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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 फ़रवरी, 2019

कहानी 

रहौं कंत होशियार

सिनीवाली





सिनीवाली




      ‘‘हो तेजो का, तेजो का हो…!”

रासबिहारी ने आवाज दी। लेकिन तेजो के घर से कोई आवाज नहीं आयी। उसने अंदाजा लगाया, बाल दाढ़ी बनाने  गांव निकल गए। बृहस्पत, मंगल, सनिचर को बाल-दाढ़ी से फुरसत हुयी तो खेती बाड़ी में लग जाते हैं। आज तो एतवार है। कोई बात नहीं, गांव में किसी न किसी के दरवाजे पर मिल ही जाएंगे। वहीं कह दूंगा।

    सोचते हुए रासो जा ही रहा था कि तेजो की आवाज आयी, ‘‘बड़ी जल्दी में है रासो, जरा ठहर नहीं सकता।”

   ‘‘नहीं काका, ऐसी बात नहीं है, जरा जल्दी में था।” 

   ‘‘आज भोरे भोरे मुझे खोजने आया है, लोग तो मुझे मरनी ब्याह में या कथा में खोजने आते हैं। बात क्या है?‘‘

    ‘‘एक जरूरी बात कहने आया था। आज दुपहरिया में गया बाबू के दरवाजे पर आपका बुलाहटा है।‘‘

   ‘‘मुझे!”

   ‘‘हां आपको “

   ‘‘बात क्या है, बताओ भी।‘‘ 

   ‘‘बात तो फायदे की है। आज रघुवंशी बाबू...‘‘ बोलते हुए रासो ने तेजो के चेहरे पर अपनी आंखें टिका दीं। ‘‘नाम तो जानते ही होंगे।‘‘

    उसकी बात जरा और दमदार हो जाए, इसलिए पीछे से यह भी कहा,  ‘‘आजकल पूरे गांव में उनकी खूब चर्चा है। वही आ रहे हैं आज।‘‘

    ‘‘पर वहां मेरा क्या काम है, ऐसे लोगाें को तो दूर से ही परनाम।‘‘ 

    ‘‘पर काका, इस बार परनाम से काम नहीं चलेगा, अंगूठा लगाना होगा अंगूठा।‘‘

    ‘‘अंगूठा!‘‘ 

    ‘‘और अंगूठे के बदले आपको रूपैया मिलेगा रूपैया, एकदम कड़कड़िया नोट!‘‘

    ‘‘बेटा, जरा साफ साफ कहो।‘‘

    ‘‘काका, रघुवंशी बाबू को भट्ठा लगाने के लिए 15-16 बीघा जमीन चाहिए। अब गांव भर में कुछ लोगों के पास ही इतनी जमीन है। और है भी तो एक जगह नहीं है। जहां वो भट्ठा लगाएंगे, वहां किसी के पास डेढ़ बीघा तो किसी के पास एक बीघा तो किसी का दस पांच कट्ठा ही है। वो 15 बीघा जमीन भट्ठे के लिए लेना चाह रहे हैं। जिसका-जिसका वहां पर जमीन है, सबसे वो आज मिलेंगे। आपका भी तो वहां 19 कट्ठा है।‘‘ 

   ‘‘नहीं, 20 में तीन कम है, पर जरूरी तो नहीं कि सब दे रहे हैं तो हम भी दे ही दें।‘‘

   ‘‘आप तो गजब कर रहे हैं। आप से अधिक पैसा वाला हुलस हुलस कर देने के लिए तैयार है तो आप क्यों नहीं? एक बीघा का साल भर में 20 हजार देंगे।‘‘

    20 हजार बोलते हुए रासो की आंखों में चमक आ गयी। ‘‘देह गलाकर खेती करने पर भी कभी हम लोग आज तक एतना रूपैया का मुंह नहीं देखे। सोचो ना, बिना हाथ-पैर हिलाए बैठे बैठे हाथ में 20 हजार!‘‘ 

    तेजो रासो का मुंह देखता रहा, पर बोला कुछ नहीं।

    ‘‘तुम तो पूरे गांव का माथा मूड़ते हो---‘जात में लौवा और पंछी में कौवा !' हम तुम्हें क्या समझाएंगे। बस आ जाना दू बजे। नहीं तो वो कहेंगे, हमने आपको खबर ही नहीं दिया।‘‘ 

    ओसारे पर बैठे बैठे सोचता रहा कि धरती के तरह-तरह के सौदागर होते हैं। वो पेट तो भरती है सबका पर सुलगाती तो अपनी ही देह है। कहीं छाती फाड़कर न जाने क्या क्या निकाला जाता है तो कहीं देह जला कर ईंट बनाया जाता है।

     पर, आज उसका मन उधर जाने का नहीं था। लेकिन देखना चाहता था कि इतने बड़े आदमी रघुवंशी बाबू कैसे हैं। अपने गांव में नौकरी चाकरी वाले तो उसने कई देखे हैं, पर सब कहते हैं कि वो करोड़पति हैं। आज वो अपनी आंखों से देखेगा कि पैसों की ढेरी पर बैठने वाले लोग कैसे लगते हैं। कैसे उठते-बैठते, बोलते-बतियाते हैं। और, वहां गांव के कौन कौन से लोग अपनी जमीन देने पहुंचते हैं और कौन सिर्फ उनको नजर भर देखने। 

    तेजो वहां पहुंच कर सबको परनाम पाती करने के बाद थोड़ा हटकर जमीन पर बैठ गया। वो सुन रहा था,‘‘रघुवंशी बाबू ने अपने नए भट्ठे के लिए इस गांव को चुना है, यहां का तो भाग खुल गया। बहुत पैसे वाले हैं। कई शहर में घर है। यहीं भागलपुर में भी कचहरी चौक के पास छह कट्ठा जमीन है। उस जमीन का रेट जानते हो। 40 से 45 लाख रूपैया कट्ठा। अनाज रखने वाला गोदाम भी है। और एक जगह भट्ठा चल रहा है, खूब आमदनी हो रही है वहां।‘‘

  ‘‘पर हमारे गांव को क्यों चुना‘‘- एक ने पूछा।

   ‘‘वो तो मेरे साले के ससुराल के आदमी हैं। मैंने चर्चा की थी साले से कि हमारे गांव का भी कुछ भला हो जाए। उनका इनके साथ उठना बैठना है। हमारे साले ने रघुवंशी बाबू से कहा कि समय निकालकर एक बार हमारे गांव भी आएं। वो आए। उन्हें जगह जंच गयी और वो तैयार हो गए। यार, अब यहां के लोगों का तो दिन बदल जाएगा‘‘, दूसरा बोला।  

    पहले की नजर में दूसरे की कोई खास कीमत नहीं थी। जब पता चला कि उसके कारण ही भट्ठा...!! तो पहला दूसरे को अचानक ही बेशकीमती समझने लगा। 

   पहला खुशी से उमंगते हुए बोला,‘‘तू बड़े काम का निकला ...।‘‘ दूसरा समझ गया कि बिना कुछ किए ही भट्ठे के नाम पर सामनेवाले की नजर में कितनी इज्जत बढ़ गयी।

     ‘‘देख यार, गांव में जो नौकरिया हैं, उनको तो हर महीने नोट की गड्डी मिल जाती है। फिर किस बात की चिंता। हड़ताल कर देंगे, पैसा बढ़ जाएगा। नौकरी करते-करते बीच में ही टपक गए तो बेटा भी नौकरिया। बाल-बच्चा भी मनाता है कि बीच में ही मर जाएं। पर जो खाली किसानी करते हैं, उनके लिए तो कोई रास्ता ही नहीं बचा है। खेती करके कोई परिवार का पेट भर ले, बहुत मुश्किल है। पेट खाली और देह पर पूरा कपड़ा नय रहे तो लोग भिखमंगा नय किसान समझ लेते हैं। पहले के समय तो किसी तरह गुजर-बसर हो भी जाता था लेकिन अब संभव नहीं है। हर चीज के दाम में आगिन लग गया है। मेरा वहां डेढ़ बीघा जमीन है, साल भर में क्या आता है जानते ही हो। कभी कभी तो खेती का खर्चा भी ऊपर नहीं होता।‘‘ उसकी आवाज में गहरी उदासी आ गयी। 

    ‘‘सुना है पांच साल के लिए भी ले रहे हैं और एक साल के लिए भी। मैं तो सोचता हूं कि इकट्ठे पांच साल के लिए ही दे दूं। पांच बरस तो पैसा आता रहेगा। नौकरिया होने का कुछ तो सुख मिल जाएगा।‘‘ 

  ‘‘तब तो तुम्हारा भी बरतुहार आने लगेगा।‘‘ दोनों हंस पड़े।

    इसी हंसी के बीच गाड़ी के आने की आवाज आयी। एक चमचमाती स्काॅर्पियो और दो मोटरसाइकिल दरवाजे पर आकर खड़े हो गये। गहमागहमी तेज हो गयी। सभी रघुवंशी बाबू के स्वागत के लिए खड़े हो गए। भीड़ के पीछे से तेजो भी देख रहा था।

     गोरा रंग है, लंबे चौड़े हैं, दाढ़ी-मूंछ सब सफाचट। तेजो सोचने लगा-‘‘लगता है कि इनके माथे पर बाप का हाथ नहीं है, तभी तो निमोछिया हो गए हैं। करका चश्मा लगाए हैं। सूट बूट पहने हैं। देखकर ही साहेब लगते हैं। उनके पीछे-पीछे दो आदमी भी चल रहा है। इसी को कहते हैं-पैसे की धमक।”

     पहले से कुर्सी तैयार थी। किसी ने उनसे बैठने का आग्रह किया तो किसी ने टेबल फैन की हवा उनकी ओर कर दिया। फर्र-फर्र हवा चलने लगी। रूमाल निकाल कर वो पसीना पोछ ही रहे थे कि तब तक कोई ठंडा ले आया। 

    कुछ देर के बाद काम की बात शुरू हुयी। गांव के एक किनारे भट्ठा के लिए वो 15 बीघा जमीन पट्टा पर लेने आए थे। जिसका जिसका वहां खेत था, सभी तैयार थे। बस एग्रीमेंट वाला कागज निकलने और उस पर दस्तखत करने भर की देर थी।

      एक आदमी, जो रघुवंशी बाबू का खास था, उसने एग्रीमेंट का कागज निकाला और बारी बारी से सबका दस्तखत कराने लगा। एक दूसरा आदमी काले बैग से पैसा निकालकर गिन गिन कर देने लगा। अब रघुवंशी बाबू पांच साल के लिए जमीन के मालिक बन रहे थे।

    रघुवंशी बाबू बोले, “ यहां जमीन का काम पूरा होते ही हवाई जहाज से दिल्ली निकल जाएंगे। दो चार दिन में वहां से लौटने के बाद भट्ठा खोलने का बाकी काम जल्दी पूरा कर लेंगे। जिस गांव में इसके पहले भट्ठा लगाया है उस गांव की कैसे सूरत बदल गयी और आने वाले समय में यहां भी खुशहाली आ जाएगी।”

     बातों के साथ ही एग्रीमेंट कागज पर तेजो के हस्ताक्षर करने की बारी आयी। कोई रूपैया कसकर मुट्ठी में पकड़े था तो किसी ने जेब में सुरक्षित किया। कोई अपनी बारी का इंतजार करते हुए बेसब्र हुआ जा रहा था। लेकिन तेजो की नजर एग्रीमेंट वाले कागज पर ठहर गयी। उसने कागज को गौर से देखा, थोड़ी देर देखता रहा पर अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया। किसी ने कहा, ‘‘अरे तेजो तू अंगूठा ही लगा दे।‘‘ उनमें से एक ने कहा, ‘‘इसको कम मत समझिए, अपना नाम लिखने आता है, सातवां किलास तक पढ़ा था मेरे ही साथ।‘‘ 

     तनिक ने कहा, ‘‘लिखने का आदत नहीं है इसीलिए सकुचा रहे हैं।” 


      रासो ने कहा, ‘‘अंगूठा दो या नाम लिखो, मिलेगा तो कड़कड़िया नोट ही।‘‘ 

   तेजो कुछ नहीं बोला। उसने सबका मुंह एक बार आंख उठा कर देखा। किसी ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘इतना क्या सोच रहा है, लगता है जैसे अपना राज-पाट लिख रहा है। रघुवंशी बाबू को जाना भी है।”

    अब तक रघुवंशी बाबू भी बातचीत छोड़कर गौर से तेजो को देखने लगे। काले बैग से वो आदमी नोट निकाल कर गिनकर बैठा था कि अंगूठा लगाते ही रूपैया उसको पकड़ा देगा लेकिन तेजो कागज चौकी पर छोड़कर झटके से खड़ा हो गया।


 ‘‘मैं नहीं दूंगा अपना खेत, धरती माय की कोख में आग लगाने के लिए!‘‘ 

   सभी स्तब्ध रह गए। ससुरा इ का बोल रहा है। इसका दिमाग तो नहीं घूम गया है। तेजो  रूपया छोड़कर चला गया। किसी ने कहा, ‘‘ कभी कभी इसके दिमाग में गरमी चढ़ जाता है।‘‘


     कुछ महीने बाद गांव में ही एक किनारे चिमनी लग गयी जो दूर से मीनार जैसी लगती थी। जिस दिन चिमनी फूंका गया उस दिन रघुवंशी बाबू, मुंशी, ड्रायवर, मिट्टी ढोने वाला, बालू ढोने वाला, जेसीबी वाला, ईंट का एजेंट, जमीन देने वाले, महाजन, पंडित मधुकांत झा और गांव के कुछ लोग इस अवसर पर जमा थे। 

     ईंट की पहली खेप जब पकने के लिए गयी तो मजदूर भट्ठे के चारों ओर नाचते हुए गा रहे थे-‘मसुरी के दाल लाल लाल, भट्टा के ईंटा लाले लाल ‘

      जब ईंट की पहली खेप पक कर बाहर आयी, सभी रघुवंशी बाबू के गुणों का बखान करने लगे कि किस तरह दौड़-धूप करके, दिन-रात एक करके इतनी जल्दी भट्ठे का काम शुरू कर दिया। बात के पक्के आदमी हैं, मान गए। पर तेजो का कलेजा उस दिन धू धू जला था।

      एग्रीमेंट में बात चार फुट मिट्टी काटने की थी। पर वो तो सात-आठ फुट तक काट रहे थे। कुछ लोगों को आपत्ति हुयी तो भी किसी ने रघुवंशी बाबू के आगे मुंह नहीं खोलना चाहा। पैसा जीभ पर लगाम लगा देता है। उपजाउ मिट्टी को काटकर पहाडी़ की तरह खड़ा कर दिया गया।

     धरती से काटी मिट्टी देह से नोचे गए मांस की तरह लगती थी। कहीं मिट्टी सानी जा रही थी, कहीं ईंट के सांचे में ढाली जा रही थी, वहीं कुछ दूर हट कर मिट्टी ईंट बनकर पक रही थी। जो मिट्टी आज तक अनाज उगाती रही थी वही आज चिमनी में पक रही थी। 

     ‘‘


   एक दिन तनिक, तेजो से मिलने आया।  पहले तो अपनी बात से समझाता रहा। बात नहीं बनने पर चिढ़ता हुआ बोला, ‘‘एक तुम्हीं नहीं उमताए हो, तुम्हारे साथ साथ दयाल दा भी परदूसन परदूसन, खरदूसन खरदूसन बक रहे हैं। जैसे भट्ठा नहीं कोई राकस आ गया हो।”

   ‘‘राकस ही तो है लेकिन रूपया के आगे इ राकस नहीं दिखेगा न!‘‘

   ‘‘तो पेट कैसे भरें? गहूम, मकई जैसे तैसे करजा लेकर उपजाओ, बेचने पर कितना मिलता है कि घर चला लें। ऊपर से मौसम का मार अलग से।‘‘ 

     ‘‘गहूम न सही कुछ और लगाओ, जानते हो अबकी छठ में दयाल कद्दू बेचकर 15 हजार कमाए हैं।‘‘

    ‘‘देह गला कर एक बीघा में 15 हजार कमाया तो इसमें कौन सा होशियारी है। घर बैठे जब उससे अधिक मिल रहा है।‘‘ फिर तनिक बात संभालता हुआ बोला, ‘‘दयाल दा चाहेंगे तो अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, मैं रघुवंशी बाबू के कान तक उनकी बात पहुंचा दूंगा।‘‘

    तेजो कुछ नहीं बोला। 

   ‘‘तुम चाहो तो कक्का, तुम्हारा भी नाम ले लेंगे। एक बार ठंडे दिमाग से सोच लो। आदर्स फादर्स का बात कहने-सुनने में अच्छा लगता है, पेट थोड़े ही भरता है इससे। “

तेजो को उसका भतीजा समझाता हुआ बोला।

   ‘‘बेट्टा, तुम क्या चाहते हो, ये तो समझ में आ रहा है।”

  तनिक बातों में अतिरिक्त मिठास लाते हुए बोला, ‘‘मैं तो भला चाहता हूं।”

     ‘‘भला तुम किसका कितना चाह रहे हो, वो तो पता लग ही रहा है, इससे पहले भी रघुवंशी बाबू घुमा फिरा कर कहलवा चुके हैं।‘‘

     ‘‘तो फिर दे क्यों नहीं देते?‘‘

      ‘‘जिसको देना था, दे चुके! वे रघुवंशी बाबू के चरन-धूलि को चन्नन बनाकर माथे पर लगा चुके हैं। अपने कपाड़ पर तो हम अपने खेत की माटी ही लगाएंगे। ‘‘ 

       ‘‘पेट पोसने के लिए सौ करम करने होते हैं।‘‘ 

      ‘‘लेकिन कुकरम तो नहीं करेंगे।‘‘

      ‘‘कक्का, बात साफ साफ और दो टूक में यही है कि भट्ठे के बीचोबीच आपका और दयाल दा का खेत आता है। जन-मजदूर को घूम कर जाना पड़ता है। समझ रहे हो न मेरी बात। वैसे भी पैसे वालों से राड़ लेना ठीक नहीं होता।‘‘ 

    ‘‘अब तो हम पकिया समझ गए कि तुम उनके पहलमान बनकर आए हो, तो तुम भी सुन लो और जाकर अपने हाकिम को भी सुना देना। हम अपना खेत नय देंगे जो मन में आए कर लें।‘‘

      तनिक तो चला गया पर तेजो को आज रात नींद नहीं आयी। इस करवट से उस करवट में रात ठहर सी गयी। उसे याद आ रहा था कि कुछ दिन पहले ही तो बितना ने भी कहा था, “तुम्हारी तो मति मारी गयी है, अगर भट्ठे वाले को तुम अपना खेत दे देते तो रूपैया तो नसीब होता ही, साथ ही थोड़ा बहुत खरचा-पानी करते तो और भी सुख ---!‘‘

     ‘‘राम राम ! कैसी बात करता है। सुनकर भी पाप लगेगा।‘‘ याद करके तेजो का मन अभी भी घृणा से भर गया। 

     तेजो अपने खेत की आर पर बैठकर देख रहा है। धुआं उगलती चिमनी से थोड़ा हटकर जहां पहले बेल का एक और आम का दो गाछ था। उस जगह अब भट्ठे के मालिक ने एक  कोठरी बनवा दिया है। वो यहां रात में रहते तो नहीं, सांझ होते ही चरचक्का से भागलपुर चले जाते हैं। पर यहां भट्ठे पर आते हैं बराबर। इसी कोठरी में वो आराम करते हैं और भट्ठे का हिसाब-किताब भी। मुंशी और उनके खास लोग इसी कोठरी में उठते-बैठते हैं, खाना-पीना साथ में बहुत कुछ भी। कोठरी के बाहर दो तीन मोटरसाइकिल खड़ा है। बुल्लु और हरा रंग से दीवार पर अंगरेजी में बड़ा-बड़ा अच्छर में परचार लिखा है। वहां से पांच-दस डेग हटकर मोटा पन्नी, रस्सी और चदरा से जन-मजदूर का 25-30 झोपड़ी बना हुआ है। 100-150 मजदूर हैं। अधिकतर बाहर से आये आदिवासी हैं। टंगनी पर उनका कपड़ा सूख रहा है। एक किनारे चापाकल है। कुछ झोपड़ी पर कद्दू, सीम का लत्तर चढ़ा है। किसी के आगे दो चार बैंगन भी लगा है। छोटका बुतरू तो खेल रहा है, बड़का बच्चा, जनानी, मरदाना मजदूर दयाल के खेत से दो-तीन खेत हटकर माटी सान रहे हैं, ईंटा पार रहे हैं। माटी के ढेर के बगल में कोयले का ढेर है। उबड़-खाबड़ सड़क पर कोयले से भरा एक ट्रक आ रहा है। 

  तेजो को लग रहा है कि अब यह उसका गांव, गांव नहीं रहा, कारखाना बन गया है जहां दिन रात मजदूर लगे हैं। भट्ठे की आग से धरती गरम हो रही है। छाय, रविश से जमीन बंजर होती जा रही है। खेत गड्ढा बनकर रह गया है। सिसकती धरती की आवाज जेसीबी और ट्रैक्टर के हल्ला में किसी को सुनाई नहीं देती।

    चिमनी से निकलता धुंआ आकाश में कालिया नाग की तरह धीरे-धीरे रेंग रहा है। यह जहर पहले अपने गांव में, फिर धीरे-धीरे अगल बगल के गांवों में पसर रहा है। इस सांप का विख किसी दवाय-दारू, झाड़-फूंक से नहीं उतरेगा। गया बाबू और सबके बगीचे का आम पकने से पहले ही सड़कर गिरने लगा है। दीना बाबू के खेत में भी जहर पहुंच गया। सभी ये जहर रोज पी रहे हैं। बुतरू भी यह जहर पी रहा है तो फिर भगवान से हाथ उठाकर हम किसका जीवन मांगते हैं! ये किसी को नहीं छोड़ेगा-गाय-गोरू, खेल-खलिहान, बाग-बगीचा, जनानी-मरदाना, बाल-बच्चा किसी को नहीं।

   कालिया नाग से मुक्ति के लिए तो कन्हैयाजी आए थे लेकिन इस चिमनी वाले भुजंग से बचाने के लिए कौन आएंगे। फिर तेजो मन ही मन हंसा। जब आदमी खुद ही मरने की ठान ले और पइसा को ही भगवान मानने लगे तो भगवान भला क्यों बचाने आएंगे। लेकिन इस सांप का जहर तो रूपैया वाला भगवान भी नहीं उतार पाएगा। पढ़े-लिखे, बड़का-बड़का डिगरी वाले, नौकरिया लोग भी नहीं समझते।


मेरी घरवाली भी कहती है, “ तुम्हारे माथे पर ही शनिचर बैठा है। बहुत बड़ी बड़ी बातें हमको समझा रहे थे कि भट्ठा खुलने से गांव की हवा में जहर मिल जाएगा। धरती गरम हो जाएगी। खेतों में छाय बिछ जाएगा। यहां वहां झामा ईंटा नजर आएगा। फसल बरबाद हो जाएगी। मैं तो कहती हूं कि इस गांव में तुमको छोड़कर सभी अनपढ़ गंवार हैं जो इतना भी नहीं सोच पाते कि चिमनी करका धुआं नहीं जहर उगलती है। मास्साब ने जमीन दी, परोफेसर साहब ने जमीन दी, सबको तो सरकार हर महीने पैसा देती है। पढ़ लिखकर होशियार की गिनती में आते हैं। जब इन्होंने इतना नहीं सोचा तो हम क्यों सोचें। मैं पूछती हूं कि एक हमारे जमीन नहीं देने से भट्ठा बंद तो नहीं हो गया। हूंह, 17 कट्ठा पर इतना गुमान।‘‘ 


 तेजो ने सोचा, धरती माय कितना सहेगी। एक न एक दिन गुस्सा जाएगी और धरती कांपने लगेगी।  बुधिया कहती है कि धरती माय का करोध जगेगा तो क्या वह मुझे छोड़ देगी? पता नहीं! पर मरते समय इतना तो संतोष होगा कि हमने अपनी माटी का सौदा नहीं किया।

   ईंट भट्ठा को शुरू हुए महीनों बीत गए। जिसने अपना खेत दिया, उसकी माटी तो उसके लिए सोना उगलने लगी। दीनानाथ मास्टर साहब अपने रिटायरमेंट के रूपैया से आठ लाख रूपैया लगाये, तो प्रोफेसर साहब ने भी हजारों रूपये मिलने वाले पगार से बचाकर तीन लाख रूपए चार परसेंट पर लगा दिया। किसी ने अपने बेटे के दहेज का रूपया लगाया तो किसी ने अपनी पत्नी से झगड़ा कर जेवर बेच कर लगा दिया। लोगों ने घर की जमापूंजी को सूद पर लगा दिया। सरकारी या प्राइवेट बैंक तो एक परसेंट भी नहीं देता लेकिन रघुवंशी बाबू का भट्ठा साल में आठ महीना चार परसेंट और बरसात के चार महीने दो परसेंट सूद उगल रहा है। मुरझाती जवानी पर पैसों की बरसात होते ही हरियाली छाने लगी। बूढ़े भी गुनगुनाने लगे, ‘‘अब मेरी चाल देख ले।‘‘ 

    चार-पांच बीघा का जोतदार किसान अपने बेटे को कोटा भेजने का सपना देखने लगे। भैरो सिंह बेटी के लिए अब नौकरिया लड़का खोजने लगे। 

    मधुकांत झा रघुवंशी बाबू के नाम से रूद्राभिषेक कराते हुए शिवलिंग को बारी बारी से दूध, दही, मधु, जल से स्नान कराते।  अशुद्ध मंत्रोच्चार करते हुए, दक्षिणा ध्यान में आते ही गमछे से अपना पसीना पोछकर औघड़दानी की तरह अपना माथा हिलाते। अधर पर शिव और मन से लक्ष्मी का ध्यान करते। 

     रघुवंशी बाबू का कमरा जो भट्ठा का आॅफिस भी है, वहां चौकी पर बिछावन, एक छोटा खटिया, टेबल, प्लास्टिक की चार-पांच कुर्सियां, दो स्टैंड फैन और लोहे की एक आलमारी है। पैसे का हिसाब-किताब होते समय ग्रामीणों की हसरत भरी नजर उसी आलमारी पर टिकी रहती। उसके पट खुलने की प्रतीक्षा अधीरता से होती। जैसे ही आलमारी ढन-मन की आवाज पैसों की खनखन् में बदल जाती।

   उस दिन भट्ठे के मालिक को गए करीब घंटा भर हो गया था। दयाल अपने खेत में नेनुआ तोड़ रहा था कि ईंट से भरा एक ट्रैक्टर खेत में नेनुआ और खीरे की लताओं को रौंदता हुआ आगे बढ़ने लगा। यह देखकर दयाल को काठ मार गया। आंखें देख रही थी लेकिन उसके पैर जैसे मिट्टी में गड़ गए हों। चाहकर भी वह अपने पैर नहीं हिला पा रहा था। लेकिन कुछ ही क्षण में वह गरजता हुआ, ट्रैक्टर की ओर भागा। ‘‘हे ऽऽऽ रे ऽऽ हे ऽ रे, अपने बाप का खेत समझ कर टेक्टर घुसा दिया, अभी बताते हैं।‘‘ यह  बोलता हुआ दयाल ट्रैक्टर के उपर उछलकर चढ़ गया और खींचते हुए ड्राइवर को नीचे उतारा। गुस्से में लाल-लाल आंखों से बोला-‘‘साल्ला, कि सोचकर मेरे खेत में घुस आया रे। रतौंधी है कि दिन में भी नहीं सूझता है, अभी चार थाप कनपट्टी में खींचकर लगाएंगे कि आंख का फाटक खुल जाएगा।‘‘

    ड्राइवर फनफनाते हुए बोला, ‘‘जाओ, जाओ, तुम्हरे जइसा बहुते देखे हैं, खेत क्या, तुम पर भी चढ़ा देंगे।‘‘

      ‘‘चोट्टा, हरामी, दूसरे गांव का होकर हमरे गांव, उपर से हमरे खेत में हम्हीं पर धौंस जमा रहा है। जिस मलिकवा पर देह ऐंठ रहे हो ना, उ तो बाद में आएगा। पहले तुम्हारा यहीं हिसाब कर देते है‘‘, ड्राइवर का गिरेवान पकड़ते हुए दयाल बोला।   

    ‘‘मेरा हिसाब करेगा, पहले तो जेसीबी से हम तुम्हरे खेत का उद्धार कर देते हैं। अभी दो मिंट में खेत बरबाद कर देंगे, फिर बेचते रहना कद्दू, पपीता। बड़ा आया हमरा हिसाब करने वाला।‘‘

    ‘‘लगता है तुम्हारा काल आ गया है।‘‘ बोलते हुए दयाल उसका गला दबाने लगा। लेकिन तब तक ड्राइवर ने दयाल को उठाकर पटक दिया। 

    तेजो अपने खेत में कुदाल चला रहा था। दयाल को पटकनिया खाते देख वह वहीं से गरजा, ‘‘ रूक रे रूक साला ड्रइवरा, एतना हिम्मत! अभी बताते हैं‘‘, बोलते हुए कंधे पर कुदाल लेकर तेजो दौड़ा। 

     ‘‘ क्या सोचे कि गांव में मरद नहीं है। जो मन में आएगा, उ करोगे। साला कुदाल से काट कर इसी भट्ठा में झोंक देंगे। हमरा रहते हमरे अरिया-पड़ोसिया पर हाथ उठाने वाला कौन जनम ले लिया रे।‘‘ यह बोलते हुए उसने ड्राइवर के गले में अपना गमछा डाल दिया। ‘‘लगता है, हमरे हाथ से ही तुम्हरा किरया करम लिखा है। बीस बरसा मंजूर लेकिन तुमको जित्ता नहीं छोड़ेंगे। जेल में आराम से जिनगी काट देंगे लेकिन आज तुम्हरे देह का खून ठंडा कर देंगे।‘‘

    तब तक कुछ मजदूर, भट्ठे पर बैठे दो चार लोग और रास्ते से गुजरते गांव के कुछ लोग भी पहुंच गए। उनमें अजित भी था। जान लेने देने की धमकी और तात्कालिक रूप से ठंडा होने के लिए कुछ विशेष कोटि की गालियां का उच्चारण गुस्से की धधकती आग को बुझाने के लिए तीनों कर रहे थे। 

     जमा लोगों ने अपनी बातों से ठंडे पानी का छींटा देकर वातावरण को शांत किया। 

इसके बाद गांव भर में दयाल के साथ साथ तेजो को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं होने लगीं।

" पहले तो तेजो ही पगलाया था और अब दयाल भी।"

" करमघट्टू दयलवा का दिन लगता है खराब हो गया ! रघुवंशी बाबू के आदमी पर हाथ उठाया है ! नहीं जानता है उनके रसूख को ! एक सौ सात कर दिया है, अब दौड़ता रहे थाना, कचहरी।”

" ये भट्ठे वाले तो अधिकतर क्रीमीनल ही होते हैं। इनके एक इशारे भर की देर है। और रघुवंशी बाबू तो अपने विधायक जी और सांसद के भी खासमखास हैं।"

" लेकिन हम लोगों को भी तो कुछ बोलना चाहिए। अपने गोतिया समाज का है। केतनो है गलती तो भट्ठे वाले की ही है।"

" हम क्यों बोलें ? हम से पूछ कर गया था लड़ने ! गोतिया समाज का मरनी- हरनी, शादी-ब्याह का साथ होता है। हरदम पीछे पीछे तो नहीं चला जा सकता।"

" अरे भाग मनाओ कि रघुवंशी बाबू ने हमारे गांव का भाग खोल दिए। देखो भैरो सिंह अपनी बेटी का बियाह तय कर दिए। लड़का फौज में सिपाही है। अब तो दस लाख फटाफट गिन देंगे। सोचो पहले बिना खेत बेचे इतना गिन पाते ! उतार लाते कोई दुकान दौरी करने वाला जमाई। बेटी नोन तेल हरदी नापते रहती। अब तो हर महीने तनखा के साथ कैंटिन की सुविधा अलग से।"

" धत्त छोड़ो, दयलवा तो जनमे से उमताहा है। समझदार रहता तो अपना जमीन नहीं दे देता। फसल पर छाय गिरता रहता है। लेकिन तेजो भी, बात ठंडा करने की जगह देह का गरमी दिखाने लगा।”

" पता नहीं अब दयलवा और तेजो का क्या होगा, किसी दिन उसेे भट्ठा में न झोंक दे।"




" साला अपना जात भाय क्या होता है ! कुछ नहीं, अपनी जात का ही तो था ! हम्हीं को कूट दिया और एक सौ सात भी कर दिया। कहां कोई आया बचाने ! मन तो करता है ड्रायवरवा को जान से मार दें ", दयाल उबलता हुआ बोल रहा था।

" मगज गरम करने से रास्ता नहीं निकलता है। आज एक सौ सात किया कल कुछ और करेगा। ऐसे लोगों से पार पाना आसान नहीं होता है, होशियार रहना पड़ता है। हंसी हंसी दुरजना लड़े, छुपकर लड़े सियार
पीछे हट भेड़ा लड़े, रहौं कंत होशियार !" तेजो बोला।

" जब लड़ाई ठन ही गई है तो हमको डरना नहीं लड़ना है। जब उसने ललकारा है तो रणछोड़ नहीं बनना है नहीं तो कल दुनिया कहेगी, कबहु न भड़ुआ रण चढ़े ! सब समझ गया, दुनिया में दो ही जात होता है, अमीर का गरीब का ! पैसे वालों का जात हमसे अलग है।"

तेजो बोला, " होगा हमसे अलग पैसे वालों का जात लेकिन अपनी माय का दूध तो हमने भी पीया है, खून तो हमारे भी देह में दौड़ता है। यही हमारे लिए कासी मथुरा है। अब चाहे जिएं या मरें लेकिन अपने गांव में भट्ठा नहीं चलने देंगे,' पड़ै लड़ैया गढ़ मोहवां, चाहे जान रहे की जाय'। अब सोचने-विचारने का नहीं लड़ने का समय आ गया है।"

दयाल उत्साहित तो हुआ फिर कुछ सोचता हुआ बोला, " लेकिन हम दोनों पढ़ें लिखे भी नहीं हैं और नहीं रुपैया पैसा है हमारे पास। फिर हम लड़ेंगे कैसे !"

अजीत गांव का लड़का जो भागलपुर में रहकर पढ़ाई कर रहा है, वहीं बैठा था। वो बोला, " भट्ठे के कारण हमारा गांव बरबाद हो रहा है, इस लड़ाई में मैं भी आपके साथ हूं। आप लोग नन मैट्रिक हैं तो क्या हुआ मैं तो पढ़ा लिखा हूं। शीतल सिंह वकील को जानता हूं। अच्छे और सच्चे आदमी हैं लोगों की मदद करते हैं। आगे का रास्ता वही बताएंगे कैसे कैसे क्या करना है। लेकिन इसके पहले रुपयों का इंतजाम कर लेना चाहिए। जरूरत पड़ेगी।‘‘


तेजो ठाकुर, दयाल राय और अजित चौधरी ने मुश्किल से कुछ रुपयों का इंतजाम किया और अगले दिन शीतल सिंह वकील के यहां पहुंच गए। पूरी बात सुनने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘घबराओ नहीं, 107 से डरना नहीं है, बेल हो जाएगा। आवेदन लिखकर लाए हो ?‘‘

     अजीत हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘कोर्ट कचहरी वाली भाषा?‘‘

    ‘‘ तुम तो पढ़े लिखे हो, तुम्हीं आवेदन लिखो, जो फैक्ट है, वही लिखो, गांव से कितनी दूर है ईंट का भट्टा। अंदाज से नहीं, सही-सही लिखना। पर्यावरण को खतरा है और खनन विभाग के नियम का उल्लंघन हो रहा है।  किसानों के हित को ध्यान में नहीं रखा जा रहा, गांव में रहने वालों के स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है। गांव से सौ मीटर की दूरी पर भट्ठा नहीं चला सकते। लिखने में हिचकिचाना नहीं है। ईमानदारी से निडर होकर लिखो। तुम लिखो, मैं आवेदन करेक्शन कर दूंगा। सबसे पहले आवेदन अंचलाधिकारी को दो, फिर प्रदूषण एवं खनन विभाग और एसडीओ को दो। तुम लोग पर्यावरण बचाने का बहुत नेक काम कर रहे हो।‘‘

     आवेदन के साथ ही इस संघर्ष का पहला कदम बढ़ गया। 

     सभी जगह इन लोगों ने आवेदन दिया। उधर गांव के कोने-कोने में यह बात फैल गयी। भट्ठे की आग की तरह यह खबर भी रघुवंशी बाबू को ताप देने लगी। महीनों ये लोग दौड़ते रहे और इस बीच अजीत की एम ए की परीक्षा शुरू हो गई। उसका आना कम हो गया। दयाल के बूढ़े पिता को लकवा मार गया। घर में अकेले मर्द होने के कारण सेवा की जिम्मेदारी उसी की थी। वह मन से तो साथ दे रहा था पर तन से साथ नहीं दे पा रहा था। लेकिन तेजो को जिस तारीख को बुलाया जाता वह गमछे में सत्तू बांध कर पहुंच जाता। कभी डीएम से मिलने जनता दरबार तो कभी खनन तो कभी प्रदूषण विभाग। 

   तेजो दौड़ता रहा। कोर्ट कचहरी और सरकारी बाबू की नीति को रघुवंशी बाबू अच्छी तरह समझते। आवेदन पर रिपोर्ट आने से पहले ही वह अधिकारियों की मुट्ठी गरम कर देते। यह खेल महीनों चलता रहा। और तेजो गांव में धीरे धीरे उपहास का पात्र बनने लगा। 

    उधर भट्ठा चलता रहा। एक दिन तेजो प्रदूषण विभाग के सामने बरगद पेड़ के नीचे बहुत देर से बैठा था। तभी एक आदमी आकर बोला, ‘‘काका, कितने चक्कर लगा चुके हो, आज तक किसी ने तुम्हारी बात सुनी ?‘‘ 

    तेजो अपरिचित आदमी को इस तरह बोलते देखकर आश्चर्य चकित रह गया। 

    ‘‘तुम्हारी नहीं सुनेंगे क्योंकि ये आसानी से नहीं सुनते !‘‘

    ‘‘लेकिन, बेटा, तुम कौन हो? पहले यहां कभी नहीं देखा!”

    ‘‘जहां शोषित, उपेक्षित, वंचित लोग हैं, हम वहां हैं।‘‘ नजर घुमाते हुए, ‘‘सब जगह हमारे आदमी हैं। शाकाहारी होटल में जो बर्तन धो रहा है, वहां पीपल के नीचे जो जूता चप्पल मरम्मत कर रहा है, वह हमारा आदमी है, वह जो चाय पहुंचा रहा है वह भी हमारा ही आदमी है।‘‘ उसने चेहरा सख्त करते हुए कहा, ‘‘तुम कहो तो भट्ठे को डायनामाइट से उड़ा दूं, साथ में इन सरकारी बाबुओं को भी!‘‘ 

    यह सुनकर तेजो को जैसे बिजली का झटका लगा, वह सीधा खड़ा हो गया।

    ‘‘गरीब की बात न सरकार सुनती है न समाज, दौड़ते-दौड़ते जिंदगी बीत जाएगी पर भट्ठा चलता रहेगा। यह सामंत शोषक, बुर्जुआ, खून पीते हैं गरीबों का। यह बात नहीं, गोली की भाषा समझते हैं।‘‘   

     सरकारी भवन की ओर देखते हुए वह बोला, ‘‘सब साले मिले हुए रहते हैं, आखिर मुनाफा जो बंटा रहता है।‘‘

      तेजो के ललाट पर पसीना चमकने लगा। वह भयमिश्रित आवाज में बोला, ‘‘बेटा जरूरत पड़ेगी तो कहूंगा।‘‘

      ‘‘एक बार कहके तो देखो...‘‘

      ‘‘ हां बेटा-राम राम!‘‘

      ‘‘राम राम नहीं, लाल सलाम काका लाल सलाम!‘‘

      इतना बोल कर वह आदमी तेजी से पीछे मुड़कर थोड़ी दूर खड़ी मोटर साइकिल पर बैठकर भीड़ में खो गया।

     तेजो भीतर से डर गया लेकिन उसे यह सोचकर अच्छा लगा कि कोई तो है जो उसके संघर्ष के बारे में सोचता है। लेकिन दूसरे ही पल मन में आया कि गांधी बाबा कहते हैं कि खून खराबा पाप है। फिर उसने सोचा कि बिना खून बहाए भी तो रास्ता निकल सकता है। अगर यही रास्ता है तो फिर पुलिस, हाकिम, कलेक्टर किस दिन के लिए हैं?

      

   कुछ महीने बाद तेजो खुश होकर दयाल को बता रहा था कि वकील साहब बोले हैं कि हिम्मत नहीं हारना है हम लोगों को, पुराने कलेक्टर की जगह नये कलेक्टर साहब आ गए हैं, वह बहुत ईमानदार हैं और सब की बात सुनते हैं। वे हमारी भी बात पर जरूर ध्यान देंगे। नये कलेक्टर के आने की आहट रघुवंशी बाबू के कानों में भी पड़ी और कलेक्टर साहब की ईमानदारी का असर इनके धंधे पर भी पड़ना शुरू हो गया।

    जिन लोगों ने भट्ठा चलाने में अपना योगदान दिया, उनके यहां दाल भात रोटी के साथ छुहारा, किशमिश, दूध, कोल्ड ड्रिंक शामिल हो गया है। वे उससे मिली शक्ति और खुशी का सदुपयोग सुबह शाम तेजो, दयाल को गरियाने में कर रहे थे। साथ ही बीच-बीच में भट्ठा का चक्कर लगा आते। 

    इधर कुछ महीनों से लोगों को समय पर रुपया नहीं मिल रहा था हालांकि रघुवंशी बाबू सबको अपनी बातों से आश्वस्त करते रहते। 


    पंडित मधुकांत झा पूरे मनोयोग से हर महीने सत्यनारायण पूजा कराते और कभी-कभी रुद्राभिषेक भी। पूजा कराते कराते उनके तोंद की गोलाई कुछ बढ़ गई थी। उसी गोल मटोल तोंद पर हाथ फेरते हुए आनंदित होते हुए बोले, ‘‘सब भोले भंडारी की किरपा है, भगवान करें भट्ठा सही सलामत चलता रहे और यह आनंद बरसता रहे।‘‘ 

      फिर दीना मास्टर साहब की ओर अपना श्रीमुख करके बोले, ‘‘ क्यों मास्टर बाबू, घर में कचकच की जगह आनंद ही आनंद होगा। अब तो डबल पेंसिल मिलने लगा है, एक सरकार देती है दूसरा रघुवंशी बाबू। दोनों पतोहू काँसा के थरिया से आरती उतारती होगी।‘‘

   पास बैठा एक युवक बोला, ‘‘पहले तो दोनों पतोहू चील की तरह झपट्टा मारती थी इन पर। एक पोते को अंगरेजी इस्कूल का खर्चा दिया तो दूसरे को कौन देगा। अब तो अंगरेजी इस्कूल क्या, दोनों पोता को एक ही साथ कोटा भेज दीजिए।‘‘ 

    दीना मास्टर साहब उस युवक को स्थिर नजर से देखने लगे। उनकी नजर ने युवक को अपनी उम्र का भान करा दिया। वह बात मोड़ते हुए बोला, ‘‘ सुना है, भैरो दा की बेटी का ब्याह फायनल हो गया है लेकिन रुपैया के कारण लगन नहीं बैठ रहा है इधर से रोज भोरे सांझे भट्ठा का चक्कर लगा रहे हैं लेकिन रघुवंशी बाबू का दर्शन नहीं हो रहा।‘‘

     यह सुनकर दीना बाबू के कलेजे में आशंका की एक नन्हीं सी लहर उठी, फिर मधुकांत झा की ओर देखा। पंडित जी धीरे धीरे से ‘शिव शिव‘ बुदबुदाये। मास्टर साहब गंभीरता का भाव ओढ़ते हुए उस युवक से बोले, ‘‘देख बेट्टा, इसी तरह बात का बतंगड़ बनता है। रघुवंशी बाबू कहीं काम-धाम में फंस गए होंगे। आखिर इतना बड़ा कारोबार फैला रखा है, थोड़ा देर सबेर हो जाता है लेन-देन में।‘‘ 

   कुछ देर बाद मधुकांत झा और युवक तो चले गए। लेकिन दीना बाबू मन ही मन जोड़ने लगे कि कितने महीने हो गए, उन्हें भी सूद का रुपैया नहीं मिला है। तब तक भैरो सिंह हलकान परेशान आता हुआ दिखाई दिया। दीना बाबू ने आवाज दी, ‘‘कि हो भैरो भाय !”

     भैरो सिंह जैसे इसी आवाज की तलाश में भटक रहा था, सुनते ही दीना बाबू के पास लपक कर आया।  ‘‘दद्दा आप को ही तो खोज रहे हैं, आपके घर भी गए थे। भतीजबा बोला कि आप काम से बाहर गए हैं, 10-15 दिन बाद आऐंगे।‘‘ 

     ‘‘अरे! क्या बात है बोल तो?‘‘

     “ दद्दा हमको लगता है कि हमरा हाट फैल कर जाएगा।‘‘

    ‘‘अरे, क्या हुआ? खुल कर बताओ तो‘‘, दीना बाबू अनभिज्ञ बनते हुए बोले।

     ‘‘दद्दा, आपको हम अपना बड़का भाय मानते आए हैं। आपके ही कहने पर दस लाख में जो खेत बेचे थे, उससे छह लाख रघुवंशी बाबू को सूद पर दे दिये। सोचे थे कि पांच-छह लाख में बेटी ब्याह देंगे और जो रुपैया बचेगा उससे खपड़ा वाला कम से कम एक कोठरी को पक्का का बना लेंगे। आप बोले कि सब लोग रघुवंशी बाबू को सूद पर रुपैया देकर रुपैया पीट रहा है, तुम भी लगा दो। बेरोजगार की जगह नौकरिया जमाई उतार लेना। हमको भी लगा कि नौकरिया जमाई उतारकर जिनगी में कोई तो खुशी देखेंगे। बहुत मुश्किल से बेटी का ब्याह नारायणपुर में ठीक किए हैं। लड़का सिपाही है, दस लाख मांगता है, ऊपर से बर्तन बासन, सोना चांदी अलग से। सोचे थे कि इतना पैसा तो हाथ में है ही लेकिन लगता है कि मन की साध मन में ही रह जाएगी। अब तो रघुवंशी बाबू गूलर का फूल हो गए हैं, न दरसन देते हैं न ही रुपैया। लड़का वाला परसों का तारीख दिया है पूरा रुपैया देने के लिए। लड़की देख कर पसंद कर लिया है। समय पर पूरा  पैसा नहीं दिए तो ब्याह टूट जाएगा। लड़की देख कर छोड़ने की अलग बदनामी। बेटी की माय तो अन्न-जल सब त्याग दी है। क्या करें दद्दा कुछ रास्ता नहीं सूझ रहा है?‘‘

      दीना बाबू हिम्मत देते हुए बोले,‘‘ मरद हो मरद, इतना जल्दी मत हदसो। चलो हम चलते हैं भट्ठा पर। रघुवंशी बाबू ना सही मुंशी से बात करेंगे, आखिर बेटी ब्याह की बात है।‘‘ 

     कुछ ही देर में दीना बाबू और भैरो सिंह भट्ठा पर पहुंच गए। कमरे में मुंशी उस समय अकेला था। इन दोनों को देखते ही पहले तो असहज हुआ, फिर मुस्कुराता हुआ बोला, ‘‘इधर से आपका दरसन नहीं हो रहा था मास्टर साहब। कहीं बाहर गए थे क्या?‘‘  

     ‘‘हां, जरा काम से बाहर चले गए थे। रघुवंशी बाबू भी तो कई दिनों से...।‘‘

     ‘‘उनका जाल जंजाल इतना पसरा हुआ है कि ...‘‘, मुंशी बोला।

     ‘‘ हां हां, वह तो है ही।‘‘ 

     बगल में प्लास्टिक की कुर्सी पर दीना बाबू और चौकी पर भैरों सिंह बैठ गए। 

    ‘‘कोई बात नहीं, वो निश्चिंत होकर अपना राजकाज देखें। उनसे तो बाद में भी मिल लेंगे कोई हर्ज नहीं है। लेकिन...?‘‘

    मुंशी को ‘लेकिन‘ वाली कील चुभ गयी। ‘‘आपसे ज्यादा क्या बोलें, भैरो भाय की बेटी का ब्याह है आपके पास तो आजकल रोज ही आ रहा है, कोई इंतजाम करके इसको इसका रुपैया दे दो। हम लोग का देर-सबेर भी होगा तो कोई बात नहीं। वैसे भी बेटी ब्याह में मदद करना पुण्य का काम है।‘‘

    मुंशी ने हिसाब किताब जोड़ने के अलावा बातों की कारीगरी भी सीखी थी। ‘‘यह भी कहने की बात है, उसी दिन तो इनको बैंक से निकाल कर दिए हैं रुपैया।‘‘

     भैरोसिंह अभी तक चुप था। सुनकर तमकता हुआ बोला, ‘‘ बीस हजार से बेटी ब्याह में क्या होगा?‘‘ 

    ‘‘आप गरम क्यों हो जाते हैं, हम इंतजाम कर रहे हैं। मालिक रहते तो इतना रुपैया तो उनकी जेब से झड़ जाता है लेकिन अब क्या करें। अभी उनका बेटा बीमार है हम बताना नहीं चाह रहे थे कि सुनकर आप लोग खामखा परेशान हो जाइएगा। नहीं तो इतना नहीं कहना पड़ता।‘‘ 

      यह सुनकर भैरो सिंह का पारा थोड़ा नीचे हुआ। दीना बाबू भी थोड़ी देर चुप रहे। फिर आत्मीयता दिखाते हुए बोले, ‘‘भगवान सब भला करेंगे। रघुवंशी बाबू यहां आएं या तुम उनसे मिलने जाओ तो यहां के भगवती जी के मंदिर से भभूत लेते जाना। बेटे की तबीयत एकदम ठीक हो जाएगी। यहां का मंदिर बहुत जागृत है।‘‘

    भैरो सिंह मन ही मन कुढ़ते हुए सोचने लगा, आए थे अपनी बेटी ब्याह का इंतजाम करने और दूसरे के बेटे का रोना लेकर बैठ गए। दीना बाबू भावुक प्राणी जरूर थे पर बेवकूफ नहीं। आगे बोले, ‘‘जब तक रघुवंशी बाबू आते हैं तब तक कोई उपाय कीजिए बेटी की खातिर।‘‘

    मुंशी बोला, ‘‘उस दिन भी बैंक गए तो लिंक फैल था। हम कहते रह गए कि बहुत जरूरी काम है रुपैया का। लेकिन मशीन आदमी की बात थोड़े समझता है।”

    ‘‘गजब कर रहे हैं महराज, कभी लिंक फैल हो जाता है तो कभी ठीकेदार पैसा लेकर नहीं आता है। रोज रोज नया बहाना। इस तरह तो हमारी बेटी का ब्याह होने से रहा। हमको रघुवंशी बाबू से फोन पर सीधे बात कराओ।‘‘ 

   ‘‘भैरो, हम बात कर रहे हैं, तुम अपना मगज ठंडा रखो।‘‘

    ‘‘दद्दा, अब मगज ठंडा रखने से काम नहीं चलेगा। आज का सूरज भी डूबा। कल तक का टैम है। हमको अभी के अभी तुम्हारे मालिक से बतियाना है, फोन लगाओ।‘‘

     मुंशी समझ गया कि अब सिर्फ बात से बात नहीं बनेगी। उसने जेब से घिसा पिटा मोबाइल फोन निकालकर नंबर लगा दिया और भैरों सिंह के कान से सटा दिया। 

   ‘‘यह तो बंद बता रहा है... साला, यह क्या तमाशा है, मेरी बेटी का ब्याह टूट जाएगा। तुम हो कि एक से एक नायाब बहाना बनाते चले जा रहे हो। अपना घर का जमा पूंजी तुमको दिए जो बेटी ब्याह के लिए रखे थे। ऊपर से अपने खेत का सोना उपजाने वाली मिट्टी दिए। जितना काटना था उससे अधिक मिट्टी काट लिए, इतना गहरा कर दिया कि अब उसमें पानी जमा रहेगा।‘‘ 

   गुस्से में मुंशी का गला पकड़ते हुए बोला, ‘‘ उल्टे हमी से टेढ़ होकर बतियाता है।‘‘ उसकी आंखें दहक रही थी। ‘‘ साला, काटकर अपने खेत में गाड़ देंगे। देखेंगे कौन बाप को बुलाता है बचाने। मति मारी गई थी कि नौकरिया और पढ़े लिखे लोगों की बात में आ गए। इससे तो अच्छा सातवां फेल तेजो और मैट्रिक फेल दयाल है। हम तो सोचे थे कि पढ़-लिख कर आदमी आदमी बनता है। हमको नहीं पता था कि आदमी लोभ का पेट भरने के लिए पढ़ता है। हम भी इनकी बातों में आ गए।‘‘ 

    हिकारत भरी नजर से दीना बाबू की ओर देखा और फिर बोला, ‘‘मन तो करता है कि तुम्हारा गला दबा दें ...।‘‘  मां बहन की गालियों का छुरी-चाकू चलाने लगा। 

     अब तक मुंशी का भी खून खौल चुका था। भैरों का हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘‘बहुत गरमी चढ़ गयी है, एक ही बार में उतार देंगे, चिन्हते नहीं हो हम किस के आदमी हैं?‘‘

    ‘‘तुम आदमी नहीं, दुम हिलाने वाले कुत्ते हो कुत्ते, समझे, बुलाओ अपने बाप को आज, उसको भी देख लेंगे !”

*****

  यह खबर सुनकर सभी सन्न रह गए कि भैरों सिंह कल रात ही हार्ट अटैक से मर गया। उसकी मृत्यु सामान्य बात नहीं थी। वह अपने पीछे दहशत छोड़ गया। उसकी मृत्यु से लोग दुखी कम थे लेकिन इस बात से अधिक डरे थे कि भट्ठा वाला सबका रुपया लेकर भाग गया तो... !

     ‘‘तो क्या कर लेंगे हम?‘‘

     लोग उंगलियों पर अपने हजार और लाख जोड़ने लगे। मूल कितना दिया, सूद कितना आया। अब सूद की बात छोड़ो, मूल भी आ जाए तो बहुत समझो। लेकिन जिनके खेत से उपजाऊ मिट्टी काटी गई वह आने वाली पीढ़ी को क्या जवाब देंगे। कि, हमारे पुरखों ने हमें सोने जैसी मिट्टी दी और हम तुम्हें बंजर जमीन दे रहे हैं और अपने स्वार्थ के कारण हवा में कालिया नाग का जहर। अब न पेट पोस सको न सांस ले सको।

   गांव में खलबली मच गयी। गया बाबू, दीना बाबू और गांव के नाक कहे जाने वाले लोग,  जिन्होंने अपना धन लगाया था, वे डर तो रहे थे लेकिन हिम्मत बांधते हुए बोल रहे थे। गांव का लाखों रुपैया है उसके पास, इतना आसान नहीं रुपैया लेकर निकल जाना।

    गया बाबू बोले, ‘‘आकाश पाताल जहां भी होगा, खोज लाएंगे।‘‘

     दीना बाबू रास्ता दिखाते हुए बोले, ‘‘यहीं भागलपुर में ही तो कचहरी चौक पर उसका छह कट्ठा जमीन है। क्यों गया दा, आप भी तो देखें हैं न उसकी जमीन। जब आप भट्ठा में रुपैया लगाए थे उसके कुछ दिन बाद ही देख आए थे।‘‘

     जब तक गया बाबू कुछ बोलते, दीना बाबू आगे बोलने लगे, ‘‘ बजरंगबली मंदिर के बगल से जो गली भीतर जाती है उसी में छह कट्ठा जमीन है और अभी वहां 40-45 लाख रूपए कट्ठा बिक रहा है। जरा जोड़ लो कितना का जमीन होगा, रघुवंशिया भागकर जाएगा कहां?‘‘ 

     भीड़ से निकलकर एक जवान आदमी बोला, ‘‘बाबा, खाली जमीन ही देख आए थे कि जांच पड़ताल भी किए थे?‘‘ 

   दीना बाबू विस्मित होते हुए बोले, ‘‘मतलब‘‘

   ‘‘मतलब यही कि हम पता करके आए हैं। उस जमीन में इतना हिस्सेदार है कि अंगुली पर नहीं गिन पाइएगा। जमीन बिकेगा तब न किसी को टका मिलेगा।‘‘

    इतना सुनते ही एक अधेड़ आदमी वहीं माथा ठोक कर रोने लगा, ‘‘अरे, मति ही मारी गई थी कि सब सब झाड-पोंछ कर भट्ठा में झोंक दिए। अब नहीं आएगा लुटेरवा, पूरे गांव को लूट कर फरार हो गया।‘‘ 

    भैरों सिंह की अचानक मृत्यु, मालिक का बहुत दिनों से भट्ठे पर नहीं आना और महीनों से लक्ष्मी का दर्शन नहीं होना संकेत तो यही दे रहा था। लेकिन ‘फरार‘ शब्द ने यह घोषित कर दिया कि कालिया नाग ने सबको डंस लिया। 

    एक ने कहा, ‘‘मुंसिया झूठ बोलता है कि  रघुवंसिया भागलपुर में रहता है। वह तो कितना दिन से वहां भी नहीं आया है।‘‘

    ‘‘बरगाही..., पाताल में घुस गया है? मिल जाए तो इसी ईंटा से थकूच थकूच कर मार देंगे।‘‘

      भीड़ में शामिल तनिक बोला, ‘‘उस तक नहीं पहुंच पाओगे। हमारे ही टका से क्रिमिनल लेकर बैठा होगा।‘‘

    आगे आता हुआ रासो बोला, ‘‘आज नहीं तो कल उसको पाताल से भी खोज निकालेंगे। लेकिन अभी भट्ठा पर तो जा सकते हैं, कुछ तो मिलेगा, भागते भूत की लंगोटी ही भली।‘‘

     भीड़ आक्रोश और आवेश के साथ भट्ठा पर पहुंच गयी। सबसे आगे रासो, तनिक, दीना बाबू, गया बाबू, पंडित जी थे। बात तेजो, दयाल के कानों तक पहुंची। उनके पहुंचते-पहुंचते भीड़ भट्ठा पर तोड़फोड़ मचाने लगी। कुछ लोग डंडों से तो कुछ कुदालों से ट्रैक्टर और साइकिलों पर अपना गुस्सा उतारने लगे। 

    भीतर से एक आदमी हड़बड़ाता हुआ निकला। ‘‘यह क्या कर रहे हो, जानते नहीं हो...‘‘

    ‘‘अब जान गए हैं। तुम कौन हो साला... रघुवंसिया से पहले तुम्हारा ही टेंटुवा चांप देंगे...‘‘, दहाड़ता हुआ तनिक बोला। 

   आक्रोषित लोगों को देखकर मुंशी डर गया। लेकिन अपने को संभालता हुआ गरजा, ‘‘पिस्तौल निकालो रे...।‘‘ 

     ‘‘पिस्तौल मत दिखाना, एक एक हाथ भी सबका लग गया तो, सीधा उपर का टिकट कट जाएगा‘‘, रासो बोला।

      बरसात और बंद हो रहे भट्ठे पर गिनती के ही मजदूर थे। जो थे भी,भीड़ देखकर उनके हाथ-पैर ठंडे हो गए। 

    ताजे-ताजे जवान हो रहे नवयुवकों ने मुंशी और उसके आदमियों को लातों, मुक्कों और लाठियों से देना शुरू कर दिया। 

    गया बाबू बोले, ‘‘एकदम भुट्टा की तरह डेंगा दो।‘‘    

     किसी ने बिछावन पटका तो किसी ने स्टैंड वाला पंखा खेत में फेंका, प्लास्टिक का टेबल और कुर्सी उठाकर पटक दिया। भीड़ से आवाज आयी, ‘‘अलमारी तोड़ो, इसी में नोट का गड्डी रखता था।‘‘ 


      ‘‘हां हां तोड़ो कुछ तो निकलेगा।‘‘

      कमजोर अलमारी अधिक देर तक सही सलामत नहीं रह सकी। लेकिन यह खाली थी। कुछ रसीद था जिसे लोगों ने निकाल कर  बाहर फेंक दिया। सबसे निचले रैक पर वही काला बैग रखा था जिससे रघुवंशी बाबू हिसाब करके रुपया देते थे। सभी उसी बैग पर भूखे जानवर की तरह टूट पड़े। छीना-झपटी होने लगी। 

     गया बाबू बोले, ‘‘एकदम निर्बुद्धि हो, ऐसे छीना-झपटी में जो भी रुपया होगा, फट चिट जाएगा। स्थिर रहो, ऐ दयाल, तुम देखो, बैग में कितना रुपैया है, जो भी होगा सबको बांटकर मिल जाएगा।‘‘ 

     लुटे-पिटे बैग स मुड़े तुड़ेे सौ-सौ के चार नोट और दस-दस के दो नोट निकले। 

     दयाल बोला, ‘‘ बाबा, यह तो 420 है।‘‘ 

गया बाबू फुसफुसाए, ‘‘ सच में, 420 ही निकला।‘‘ 

    भीड़ में तेजो भी था। दीना बाबू तेजो से बोले, ‘‘ आज तो तुम बहुत खुश होगे। तुम जीत गए, जो न्याय सरकार नहीं कर पायी वह समय ने कर दिया।‘‘ 

       तेजो सबका मुंह देखते हुए बोला,‘‘हम कहां जीते। भट्ठा तो बंद हुआ लेकिन हम हार गए। हमारे गांव का धन लुट गया। भैरो मालिक दुनिया से चले गए। उनकी बेटी का ब्याह कैसे होगा, बाल-बच्चा पढ़ने बाहर कैसे जाएगा। जिन खेतों में बड़का बड़का गड्ढा कर दिया गया, वहां अनाज कैसे उपजेगा। हवा में जो जहर मिल गया है वह कैसे दूर होगा ? अब तो अपने गांव को रास्ते पर आने में न जाने कितना समय लगेगा ?"
गांव की ओर देखते हुए तेजो बोला, " ऐकै नरैयना, मुड़लक सब घरैना !"

समाप्त
साभार: हंस 
संक्षिप्त परिच
नाम सिनीवाली 
भागलपुर में जन्म,

साहित्यिक परिवेश में पली, बढ़ी। 
एस एम कालेज, भागलपुर से मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर, 
इग्नू से रेडियो प्रसारण में पी जी डी आर पी कोर्स
बचपन से गाँव के साथ साथ विभिन्न शहरों में प्रवास
पहली कहानी ' उस पार ' लमही, जुलाई-सितंबर २०१५ में प्रकाशित  
कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' प्रकाशित
परिकथा के 2016 के नवलेखन अंक के लिए चयनित 
आजकल, कथानक, पाखी, कथादेश, हंस, परिकथा, लमही, इन्द्रप्रस्थ भारती, बया, निकट, माटी, कथाक्रम, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, करुणावती, बिंदिया सहित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ और व्यंग्य प्रकाशित।
हिंदी समय, गद्यकोश, जानकीपुल, शब्दांकन, स्त्रीकाल, पहली बार, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट, रचना प्रवेश, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, नोटनल आदि ब्लॉग पर भी कहानियाँ प्रकाशित

सार्थक इ पत्रिका में कहानी प्रकाशित
अट्टहास एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित

नोटनल पर इ बुक प्रकाशित, ' सगुनिया काकी की खरी खरी '
करतब बायस कहानी का नाट्य मंचन हिन्दी अकादमी, दिल्ली के द्वारा

हिंदी रेडियो, शिकागो से कहानी वाचन का कार्यक्रम 

संपर्क सूत्र 
मोबाइल 08083790738, 8252486425

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, बहुत सुन्दर, बहुत बढ़िया, जितनी प्रशंसा की जाय, कम ही होगा. हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई

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  2. कहानी बहुत बढिया अलग विषय को उठाया शुभकामनाएं

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  3. एकदम से माटी के सवाल पर लिखी कहानी
    बढिया

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