन ईंटों का चूल्हा कर
जैसे तैसे धौंक आग।
फिर भी क्यों लगता था बार बार
आता हो जैसे, आता हो जैसे
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
भिंचा-भिंचा विकल रुदन।
3.
लेकिन
वह एक और मन रहा राम का
जो
न थका।
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
सृजनशील, संकल्पवान
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
भर देता जिस में शक्ति एक
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक। 
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका।
इसीलिए रौंदी जा कर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या।
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।
   =========
परिचय
जन्म: 05 अगस्त 1947
जन्म स्थानकीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
इसी दुनिया में (1990), दुष्चक्र में सृष्टा (2002)
पुरस्कार
रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992),
श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994),
शमशेर सम्मान (2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।
 
 
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें