उर्मिला शुक्ल कविताएं
कविताएँ
नमक का महत्व
हम हैं कौन
रहते हैं कैसे
हमारी हँसी ख़ुशी
हमारे नाच गान
रीति नीति पर
बोलते हो मगर
नहीं जानते तुम हमे
,हमारे मन और
जीवन को
नहीं जानते तुम
सिर्फ मुर्गा लड़ाना
सल्फी पीना और
सरहुल तक ही
सिमटा नहीं है
हमारा जीवन
नहीं जानते तुम
कितना मुश्किल है
दिन दिन भर
भटकना और
छिपाये रखना
अपने आप को
उन नज़रों से
जो घुस आयी हैं
हमारे जंगल में
कुछ भी तो
नहीं जानते तुम
मगर लिखते हो
बहुत कुछ
तुम लिखते हो कि
कितने मुर्ख हैं हम
कि नमक के बदले में
दे देते हैं
कीमती चिरौजियाँ
तुम नहीं जानते
जंगल का अर्थ
तुम नहीं समझते
नमक का महत्व
शब्द
पहले गढ़े मैंने
ताकत और उत्साह से
भरे भरे अनेक शब्द
मगर
उन्हें छीन लिया मठाधीशों ने
दे दिया उनके हाथ में
धर्म का झंडा
उन्मादी हो गये
मेरे शब्द।
तलवार लेकर वे
मिटाने लगे
अपना ही वज़ूद।
फिर रचे मैंने
मनुष्यता से भरे भरे
कुछ शब्द
मगर
अबकी उन्हें
अगुआ कर लिया
सफेदपोशों ने
दबा दिया उन्हें अपनी
कुर्सी के पाये तले
असहनीय दर्द से चीख रहे हैं
मेरे शब्द
और वे
कर रहे हैं अट्टहास
अब मैं गढुँगी नहीं
बो दूँगी उन्हें
निराई गुड़ाई
खाद पानी से जब
लहलहा उठेगी मेरे
शब्दों की फसल।
तब कोई मठाधीश
कोई सफेदपोश
नहीं छीन पायेगा उन्हें
छीनने की कोशिश में भी
झर ही जायेंगे कुछ दाने।
समय आने पर
फिर उगेंगे वे
एक बार
दो बार
बार बार
लगातार
उगेंगे मेरे शब्द
छत्तीसगढ़ की औरत
छतीसगढ़ की औरत
बोती है धान
निदाई कटाई और
मिसाई करके भर देती
कोठी में धान
वह जाती है बाज़ार
करती है सौदा
खरीदती है
साग भाजी या
मौसमी फल
केरा संतरा या
सीतफल
सिरपर धर कर टुकनी
लगाती है फेरा
मुहल्ले और गलियों का
भर लेती है पेट
अपने कुनबे का
वह उतारती है सल्फी और
छिंद का रस
ले जाती है हाट
सल्फी का मटका लेकर
जब वो चलती है
सड़क पर
रैम्प पर चलती माडल को भी
कर देती है मात।
मेरे छत्तीसगढ़ की औरत
लगाती नहीं नारे
करती नहीं कोई विमर्श
वो तो बस जीती है
जिंदगी।
जिन्दगी को सलीब नहीं
रईचुली समझ कर
झूलती है वो
जिजीविषा की पर्याय है
मेरे छत्तीसगढ़ की औरत
चाहा था मैंने
तुम आओ
जीवन में
ऐसे
जैसे आती है हवा
जैसे आती है
भोर की पहली किरण
जैसे फूटता है अँखुआ
जैसे खिलता है फूल
अपनी ही खुशबू में
झूमता हुआ ।
मगर तुम तो आये
आँधी की तरह और
झकझोर कर रख दिया
मेरे वजूद को।
आये तुम
तपते सूरज की तरह
छोड़े तुमने
अनगिन निशान
झुलस गईं मेरी
सारी कोमलता।
फिर भी अभी
निःशेष नहीं हुआ है
सब कुछ
बाकी है अभी भी
थोड़ी सी नमी
और मैं चाहती हूँ
आज भी कि
तुम आओ ऐसे जैसे ..... .।
घर की चौखट
कहते हैं सब
बदल रही है दुनिया
बदल रही है औरत।
बदल रहा है घर और
उसकी रुपरेखा
बहुत सारी सुविधाओं से
भरी पूरी हो गयी है
औरत।
वे देखते हैं घर और
घर का आलीशान रुप
वे नहीं देख पाते
घर की चौखट
जिसे लाँघती औरत
हो जाती है लहूलुहान
आज भी।
कुटुमसर की मछलियाँ
कुटुमसर की गुफा में तैरती अंधी मछलियाँ
सैलानियों का कुतुहल जगाती
उनका मन बहलाती मछलियाँ
अब हो उठी हैं वे
बहुत व्याकुल।
वे कर रही हैं सवाल
अपने आप से
क्या सचमुच
वे धरती पर आयी हैं
सिर्फ मन बहलाने ?
मात्र यही है
उनके जीवन का लक्ष्य कि
भूलकर अपनी पीड़ा
बहलाती रहें
उनका मन
जिनके लिये वे हैं
सिर्फ एक तमाशा?
मछलियों ने अब
सूँघ ली हैं
उनकी मंशा
चीन्ह लिये हैं
उनके इरादे।
कहीं बाज़ार में
तब्दील न हो जाये
उनका जंगल
यही सोचकर
व्याकुल हैं
कुटुमसर की
मछलियाँ
मादर की थाप पर
थिरका करती थी
जिसकी देह।
आँखों से छलकती थी
मादकता सलफी की।
हरे बाँस सी
लचकती काया
अब हो गयी है ठठरी
उस ठठरी को लादे
ढूँढ रही है वो
एक ऐसी ठौर कि जहाँ
दो पल थिरा सके
मगर जंगल के
पोर पोर से
रिसती बारूदी गंध
उसे कर देती है परेशान।
उसके जख्मों से
बहता लहू
कर देता है उसे
और और और व्याकुल।
वह चाहती है कि
धो ले अपने जख़्मों पर
जमा लहू।
लगा दे उस पर मिट्टी कि
पूर जायें उसके जख़्म।
मगर कैसे ?
दरक गयी है
इंदिरावती छाती
मिट्टी सन गयी है
लहू से।
और लहू से
पूरता कहां है
कोई जख़्म।
भागना ,भागना
बस भागना ही तो
रह गया है
उसके हाथ।
आँगन में लहलहाती
तुलसी ने कभी
किया नहीं
कोई प्रतिवाद।
कभी पूजा उसे और
कभी तोड़ लीं
उसकी सारी पत्तियाँ
बनाया लिया काढ़ा।
कभी दवा तो
कभी दुआ बन
वो आती रही काम।
दिया और बस
दिया ही उसने।
अपना सब कुछ
अपना वजूद ही
दे दिया उसने
पर की नहीं कोई शिकायत
माँ ने भी तो........
आँगन से फ़्लैट में
चली आयी वो
कभी गमले तो
कभी डिब्बे में
टाँग दिया गया उसे
उसने कभी नहीं माँगी
कोई जगह
अपने लिये।
अनजान नहीं हैं वे
हमारी मंशा से
वे जानती हैं कि
हमारे घर और दिल
दोनों की बहुत सँकरे
हो गये हैं
उनके लिये।
बातों का मरम
कहा करती थी माँ
तुम लड़की हो
मत हँसा करो
इतने जोर जोर से।
नज़रें झुकाकर
किया करो बात
भैया दादा से।
देखो मत आसमान
रहो धरती पर
धरती की तरह।
मैं नासमझ
नाराज़ हो जाती थी उनसे।
तब कहाँ समझ पायी थी मैं
वो सब
जो कहना चाहती थीं वे
अब जब भी
निकलती हूँ
घर के बाहर
बहुत याद आती हैं वे
मैं अब समझ पायी हूँ
माँ की बातों का मरम
विकल्प
कितना गहरा है अँधेरा
कि सूझता नहीं
हाथ को हाथ ।
आच्छादित हैं इसमें
धरती और आकाश ।
कहाँ गया सूरज ?
क्या उसने अँधेरे से
मिला लिया है हाथ ?
फिर तो ढ़ूँढ़ना ही होगा
कोई विकल्प ।
जलाना ही होगा चिराग
जो भेदकर अँधेरा
बिखेरेगा रौशनी ।
दोस्तों चिराग सूरज तो नहीं
मगर विकल्प है सूरज का
नोट -
1 कुटुमसर बस्तर की अँधेरी गुफा जहां की मछलियाँ रौशनी के आभाव में अंधी हैं।
2 इंदिरावती -बस्तर की प्रमुख नदी
☝🏼
नाम - उर्मिला शुक्ल
जन्म - 20 - 9 - 19 62
शिक्षा - एम ए ,पी एच डी ,डी लिट्
लेखन - कहानी , उपन्यास ,कविता , ग़ज़ल ,समीक्षा और यात्रा संस्मरण। छत्तीसगढ़ी और हिंदी में लेखन।
प्रकाशन हिंदी - कहानी संग्रह - 1 अपने अपने मोर्चे पर ,- प्रकाशक- विद्या साहित्य संस्थान इलाहबाद। 2 फूल कुँवर तुम जागती रहना - नमन प्रकाशन 2015 दिल्ली 3 मैं ,फूलमती और हिजड़े नमन प्रकाशन 2015
साझा कहानी संग्रह -
1 बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ नामक संग्रह नमन प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित दस खंडों में प्रकाशित। नवें भाग में कहानी गोदना के फूल प्रकाशित।
2 कलमकार फाउण्डेशन दिल्ली द्वारा 2015 में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानियाँ । इस संग्रह में कहानी -सल्फी का पेड़ नहीं औरत प्रकाशित-प्रकाशक-श्री साहित्य प्रकाशन दिल्ली।
3 हंस -सिर्फ कहानियाँ सिर्फ महिलायें अगस्त 2013 कहानी बँसवा फुलाइल मोरे अँगना प्रकाशित और चर्चित।
4 -कथा मध्य प्रदेश 4 खंडों में प्रकाशित मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कथाकारों के संग्रह में 4 भाग में नहीं रहना देश बिराने प्रकाशित।
कविता संग्रह - इक्कीसवीं सदी के द्वार पर (मुहीम प्रकाशन हापुड़ 2001 )
समीक्षा - 1 छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में नारी - चेतना से विमर्श तक (वैभव प्रकाशन रायपुर ),2 हिंदी कहानी में छत्तीसगढ़ी संस्कृति (वैभव प्रकाशन रायपुर )।3 हिंदी कहानी का बदलता स्वरूप (नमन प्रकाशन दिल्ली ),
3 हिंदी कहानियों वस्तुगत परिवर्तन
उर्मिला शुक्ल |
कविताएँ
नमक का महत्व
हम हैं कौन
रहते हैं कैसे
हमारी हँसी ख़ुशी
हमारे नाच गान
रीति नीति पर
बोलते हो मगर
नहीं जानते तुम हमे
,हमारे मन और
जीवन को
नहीं जानते तुम
सिर्फ मुर्गा लड़ाना
सल्फी पीना और
सरहुल तक ही
सिमटा नहीं है
हमारा जीवन
नहीं जानते तुम
कितना मुश्किल है
दिन दिन भर
भटकना और
छिपाये रखना
अपने आप को
उन नज़रों से
जो घुस आयी हैं
हमारे जंगल में
कुछ भी तो
नहीं जानते तुम
मगर लिखते हो
बहुत कुछ
तुम लिखते हो कि
कितने मुर्ख हैं हम
कि नमक के बदले में
दे देते हैं
कीमती चिरौजियाँ
तुम नहीं जानते
जंगल का अर्थ
तुम नहीं समझते
नमक का महत्व
शब्द
पहले गढ़े मैंने
ताकत और उत्साह से
भरे भरे अनेक शब्द
मगर
उन्हें छीन लिया मठाधीशों ने
दे दिया उनके हाथ में
धर्म का झंडा
उन्मादी हो गये
मेरे शब्द।
तलवार लेकर वे
मिटाने लगे
अपना ही वज़ूद।
फिर रचे मैंने
मनुष्यता से भरे भरे
कुछ शब्द
मगर
अबकी उन्हें
अगुआ कर लिया
सफेदपोशों ने
दबा दिया उन्हें अपनी
कुर्सी के पाये तले
असहनीय दर्द से चीख रहे हैं
मेरे शब्द
और वे
कर रहे हैं अट्टहास
अब मैं गढुँगी नहीं
बो दूँगी उन्हें
निराई गुड़ाई
खाद पानी से जब
लहलहा उठेगी मेरे
शब्दों की फसल।
तब कोई मठाधीश
कोई सफेदपोश
नहीं छीन पायेगा उन्हें
छीनने की कोशिश में भी
झर ही जायेंगे कुछ दाने।
समय आने पर
फिर उगेंगे वे
एक बार
दो बार
बार बार
लगातार
उगेंगे मेरे शब्द
छत्तीसगढ़ की औरत
छतीसगढ़ की औरत
बोती है धान
निदाई कटाई और
मिसाई करके भर देती
कोठी में धान
वह जाती है बाज़ार
करती है सौदा
खरीदती है
साग भाजी या
मौसमी फल
केरा संतरा या
सीतफल
सिरपर धर कर टुकनी
लगाती है फेरा
मुहल्ले और गलियों का
भर लेती है पेट
अपने कुनबे का
वह उतारती है सल्फी और
छिंद का रस
ले जाती है हाट
सल्फी का मटका लेकर
जब वो चलती है
सड़क पर
रैम्प पर चलती माडल को भी
कर देती है मात।
मेरे छत्तीसगढ़ की औरत
लगाती नहीं नारे
करती नहीं कोई विमर्श
वो तो बस जीती है
जिंदगी।
जिन्दगी को सलीब नहीं
रईचुली समझ कर
झूलती है वो
जिजीविषा की पर्याय है
मेरे छत्तीसगढ़ की औरत
चाहा था मैंने
तुम आओ
जीवन में
ऐसे
जैसे आती है हवा
जैसे आती है
भोर की पहली किरण
जैसे फूटता है अँखुआ
जैसे खिलता है फूल
अपनी ही खुशबू में
झूमता हुआ ।
मगर तुम तो आये
आँधी की तरह और
झकझोर कर रख दिया
मेरे वजूद को।
आये तुम
तपते सूरज की तरह
छोड़े तुमने
अनगिन निशान
झुलस गईं मेरी
सारी कोमलता।
फिर भी अभी
निःशेष नहीं हुआ है
सब कुछ
बाकी है अभी भी
थोड़ी सी नमी
और मैं चाहती हूँ
आज भी कि
तुम आओ ऐसे जैसे ..... .।
घर की चौखट
कहते हैं सब
बदल रही है दुनिया
बदल रही है औरत।
बदल रहा है घर और
उसकी रुपरेखा
बहुत सारी सुविधाओं से
भरी पूरी हो गयी है
औरत।
वे देखते हैं घर और
घर का आलीशान रुप
वे नहीं देख पाते
घर की चौखट
जिसे लाँघती औरत
हो जाती है लहूलुहान
आज भी।
कुटुमसर की मछलियाँ
कुटुमसर की गुफा में तैरती अंधी मछलियाँ
सैलानियों का कुतुहल जगाती
उनका मन बहलाती मछलियाँ
अब हो उठी हैं वे
बहुत व्याकुल।
वे कर रही हैं सवाल
अपने आप से
क्या सचमुच
वे धरती पर आयी हैं
सिर्फ मन बहलाने ?
मात्र यही है
उनके जीवन का लक्ष्य कि
भूलकर अपनी पीड़ा
बहलाती रहें
उनका मन
जिनके लिये वे हैं
सिर्फ एक तमाशा?
मछलियों ने अब
सूँघ ली हैं
उनकी मंशा
चीन्ह लिये हैं
उनके इरादे।
कहीं बाज़ार में
तब्दील न हो जाये
उनका जंगल
यही सोचकर
व्याकुल हैं
कुटुमसर की
मछलियाँ
मादर की थाप पर
थिरका करती थी
जिसकी देह।
आँखों से छलकती थी
मादकता सलफी की।
हरे बाँस सी
लचकती काया
अब हो गयी है ठठरी
उस ठठरी को लादे
ढूँढ रही है वो
एक ऐसी ठौर कि जहाँ
दो पल थिरा सके
मगर जंगल के
पोर पोर से
रिसती बारूदी गंध
उसे कर देती है परेशान।
उसके जख्मों से
बहता लहू
कर देता है उसे
और और और व्याकुल।
वह चाहती है कि
धो ले अपने जख़्मों पर
जमा लहू।
लगा दे उस पर मिट्टी कि
पूर जायें उसके जख़्म।
मगर कैसे ?
दरक गयी है
इंदिरावती छाती
मिट्टी सन गयी है
लहू से।
और लहू से
पूरता कहां है
कोई जख़्म।
भागना ,भागना
बस भागना ही तो
रह गया है
उसके हाथ।
आँगन में लहलहाती
तुलसी ने कभी
किया नहीं
कोई प्रतिवाद।
कभी पूजा उसे और
कभी तोड़ लीं
उसकी सारी पत्तियाँ
बनाया लिया काढ़ा।
कभी दवा तो
कभी दुआ बन
वो आती रही काम।
दिया और बस
दिया ही उसने।
अपना सब कुछ
अपना वजूद ही
दे दिया उसने
पर की नहीं कोई शिकायत
माँ ने भी तो........
आँगन से फ़्लैट में
चली आयी वो
कभी गमले तो
कभी डिब्बे में
टाँग दिया गया उसे
उसने कभी नहीं माँगी
कोई जगह
अपने लिये।
अनजान नहीं हैं वे
हमारी मंशा से
वे जानती हैं कि
हमारे घर और दिल
दोनों की बहुत सँकरे
हो गये हैं
उनके लिये।
बातों का मरम
कहा करती थी माँ
तुम लड़की हो
मत हँसा करो
इतने जोर जोर से।
नज़रें झुकाकर
किया करो बात
भैया दादा से।
देखो मत आसमान
रहो धरती पर
धरती की तरह।
मैं नासमझ
नाराज़ हो जाती थी उनसे।
तब कहाँ समझ पायी थी मैं
वो सब
जो कहना चाहती थीं वे
अब जब भी
निकलती हूँ
घर के बाहर
बहुत याद आती हैं वे
मैं अब समझ पायी हूँ
माँ की बातों का मरम
विकल्प
कितना गहरा है अँधेरा
कि सूझता नहीं
हाथ को हाथ ।
आच्छादित हैं इसमें
धरती और आकाश ।
कहाँ गया सूरज ?
क्या उसने अँधेरे से
मिला लिया है हाथ ?
फिर तो ढ़ूँढ़ना ही होगा
कोई विकल्प ।
जलाना ही होगा चिराग
जो भेदकर अँधेरा
बिखेरेगा रौशनी ।
दोस्तों चिराग सूरज तो नहीं
मगर विकल्प है सूरज का
नोट -
1 कुटुमसर बस्तर की अँधेरी गुफा जहां की मछलियाँ रौशनी के आभाव में अंधी हैं।
2 इंदिरावती -बस्तर की प्रमुख नदी
☝🏼
नाम - उर्मिला शुक्ल
जन्म - 20 - 9 - 19 62
शिक्षा - एम ए ,पी एच डी ,डी लिट्
लेखन - कहानी , उपन्यास ,कविता , ग़ज़ल ,समीक्षा और यात्रा संस्मरण। छत्तीसगढ़ी और हिंदी में लेखन।
प्रकाशन हिंदी - कहानी संग्रह - 1 अपने अपने मोर्चे पर ,- प्रकाशक- विद्या साहित्य संस्थान इलाहबाद। 2 फूल कुँवर तुम जागती रहना - नमन प्रकाशन 2015 दिल्ली 3 मैं ,फूलमती और हिजड़े नमन प्रकाशन 2015
साझा कहानी संग्रह -
1 बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ नामक संग्रह नमन प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित दस खंडों में प्रकाशित। नवें भाग में कहानी गोदना के फूल प्रकाशित।
2 कलमकार फाउण्डेशन दिल्ली द्वारा 2015 में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानियाँ । इस संग्रह में कहानी -सल्फी का पेड़ नहीं औरत प्रकाशित-प्रकाशक-श्री साहित्य प्रकाशन दिल्ली।
3 हंस -सिर्फ कहानियाँ सिर्फ महिलायें अगस्त 2013 कहानी बँसवा फुलाइल मोरे अँगना प्रकाशित और चर्चित।
4 -कथा मध्य प्रदेश 4 खंडों में प्रकाशित मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कथाकारों के संग्रह में 4 भाग में नहीं रहना देश बिराने प्रकाशित।
कविता संग्रह - इक्कीसवीं सदी के द्वार पर (मुहीम प्रकाशन हापुड़ 2001 )
समीक्षा - 1 छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में नारी - चेतना से विमर्श तक (वैभव प्रकाशन रायपुर ),2 हिंदी कहानी में छत्तीसगढ़ी संस्कृति (वैभव प्रकाशन रायपुर )।3 हिंदी कहानी का बदलता स्वरूप (नमन प्रकाशन दिल्ली ),
3 हिंदी कहानियों वस्तुगत परिवर्तन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें