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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 मार्च, 2018

नौजवानों के नाम एक नौजवान की जिन्दगी
  तुहिन

जब कभी भी नौजवानों का जिक्र होगा, जब कभी भी नौजवानों की भावनाओं का जिक्र होगा, नौजवानों के साहस, लगन, उत्साह, बलिदान का जिक्र होगा, जब कभी भी इस बात का जिक्र होगा कि कोई भी देश या समाज इतना बोझ नहीं होता कि अपने को संवारने वाले नौजवान बेटे न पैदा कर सके, जब कभी भी गुलामी की जंजीरों को अपने गठीले बाजुओं के प्रहार से तोड़कर जनता के लिए आजादी की बयार लाने वाले बहादुरों का जिक्र होगा- उस नौजवान शख्सियत का जिक्र होगा-जिसका नाम है- भगत सिंह।

तुहिन 

  अंग्रेज साम्राज्यवादियों के सामने जब हिन्दुस्तानी जनता की सारी उम्मीदें समाप्त हो गई थीं, तब नाउम्मीदी की उस सियाहरात में भगत सिंह अपने नौजवान क्रांतिकारी साथियों के साथ उम्मीदों का धूमकेतु बनकर चमका। भगत सिंह की सक्रिय जिंदगी में लगातार ही उनके विचारों में परिवर्तन दिखाई देता है पर यह परिवर्तन एक निश्चित दिशा में और यह दिशा है आवाम की हालत और अधिक सफाई में समझने की ओर, हालात के बेहतर और तर्कसंगत समाधानों की ओर और उन समाधानों की हकीकत में हासिल करने के लिए एक संगठित प्रतिरोध शक्ति विकसित करने की ओर जिसकी शुरूआत एक आर्यसमाजी के रूप में गांवों के नम्बरदारों की मर्जी के खिलाफ अकाली मोर्चे के जत्थे की रास्ते की व्यवस्थाओं से हुई, जब वह किशोर ही था। वहां से नेशनल कॉलेज की गतिविधियों, पंजाब के नौजवानों के बीच नौजवान भारत सभा के गठन और उसके बाद 8 सितम्बर 1928 को चंद्रशेखर आजाद आदि देश के तमाम क्रांतिकारियों के साथ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना तक भगतसिंह एक बेहतरीन संगठनकर्ता के रूप में उभरते चले आते हैं। असेम्बली बमकांड के बाद गिरफ्तार होकर जेल में उन्होंने भूख-हड़ताल के जरिए कैदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आंदोलन की शुरूआत की और इस तरह शत्रु की कैद में भी अपनी संगठन और नेतृत्व क्षमता का परिचय देते रहे। भगत सिंह यह नहीं सोचते थे कि अंग्रेजों के जाने से मिली आजादी का लाभ सिर्फ अमीर हिन्दुस्तानियों को मिले और किसान-मजदूरों की दुर्दशा वैसी ही बनी रहे। इस संबंध में कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले तथाकथित स्वाधीनता आंदोलन के बारे में उनके विचार बिल्कुल स्पष्ट और सटीक थे। जेल से 2 फरवरी 1931 को नौजवान कार्यकर्ताओं के नाम लिखे पत्र में उन्होंने साफ तोैर पर कहा यह संघर्ष मध्यमवर्गीय दुकानदारों और चंद पूंजीपतियों के बलबूते किया जा रहा है। वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएं तो गांवों और कारखानों में है किसान और मजदूर। ये सोये हुए सिंह यदि एक बार गहरी नींद से जाग गए तो वे हमारे नेताओं की लक्ष्यपूर्ति के बाद भी रूकने वाले नहीं हैं। हमारे नेता किसानों के आगे झुकने के बजाय अंग्रेजों के आगे घुटने टेकना पसंद करते हैं। उसी पत्र में आगे भगतसिंह ‘क्रांति‘ शब्द से अपना आशय स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - ‘क्रांति‘ से हमारा आशय  स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है।



जनताता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रांति‘ बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। क्रांति की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए असेम्बली बमकांड पर सेशन कोर्ट में 6 जून 1929 को दिए गए अपने बयान में उन्होंने कहा था। ‘क्रांति‘ के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। क्रांति से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का अधिपत्य होगा जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा। ‘ये पंक्तियां उनके चारों को काफी हद तक स्पष्ट करती हैं। यह क्रांति कैसे होगी ? उसके बारे में कहना था। ‘क्रांति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी की ताकत के वश की बात नहीं है और न ही यह किसी निश्चित तारीख को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रांति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं। पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता क्रांति के सिवाय जीवन में जिनकी और कोई ख्वाहिश ही न हो। ‘नौजवान कार्यकर्ताओं के बारे में उन्होंने उसी पत्र में आगे लिखा-‘ ऐसे कार्यकर्ता स्पष्ट विचार, प्रत्यक्ष समझदारी पहलकदमी की योग्यता और तुरंत निर्णय कर सकने की शक्ति रखते हों। .... नवयुवकों के आंदोलन सबसे पहली मंजिल है जहां से हमारा आंदोलन शुरू होगा। युवक आंदोलन को अध्ययन केंद्र (स्टडी सर्किल) खोलने चाहिए। लीफलेट, पैम्पलेट, पुस्तकें, मैगजीन छापने चाहिए। क्लासों में लेक्चर होने चाहिए, नौजवानों को क्रांति का संदेश हर झोपड़ी  और हर कारखाने तक ले जाना होगा, उस क्रांति का संदेश जो एक ऐसी आजादी लाएगी जिसमें आदमी के हाथों आदमी की लूट असंभव होगी।‘  ‘न तो इसके लिए भावुक होने की जरूरत है और न ही यह सरल है। जरूरत है, निरंतर संघर्ष करने, कष्ट सहने और कुर्बानी भरा जीवन बिताने की। अपना व्यक्तिवाद पहले खत्म करो। इंच-इंच कर आप आगे बढंेगे। इसके लिए हिम्मत, दृढ़ता और बहुत मजबूत इरादे की जरूरत है। कितने ही भारी कष्ट व कठिनाइयां क्यों न हो, आपकी हिम्मत न कांपे। कोई भी पराजय या धोखा आपका दिल न तोड़ सके। कष्ट सहने और कुर्बानी करने के सिद्धांत से आप सफलता हासिल करेंगे और यह व्यक्तिगत सफलताएं क्रांति के लिए अमूल्य संपत्ति साबित होंगी।

भगतसिंहह ने कहा था -‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, अन्यथा पतन और बरबादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत राह पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इंसान की प्रगति रूक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए जरूरी है कि क्रांति की स्पिरीट ताजा की जाए, ताकि इन्सानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो। ‘ ‘अगर मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस है, तो एक छोटा सा संघर्षमय जीवन ही अपने आप में मेरा पुरस्कार होगा।‘ भगतसिंह के ये शब्द न सिर्फ यह स्पष्ट कर देते हैं कि अपनी जिंदगी को किस नजरिये से देखते थे, बल्कि यह भी हमें कि अपनी जिंदगी किस नजरिये से देखनी चाहिए। हिंदुस्तानी इन्कलाब के सबसे बड़े प्रतीक शहीदे आज़म भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरू को 23 मार्च 1931 में दी गई फांसी के बाद 87 वर्ष और 1947 की उस आजादी के बाद 70 वर्ष का समय बीत चुका है जो हर कदम पर अधूरी साबित होती आई है। भगत सिंह ने बार-बार यह चेतावनी दी थी कि व्यवस्था में बुनियादी बदलाव के बिना आजादी में गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों का राज होगा, ऊपर के 10 फीसदी लोगों की आजादी होगी, देश के 90 फीसदी मजदूरों किसानों की जिन्दगी को शोषण और लूट से आजादी नहीं मिलेगी। इन 67 वर्षों के एक-एक दिन ने उस नौजवान की चेतावनी को सच साबित किया है। शहीद भगत सिंह ने जैसा कहा था, ठीक उसी तरह 1947 के बाद देश नई गुलामी के नागपाश में जकड़ गया है। पुराने किस्म के उपनिवेश की जगह भारत, अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाली साम्राज्यवादी ताकतों के एक नव-उपनिवेश में बदल गया है। नये लुटेरों की चमड़ी का रंग बदल गया है। पर लूट बन्द होना तो दूर और तेज होती गयी है। नयी गुलामी के खिलाफ संघर्ष में युवा एवं विद्यार्थियों की महती भूमिका है। उम्मीद है इसे वे जल्दी से जल्दी समझ लेंगे तथा यह भी जान लेंगे कि आज की तारीख में भी शहीदे आजम भगत सिंह से बड़ा रोल मॉडल, युवा एवं विद्यार्थियों के सामने दूसरा नहीं है।  ००
    तुहिन                                                                                                                                
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