मित्रो, आज हम जर्मन कवि रेनर मारिया रिल्के ( 4 दिसम्बर 1875- 29 दिसम्बर 1925) की कविताओं का अनुवाद दे रहे हैं। रिल्के ने उपन्यास और अनेक काव्य संग्रह रचे। रिल्के के पत्र भी बहुत विख्यात हुऐ। उन्होंने रूस, फ्रांस, इटली की यात्रायें की लेकिन जीवन के अंत में वे स्वीटज़रलैंड में रहे।
1) प्रेम
अनजाने परों पर आसीन
मैं
स्वप्न के अंतिम सिरे पर
मैं
स्वप्न के अंतिम सिरे पर
वहाँ मेरी खिड़की है
रात्रि की शुरूआत जहां से होती है
रात्रि की शुरूआत जहां से होती है
और
वहाँ दूर तक मेरा जीवन फैला हुआ है
वहाँ दूर तक मेरा जीवन फैला हुआ है
वे सभी तथ्य मुझे घेरे हुए हैं
जिनके बारे में मैं सोचना चाहती हूं
तल्ख
घने और निशब्द
पारदर्शी क्रिस्टल की तरह आर पार चमकते हुए
मेरे अंदर स्थित शून्य को लगातार सितारों ने भरा है
मेरा हृदय इतना विस्तृत इतना कामना खचित
कि वह
मानो उसे विदा देने की अनुमति मांगता है
जिनके बारे में मैं सोचना चाहती हूं
तल्ख
घने और निशब्द
पारदर्शी क्रिस्टल की तरह आर पार चमकते हुए
मेरे अंदर स्थित शून्य को लगातार सितारों ने भरा है
मेरा हृदय इतना विस्तृत इतना कामना खचित
कि वह
मानो उसे विदा देने की अनुमति मांगता है
मेरा भाग्य मानो वही
अनलिखा
जिसे मैंने चाहना शुरू किया
अनचीता और अनजाना
जैसे कि इस अछोर अपरास्त विस्तृत चरागाह के
बीचोंबीच मैं सुगंधों भरी सांसों के आगे-पीछे झूलती हुई
अनलिखा
जिसे मैंने चाहना शुरू किया
अनचीता और अनजाना
जैसे कि इस अछोर अपरास्त विस्तृत चरागाह के
बीचोंबीच मैं सुगंधों भरी सांसों के आगे-पीछे झूलती हुई
इस भय मिश्रित आह्वान को
मेरी इस पुकार को
किसी न किसी तक पहुंचना चाहिये
जिसे साथ साथ बदा है किसी अच्छाई के बीच लुप्त हो जाना
मेरी इस पुकार को
किसी न किसी तक पहुंचना चाहिये
जिसे साथ साथ बदा है किसी अच्छाई के बीच लुप्त हो जाना
और बस।
अनुवाद-- इला कुमार
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2) निष्ठा
मेरी आँखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूंगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुँचेगी
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुँचेगी
पगहीन मैं तुम तक पहुंचकर रहूंगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
🔴 अनुवाद- धर्मवीर भारती
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
🔴 अनुवाद- धर्मवीर भारती
3) इस शहर मे
इस शहर के अंत में
वह अकेला पर
इतना अकेला
मानो वह दुनिया में स्थित बिल्कुल अकेला घर हो
गहराती हुई रात्रि के अंदर शनै: शनै: प्रविष्ट होता हुआ राजमार्ग
जिसे
सह नन्हा शहर रोक सकने में सक्षम नहीं
वह अकेला पर
इतना अकेला
मानो वह दुनिया में स्थित बिल्कुल अकेला घर हो
गहराती हुई रात्रि के अंदर शनै: शनै: प्रविष्ट होता हुआ राजमार्ग
जिसे
सह नन्हा शहर रोक सकने में सक्षम नहीं
यह छोटा सा शहर मात्र एक गुज़रने की जगह
दो विस्तृत जगहों के बीच
चिंतित और डरा हुआ
पुल के बदले में घरों के बगल से गुज़रता हुआ रास्ता
दो विस्तृत जगहों के बीच
चिंतित और डरा हुआ
पुल के बदले में घरों के बगल से गुज़रता हुआ रास्ता
जो शहर छोड़ जाते हैं
एक लंबे रास्ते पर
भटकन के बीच गुम हो जाते हैं
और
शायद कई
सड़कों पर
प्राण त्याग देते हैं।
एक लंबे रास्ते पर
भटकन के बीच गुम हो जाते हैं
और
शायद कई
सड़कों पर
प्राण त्याग देते हैं।
अनुवाद - इला कुमार
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बी एस कानूनगो:-
जर्मन कवि को पढ़ना अच्छा लगा। न जाने क्यों मुझे एक स्थानीय भाषा से अंग्रेजी में अनूदित फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित रचनाएँ अधिक बाँध नहीं पाती।सीधे मन पर उतर नहीं पातीं।अनुवाद में मूल भावों का विचलन तो होता ही होगा।बहरहाल इस तरह भी दुनिया के महान कवियों का हैम तक पहुंचना सुखद है।
सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
चुपचाप चले जाना ठीक नहीं लगता। इसमें एक अजीब-सा अहंकार मालूम होता है।
मुझे लगता है मैं ही सलोका पसंद नहीं हूँ। आपके साथ गुजरा वक्त यादगार रहेगा। आज शाम तक विदा लूंगा।
अम्मा का स्नेह और आशीष हमेशा साथ रहेगा। अच्छा दोस्तो... विदा बिजूका!!
मुझे लगता है मैं ही सलोका पसंद नहीं हूँ। आपके साथ गुजरा वक्त यादगार रहेगा। आज शाम तक विदा लूंगा।
अम्मा का स्नेह और आशीष हमेशा साथ रहेगा। अच्छा दोस्तो... विदा बिजूका!!
आभा :-:
हो सकता है जो मांग मैं करने जा रही हूँ उसमे सबकी रूचि नहीं हो लेकिन फिर भी क्या ये संभव है कि मूल कविता भी उसी भाषा में पढ़ने को मिले। या कम से कम उसका ओरिजिनल जर्मन टाइटल मिल जाये ताकि दोनों का आस्वाद मिल सके।
नंदकिशोर बर्वे :-
अनुवादित कविताओं के संदर्भ में ब्रजेश कानूनगो जी से सहमत। विदेशी लेखकों की रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं सच है लेकिन अनुवाद की अपनी सीमाएं होती हैं।
अलकनंदा साने:-
इस तरह की परेशानी देशी भाषाओँ के अनुवाद में भी आती है ...ज्यादातर लोग शाब्दिक अनुवाद करते हैं और अनुवाद के लिए दोनों भाषाओँ की माटी में घुला- मिला होना महत्वपूर्ण होता है
मुझे भी धर्मवीर भारती का अनुवाद अच्छा लगा
अलकनंदा साने:-
आभा , जर्मन देना शायद संभव नहीं हो पायेगा ...मनीषा जी बता पाएंगी , एक और बात है कि इस तरह किसी परम्परा के बन जाने पर आगे दिक्क़त भी आएगी , क्योंकि यहाँ जगह की समस्या होती है , तीसरी बात मूल भाषा के पाठक कितने हैं , उस पर भी निर्भर है
मनीषा जैन :-
आभा जी मेरे विचार में जब भी कहीं अनुवाद प्रकाशित होता है साथ ही मूल रचना भी प्रकाशित हो यह जरूरी नहीं है। बस अधिकतर मूल रचनाकार का नाम ही होता है। आप स्वयं मूल पाने का प्रयास करें
सादर
नंदकिशोर बर्वे :-
जी। इसीलिए मेरा सपष्टत: मानना है कि हर भाषा का अपना सौन्दर्य होता है जिसका अनुवाद किसी भी प्रकार से संभव नहीं होता है। फिर भी अनुवादित साहित्य का अपना महत्त्व है।
फरहात अली खान :-
रिल्के की कविताएँ पढ़कर ऐसा लगा गोया कवि एक अंधकारमय रास्ते पर हाथ में जलती हुई एक लालटेन लिए चल रहा है और उसके मन जो विचार उमड़ रहे हैं, उन्हें वो कविता के रूप में लिखता जा रहा है।
तीनों कविताएँ दिल को छूती है और इनमें अव्वल नंबर पर रही- 'इस शहर में'
हालाँकि 'इस शहर में' की अंतिम सात पंक्तियाँ पढ़कर मूल विषय से कुछ भटकाव सा हुआ मालूम होता है।
अनुवाद के मुआमले में 'निष्ठा' सबसे अच्छी बन पड़ी है। इसका श्रेय मैं 'धर्मवीर भारती' जी को देना चाहूँगा। साथ ही इस कविता का भाव भी ठीक ठाक है।
पहली कविता 'प्रेम', जो साफ़तौर पर भावनाओं की उथल-पुथल का ही नतीजा है, भी ख़ासा प्रभावित करती है। कानूनगो जी की बात से सहमत हूँ कि अनुवादित रचना शत-प्रतिशत मूल रचना सा प्रभाव नहीं डाल पाती; शायद यही वजह है कि इस कविता('प्रेम') को पढ़ते हुए कुछ redundancy(इसके लिए हिंदी/उर्दू शब्द अभी मेरे ज़ेह्न में नहीं आ रहा है) का अहसास होता है।
लेकिन ये भी सच है कि जितना हम अलग-अलग देशी-विदेशी साहित्यकारों को पढ़ते हैं, हमारी ख़ुद की साहित्यिक समझ को भी उतना ही ज़्यादा नफ़ा पहुँचता है।
कविता वर्मा:-
निष्ठा सबसे अच्छी तरह अनुवादित कविता है ।प्रेम और मेरा शहर मे शाब्दिक अनुवाद के कारण वाक्य विन्यास अटपटा लगता है जिससे भाव समझने मे परेशानी होती है ।बार बार पढने पर ही भाव और बिंब स्पष्ट हो पाते हैं ।लेकिन पढ़ना सुखद लगता है ।
किसलय पांचोली:-
महान विश्व कवि रिल्के की कविताओं का हिंदी अनुवाद पढ़ना अच्छा लगा।
कदाचित 'प्रेम' कविता शब्द आधिक्य/ शब्द दुहराव/ शब्द चयन में सटीकता की कमी से जूझती लगी।
निसंदेह 'निष्ठा' सफल अनुवाद का उदाहरण बन पड़ी है।यह कविता दिल से सीधा संवाद करती है।
'इस शहर में' कविता का अपना वजूद स्पष्ट नहीँ हो पाया है।
आभा , जर्मन देना शायद संभव नहीं हो पायेगा ...मनीषा जी बता पाएंगी , एक और बात है कि इस तरह किसी परम्परा के बन जाने पर आगे दिक्क़त भी आएगी , क्योंकि यहाँ जगह की समस्या होती है , तीसरी बात मूल भाषा के पाठक कितने हैं , उस पर भी निर्भर है
मनीषा जैन :-
आभा जी मेरे विचार में जब भी कहीं अनुवाद प्रकाशित होता है साथ ही मूल रचना भी प्रकाशित हो यह जरूरी नहीं है। बस अधिकतर मूल रचनाकार का नाम ही होता है। आप स्वयं मूल पाने का प्रयास करें
सादर
नंदकिशोर बर्वे :-
जी। इसीलिए मेरा सपष्टत: मानना है कि हर भाषा का अपना सौन्दर्य होता है जिसका अनुवाद किसी भी प्रकार से संभव नहीं होता है। फिर भी अनुवादित साहित्य का अपना महत्त्व है।
फरहात अली खान :-
रिल्के की कविताएँ पढ़कर ऐसा लगा गोया कवि एक अंधकारमय रास्ते पर हाथ में जलती हुई एक लालटेन लिए चल रहा है और उसके मन जो विचार उमड़ रहे हैं, उन्हें वो कविता के रूप में लिखता जा रहा है।
तीनों कविताएँ दिल को छूती है और इनमें अव्वल नंबर पर रही- 'इस शहर में'
हालाँकि 'इस शहर में' की अंतिम सात पंक्तियाँ पढ़कर मूल विषय से कुछ भटकाव सा हुआ मालूम होता है।
अनुवाद के मुआमले में 'निष्ठा' सबसे अच्छी बन पड़ी है। इसका श्रेय मैं 'धर्मवीर भारती' जी को देना चाहूँगा। साथ ही इस कविता का भाव भी ठीक ठाक है।
पहली कविता 'प्रेम', जो साफ़तौर पर भावनाओं की उथल-पुथल का ही नतीजा है, भी ख़ासा प्रभावित करती है। कानूनगो जी की बात से सहमत हूँ कि अनुवादित रचना शत-प्रतिशत मूल रचना सा प्रभाव नहीं डाल पाती; शायद यही वजह है कि इस कविता('प्रेम') को पढ़ते हुए कुछ redundancy(इसके लिए हिंदी/उर्दू शब्द अभी मेरे ज़ेह्न में नहीं आ रहा है) का अहसास होता है।
लेकिन ये भी सच है कि जितना हम अलग-अलग देशी-विदेशी साहित्यकारों को पढ़ते हैं, हमारी ख़ुद की साहित्यिक समझ को भी उतना ही ज़्यादा नफ़ा पहुँचता है।
कविता वर्मा:-
निष्ठा सबसे अच्छी तरह अनुवादित कविता है ।प्रेम और मेरा शहर मे शाब्दिक अनुवाद के कारण वाक्य विन्यास अटपटा लगता है जिससे भाव समझने मे परेशानी होती है ।बार बार पढने पर ही भाव और बिंब स्पष्ट हो पाते हैं ।लेकिन पढ़ना सुखद लगता है ।
किसलय पांचोली:-
महान विश्व कवि रिल्के की कविताओं का हिंदी अनुवाद पढ़ना अच्छा लगा।
कदाचित 'प्रेम' कविता शब्द आधिक्य/ शब्द दुहराव/ शब्द चयन में सटीकता की कमी से जूझती लगी।
निसंदेह 'निष्ठा' सफल अनुवाद का उदाहरण बन पड़ी है।यह कविता दिल से सीधा संवाद करती है।
'इस शहर में' कविता का अपना वजूद स्पष्ट नहीँ हो पाया है।
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