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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 मार्च, 2018

फ़िल्म अम्बर्टो इको: 

रोचक लेकिन आसान नहीं

विजय शर्मा



विजय शर्मा 



कुछ साल पहले एक फ़िल्म देख रही थी। खूब मजा आ रहा था। अपराध, हत्याएँ, रहस्य, जासूसी, भला किसे अच्छा न लगेगा? भूल-भुलैय्या वाला प्राचीन मठ, लंबे-लंबे गलियारे, काले, भूरे, कत्थई लबादों में लिपटे घूमते-फ़िरते पादरी और नोविस (पादरी बनने की प्रक्रिया में)। धार्मिक और दार्शनिक बहस करते पादरी। खूब बड़ी लाइब्रेरी। महान रचनाकार बोर्खेज की याद दिलाता अंधा लाइब्रेरियन (बाद में पता चला यह पात्र बोर्खेज की तर्ज पर ही गढ़ा गया है), हत्या के कारण और हत्यारे की खोज में आया एक और पादरी और उसके लबादे की किनारी पकड़े उसके पीछे-पीछे, कभी संग-संग चलता एक नोविस। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है मठ के कई अन्य सदस्यों की रहस्यमय तरीके से एक-पर-एक होती हत्याएँ। पहली बार देख रही थी, कुछ समझ में आया, कुछ नहीं भी आया। लेकिन मजा आया। कानन डायल के शरलक होम्स की प्रशंसक मुझको इस फ़िल्म में शरलक होम्स की झलक मिली वैसे भी नायक, सन्यासी-जासूस का नाम उसी की शैली पर विलियम ऑफ़ बास्करविल है। इस भूमिका को कुशल अभिनेता शॉन कोनरी ने निभाया है। फ़िल्म के कई दृश्य फ़िल्म विधा की थाती हैं।
पता चला कि यह फ़िल्म अम्बर्टो इको के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। अपने इस पहले उपन्यास में अम्बर्टो इको कहानी को १३२७ में स्थापित करते हैं। इसका लोकेशन इटली का एक धार्मिक मठ है। इस मठ में एक आत्महत्या होती है, जो वास्तव में एक हत्या है। इस ऐतिहासिक हत्या की गुत्थी सुलझाने के साथ-साथ इको इस उपन्यास में बिब्लिकल विश्लेषण, मध्यकालीन यूरोप में अध्ययन-अध्यापन की परम्परा, हँसने की कीमत, तथा साहित्यिक सिद्धांतों को भी विस्तार से स्थान देते हैं। इसमें पुस्तकालय में भीषण आग लगने और कुछ लोगों का किताब बचाने का प्रयास करते हुए होम होने का भी चित्रण है। यह पुस्तकालय मात्र पुस्तकालय न होकर अपने आप में एक भूलभुलैया था। फ़िल्म और उपन्यास में जिस किताब को बचाने के लिए यह सारी मारा-मारी हो रही थी वह शायद कब की नष्ट हो चुकी है।








कुछ दिन बाद एक एक बार फ़िर से यह फ़िल्म देखी, इधर-उधर से इस फ़िल्म की कुछ समीक्षाएँ पढ़ीं। इस बार थोड़ा कुछ और समझ में आया। फ़्रेंच फ़िल्म निर्देशक जीन-जैक्स अनाउड की बनाई फ़िल्म है यह और नाम है, ‘द नेम ऑफ़ द रोज’। जिस उपन्यास के नाम और कथानक पर यह फ़िल्म बनी है, उसके लेखक हैं, विश्व के प्रसिद्ध रचनाकार बहुमुखी प्रतिभा के धनी अम्बर्टो इको। अम्बर्टो इको से यह मेरा पहला परिचय था। उनकी ओर आकर्षित हो कर उनका उपन्यास पढ़ना शुरु किया। रोचक होते हुए भी आसान न था इसे पढ़ना। अभी भी नहीं है। इसमें उन्होंने एक साथ सेमिओटिक्स, बिब्लिकल विश्लेषण, मध्यकाल का अध्ययन तथा साहित्यिक सिद्धांत का मिश्रण किया है।
पहली रचना ही कई बार इतनी विशिष्ट होती है कि बाद में आने वाली रचनाओं को ढ़ंके रहती है। अम्बर्टो इको के १९८० में प्रकाशित ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ उपन्यास के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। उपन्यास के रूप में अम्बर्टो इको की यह पहली रचना है, हालाँकि इसके पूर्व वे और बहुत कुछ साहित्येतर लिख चुके थे। मगर उनकी ख्याति सामान्य पाठकों के बीच उपन्यासकार के रूप में ही है। अपने इस उपन्यास को वे १४ वीं शताब्दी में बेनेडिक्टिन विहार में स्थापित करते हैं। विलियम ऑफ़ बास्करविल को अपराध और अपराधी की छानबीन के लिए उन्होंने प्राचीन इटली के एक मठ में पहुँचा दिया है और यह सन्यासी-जासूस नायक शरलक होम्स की भाँति स्कॉटलैंड यार्ड से नहीं बल्कि इंग्लैंड से आता है। खुद उपन्यासकार के अनुसार यह ऑर्दर हेली के पात्र का अवतार है।
कठिन होते हुए भी इस उपन्यास की सफ़लता और प्रसिद्धि का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ३० से अधिक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और १० मिलियन प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इस लेखक को पढ़ना और समझना आसान नहीं है। अब जो व्यक्ति चार-पाँच विदेशी भाषाओं का धड़ल्ले से प्रयोग करता हो, इन भाषाओं में भाषण देता हो, लैटिन, ग्रीक जैसी प्राचीन भाषाएँ जानता हो, सेमिओटिक्स जैसा अजीबो-गरीब विषय पढ़ाता हो, साहित्यिक सिद्धांत के इस विषय पर किताबों (‘दि अब्सेंट स्ट्रक्चर’ तथा ‘दि ओपेन बुक’) का प्रणेता हो उसके लिखे को पढ़ने के लिए अगर बार-बार शब्दकोश और विश्वकोश देखना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब खुद लेखक का काम के बीच आराम करने के लिए डिक्शनरीज (बहुवचन में) पढ़ना शगल हो, तब क्या कहा जाए! अम्बर्टो इको के अनुसार उनके एक घर में करीब तीस हजार किताबों का भंडार है। निश्चय ही उनके बाकी दोनों घरों में भी होंगी ही। उनके घर के गलियारे में जमीन से ले कर छत तक अलमारियों में किताबें अटीं पड़ी हैं। किताबों को देखने से यह भी पता चलता है कि उनका बराबर प्रयोग होता रहा है। वे तेज गति से पढ़ते थे और उनकी स्मृति बहुत चकित करने वाली थी। अपनी कई किताबों का उन्होंने खुद अन्य भाषाओं में अनुवाद किया। कई भाषाओं (चीनी, जापानी, अरबी आदि) के लिए वे जरूर दूसरे अनुवादकों पर निर्भर करते थे।
लेखक का अनुभव बताया है कि यदि वे सरल लिखते हैं तो उन्हें लोग पढ़ना नहीं चाहते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उन्हें सदैव बहुत पाण्डित्यपूर्ण और फ़िलॉसॉफ़िकल, बहुत कठिन लेखक के रूप में देखा  जाता रहा है। अत: उन्होंने बिना पाण्डित्य के, सरल भाषा में अपना उपन्यास ‘द मिस्ट्रियस फ़्लेम ऑफ़ क्वीन लोआना’ लिखा। और लो! क्या हुआ इसका नतीजा? उनके उपन्यासों में से इस उपन्यास की सबसे कम बिक्री हुई। उनका कहना है कि शायद वे स्वपीड़कों के लिए लिखते हैं। वे स्वीकारते हैं कि उनको पढ़ना आसान नहीं है। लेकिन जब लोग उनसे पूछते कि आपके कठिन उपन्यास इतने सफ़ल कैसे हैं? तो वे बुरा मान जाते, उन्हें लगता यह पूछना ऐसे ही है जैसे किसी स्त्री से पूछना कि पुरुष आपमें क्यों रूचि लेते हैं? फ़िर व्यंग्योक्ति के साथ जोड़ते हैं कि वे स्वयं सरल किताबें पसंद करते हैं क्योंकि ये किताबें उन्हें तत्काल सुला देती हैं। पाठक यदि थोड़ी तैयारी के साथ अम्बर्टो इको को पढ़े तो उनके लिखे की रोचकता में डूब सकता है। उन्हें यूरोपियन बुद्धिजीवियों का मॉडल ऐसे ही नहीं कहा जाता है जिसने ‘द डा विंची कोड’ का पूर्वानुमान कर लिया था।






इटली के इस बुद्धिजीवी (कुछ लोगों के अनुसार सूडो बुद्धिजीवी) का जन्म ५ जनवरी १९३२ को उत्तरी इटली के छोटे-से औद्योगिक शहर एलेसैन्ड्रिया में हुआ था। उनके पिता, गिउलिओ इको स्थानीय लौह कंपनी में चीफ़ एकाउंटेंट थे। माँ का नाम जिओवाना था, वे एक ऑफ़िस में काम करती थीं। बचपन में वे बेनिटो मुसोलिनी के प्रशंसक थे और उन्हें उसकी फ़ासिस्ट यूनिफ़ॉर्म बहुत भाती थी। गुंटर ग्रास को भी बचपन में नाजी अच्छे लगते थे। दस वर्ष की उम्र में अम्बर्टो ने यंग इटैलियन फ़ासिस्ट निबंध लेखन में भाग लिया और प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। लेकिन जल्द ही मोहभंग हो गया। जब उत्तरी इटली जर्मन द्वारा अधिकृत कर लिया तो उन्होंने भूख का अनुभव किया। वे एसएस, फ़ासिस्टों एवं अंधभक्तों के बीच चलती गोलियों से बचने के प्रयासों का स्मरण करते हैं। बचपन में वे अपने बाबा के सेलर में बैठ कर उनके संग्रह से जूल्स वर्न, मार्को पोलो, बाल्ज़ाक, एलेक्ज़ेंडर डुमा और चार्ल्स डार्विन तथा एडवेंचर कॉमिक्स पढ़ा करते। उनकी नानी बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं परंतु खूब किताबें पढ़ा करती थीं। किशोरावस्था में उन्होंने अमेरिकन साहित्य और जाज़ का अध्ययन किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद १४ साल की उम्र में कैथोलिक यूथ ऑगनाइज़ेशन में भर्ती हुए और २२ वर्ष के होते-न-होते इस संगठन के नेशनल लीडर बन गए। लेकिन कोई भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति बहुत लंबे समय तक किसी संगठन में नहीं बना रह सकता है। संगठन के भीतरी विरोधाभास का पर्दाफ़ाश होता है, तो मोहभंग होना स्वाभाविक है। १९५४ में पोप पायस द्वादश की कट्टरपंथी नीतियों के विरोध में उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इतना ही नहीं बाद में उन्होंने कैथिलिक धर्म को ही तिलांजलि दे दी।
बचपन से उनका लालन-पालन रोमन कैथोलिक धार्मिक वातावरण में हुआ था और उनकी स्कूली शिक्षा भी सेलेसियन संघ के स्कूल में हुई थी। उनके बाबा को शहर के अधिकारियों ने ‘एक्स कैलिस ओब्लाटस’ की उपाधि दी थी। इस लैटिन शब्द का अर्थ होता है, ‘स्वर्ग का उपहार’ (ए गिफ़्ट फ़्रॉम द हेवन)। यही से उनका सरनेम ‘इको’ आता है। पिता की इच्छा थी कि बेटा कानून की पढ़ाई करे। लेकिन बेटे की रूचि कहीं औअर थी, वह ट्रम्पेट बजाने में कुशल था। कैथोलिक धर्म छोड़ने के बावजूद चर्च से अम्बर्टो इको का मजबूत रिश्ता बना रहा। इसीलिए उन्होंने कॉलेज में मीडिवल फ़िलॉसफ़ी एंड लिटरेचर की पढ़ाई की और टुरिन यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट करते हुए अपना विषय सेंट थॉमस एक्वीनास चुना। इसी थीसिस को उन्होंने बाद में ‘दि एस्थेटिक्स ऑफ़ थॉमस एक्वीनास’ नाम से प्रकाशित कराया। उनका यह कार्य मध्यकाल की लैटिन सभ्यता के प्रमुख एस्थेटिक विचारों का अध्ययन है। थॉमस एक्वीनास मध्यकाल का एक प्रमुख फ़िलॉसफ़र तथा कैथोलिक डोमिनिकन प्रीस्ट था। वे यूरोप के मध्यकाल को अंधकाल न मान कर संभावनाओं का काल मानते हैं। १९५६ से १९६४ तक अम्बर्टो इको ने इटली के रेडिओ-टेलिविजन (आरएआई) के लिए बतौर कल्चरल एडीटर काम किया। इसी दौरान वे टुरीन यूनिवर्सिटी में शिक्षण भी कर रहे थे। १९५९ में अम्बर्टो इको बोम्पिआनी प्रकाशन हाउस में एडीटोरियल कंस्लटेंट बन गए और यही उन्होंने सेमिओटिक्स पर अपने विचारों को मूर्त रूप देना प्रारंभ किया।
१९७५ में यूरोप की प्राचीनतम बोलोग्ना यूनिवर्सिटी सेमिओटिक्स प्रोफ़ेसर के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। सेमिओटिक्स के क्षेत्र में विशेषज्ञ के रूप में उनकी ख्याति फ़ैल गई। उनका मूल सिद्धांत है कि कोई भी कार्य संकेतों के अनंत क्रम से बना होता है। यह एक नयी फ़िलॉसफ़ी है जिसमें वैज्ञानिक या कलात्मक मौखिक-लिखित संप्रेषण के महत्व का विश्लेषण किया जाता है। सेमिओलॉजिस्ट के रूप में उन्होंने फ़ंतासी और यथार्थ के बीच कड़ी खोजने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस विषय पर लेक्चर देने के लिए उन्हें विभिन्न यूनिवर्सिटी से निमंत्रण मिलते थे। उनके अनुसार किताबें विश्वास करने के लिए नहीं वरन खोज के लिए होती हैं। वे इस विषय की ओर आकृष्ट हुए क्योंकि वे संस्कृति के विभिन्न स्तरों का एकीकरण करना चाहते थे। वे मानते हैं कि मास मीडिया के द्वारा तैयार की गई कोई भी चीज सांस्कृतिक विश्लेषण की वस्तु हो सकती है। इसीलिए एक ओर वे ‘ब्यूटी’ पर लिखते हैं तो दूसरी ओर उन्होंने ‘अगलीनेस’ पर भी कलम चलाई है। सेमिओटिक्स सारी संस्कृतियों को संकेतों का जाल मानता है, जिसका छिपा अर्थ जानने के लिए इन संकेतों को डिकोड करना होता है। उनका मानना है कि संस्कृति के हाशिए की अभिव्यक्ति को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरण स्वरूप वे बताते हैं कि १९वीं शताब्धि में टेलेमान बाख से बड़ा कम्पोजर माना जाता था। इसी तरह हो सकता है कि २०० साल बाद पिकासो को कोकोकोला के कमर्शियल्स से कमतर माना जाए। मजाक करते हुए वे कहते हैं कि कौन जानता है कि किसी दिन ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ को हेरॉल्ड रोबिन्स के उपन्यासों से कमतर माना जाए। (हेरॉल्ड रोबिन्स का लोकप्रिय साहित्य मेरी दृष्टि में कहीं से कमतर नहीं है)






१९६३ में अम्बर्टो इको इटली के आवाँ गार्द आंदोलन ‘ग्रुप ६३’ के सदस्य बन गए, इस समूह में लेखक, कलाकार, संगीतज्ञ थे और इनका उद्देश्य अभिव्यक्ति की नई शैली की खोज करना था। इसी से प्रभावित हो कर उन्होंने अपना लेखन किया। कैंसर से जूझते हुए ८४ वर्ष की पकी उम्र में अम्बर्टो इको का इसी साल, १९ फ़रवरी २०१६ को निधन हो गया। वे अंत-अंत तक लिखते रहे। जर्मन मूल की उनकी पत्नी रेनाटे रामजे इको आर्ट टीचर हैं। १९६२ में दोनों की शादी हुई थी। इस दम्पति के दो बच्चे हैं, एक बेटा स्टेफ़नो और एक बेटी कारलोटा। “मैं एक फ़िलॉसफ़र हूँ, केवल सप्ताहांत में उपन्यास लिखता हूँ।” कहने वाले इस रचनाकार को उपन्यासों से ख्याति मिली। ‘द नेम ऑफ़ द रोज की प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेंट्रल पार्क में जोगिंग करने वाले अपने वॉकमैन पर गाना न सुन कर इसे ही सुना करते। और उनके इंग्लिश अनुवादक विलियम वीवर ने अपने टुस्कान घर में इको चैम्बर बनवाया। १९८८ में उनका दूसरा उपन्यास ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ आया। यह भी थ्रिलर है, इसमें लोक संस्कृति और पल्प फ़िक्शन के प्रति उनके रुझान को देखा जा सकता है। मिलान में स्थित इस उपन्यास के तीन एडीटर प्रत्येक षडयंत्र सिद्धांत की कड़ी इतिहास से जोड़ते हैं








दशकों पहले इसी में उन्होंने ‘द डा विंची कोड’ का पूर्वानुमान किया और एक पत्रकार के पूछने पर उन्होंने खुद बताया कि डॉन ब्राउन एक काल्पनिक चरित्र है और उन्होंने ने ही उसका इजाद किया है। इस उपन्यास में वे एक विस्तृत षडयंत्र का जाल रचते हैं। इस एन्साइक्लोपेडिक डिडेक्टिव कहानी की प्रेरणा का स्रोत १९ वीं सदी में फ़्रेंच भौतिकशास्त्री लिओन फ़ूको द्वारा बनाया गया एक पैंडुलम है, यह लोलक पृथ्वी के घूर्णन को दिखाता है। इसमें उन्होंने कबालाह, गणित और डिज़्नी के पात्रों को प्रस्तुत किया है। कई सदियों, कई भाषाओं तथा ढ़ेर सारी सूचनाओं से लैस यह उपन्यास उनके पहले उपन्यास-सी ख्याति न पा सका, असल में उनके अन्य छ: उपन्यासों में से कोई भी अन्य उपन्यास वह प्रसिद्ध हासिल न कर सका। ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ पढ़ना कठिन है तो आसान नहीं रहा होगा इसे लिखना भी। पृथ्वी पर सत्ता-शक्ति और पृथ्वी की सत्ता-शक्ति हासिल करने का प्रयास (उपन्यास की थीम) सरल हो भी नहीं सकता है। अंत में इस सत्य का संधान घातक होता है। आलोचकों ने अम्बर्टो इको के कठिन उपन्यासों के इंग्लिश अनुवादक विलियम वीवर की खूब तारीफ़ की है। आज का समय होता तो शायद उन्हें मैन बूकर इंटरनेशनल पुरस्कार (नए नियमों के अनुसार) की एक बड़ी राशि भी प्राप्त होती। सात उपन्यासों के साथ-साथ अम्बर्टो इको की २० नॉनफ़िक्शन की किताबें भी हैं।
‘फ़ूकोज पैंडुलम’ के साथ एक मजेदार घटना जुड़ी है। सलमान रुश्दी को यह उपन्यास पसंद नहीं आया और उन्होंने बहुत मुखर रूप से इसे जाहिर भी कर दिया। ‘द लंडन ऑबजर्वर’ के लिए पुस्तक समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा: “पाठक, मैं इससे नफ़रत करता हूँ।” उन्हें यह हास्यविहीन, पात्रों के बिना और बेकार उपन्यास लगा। भला अम्बर्टो इको क्यूँ चूकते। २००८ में उन्हें न्यू यॉर्क के एक साहित्यिक कार्यक्रम में सलमान रुश्दी के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला और मौके का फ़ायदा उठाते हुए अम्बर्टो इको ने अपने इसी उपन्यास ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ के कुछ अंशों का पाठ किया। उनका यह उपन्यास कैथोलिक शक्ति-गढ़, वतिकान को भी नहीं जँचा। वहाँ के अखबार ने ‘फ़ूकोज पैंडुलम’ को धर्मनिंदा, अवमानना, ईशनिंदा, भँड़ैती, गंदगी को घमंड और दोषदर्शिता के खरल में घोंटा गया कहा। लेकिन मजे की बात है कि लॉयला और लेउवेन जैसे कैथोलिक विश्वविद्यालय ने उन्हें ऑनररी डिग्री दी हैं।
उनका अगला उपन्यास ‘दि आइलैंड ऑफ़ द डे बिफ़ोर’ और भी पाण्डित्यपूर्ण है। पढ़ने पर यह भावनाओं तथा अभिव्यक्ति की कम और शैली की कवायद अधिक लगता है। इतिहास से प्रेम करने वाले अम्बर्टो इको ने इसे १७वीं सदी में रखा है। भग्न जहाज का नाविक तैरना नहीं जानता है और इसी कारण वह पास के उजाड़ टापू तक नहीं पहुँच पा रहा है। उसके टापू तक न पहुँचने का एक और कारण है। कारण है कि यह टापू अंतरराष्ट्रीय डेट लाइन के पार है। समय और स्थान की पहेलिका यह उपन्यास, इसमें वे मध्यकाल के चिरपरिचित कथानक को त्याग कर १७वीं शताब्दि के यूरोप की फ़िलॉसफ़ी, राजनीति और अंधविश्वासों की ओर रुख करते हैं।
वे एक-एक पन्ने को दर्जनों बार लिखते हैं। गुंटर ग्रास की तरह वे भी अंतिम रूप देने से पहले अपने लिखे को जोर-जोर से पढ़ कर देखते हैं और टोन के सही होने पर संतुष्ट हो कर ही रुकते हैं। उनके उपन्यास ‘कमिंग ऑफ़ एज’ से जुड़े हैं, जिसमें भावुकता और सैक्स होना माना जाता है। लेकिन अम्बर्टो इको के मात्र दो उपन्यासों – ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ तथा ‘बौडोलीनो’ में सेक्स आता है। पूछने पर उनका मजेदार उत्तर है: “मैं सेक्स को तरजीह देता हूँ बनिस्बत इसे लिखने के।” अपने चौथे उपन्यास ‘बौडोलीनो’ में एक बार फ़िर से वे यूरोप के मध्यकाल में उतरते हैं। इस उपन्यास को उन्होंने बाइज़ंटाइन कॉन्स्टान्टिनोपल में स्थापित किया है। प्रकाशित होते ही इटली की जनता ने इसे हाथों-हाथ लिया। यहाँ भी अन्वेषण-कथा है। इसमें भी अंकों का खेल, फ़ुटनोट्स, उनका सनकीपन है। इसका नायक छोटा मिथ्याभाषी है जो बड़े-बड़े झूठ गढ़ता है, जिसके वर्णन ऐतिहासिक सत्य पर प्रश्न खड़े करते हैं।
उपन्यासकार के रूप में उनकी प्रतिभा पर शक नहीं किया जा सकता है, लेकिन वे खुद को प्रमोट करना भी जानते थे। और इस प्रसिद्धि की कीमत उन्हें चुकानी पड़ती। उन्हें लगता था कि वे अपनी ही प्रसिद्धि में “ट्रैप्ड” हो गए हैं। पत्र-पत्रिकाएँ अपनी ओर से उनके लिए तरह-तरह की गोषणाएँ कर दिया करती, जैसे एक बार ‘इटैलियन वोग’ ने दावा किया कि वे मोज़ार्ट पर एक उपन्यास लिखने जा रहे हैं। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह सत्य नहीं है। उन्हें लगता था कि पत्रकार और उनके प्रकाशक उन्हें ब्लैकमेल कर रहे हैं। उन्हें लगता कि वे खुद को भी ब्लैकमेल कर रहे हैं। वे खुद को स्वतंत्र नहीं अनुभव करते थे। कभी-कभी वे स्वयं से प्रश्न पूछते कि वे नई किताब लिख रहे हैं क्योंकि वे इसे लिखना चाहते हैं, अथवा उनसे इसे लिखे जाने की अपेक्षा की जाती है।
“बहुत हो गया। पाँच काफ़ी है।” २००४ में अपने पाँचवें उपन्यास ‘द मिस्टीरियस फ़्लेम ऑफ़ क्वीन लिआना’ के प्रकाशन के अवसर पर उन्होंने कहा। हालाँकि वे रुके नहीं। इस उपन्यास का कथानक उन्होंने इटली में अपने युवावस्था के युद्धानुभवों से लिया है। उपन्यास का शीर्षक फ़ासिस्ट दौर में निकलने वाली एक कॉमिक बुक से लिया गया है। बचपन में वे इसे खूब पसंद किया करते थे। २००८ में वे बोलोग्ना यूनिवर्सिटी से सेवा निवृत हुए और इसके बाद उन्होंने दो और उपन्यास लिखे। २०१० में उनका उपन्यास ‘द प्राग सिमेट्री’ तथा मृत्यु से एक वर्ष पूर्व २०१५ में ‘नुमेरो ज़ीरो’ प्रकाशित हुआ। ‘द प्राग सिमेट्री’ में पात्र परेशान करने वाली एंटीसेमिटिक बातें करते हैं, खूब मुखर दोषारोपण इसकी विशेषता है। जबकि ‘नुमेरो ज़ीरो’ को अम्बर्टो इको ने आज के समय, १९९२ के मिलान में स्थापित किया है। यह भी एक धारदार थ्रिलर है, इसमें उन्होंने बीसवीं सदी की इटली के श्याम पक्ष को उकेरा है। इटली की सीक्रेट सर्विस के अधिकारी कैबिनेट मिनिस्टर को इस तरह नचाते हैं कि आतंकवाद और फ़ासिस्टवाद का एक बार फ़िर से आगमन होता है। यह पॉऔलर प्रेस पर किया गया व्यंग्य है। जाहिर-सी बात है एक बार फ़िर से वे बेस्टसेलर की सूचि में थे। वे बार-बार षडयंत्र और रहस्य के लिए क्लासीकल इटैलियन उत्साह दिखाते हैं।







अम्बर्टो इको फ़्रेंच निबंधकार और काउंटरकल्चर गुरु रोलैंड बार्थ्स से प्रभावित हैं। इस निबंधकार ने वाशिंग पाउडर, ग्रेटा गार्बो के चेहरे पर लिखा तो अम्बर्टो इको ने भी वर्ल्ड कप, लुई वुइटो हैंडबैग, अमेरिका के पोर्न स्टार और वाइस प्रेसीडेंट की उम्मीदवार मरिलिन चैम्बर्स पर लिखा। वे एक साप्तहिक पत्रिका के लिए स्तंभ लिखते थे, पाठक इसे खूब पसंद करते। उनके यही लेख बाद में ‘ट्रेवल्स इन हाइपररियालिटी’ तथा ‘हाऊ टू ट्रवल विथ साल्मोन एंड अदर एसेज’ नाम से प्रकाशित हुए। क्षणिक चीजों को साहित्यिक जामा पहनाने में वे कुशल हैं। एक उदाहरण देखें: “मेरे नए जीन्स के साथ जिंदगी पूरी तौर पर बाह्य थी: मैंने मेरे और मेरे पैन्ट्स के बीच के संबंध, मेरे पैन्ट्स और जिस समाज में रहता हूँ के संबंध को सोचा...मैंने एपीडेमिक आत्म-साक्षात्कार किया।” उन्होंने प्लास्टिक काँटे से मटर कैसे खायें से ले कर सुंदरता के बदलते अर्थ जैसी छोटी-बड़ी तमाम बातों पर अपना मत व्यक्त किया।
अपने तरह-तरह के लेखन के साथ अम्बर्टो इको ने जेम्स बॉन्ड के उपन्यासों, पीनट्स एंड पल्पी स्ट्रिप कार्टून्स का कूट खोला (डिकोड)। उनके अनुसार मिकी माउस उसी तरह परिपूर्ण हो सकता है जैसे जापानी हाईकू। यूरोप के बौद्धिक जगत का यह अनोखा सदस्य बच्चों के लिए भी लिखता था। इस विशिष्ट विद्वान के पास एक ओर जहाँ अतीत की खास समझ थी वही भविष्य देखने की अकूत क्षमता भी थी। वे जितनी आसानी से यूरोप के मध्यकालीन इतिहास पर बोल सकते थे उतने ही उत्साह से जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म पर भी बात कर सकते थे। इको का मानना था कि किताबें सदैव दूसरी किताबों के बारे में बोलती हैं और कहानी वह कहती है जो पहले कहा जा चुका है। बहुप्रतिभाशाली अम्बर्टो इको को एक छोटे-से लेख में समेटना संभव नहीं है। फ़िर भी इस सीमित लेख द्वारा प्रभात खबर और अपनी ओर से इटली के इस कानन डायल, पोस्टमॉडनिस्ट लेखक को भावभीनी श्रद्धांजलि!
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डॉ. विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीतारामडेरा, एग्रिको, जमशेदपुर ८३१००९

ईमेल: vijshain@gmail.com

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