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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 मार्च, 2018

पड़ताल: 

विकटतम स्थितियों में भी जिंदगी जीने का लालच

 अरुण होता 


अरुण होता 


                                            
किरण सिंह हिंदी की सिरीयस कहानीकार हैं। यह सिरीयसनेस उनके सरोकार के चलते है तो कहानी के प्रति उनकी दृष्टि के कारण भी। ‘तुरंता’ में कहानी लिखकर छपवाना, प्रशंसाएं बटोरना और चर्चे में बने रहना इस कहानीकार का न तो कभी उद्देश्य रहा है और न ही कोई आकांक्षा। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से आजतक बमुश्किल दर्जन भर कहानियां ही लिखी हैं इस कहानीकार ने, बहुतायात में लेखन इनका स्वभाव नहीं है। लेखन और प्रकाशन के मामले में बहुत ही गम्भीर। इसी के फलस्वरूप पचास की उम्र में एकमात्र संग्रह ‘ यीशू की कीलें’ प्रकाशित हुआ है। इसमें संकलित अधिकांश कहानियां ‘हंस’,में और एक-आध  ‘कथादेश’ में छप चुकी हैं। लेकिन किरण की कहानियां ‘हंस मार्के’ की नहीं हैं। यह सच है कि वे स्त्रियों के दु:ख- तकलीफों को उभारती हैं, उससे उनकी स्त्री विषयक दृष्टि का पता चलता है लेकिन फिर भी इन्हें आप स्त्री विमर्श के खाते में ही नहीं रख सकते। यानी इनकी कहानियां स्त्री-विमर्श की देह तक सीमित नहीं कर सकते। देह से बढ‌कर जीवन होता है। इसे मन्नू जी  ने अपनी आत्मकथा ‘ एक कहानी यह भी’ में दिखाया भी है। किरण सिंह की रचनाएं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सरोकारों से युक्त हैं। इनमें रचनाकार का व्यक्तित्व, उसकी सम्पृक्ति, उसकी प्रतिबद्धता और उसका जुड़ाव सहज ही दृष्टिगोचर होते हैं।
कहानी कहने और कहानी लिखने में बड़ा फर्क है। आजकल कहानियां लिखी बहुत जा रही हैं, कही या सुनाई बहुत कम। प्राचीन काल से कहानी का घनिष्ठ संबंध कहने और सुनने से रहा है। कहने और सुनने अथवा सुनाने की परंपरा जारी रहे तो उसके दूरगामी प्रभाव परिलक्षित होते हैं। हिंदी कहानी के एक सौ सोलह साल के इतिहास में तमाम परिवर्तन देखे जा सकते हैं। लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जहां भी ‘ कथा’ या आख्यान की परंपरा का अवलंबन हुआ है उसकी प्रभावोत्पादकता में वृद्धि हुई है। सरसता, रोचकता, ग्रहणशीलता आदि में भी अंतर दिखाई पड़ता है। कहानी विधा के सामान्य पाठकों के लिए कहानी में ‘कथा’ या ‘आख्यान’ का समायोजन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। पंकज मित्र, सत्यनारायण पटेल जैसे कुछ ही कथाकारों के यहां ‘कथा’ का समायोजन हुआ है। किरण सिंह की कहानियां कथातत्व से भरपूर हैं। लेकिन मनोरंजन इनका लक्ष्य नहीं है। ये कहानियां हमें बार- बार डिस्टर्ब करती हैं, बेचैन करती हैं, झकझोरती हैं साथ- ही रचनाकार के सरोकार और दृष्टि से रू-ब-रू कराती हैं। जीवन की जटिलताओं और समय के अंतर्विरोधों के बीच मानवीय जिजीविषा को बचाए रखने की जद्दोजहद भी यहां देखी जा सकती हैं। तमाम विपरीत स्थितियों में भी पराजय का वरण न करना और संघर्षशीलता जारी रखना इन कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। किरण सिंह ने लिखा भी है‌-- “ बस इतना जान लीजिए कि मेरे लिए कहानी ,वह आग है जो उस तरफ लगी हुई जंगल की आग को बुझाने के लिए,इस तरफ से लगा दी जाती है। मैं अपने को और दूसरों को नष्ट करने वाला मानव बम नहीं बनना चाहती। मैंने अपने क्रोध को रचनात्मकता में तब्दील किया है। मेरी कहानियां, सांमती सोच वाले समाज से, मेरा रचनात्मक प्रतिरोध है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि स्त्री की अधिकांश क्रिया, क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया होती है। स्त्री या तो रक्षात्मक रहती है या आक्रामक, वह सहज मनुष्य नहीं रहती। मेरे लिए कहानी , विकटतम स्थितियों में भी जिंदगी जीने का लालच। मैं अपनी कहानियों की शुरुआत नहीं जानती लेकिन अंत जानती हूं। विकटतम स्थितियों में भी मेरी नायिकाएं न हारेंगी,न मरेंगी। वे डरेंगी पर वे लड़ेंगी। ‘ न दैन्यं न पलायनं’। मनुष्य से इतर किसी भी शक्ति में मेरा विश्वास नहीं। ‘ नहिं मानुषात हि श्रेष्ठतरं किंचित्।‘ नियति यदि बदनियति पर उतरी तो उसे मनुष्य के इस्पाती इरादों से टकराना होगा।“ अस्तु कुछ कहानियों के माध्यम से इन मुद्दों का खुलासा करने का प्रयास किया जाना उचित लगता है।
किरण सिंह कहानी का प्लाट अपने जीवन के इर्द-गिर्द से लेती हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में ‘सत्यता’ और विश्वसनीयता मौजूद रहती हैं। मसलन ‘संझा’ कहानी का प्लाट अपने ममेरे भाई जुगुल किशोर के सच्चे जीवन पर आधारित है। थर्ड जेंडर की जीवन-यंत्रणा और उनकी विडंबनाओं के साथ-साथ अस्मिता की खोज करने वाली इस महत्वपूर्ण कहानी में रचनाकार की दृष्टि और उसके रचना-कौशल का सुंदर परिचय मिलता है। इक्कीसवीं सदी में भी समाज की मानसिकता पूर्ववत रूढिग्रस्त बनी हुई है। उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसा होना न ही परिवार और समाज के लिए घातक है बल्कि राष्ट्र तथा मानवता के लिए भी अत्यंत चिंताजनक है। सामाजिक प्रतिष्ठा और गौरव के नाम पर हो अथवा मर्दवादी वर्चस्व के चलते थर्ड जेंडर की सत्ता को ठेस पहुंचाना अथवा उसे मनुष्य के रूप में स्वीकार न करना बीमार मानसिकता का प्रतीक है। किरण लिखती हैं—“ मामा अपने घर के दरवाजे पर खडे होकर जुगुल भइया को गाली देकर ही बुलाते हैं। उनके लिए जुगुल किशोर, उनके पौरुष पर ऐसा कलंक है जो दिन-रात उनकी आंख के आगे नाचता रहता है। जुगुल भइया अपना उभरा सीना छिपाने के लिए झुकते चले गए।“ (यीशू की कीलें, पृ. 196) ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि में रची गई इस कहानी में वैद्य की पुत्री संझा के व्यक्तित्व को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया गया है। वैद्य जी के अंतर्द्वंद्व, उनकी ऊहापोह आदि को भी वे जीवंत रूप में कथा के बहाने चित्रित हुआ है। संझा जीना चाहती है अपने तरीके से। अपनी शर्त पर्। लेकिन उसे  नहीं पता है कि स्वाभाविक जीवन और अस्वाभाविक जीवन होते क्या हैं। चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि आदि ने उस जैसे की तकलीफ के बारे में कुछ नहीं लिखा है। और इधर समाज के ‘लोग उन्हें गालियां देते हैं, थूकते हैं, उनके मुंह पर दरवाजा बंद कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं।‘ समाज के लिए अछूत और घिन्न खाने लायक समझने वाली संझा अपने बाउदी के सामने अपनी इच्छा व्यक्त करती है कि वह उन्मुक्त रूप से विचरना चाहती है तथा स्वाभाविक मनुष्य बनकर जीना चाहती है—“ मैं बाहर निकलना चाहती हूं बाउदी ! मैं औषधि की पत्तियां छूना चाहती हूं। बहता पानी... गीली मिट्टी... जंगल...आसमान देखना चाहती हूं। बाउदी। मैं दौड़ना चाहती हूं... खूब जोर से हंसना चाहती हूं.. सबके जैसे जीना चाहती हूं।“ (पृ.179) कहना न होगा कि किरण के पास सादगी से गंभीर और मार्मिक विषय को अभिव्यक्त करने की जबर्दस्त सामर्थ्य मौजूद है।
‘मानुख’ और ‘ छि: मानुख’ के अंतर को कथाकार ने अत्यंत संवेदनापूर्वक चित्रित किया  है। ललिता महाराज जैसे नचनिया के पालित पुत्र कनाई के साथ संझा के विवाह के बाद संझा के चरित्र और व्यक्तित्व-  अंकन में कथाकार के विशिष्टताबोध का परिचय प्राप्त होता है। ससुराल में आने के बाद लोगों ने स्पष्ट स्वीकार किया—“ संझा बिटिया के कारण यहां की हवा बदल रही है।“ बसुकी और कनाई को रातभर मचान पर छोड़्कर संझा चारों दिशाओं में पहरा देती। अपनी सुरक्षा और पत्नी के कर्त्त्व्य- संपादन का यह अद्भुत उपाय है। बसुकि के गर्भवती हो जाने के बाद गांववाले भड़कते हैं। उनसे भी अधिक ललिता महाराज। संझा का साथ न तो उसका पति देता है और न ही वे लोग जिनके लिए उसने अपनी पूरी सेवा निस्वार्थ भाव से समर्पित की थी। इस कहानी में थर्ड जेंडर के प्रति कथाकार की दृष्टि स्पष्टतया परिलक्षित होती है। इस कहानी की खूबी को रेखांकित करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है—“ ‘संझा’ आज की कहानियों में एक विशिष्ट उपलब्धि है। इसमें स्त्री और पुरुष से ऊपर एक नवीन मानवीय विमर्श है।“ कहा जाना चाहिए कि यह कहानी-विमर्श तक परिमित नहीं है। इसके माध्यम से समाज में व्याप्त सड़ी- गली मान्यताओं, दकियानुशी विचारों, जर्जर हो रही परंपराओं एवं अंधविश्वासों पर सशक्त प्रहार भी है। हाल ही में प्रकाशित चित्रा मुद्गल का उपन्यास “ कमरा न. 203 नाला सोपारा’ के साथ इस कहानी को मिला कर पढ़ा जाए तो थर्ड जेंडर पर हिंदी की कथा दृष्टि का कुछ परिचय मिल सकता है तथा इसके वितान की व्यापकता और गहनता  को भली-भांति समझा भी जा सकता है।
‘हत्या’ कहानी में सुमन, दीपा, सुधा दीदी आदि के बहाने किरण सिंह ने अभावग्रस्त नारी की आत्म-सजगता, संघर्षशीलता और स्वाभिमान को नये अंदाज लेकिन अत्यंत आकर्षक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। स्कूल की डांस टीचर सुमन अजितेश की पत्नी और लकी की मां है। परजीवी है पति । पत्नी की कमाई से पलता है। घर और बेटे की पढाई का सारा खर्च सुमन को ही उठाना पड़ता है। उसके भाई से कोई मदद नहीं मिली और उससे भी बड़ी बात यह कि मां सब कुछ जानकर भी चुप रहीं। यह कैसा समय है कि मां, भाई आदि आत्मीय होते हुए भी उनमें कोई आत्मीयता नहीं रह गयी है। अजितेश श्री श्री अजिताचार्य बनकर दुनिया को ठगने के पहले अपनी पत्नी को ठगे जा रहा है। ऐसा पूछा जा सकता है कि सुमन  उसे छोड़ क्यों नहीं देती? स्वतंत्र जीवन क्यों जीने के लिए निकल नहीं पडती? अपने सहपाठी मित्र से बातचीत के दौरान वह इस संबंध में कहती है—“ जिस घड़ी मैं पहचान गयी कि लकी मुझसे यह नहीं पूछेगा कि मैंने उसके पिता को क्यों छोडा... वह दिन होगा कि मैं लकी का हाथ पकड़ूंगी और उस घर को लात मारकर निकल जाऊंगी।“ (पृ, 142) घर का सारा काम, स्कूल की ड्यूटी, ट्यूसन के बाद खाना, बर्तन, रसोई की सफाई, अम्माजी के पैरों में मालिश, लकी को अम्माजी के कमरे में सुलाने के बाद सुमन जब कमरे में पहुंचती तो अजितेश प्रतीक्षा कर रहा होता है अपने शरीर की भूख मिटाने के लिए। दरअसल, वह ‘रोज’ कहानी की नायिका मालती से भी बदतर स्थिति में है। लेकिन सुमन जानती है अपने आप को, पहचानती है अपनी सामर्थ्य को और हार मानना उसके स्वभाव में नहीं है। वह यथार्थ से अनभिज्ञ नहीं है। तभी वह राज से अपने मन की बात कहती है –“ मैं अजितेश से नफरत करती हूं । वह मेरा खून पीकर जिंदा रहने वाला परजीवी है। मैं अपनी सास से भी प्रेम नहीं करती। उन्होंने अजितेश को सही-गलत की तमीज नहीं सिखाई।“ (वही) अपने बेटे की खुशी के लिए वह गर्भावस्था में भी वामा क्लब में नृत्य करती है। सुधा दीदी का स्नेह उसे मिलता है तथा उसकी कला कुशलता की प्रशंसा भी होती है। नृत्य के बाद वह गिर पड़ती है। कथाकार ने लिखा है‌-“ बेहोश होती हुई सुमन की जांघ पर, काला-कत्थई, टुकड़ा-थक्का रक्त, भल्ल...भल्ल...बह रहा था। (पृ.147) हत्या यानी भ्रूण की जो सुमन चाहती न थी। लेकिन उस हत्या को भी जानना जरूरी है जहां सुमन की इच्छाओं और अरमानों का पल-पल में गला घोंटा जा रहा था। इस कहानी की सबसे बड़ी ताकत है लकी के प्रति सुमन का ममत्व और उस ममत्व के लिए अपनी जिद और संघर्षशीलता को बचाए रखना। सहपाठी राजन की संवेदनशीलता कहानी को नया आयाम देने में समर्थ है। यह कहानी पुरुष के विरोध में नहीं बल्कि मर्दवादी मानसिकता के और पुरुष वर्चस्व के खिलाफ है।
किरण सिंह की कहानियां विश्वसनीय हैं और पाठकों में भरोसा जगाती हैं। यह इसलिए कि वे जमीनी सचाई को अपनाकर कथा सुनाती हैं। ‘ यीशू की कीलें’ ऐसी एक कहानी है। गज़ब का अवलोकन है कथाकार का। उसने अपने समकाल के राजनीतिक परिदृश्य को जिस शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है वह अन्यत्र  बहुत कम दिखाई पड़ता है। बिना गहरे जुड़ाव, लगाव और प्रतिबद्धता के ऐसी अंतर्दृष्टि संपन्न कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। अन्य कहानियों की तरह इसका भी  कलेवर लंबा है। हमारे समय की राजनीतिक पतनशीलता का साक्ष्य प्रस्तुत करती है यह कहानी। यहां के राजनीतिक परिदृश्य में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक,सांस्कृतिक पराभवों का भी चित्रण हुआ है। सत्ता का दोगलापन हो अथवा उपेक्षित नारी दृष्टि, भ्रष्टाचार हो अथवा घेरेबंदी, जाति की दुहाई हो अथवा ईश्वर की , सत्तासीन बने रहने के तमाम षडयंत्रों की रचना युग-स्पंदन को साकार करना है। कहानी पढ‌ते हुए कई मर्तबा शरीर में स्वाभाविक कंपन होता है। झकझोर कर रख देने की सामर्थ्य है। आप डिस्टर्ब हुए बिना नहीं रह सकते। जिस प्रकार यीशू के बदन पर ठोंके गये कांटों की कल्पना मात्र से हमारे अंदर सिहरन होने लगती है ठीक उसी तरह ‘आश्रम’ में रहकर पलने-बढने वाली आठ लड़कियां युवती बनकर किन अनुभवों से गुजरती हैं, उसका चित्रण स्वयं कथाकारों के शब्दों में जान लेना ज़रूरी है—“ मेरे लिए आदमी का मरदा अंग, यीशू के बदन पर ठोंकी गई कीलों की तरह प्राणहतक थीं। बाइस साल की उम्र तक मुझे शरीर के हर छेद से इतना सफेद पानी पिलाया गया कि मेरा खून सफेद हो गया। मैं ऊंगली डालकर उल्टी करती रहती थी और चित लेटते ही कांपने का दौरा पड़ जाता था। मैं हमेशा बीमार रहने लगी थी और बेकार हो रही थी। आश्रय अनाथालय और पहिया पार्टी सुप्रीमो में डील हुई।“ (पृ.132) चुनाव का समय हो अथवा टेंडर दिलवाने का मौका हो, किसी  भी काम के लिए या तो पैसे की डील हो रही है अथवा स्त्री शरीर का इस्तमाल—“ पार्टी जितनी बार घोटालों में फंसी, उतनी बार मुझे कच्छी की तरह वर्जिनिटी झिल्ली पहना दी जाती थी। जज, सीबीआई के अधिकारी, कार्पोरेट दलाल मुझे केश से नाखून तक पहचानते हैं।“(वही) पच्चीस पार की लडकियां बूढ़ी घोषित कर दी जा रही हैं। ताउम्र कुंवारी और गर्भाशय निकाली बांझ लडकियों की तादाद बढ़ाकर सरकार महिला सशक्तिकरण का काम कर रही है। सत्ता और व्यवस्था के इस अनाचार को चुपचाप सहने की विवशता ही कहानी में हो तो रचनाकार के विज़न का पता नहीं चलता और न ही यह स्थिति अग्रगामी बनाती है। ऐसे में यह कहानी महत्वपूर्ण बन जाती है जब निर्यातित स्त्री अपनी जबर्दस्त सूझ-बुझ का परिचय देते हुए सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रतिनिधि अरिमर्दन सिंह की हत्या कर देती है। वही अरिमर्दन जो औरत को इंसान नहीं समझता और स्त्री को घर की चहारदीवारी के अंदर देखना चाहता है, हर औरत को हत्यारिन और वेश्या बनने के लिए उकसाया करता है। अत: सही मायने में देखा जाए तो यह शोषणमुक्ति हेतु संघर्षशील स्त्री की कहानी भी है।







चुनाव प्रचार के दौरान गांव, कस्वे की शोचनीय आर्थिक स्थिति के बारे में परिचय मिलता है। विद्यालय का भवन नहीं है, पीपल के तले कक्षा लगती है,  लेकिन कंप्यूटर बांटे जा रहे हैं। आजीविका के लिए काम करते हुए किसी के हाथ कटे हैं तो किसी की जांघ, नेताओं का प्रलोभन जारी है। सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं ताकि वे सत्तासीन हो सकें।
लगभग निरंकुश बन चुके अरिमर्दन का असली चरित्र उनकी पत्नी दीदीजी के निम्न वक्तव्य से स्पष्ट होता है—“ मेरे पति कहते हैं, मैं जिस औरत को आंख उठाकर देख लूं वो मेरे बिस्तर पर सोती है और जिस आदमी को आंख उठाकर देख लूं वो चिता पर “(पृ.110) यह है हमारे देशभक्त नेताओं, भारतमाता के सपूतों और राष्ट्रसेवियों का वास्तविक चेहरा। ऐसी स्थिति में सारा उस्मानी का हिम्मत के साथ सामने आना बहुत स्वाभाविक है, केवल ‘विश्फुल थिंकिंग’ नहीं। ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के आधार पर देश का मतदान होने का उल्लेख करके कथाकार ने अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। जाति, धर्म, नस्ल के आधार पर मनुष्य को विभाजित करना कई तरह के संकटों को न्योता देना है। कहना न होगा कि ‘यीशू की कीलें’ अपने सामाजिक जीवन के खोखलेपन और पारिवारिक जीवन की विसंगतियों को अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करने वाली एक महत्वपूर्ण कहानी है। राजनीति केवल सत्ता तक सीमित नहीं रह गयी है, यह हमारे जीवन के तमाम संदर्भों और परिप्रेक्ष्य को नियंत्रित करने लगी है। पति-पत्नी के मधुर संबंध तक को बुरी तरह से कलुषित करने वाले इस तत्व को बड़ी बारीकी से तमाम अंतर्विरोधों के साथ प्रस्तुत करने में कथाकार को महारत हासिल है।

भाषा का प्रवाह और कहन के कारण यह कहानी खास बन जाती है। नाटकीयता से भरपूर, जमीनी सचाई  तथा रचनात्मक कल्पनाशीलता से संपृक्त यह कहानी निस्संदेह हिंदी की मह्त्वपूर्ण कथा-कृति है।
‘हंस’के रजत जयंती विशेषांक, 2011 में प्रकाशित ‘कथा सावित्री सत्यवान की’ पढ़कर हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है—“किरण के पास कथा कहने को समर्थशैली है और कथा के चरित्रों की मन:स्थितियों की गहरी समझ है।‘’  ‘कथा के चरित्रों की मन:स्थितियों की गहरी समझ’ होना कथाकार का एक बहुत बड़ा गुण है और कथा की बड़ी शक्ति। मिथक में उल्लेख मिलता है कि सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज के मुंह से लौटाया था। तब से ले कर आज तक पुरुष नामक प्राणी  यह उम्मीद लगाए बैठा आ रहा  है कि पति को मृत्यु के जबड़े से खींचकर लाने की जिम्मेदारी पत्नी की है। रेनू चौधरी के माध्यम से पुरुष द्वारा छली गई और विश्वासघात की गई स्त्री जीवन की कराह, छटपटाहट और मनोव्यथा के साथ-साथ बौद्धिक जगत की चोरी पर भी चिंता जाहिर की गई है। लेखक- समाज में ईमानदारी के अभाव से उत्पन्न स्थिति का भी चित्रण मिलता है।
पत्र शैली में लिखी गई इस कहानी की सतत प्रवाहधर्मिता पाठक को बांधे रखने की पूरी ताकत रखती है। ‘बीमार आदमी की औरत’ शीर्षक कहानी के लेखक विजयन ने रेनू चौधरी की निजी जिंदगी की छल से ली गई छायाप्रति के सहारे कथा नायिका की अस्मत उतारकर नंगई उतारी है। धोखाधड़ी और निजता की हानि के साथ-साथ अन्य मुद्दों पर मुकदमा चलाया जाता है। इस संघर्ष की गाथा को रचना में चित्रित किया गया है। विजयन जैसे कहानीकारों की असलियत का खुलासा इन शब्दों में किया गया है—“ ये औरतों की महीन-अंतरंग बातें जानने के लिए उनका मनोविज्ञान , उनकी निजी जिंदगी से बावस्ता सभी पहलुओं को समझने के लिए, उनके साथ गहरी दोस्ती या मुहब्बत का नाटक करते हैं।“ (पृ.52) और भी, “इनके जैसे लोग ड्रेकुला से भी भयानक हैं क्योंकि ये आधा खून स्वयं पीकर आधा खून अपने साथियों को चाटने के लिए छोड़ देते हैं। उस शिकार का पीछा करने के लिए बर्बर आदिम लालच भी जगाते हैं।“ (पृ.55)
साहित्य के क्षेत्र में स्त्री को यूज करके अपनी ख्याति अर्जित करने की गलत परंपरा पर भी कटाक्ष किया गया है। पूरी कहानी में पक्ष-विपक्ष का प्रस्तुतिकरण महज विजयन और रेनू का न होकर अपने समय में व्याप्त मानसिकता का उद्घाटन बन गया है। पति हो या प्रकाशन संस्थन का मालिक हर्ष केशरी स्त्री का शोषण मानो उनका अधिकार बना हुआ है। बीमार आदमी की पत्नी की स्थिति देखी जा सकती है‌-“ मैं बिना रखवाले की दानेदार फलियों वाली खेत हूं। हर जानवर यहीं मुंह मारना और पांव उठाकर पेशाब करना चाहता है।“ (पृ.64) आश्वस्ति की बात यह कि इस लंबी लड़ाई में रेनू की जीत होती  है। इस न्याय-सभा के सरपंच वरिष्ठ तथा तटस्थ आलोचक बलिहारी जी ने निर्णय सुनाया—“ सभी पंच इस पर एकमत हैं कि विजयन जी दो दोषी हैं। दंडस्वरूप विजयन जी तीन किश्तों में, एक साल के भीतर छ: लाख रुपया रेनू जी को अदा करेंगे।“ (पृ.69)
किरण सिंह की कहानियों में वैविध्य है। यह विविधता वर्ण्य- विषय को लेकर ही नहीं शैली संबंधी भी है। लोक-कथा के आधार पर लिखी गई ‘ब्रह्म बाघ का नाच’ शीर्षक कहानी में गांव-गांव घूमकर ‘ नरसिम्हा और उसका बेटा’ की अनोखी कथा निराले ढंग से  सुनाने वाले का अद्भुत चरित्र-चित्रण किया है। इसे लेकर लोगों की मान्यता अथवा विश्वास को भी उजागर करने का सुंदर प्रयास हुआ है। गांव वालों ने कथावाचक का नामकरण तक किया – ‘बरम बाघ’ यानी बरगद के पेड के नीचे रहने वाला और कथा नाच दिखाने वाला ब्रह्म। इस कथावाचक बरम्बाघ के बारे में भ्रांतियां भी फैलाने का  रोचक ढ‌ंग से वर्णन किया गया है। कथा सुनाई जाती है पद्य में तो कहानीकार ने गीतों को खूब बढ़िया ढंग से उपस्थापित किया है।
शेर बहादुर का बेटा था नरसिम्हा। अपने माता-पिता  की मदद के लिए उनके साथ जाता। इसी क्रम में वह बगावती हो जाता है। लेकिन बगावत से बढ़कर भी बड़ी चिंता पाठक को इस शब्दों से गुजरकर होती है—“ हम लोगों से डरते क्यों हैं? हम फेंकी हुई वस्तुएं क्यों लेते हैं? मैं रक्त टपकती खाल नहीं ढोऊंगा। मैं गोबर में का अनाज नहीं खाऊंगा।“ (पृ.76) घोर अमानवीयता की स्थिति को रचनाकार ने चित्रित करते हुए जाति-विमर्श के साथ-साथ असमान आर्थिक और सामाजिक संरचना का भी उजागर किया है। इसीलिए किरण की कहानी विमर्श के लिए लिखी गयी कहानी नहीं है। हां, यह जरूर है कि उनकी कहानी से विमर्श उभरती है।

एक बात और भी है कि लोक, कला और संगीत को बचाए रखने का काम ये देहाती कलाकार ही करते आ रहे हैं। लेकिन, इधर किसी का ध्यान नहीं जाता है। बहरहाल इस कहानी की अंतर्वस्तु और इसकी बुनावट हमें फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कई बार याद दिलाती है।नरसिम्हा बाघ नाच करते समय जो सुनाता है उसे युगीन संदर्भ के साथ जोड़कर देखा जाए तो कहानी के कई आयाम खुलेंगे। अर्थात, कहानी की बहुआयामिता स्पष्ट हो जाएगी। नरसिम्हा और दमयंती पुत्र सिंहासन मेले के मौके पर बाघा नाचा प्रस्तुत करता है तो लोगों को शंका होती है और वे अपनी शंका का निवारण करने के लिए उसकी  चिकोटी काटकर परखना चाहते थे कि वह मृत्यु का देवता है या नहीं। दुस्साहसी नवयुवक ने चिकोटी काटी तो असलियत सामने आ गई। कहानी में एक दम नया मोड आता है जब भीड़ में सिंहासन की चिकोटी काटने की होड मच गई। दमयंती खुद जल जाती है लेकिन अपने बेटे को बचाने में सफल रहती है। सवाल यह है कि नरसिम्हा ने लोगों को जीवनभर डरा कर क्यों रखा था? उसने अपनी बाल्यावस्था में जो भोगा थ, उसकी प्रतिक्रिया तो नहीं थी यह? खैर, यह कहानी ढेर सारे सवाल खड़ा करती है और कोई कहानी ऐसा करने में सफल है तो उसकी सफलता असंदिग्ध हो जाती है।

ग्रामीण जीवन के चित्र अपनी तमाम खूबियों तथा कमियों के साथ चित्रित करने में कथाकार सफल रही हैं। ग्लोबल संदर्भ में बदलते गांव को उसकी सचाई के साथ कई कहानियों में उकेरा गया है। ‘ जो इसे जब पढें’ के अंतर्गत ‘1977 का जेठ मास’ हो अथवा ‘1978 का क्वार मास’ या कोई भी उप-शीर्षक पढकर उपर्युक्त तथ्य को महसूस किया जा सकता है। मसलन, “ घर की औरतों की अपनी सोच रखने की आदत समाप्त कर दी गई थी। बीती रात के अंधेरे में सुने गए शब्दों को पचाकर,वे सुबह आंगन में उगलती थीं। हां, तो जिस घर हमारे कोई बाबा बदला लेने गए, उस घर के मुखिया ने अपनी अंधी लड़की का सिर जांत पर रखकर गड़ासे से काट दिया, बाबा को फंसाने के लिए।(पृ.91) छ: उप-शीर्षकों से गुजर कर यह भी अनुभूत किया जा सकता है कि अब इस समाज के लिए सुभावती की कितनी जरूरत है। आत्मचेतस होना और अन्यायियों से जूझना कितना आवश्यक है। इसी तरह ‘ देश देश की चुडैलें’ के दोनों खंडों में स्त्री-जीवन के संत्रास का मार्मिक चित्रण है। विश्वास के बदले उसे धोखा ही मिलता आया है। विकट समय में  स्त्री जीवन की विड़ंबना कहानीकार के शब्दों में दृष्टव्य है—“ मैं चाचा,भाई, दोस्त, पड़ोसी… किसी पर भरोसा नहीं करती। मैं बोलती नहीं। हंसती नहीं। अखबारों से, फिल्मों से, आंदोलनों से भागती हूं। बलात्कार- इस शब्द की एलर्जी से मुझे अस्थमा के दौरे पड़ते हैं। मैं अकेली पड़ती जा रही हूं बाबा।“ (पृ.161) इस कहानी में चितमन,, पंडिजी, बृखभनुजा, काकी आदि तमाम पात्रों के संवाद के माध्यम से कथाकार ने ग्रामीण समाज का यथार्थ चित्रण भी प्रस्तुत किया है।
 ‘द्रौपदी पीक’ शीर्षक कहानी न केवल किरण सिंह की बल्कि समकालीन हिंदी की एक महत्वपूर्ण कहानी है। सांकेतिकता, बहुआयामिता, प्रवाहधर्मिता, प्रभावशीलता, नाटकीयता, संवादधर्मिता, सुघड़ता आदि की दृष्टि से भी यह एक सफल कहानी है। इस कहानी में पर्वतारोहण के रोमांच का वर्णन करना कथाकार का उद्देश्य नहीं है। न ही एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचने के पह्ले की  रोंगटे खड़ी कर देनेवाली घटनाओं का यथातथ्य वर्णन करना है। इसके जरिए विकटतम स्थितियों में भी आत्मसम्मान बचाए रखने और संघर्षशीलता जारी रखने की दुर्वार जिजीविषा है। इस कहानी में सोलह बार समिट कर चुके दोरजी की आत्मीयता, युवा योगी की मनोग्रंथियां अथवा हिंदू धर्म ध्वजा एवरेस्ट पर फहराने का जुनून, अदम्य साहस और जिजीविषा की प्रतिमूर्ति घूंघरु, शोमा, पुरुषोत्तम आदि पात्रों के माध्यम से कथा की सरसता और लेखकीय सरोकार दोनों का प्रतिफलन दिखाई पड़ता है। बिना बेस कैम्प में गये इस कहानी के पाठक वहां के जीवन और स्थितियों का जीवंत वर्णन प्राप्त कर लेता है। इसे लेखकीय जीवन की सफलता ही माना जाएगा। लेकिन जैसा कि उल्लेख किया गया है किरण की कहानी का व्यापक वितान है। धर्म की जकड़बंदी और सोच की संकीर्णता से उनका कथाकार परेशान है, चिंतित रहता है। सामाजिक,अर्थिक अथवा राजनीतिक व्यवस्था में प्रचलित जकड़न और सीमाबद्धताएं मानवता को किस रूप में नुक्सान पहुंचा रही हैं, इस पर भी कथाकार की गहरी दृष्टि का परिचय मिलता है। इस कहानी से गुजर कर प्रो. रोहिणी अग्रवाल की स्थापना है- “बेशक, हिंदी कहानी की कुछेक महत्वपूर्ण कहानियों में एक है यह कहानी।“
किरण की कहानियां हमें उत्तेजित करती हैं लेकिन यह उत्तेजित होना वैसा नहीं है जो रहस्य और रोमांच से भरपूर रचनाओं से मिलता है। इनके लिए घटना सिर्फ घटना नहीं बल्कि यह किसी परिघटना का अंग है। आप भारतीय संस्कारों की विड़ंबना को गहरी जीवन परिस्थिति के अंतर्विरोध से जोड़ लेने की सामर्थ्य रखती हैं। पंड़िजी सभी औरतों के लिए एक जैसी भविष्यवाणी करते हैं। इसका कारण पूछे जाने पर उत्तर मिलता है--“ दुनिया में औरतों का भाग्य और सब्जी मंडी मे सब्जियों का भाव एक बराबर होता है। काहे कि सब सब्जी वाले मिलकर तय कर लेते हैं। कोई दाम बिगड़ने वाला हो तो उसे जात बाहर किया जाता है।“ (पृ.24)
अब इस स्थिति के बारे में क्या कहा जाए जो बहू बालक बाबा से गुहार लगा रही है—“ बालक बाबा ! हमारीसास हमारे और हमारे उनके बीच खटिया डालके सोती है। आप तो देवता हैं.... आपसे कहे में क्या लाज! गरीब के पास बेऔलादी दूर करे का और कौनो उपाय कहां है ! अमीर-उमरा तो सुना शीशी-बोतल में संतान बो के जमा ले रहे हैं। बाबा ! ऐसा जुगाड़ बइठे कि मेला से लौटूं तो सास का मरा मुख देखने को पाऊं।“ (पृ.26)
धार्मिक उन्माद और लोगों को गुमराह करने तथा भड़काने का काम महामंडलेश्वर के संबोधन से उजागर होता है---“ आर्यावर्त में जब मुसलमानों का शासन हुआ तब हमारे पूर्वजों ने जिंदा रहते श्राद्ध किया, घर छोड़ा, कपड़ए नदी में बहाए और धर्म रक्षा के लिए हथियार उठाया। हम मुसलमानों से लड़े… अंग्रेजों से लोहा लिया... माहौल तैयार करके अपने आदमी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया। ...हम समझ गये हैं कि धर्म-युद्ध अकेले ही लड़ना है। इस हेतु हमने नव-नागाओं का अपना संगठन तैयार किया। कल के शाहीस्नान के पश्चातहमारी आर-पार की लड़ाई शुरू हो रही है। दो-चार आत्माओं का हवन हो सकता है। आप सब तैयार हैं?” (वही) इतना ही नहीं कुमारी और विधवा गर्भवती कन्याओं को उनके परिजन त्याग देते हैं तो उन्हें अपने आश्रम में रखते हैं और बच्चा जनमते ही उसे अपने पास रखकर उसकी मां को जंगल में छोड़ आते हैं।  हिंदू राष्ट्रवाद का यह रूप भी देखना आवश्यक है—“ मुझे सुन रही माताओं ! मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि अपना एक पुत्र हमें दें। हम आपके बालक को राष्ट्र-निर्माण,धर्म-संस्कृति पुनरुत्थान के लिए तैयार करेंगे। .. आप स्वयं देखिए कि गंगा जो हमारी पहचान है- वह कैसी मैली हो रही है। देखिए कि कानपुर में... भैंसों के चमड़े ये मुसलमान जानबूझकर गंगा में धोते हैं... पिशाब कहीं भी लगी हो आकर गंगा में करेंगे.. हम अब ये सब सहन नहीं करेंगे।“ (पृ.28) अनशन के बारहवें दिन केवल भभूत चाटकर जीवित रहने का रहस्य भरत बताता है कि महामंडलेश्वर का भभूत पीसा हुआ बादाम-अखरोट है। तभी तो पुरुषोत्तम ने बैनर लहराया—“ हवा-पानी-पेड़ बचाइए। सबसे पहले बच्चे बचाइए।“
घूंघरु,दोरजी, शोमा, पुरुषोत्तम का दल द्रौपदी पीक पर चढ़ने वाला आखिरी दल था। अचानक बर्फ के पहाड़ उखड़ने लगे। मृत्यु से जूझते हुए घूंघरू , दोरजी आदि गिरते हुए जमीन के करीब पहुंच रहे थे, किसी सुरंग में थे। इस दौरान घूंघरु सोचती है— “ मरना तो सबको है। कोई आगे, कोई पीछे। लेकिन वह हार नहीं मानेगी। वह मरेगी भी तो जीने की कोशिश करके मरेगी।“
मरणासन्न दशा में भी योगी स्त्री से बात न करने , याक के खून की बर्फी  खाने से धर्म-भ्रष्ट हो जाने की बात करना, बारहवें दिन तक आते-आते वह घटित होता है जिससे उसका ब्रह्मचर्य छीन जाता है। वह सोमा को पिशाचिनी कहता है। शोमा ने योगी की असलियत का खुलासा करते हुए बताती है—“ तुम्हारे आश्रम के मानवेंद्र, पद्मानंद.... इन्हें इनकी मां के प्रेमियों ने फेंका... मर्दों के लिए प्रेम, सिर्फ संभोग था.. बिना जिम्मेदारी के मजा था... प्रेम अवैध था... इसलिए इस प्रेम से पैदा बच्चे अवैध थे। तुम संत.. नागा सब उन्हीं की शाखा हो क्योंकि तुम्हारी किताबों में ... स्त्री सहवास की पर्यायवाची है और सहवास पाप का। मैं तुम्हारे देवताओंकी कुंडली खोलूं ?” (पृ, 46) कहना न होगा कि धर्म के ध्वजाधारी और पाखंड़ी बाबाओं को कृत्रिम तथा अस्वाभाविक जीवन छोड़कर सहज एवं स्वाभाविक जीवन स्वीकार करने के लिए स्त्री शक्ति बाध्य करती है।
और अंत में किरण सिंह के सरोकार को समझने के लिए उनके दो आग्रहों का जिक्र करना समुचित प्रतीत होता है—“ मैं यहां बैठे पुरुषों से कहना चाहती हूं कि मेरे लिए, मेरे उन चाचाओं जैसे मत बनिएगा जो मेरी चौकीदारी करते हुए मेरे अगल-बगल चलते थे और कहते थे कि तुम्हें रास्ता दिखाने के लिए तुम्हारे साथ चल रहे हैं। .....यहां स्त्रियों से कहना चह्ती हूं मेरे लिए मेरी उस दीदी जैसी न बनियेगा जो... जरूर बताती थीं कि कैसे परिवार की एक सुंदर लड‌की को एक गोड़ से संबंध रखने के लिए जात पर लिटाकर फरसे से काट डाला गया।“ फूफेरेभाई से उन्होंने अपने भीतर के डर के जिन्न पर काबू पाना सीखा था, पुरुष वैसे बनें  और स्त्री उनकी सहेली सुभावती की तरह बनें जो अपने प्रेमी से आखिरी बार मिलने गई थी और ठाकुर के लड‌कों के कुप्रस्ताव पर उनमें से कुछ को मार गिराया था। अर्थात, किरण सिंह के विज़न में समाज तथा राष्ट्र के साथ- साथ मानव समाज में परिवर्तनेच्छा, समता और बंधुत्व बहुत महत्वपूर्ण तत्वों के रूप में उभरते हैं। इसलिए कहानीकार ने स्त्री चिंता ही नहीं भारतीय जीवन संदर्भ में घटित स्थितियों के अनुभवों के आधार पर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में कथा की दुनिया को बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है। भारतीय जीवन-मूल्य को महत्व देते हुए जीवन की संभावनाओं के लिए संघर्ष को जीवित रखा है। किरण की कहानियों से गुजर कर राष्ट्रीय जीवन की कुछ धड़कनें स्पष्ट रूप में सुनी जा सकती है। ऐसा होना कहानीकार तथा कथाप्रेमियों के लिए सुखद अनुभव है।



किरण सिंह 




संदर्भ: यीशू की कीलें—
किरण सिंह, आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, पंचकूला, हरियाणा, 
प्रथम संस्करण,2016, मूल्य 300 रुपये (सजिल्द) 
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अरुण होता
 संपर्क: 2 एफ, धर्मतल्ला रोड, कस्बा, कोलकाता- 700042

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