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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 मई, 2015

उर्दू शायरी के शुरूआती दौर के तीन सुप्रसिद्ध शायरों की ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक)। 1. मोमिन ख़ाँ 'मोमिन' (1800-1852) 2. क़लंदर बख़्श 'जुरअत' (1748-1809) 3. मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810)

1. मोमिन ख़ाँ 'मोमिन' (1800-1852)

असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता
(रंज होना - दुःखी होना/विलाप करना; राहत-फ़ज़ा - राहत पहुँचाने वाला)

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

उस ने क्या जाने क्या किया लेकर
दिल किसी काम का नहीं होता

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
(गोया - जैसे कि/as if)  

हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
(क्यूँकर - कैसे)

चारा-ए-दिल सिवा-ए-सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
(चारा-ए-दिल - दिल का इलाज; सो - और वो/ जो कि)

2. क़लंदर बख़्श 'जुरअत' (1748-1809)
 
ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-ग़म-ए-यार कि तू
अब अज़ीयत में भला हम हैं गिरफ़्तार कि तू
(दिला - दिल; पाबंद-ए-ग़म-ए-यार - प्रियतमा के दुःख में बंधा हुआ; अज़ीयत - मुसीबत)  

हम तो कहते थे न आशिक़ हो अब इतना तो बता
जाके हम रोते हैं पहरों पस-ए-दीवार कि तू
(पहरों - घंटों; पस-ए-दीवार - दीवार के नीचे)   

वही महफ़िल है वही लोग वही है चर्चा
अब भला बैठे हैं हम शक्ल-ए-गुनहगार कि तू
(शक्ल-ए- गुनहगार - गुनहगार की तरह)

बे-जगह जी का फँसाना तुझे क्या था दरकार
तअन-ओ-तशनीअ के अब हम हैं सज़ावार कि तू
(दरकार - ज़रूरत/ज़रूरी; तअन-ओ-तशनीअ - ताने और शिकायतें; सज़ावार - सज़ायाफ़्ता)

वहशत-ए-इश्क़ बुरी होती है देखा नादाँ
हम चले दश्त को अब छोड़ के घर-बार कि तू  
(वहशत-ए-इश्क़ - प्रेम में अकेलापन; दश्त - रेगिस्तान)

हम तो कहते थे न हमराह किसी के लग चल
अब भला हम हुए रुसवा सर-ए-बाज़ार कि तू 
(रुसवा - बदनाम; सर-ए-बाज़ार - बीच बाज़ार में)

ग़ौर कीजे तो ये मुश्किल है ज़मीं ऐ 'जुरअत' 
देखें हम इस में कहें और भी अशआर कि तू
(ज़मीं - ज़मीन/प्लेटफार्म; अशआर - 'शेर' का बहुवचन)

3. मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810)

फ़क़ीराना आए सदा कर चले     
मियाँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले 
(फ़क़ीराना - फ़क़ीरों की तरह; सदा - आवाज़ लगाना)

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो उस अहद को अब वफ़ा कर चले
(अहद - प्रण/प्रतिज्ञा) 

शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले
(शिफ़ा - सेहतयाफ़्ता होना; मक़्दूर - सामर्थ्य)

वो क्या चीज़ है आह जिसके लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले
 
कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले
(ना-उमीदाना - ना-उम्मीदी से भरी)

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहाकर चले    
(याँ - यहाँ)  

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
(बे-ख़ुद - आपे से बाहर; आप - ख़ुद)

कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले

प्रस्तुति:-फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
मोमिन कलंदर बख्श और मीर की ग़ज़लों के लिये शुक्रिया फरहत जी। तीनों की शक्ल इश्क है। बढ़िया ग़ज़लें। तीसरी ग़ज़ल को तो बाज़ार फ़िल्म में बड़ी ही खूबी से दर्शाया गाया गया था। आज पूरी पढ़ी।

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, प्रज्ञा जी शुक्रिया।
जी सही कहा। और बाक़ी दो ग़ज़लों को भी क्रमशः नय्यरा नूर/तलत महमूद और उस्ताद अमानत अली ख़ाँ जैसे प्रख्यात गायकों ने अपनी आवाज़ दी है। अगर एडमिन की इजाज़त होगी तो इनका youtube लिंक शाम को शेयर करूँगा।

आर्ची:-
बहुत ही लाजवाब और बेमिसाल बन पडीं हैं गजलें.. गज़लें कहने की उत्कट इच्छा होने लगी है साथ में आप शब्दार्थ भी देते हैं ये बहुत सहायक होता है समझने में बहुत बहुत धन्यवाद फरहतजी

फ़रहत अली खान:-
ज़ौक़, ग़ालिब, आज़ुर्दा और ज़फ़र के समकालीन मोमिन बेहतरीन शायर थे। साथ ही साथ ये एक हकीम और उम्दा शतरंज खिलाड़ी भी थे। रूमानी ग़ज़ल के सबसे बड़े शायरों में इनका नाम लिया जाता है।

जुरअत को उर्दू के सबसे उम्दा शायरों में गिना जाता है। फैज़ाबाद के थे। काफ़ी कम उम्र में ही इनकी आँखों की रौशनी चली गयी थी।

मीर तक़ी 'मीर' को बड़े आलोचक उर्दू ग़ज़ल के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ शायर बताते हैं।

फ़रहत अली खान:-
एक और क़िस्सा सुनाता चलूँ।
मोमिन के शेर:
'तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता'
ग़ालिब को इतना पसंद आया कि उसके बदले उन्होंने इसके अपने एक पूरा दीवान(बड़ा कविता संग्रह) देने की पेशकश की थी।
ज़ाहिर है ऐसा उन्होंने इस शेर की ख़ूबसूरती को देखकर कहा होगा।
असल में इस शेर के दो मायने निकलते हैं; आप सब इसे पढ़कर ट्राय करके देखें।

फ़रहत अली खान:-
एक और क़िस्सा सुनाता चलूँ।
मोमिन के शेर:
'तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता'
ग़ालिब को इतना पसंद आया कि उसके बदले उन्होंने अपना एक पूरा दीवान(बड़ा कविता संग्रह) देने की पेशकश की थी।
ज़ाहिर है ऐसा उन्होंने इस शेर की ख़ूबसूरती को देखकर कहा होगा।
असल में इस शेर के दो मायने निकलते हैं; आप सब इसे पढ़कर ट्राय करके देखें।

फ़रहत अली खान:-
इस तरह पढ़ें:
1. 'तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता'
2. 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब, कोई दूसरा नहीं होता'
(गोया - जैसे कि)

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, प्रज्ञा जी, अर्चना जी, ब्रजेश जी, सुवर्णा जी, गरिमा जी, कविता जी, नयना जी, मनीषा जी, अशोक जी, अंजनी जी, हंसा. जी, रुचि जी। आप सभी का बेहद शुक्रिया कि अपना मूल्यवान समय ग़ज़लों को दिया।
प्रयास अच्छा है प्रदीप भिया
पर contemporary words के उपयोग के सिलसिले में ग़ज़ल के मुआमले में थोड़ी सावधानी रखना चाहिए

जैसे

वो जाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई दूसरा जो पहने तो दूसरा ही लगे

-(बशीर बद्र)
ज़ौक़, ग़ालिब, आज़ुर्दा और ज़फ़र के समकालीन मोमिन बेहतरीन शायर थे। साथ ही साथ ये एक हकीम और उम्दा शतरंज खिलाड़ी भी थे। रूमानी ग़ज़ल के सबसे बड़े शायरों में इनका नाम लिया जाता है।

जुरअत को उर्दू के सबसे उम्दा शायरों में गिना जाता है। फैज़ाबाद के थे। काफ़ी कम उम्र में ही इनकी आँखों की रौशनी चली गयी थी।

मीर तक़ी 'मीर' को बड़े आलोचक उर्दू ग़ज़ल के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ शायर बताते हैं।

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