मनीषा जैन की कविताएं
कविताएं
तुम सुनो
जब हम चुप होते हैं
वे घबरा जाते हैं
हमारे अगले कदम का
बेसब्री से इंतजार करते हैं
और हमारे अगले कदम पर
वे कुछ नहीं बोल पाते
उन्हें पता है
हमने पकड़ लिए हैं झूठ उनके
खोखले दावे उनके
सत्ता पर काबिज़ रहने के इरादे उनके
हम भी लाल बीज बोने से बाज़ नहीं आयेंगे
लेकिन वे हमारे बीज जमने नहीं देना चाहते
इसलिए हमने चुपचाप खड़े होकर
मुट्ठियां भींच ली हैं अपनी
और अब वे घबराकर इधर-उधर देखने लगे हैं
बचना चाहते हैं हमसे
हम तो अब बोलेंगे जरूर
बस अब तुम सुनो चुपचाप।
तवे पर रोटी
रोशनी है चकाचौंध
भेड़िए दिखा रहें हैं दांत
आम जनता छुपाती है रोटी
पृथ्वी की पीठ पर पड़ रहीं हैं दरारें
नदियां हो रही हैं वस्त्रहीन
सूरज के जल रहें हैं हाथ
सपनों में खोए हैं महामहिम
जनता गर्मी से बेहाल
सोई है फ्लाईओवरों के नीचे
राजा को नींद नहीं आती
उसे जाना है परियों के देश
अब कुछ दिन शाइन करेगा देश
जिससे आंखें चौधियां रही हैं सबकी
अमीर और होगा अमीर
गाल बजायेगा दीन-हीन
धरती अक्स पर थोड़ा और झुकेगी
किसान ढूंढ रहा है बादल
उसे नजर ही नहीं आता कुछ भी
वह सोचता है कि चलो घर चलें
शायद तवे पर नाच रही हो रोटी
या हो चूल्हा ठंडा ?
क्या पता / सब कुछ अनिश्चत/ फिर वह ढूंढेगा रस्सी
इससे महामहिम को क्या ?
फिर भी सत्ता के महलों में तो रहेगी रोशनी चकाचक।
नो आइडेन्टीटी पॉवर
आज बहुत भाता है सबको
थोड़ा-थोड़ा कम इंसान होना
हमारे भीतर/ सदियों से पड़े
पशुता के गुणसूत्र
न जाने कब ?
कोई घटा-जोड़ हो अचानक
सिर उठा ले कोई विरूपता
सबके भीतर जगती रहती है
आधी-अधूरी दुनिया/ उमड़ते सैलाब
इंसानियत और पशुता के मध्य मचता रहता है द्वंद्व
कभी पशुता हाबी/ कभी इंसानियत हाबी
तब व्यक्तित्व पर सवार हो जाती है
नो आइडेन्टीटी पॉवर
उस वक्त कितना सुकून देता है
पशुता का इंसानियत से भरे होना
और कितना सुकून देता है
किसी बेबस के काम आना
कितना जरूरी है उस वक्त
इंसानियत का जग जाना
इसीलिए इंसान तो इंसान
पशुओं में भी होती है
कहीं न कहीं कुछ इंसानियत
यानि जिनकी है नो आइडेन्टीटी पॉवर
उन्हीं में है पहचान की पॉवर।
खतरनाक
हमने ही बनाई थी / अपने इर्द-गिर्द
वे ऊंची-ऊंची दीवारें
अपनी ही सुरक्षा की खातिर
अब वे दीवारें ही/ पास आकर दबोच रहीं हैं हमें
दिल पत्ते सा कांपता है
अपनी ही सांस रोककर
हम अपने ही मरने का अभ्यास करते हैं
कहीं न कहीं / कुछ है
जो बहुत ख़तरनाक है।
निहत्था बालक
कभी-कभी भीड़ में होते हुए भी
महसूस करते हैं अकेलापन
देखते हैं हम सबके चेहरे
जैसे एक अदृश्य युद्ध के लिए तैयार
बस एक रणभेरी का इंतजार
इंतजार की तारतम्यता
इग्लू में फैली वीरानी जैसे
स्तूपो की छाया में शांति
पसरी है जैसे शमशान
कैसा मौन है यह / धधकने को हो जैसे कोई ज्वालामुखी
विश्व तो ध्यानमग्न है बाज़ार में
वह लुभा रहा है सबको
मुद्रा की जटाएं फैल रहीं है बाजार पर सांप जैसी
लीलने को सबको जैसे
रीत रहा है समय
कूड़े के ढ़ेर पर बैठा बच्चा
कर रहा है घोषणा / एक युद्ध की
लेकिन साजो समान खत्म है युद्ध का
कैसे लड़ेगा निहत्था बच्चा ?
रमैया
रमैया भूखी है / मांगती है अनाज
बस, तस्वीरों में रह गया है अनाज
खेत हो गए हैं उजाड़/ भगत सिंह ने बोई थी कभी बदूकें वहां
अब कुओं पर रहट नहीं लगती
अब आंसूओं की तरह सूख चुके हैं तालाब
खेत तड़क रहे हैं/ दरारों में झांकती है रमैया
अब खेत की मुंड़ेरों पर सारस नहीं आते
हल- बैल हो गए है तिरोहित
माथे पर हाथ धरे
किसान बैठे हैं उकडूं
शायद बिला गए हैं बादल / बनने बंद हो गए हैं बादल
कुछ नहीं है किसी के पास कहने को
क्या पता कल ?
रमैया रह जाए अकेली / या चली जाए उस पार
कोई ख़बर नहीं छपेगी अखबार में
कोई नहीं रोयेगा उसके लिए/ बस रो जायेगी रमैया
और चली जायेगी उस पार / पता नहीं कहां ?
कभी वापस न आने के लिए।
सबका अपना दर्द
किसी ने पूछा है कभी ?
पृथ्वी का दर्द / पेड़ों का दर्द
जब पत्ते पड़ते है ज़र्द
तब टूटने से पहले / सिसकियां भरते हैं पेड़
पहाड़ों से करता है कौन बातें ?
घिसते जाते हैं पल-पल
और फैलते जाते हैं समतल
किसी ने पूछा है कभी ?
चिडिया का दर्द / उसकी गर्भावस्था या प्रसूति का दर्द
सबके अपने-अपने दर्द
इन सबसे करता है कौन प्यार ?
सब रौंदना चाहते है पृथ्वी
काटना चाहते हैं पेड़
फोड़ना चाहते हैं पहाड़
पकड़ना चाहते हैं चिड़िया
इन सबको चाहिए प्यार / नहीं चाहिए विध्वंस।
बारिश के बाद इन्द्रधनुष का स्पर्श
1
शरीर मैला हो जाए भले ही
आत्मा कभी मैली नहीं होती
एक स्पर्श रहता है हमेशा
आत्मा में अटका
वही स्पर्श / वही अटकन / बसी रहती है आत्मा में
बिना किसी रंग, रूप, गंध के
इसी में समाए हैं अनगिनत रंग
स्पर्श के हमारे-तुम्हारे।
2
बहुत कोमल होता है स्पर्श
उसी में खिलते हैं / कितने ही प्रेम कमल
उस स्पर्श को देह की जरूरत नहीं
वह बसा रहता है आत्मा में
जब चाहें उसे महसूस कर सकते हैं
और खिल जाते हैं अनेक सिंदूरी फूल।
--------------------------------------------
मनीषा जैन
मनीषा जैन |
कविताएं
तुम सुनो
जब हम चुप होते हैं
वे घबरा जाते हैं
हमारे अगले कदम का
बेसब्री से इंतजार करते हैं
और हमारे अगले कदम पर
वे कुछ नहीं बोल पाते
उन्हें पता है
हमने पकड़ लिए हैं झूठ उनके
खोखले दावे उनके
सत्ता पर काबिज़ रहने के इरादे उनके
हम भी लाल बीज बोने से बाज़ नहीं आयेंगे
लेकिन वे हमारे बीज जमने नहीं देना चाहते
इसलिए हमने चुपचाप खड़े होकर
मुट्ठियां भींच ली हैं अपनी
और अब वे घबराकर इधर-उधर देखने लगे हैं
बचना चाहते हैं हमसे
हम तो अब बोलेंगे जरूर
बस अब तुम सुनो चुपचाप।
तवे पर रोटी
रोशनी है चकाचौंध
भेड़िए दिखा रहें हैं दांत
आम जनता छुपाती है रोटी
पृथ्वी की पीठ पर पड़ रहीं हैं दरारें
नदियां हो रही हैं वस्त्रहीन
सूरज के जल रहें हैं हाथ
सपनों में खोए हैं महामहिम
जनता गर्मी से बेहाल
सोई है फ्लाईओवरों के नीचे
राजा को नींद नहीं आती
उसे जाना है परियों के देश
अब कुछ दिन शाइन करेगा देश
जिससे आंखें चौधियां रही हैं सबकी
अमीर और होगा अमीर
गाल बजायेगा दीन-हीन
धरती अक्स पर थोड़ा और झुकेगी
किसान ढूंढ रहा है बादल
उसे नजर ही नहीं आता कुछ भी
वह सोचता है कि चलो घर चलें
शायद तवे पर नाच रही हो रोटी
या हो चूल्हा ठंडा ?
क्या पता / सब कुछ अनिश्चत/ फिर वह ढूंढेगा रस्सी
इससे महामहिम को क्या ?
फिर भी सत्ता के महलों में तो रहेगी रोशनी चकाचक।
अमृता शेरगिल |
नो आइडेन्टीटी पॉवर
आज बहुत भाता है सबको
थोड़ा-थोड़ा कम इंसान होना
हमारे भीतर/ सदियों से पड़े
पशुता के गुणसूत्र
न जाने कब ?
कोई घटा-जोड़ हो अचानक
सिर उठा ले कोई विरूपता
सबके भीतर जगती रहती है
आधी-अधूरी दुनिया/ उमड़ते सैलाब
इंसानियत और पशुता के मध्य मचता रहता है द्वंद्व
कभी पशुता हाबी/ कभी इंसानियत हाबी
तब व्यक्तित्व पर सवार हो जाती है
नो आइडेन्टीटी पॉवर
उस वक्त कितना सुकून देता है
पशुता का इंसानियत से भरे होना
और कितना सुकून देता है
किसी बेबस के काम आना
कितना जरूरी है उस वक्त
इंसानियत का जग जाना
इसीलिए इंसान तो इंसान
पशुओं में भी होती है
कहीं न कहीं कुछ इंसानियत
यानि जिनकी है नो आइडेन्टीटी पॉवर
उन्हीं में है पहचान की पॉवर।
खतरनाक
हमने ही बनाई थी / अपने इर्द-गिर्द
वे ऊंची-ऊंची दीवारें
अपनी ही सुरक्षा की खातिर
अब वे दीवारें ही/ पास आकर दबोच रहीं हैं हमें
दिल पत्ते सा कांपता है
अपनी ही सांस रोककर
हम अपने ही मरने का अभ्यास करते हैं
कहीं न कहीं / कुछ है
जो बहुत ख़तरनाक है।
अमृता शेरगिल |
निहत्था बालक
कभी-कभी भीड़ में होते हुए भी
महसूस करते हैं अकेलापन
देखते हैं हम सबके चेहरे
जैसे एक अदृश्य युद्ध के लिए तैयार
बस एक रणभेरी का इंतजार
इंतजार की तारतम्यता
इग्लू में फैली वीरानी जैसे
स्तूपो की छाया में शांति
पसरी है जैसे शमशान
कैसा मौन है यह / धधकने को हो जैसे कोई ज्वालामुखी
विश्व तो ध्यानमग्न है बाज़ार में
वह लुभा रहा है सबको
मुद्रा की जटाएं फैल रहीं है बाजार पर सांप जैसी
लीलने को सबको जैसे
रीत रहा है समय
कूड़े के ढ़ेर पर बैठा बच्चा
कर रहा है घोषणा / एक युद्ध की
लेकिन साजो समान खत्म है युद्ध का
कैसे लड़ेगा निहत्था बच्चा ?
रमैया
रमैया भूखी है / मांगती है अनाज
बस, तस्वीरों में रह गया है अनाज
खेत हो गए हैं उजाड़/ भगत सिंह ने बोई थी कभी बदूकें वहां
अब कुओं पर रहट नहीं लगती
अब आंसूओं की तरह सूख चुके हैं तालाब
खेत तड़क रहे हैं/ दरारों में झांकती है रमैया
अब खेत की मुंड़ेरों पर सारस नहीं आते
हल- बैल हो गए है तिरोहित
माथे पर हाथ धरे
किसान बैठे हैं उकडूं
शायद बिला गए हैं बादल / बनने बंद हो गए हैं बादल
कुछ नहीं है किसी के पास कहने को
क्या पता कल ?
रमैया रह जाए अकेली / या चली जाए उस पार
कोई ख़बर नहीं छपेगी अखबार में
कोई नहीं रोयेगा उसके लिए/ बस रो जायेगी रमैया
और चली जायेगी उस पार / पता नहीं कहां ?
कभी वापस न आने के लिए।
सबका अपना दर्द
किसी ने पूछा है कभी ?
पृथ्वी का दर्द / पेड़ों का दर्द
जब पत्ते पड़ते है ज़र्द
तब टूटने से पहले / सिसकियां भरते हैं पेड़
पहाड़ों से करता है कौन बातें ?
घिसते जाते हैं पल-पल
और फैलते जाते हैं समतल
किसी ने पूछा है कभी ?
चिडिया का दर्द / उसकी गर्भावस्था या प्रसूति का दर्द
सबके अपने-अपने दर्द
इन सबसे करता है कौन प्यार ?
सब रौंदना चाहते है पृथ्वी
काटना चाहते हैं पेड़
फोड़ना चाहते हैं पहाड़
पकड़ना चाहते हैं चिड़िया
इन सबको चाहिए प्यार / नहीं चाहिए विध्वंस।
अमृता शेरगिल |
बारिश के बाद इन्द्रधनुष का स्पर्श
1
शरीर मैला हो जाए भले ही
आत्मा कभी मैली नहीं होती
एक स्पर्श रहता है हमेशा
आत्मा में अटका
वही स्पर्श / वही अटकन / बसी रहती है आत्मा में
बिना किसी रंग, रूप, गंध के
इसी में समाए हैं अनगिनत रंग
स्पर्श के हमारे-तुम्हारे।
2
बहुत कोमल होता है स्पर्श
उसी में खिलते हैं / कितने ही प्रेम कमल
उस स्पर्श को देह की जरूरत नहीं
वह बसा रहता है आत्मा में
जब चाहें उसे महसूस कर सकते हैं
और खिल जाते हैं अनेक सिंदूरी फूल।
--------------------------------------------
मनीषा जैन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें