जया घिल्डियाल की कविताएँ
जया घिल्डियाल |
कविताएँ
एक
आशा /अपेक्षा कल का हिस्सा है
जो है ही नहीं
उसे छोड़ कर
बेहतर जिया जा सकता है ना !
तुम्हें जानना
आशाओं /अपेक्षाओं की अन्तर्यात्रा नहीं है
तुम्हें जानना अज्ञात की यात्रा है !
दो
कुछ काम अगर नहीं भी होते
तो याद रहे
नहीं रुकते हैं, इस संसार का काम !
हो जाती हैं विलुप्त भाषाएँ और सभ्यताएँ भी |
"काल किसी को अपना प्रवक्ता नहीं बनाता ! ”
तीन
आप अपने बारे में उतना ही जानते हैं
जितना आप होते हैं
और जितना आप नहीं हो सकते !
लोग आपके बारे में उतना ही जानते हैं
जितने आप "नहीं हो सकने " से पहले बचे रहते हैं
और
जो आप होना चाहते हैं !
चार
सीढ़ियाँ
दोनों ओर से शुरू होती हैं
खत्म भी होती हैं
दोनों ओर से ही !
प्रेम
सीढ़ियाँ नहीं है !
पांच
नन्दलाल बसु से जब पूछा :
“ आप भी तो कला के बड़े आचार्य हैं
आप में और गुरुदेव में क्या अंतर है ? “
नन्दलाल बोले :
“ मुझे आग कभी-कभी लगती है ,
गुरूदेव को हमेशा लगी रहती है । “
निर्माण की अदम्य इच्छा
एक सतत प्रक्रिया है
प्रेम ही इसे पोषित और संरक्षित कर पाता है ।
छ:
प्यार करने वालों को
अपनी साँस पर नियंत्रण होना चाहिए
ताकि जब लें चुम्बन;
इक सदी तक उसकी आवाज से
आकाश थरथराता रहे !
सात
सब लोग ही मिले-जुले हैं
मिश्रित वर्ण व्यवस्था है ये
वासना /शरीर का ज्वर कुछ देखता है भला !
वासना से ही हिंसा बँधी है |
प्रेम सर्वोपरि है
वही सब मर्यादित करता है ।
रामकृष्ण परमहंस ने शूद्र रानी के यहाँ जा कर पूजा की थी |
आठ
एक कविता कहो ना इस पल
अभी?
हाँ, अभी
तुम सामने होते हो
तो कविता उतनी ही मुश्किल लगती है
जितना सत्रह का पहाडा़
सरल भी उतनी ही
जितना बताना
प्रेम का विलोम शब्द !
नौ
मिलूँगी तुमसे पहली बार
सफेद कुर्ता पहन कर
कि रह जायें उसमें आलिंगन के छापे
कुछ सलवटें बाहों के इर्द-गिर्द
और कांधे पर तुम्हारे चुम्बन का निशान
कुर्ते की बखिया पर लिखवाऊँगी कविता फिर
कि जब जाऊँ घर वापस
तो देख सके दुनिया
मैं कितनी प्रेम में थी !
कितनी बागी !
दस
प्रेम करने से बेहतर हैं कई काम
जैसे कुछ ख़्वाब बोना
घर के उस कोने में
जहाँ रखे हैं सारे वाद्ययंत्र
या कुछ टेबल लैम्प के नीचे ।
जिससे पहले तुम असभ्य दिखो
जिससे पहले तुम चीख पडो़ - " भाड़ में जाओ प्यार ! "
उससे पहले ये जान लो –
प्रेम करने से बेहतर है , इक नई भाषा सीखना
कुछ और कविताएं
एक
तुम्हारे जाने के बाद
तुम नहीं हो
तो जीवन यूँ भी दुश्वार नहीं
भूख लगती ही है
नींद आती ही है
बस इक सन्नाटा सा रहता है
सब्ज़ी मंडी में ,मेले में ..
शादियों में बजते बाजे .....मुझे सुनाई नहीं देते
आस -पास कोई हँसता है
तो लाचारी सी लगती है कि ये काबिलियत तो मुझमें भी थी |
बाकी ..
बसंती गुलाब
पीला नर्गिस
सब सूख गए हैं
मैने भी नहीं सोचा
कि सहेजूँ /सींच लूँ इन्हें
जैसे तुमने भी नहीं सोचा
जाने से पहले....
यूँ भी कोई जाता है क्या ?
कि मैं शाम की सैर से घर आया
और तुम ना थी !
हाँ !
गमले वहीँ हैं सीढ़ियों पर
सूखे
जगह -जगह से चटके
बेरंग ....
००
दो
कल एक साल हुआ तुम्हें गए और जिन्दगी ने नया "अ" लिखा
मैनें उसे कभी तुलसी को अर्घ्य देते हुए
कभी संध्या दीप जलाते हुए
"अकेला" पढ़ा...."अ " से अकेला ।
जीवन की इस नयी वर्णमाला में
"अ" के बाद वर्ण भी तो नहीं होते !
पुकार होती है इक ; "आ .......
और इक लाचारी
जब खुद खरीदने जाता हूँ एडल्ट डाइपर ।
सरला ! अब जीवन का "अ" सीखना भी बेहद मुश्किल है
तुम थीं तो जीवन के अनगिनत रंग ,एक सतत वर्णक्रम में व्यवस्थित थे
लेकिन मैं भी अब चप्पल हमेशा जोड़े में रखनी सीख गया हूँ..
बिस्तर से उठते ही सलवटें हटा देता हूँ ...
बाथरूम में वाइपर चला देता हूँ...
"अ " से अनुशासन सीख रहा हूँ
और
अनवरत तलाश में हूँ उस प्लुत स्वर के कि तुम्हें पुकार सकूँ ।
००
तीन
बदरीनाथ गया
मन माणा के पास उफनती सरस्वती सा होने लगा
फिर भीम पुल के पल्ली छोर भी देखा
कुछ दिन से तुमने पुकारा नहीं !
गांव वापस आया
घंटो बैठा रहा उस गदेरे* के पास
कभी होती थीं उसमें ढेरों- ढेर मछलियाँ ....
मैं पत्थर पे पत्थर लगा
मोड़ देता था इक धारा
बिना पानी बिछी पड़ी होतीं सैकड़ों मछलियाँ ....
तड़पती धार के उस पार |
बाबू जी गुस्सा होते :
“ म्लेच्छ! यूं तड़पते हो। जीव खाते हो ।
क्यों तुम ब्राह्मण पैदा हुए ?
यूँ अब कम हैं मछलियाँ
आठ-दस दिखतीं बस
उन्हें निहार रहा हूँ
बचपन में जिन्हें मैंने तडपाया था
उन्हीं बची-खुचीं मछलियों की संततियां हों ये शायद !
कुछ दिन से मन बचपन में तड़पती मछलियों सा है
कुछ दिन से तुमने पुकारा नहीं !
००
गदेरा - जल श्रोत है ,जो प्रायः बारिश के पानी या पहाड़ों के सोतों से बहे पानी से बनता है ।
जया घिल्डियाल
मूल निवासी – श्रीनगर गढ़वाल , उत्तराखंड
हाल निवासी – पुणे , महाराष्ट्र
स्नातकोत्तर कार्बनिक रसायन
रसायन विज्ञान अध्यापिका
jayayashdeep2000@gmail.com
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जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी कविताएँ, बधाई।
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