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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 मार्च, 2018


8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस:


प्रतिकूलताओं का सौन्दर्य शास्त्र 

रमेश शर्मा

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है । हर साल आता है , आज भी आया है । कुछ बदल गया हो ऐसा इस बार भी नहीं लगा । रोज की तरह आज भी महिलाओं के साथ छेड़खानी और अत्याचार की खबरें हैं ।

रमेश शर्मा


सच कहा जाए तो तंत्र के माध्यम से , महिलाओं के आसपास पूरा जो सराउंडिंग है उसमें हर घड़ी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती रहती हैं जो सारी कवायदों पर भारी पड़ती हैं । अब  गली गली शराब बिकने लगी है , स्कूल कालेज दूर दूर हैं , आवारा लफंगों के झून्ड हर जगह खड़े दिखते हैं , सुरक्षा की कहीं कोई व्यवस्था दूर दूर तक नजर नहीं आती । कुछ हो जाए तो सबसे पहले सवाल लड़कियों से ही पूछा जाता है । उनका स्कूल कालेज जाना बंद कर दिया जाता है । कभी सुनते थे कि पुलिस महिला स्क्वॉयड सेल नाम की कोई बॉडी भी होती थी , पर वह इतिहास की बात हो गई है। महिला सुरक्षा वैसे भी तंत्र के लिए गौण बिषय है । उसमें कोई आर्थिक लाभ दीखे तभी तो बात बने । रेल, बस ,ऑफिस , दुकान कहीं भी नजर डालिए हर जगह की परिस्थितियां ज्यादातर महिलाओं के प्रतिकूल ही हैं । और यह प्रतिकूलता दिनों दिन सघन होती जा रही है ।


इन सबके बावजूद तंत्र अपने ब्यूरोक्रेसी को महिलाओं के नाम पर पुरस्कृत कर रहा है , सिस्टम में बदलाव शायद यहीं तक सीमित हो गया है । सिस्टम का यह अपना सौंदर्य शास्त्र है जो कहीं से भी हमें नहीं लुभाता ।

बदलाव अगर हुआ है तो महिलाओं ने अपने स्तर पर अपने को बदलने की कोशिश करी है । तंत्र का योगदान इसमें रत्ती भर भी नहीं दिखता ।विगत कुछ वर्षों में तंत्र और समाज निर्मित तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद बहुत सारी विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए महिलाएं आगे बढ़ी हैं। यह बढ़ना अब भी जारी है पर यह आज भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता ।



तंत्र और समाज आज भी वहीं के वहीं खड़े रहकर रास्तों में कांटे बिछाने की भूमिका में ही हैं । ये बदलने का ढोंग न कर सचमुच जिस दिन बदलेंगे तभी  महिला दिवस अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त करेगा ।
रमेश शर्मा

2 टिप्‍पणियां:

  1. महिलाओं ने अपने दम पर ही बदलाव शुरू किया है ,इससे एक बड़ी उम्मीद जाग्रत होती है ।तंत्र और समाज के दोहरे मापदंड भी इसी उम्मीद से खण्डित तो होंगे ।

    बदलाव आ रहा है ,यह सुकून की बात है ।

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