"नाम"
"कुछ भी हो नाम नही बदलूँगी मैं"
"अरे पर फिर समाज रिश्तेदार इन लोगों का क्या..."
"वो तुम जानो...."
लड़का मायूस होकर,"ठीक है बात करूँगा"।
कुछ दिनों बाद एक मुलाक़ात के दौरान लड़का,"जान,खुशखबरी है तुम्हारे लिए..."
आँखें फैलाते हुए लड़की,"क्या??"
"घरवाले राजी हो गए है..."
"अब कैसे मान गए...."
"वो पार्षद के चुनाव होने हैं,उसमे मेरी नेतागिरी और तुम्हारा आरक्षण...."आँख मारते हुए।
विश्वास
"लो, मैं ,घर से जो कुछ भी हाथ लगा, गहने-पैसे सब ले आई हूँ,अब तो हम शादी कर सकते हैं न, अब तो पैसे की भी कोई कमी नही होगी",अनिल का साथ मिल जाने की उम्मीद में ख़ुशी से आँखें चमकाती रीना बोले ही जा रही थी।अनिल की आँखें पैसे और गहने देखकर बाहर को निकली जा रहीं थी। वह विश्वास नही कर पा रहा था कि पापा की लाड़ली बेटी ऐसा भी कर सकती थी उस जैसे मूल्यविहीन इंसान(?) के लिए। फिर सोची समझी साजिश के तहत धाँय की एक जोरदार आवाज हुई। चारों तरफ शून्य बटे सन्नाटा पसर गया।अनिल ने जल्दी जल्दी गहने रूपये समेटे और भाग गया।
रीना का किया गया विश्वासघात फलीभूत हो गया था।
"डर"
"रुक, सुन, माँ को मत बोलना कुछ भी, ठीक है।"
"पर क्यू माँ को सब बताना जरुरी नही है क्या?"
"अरे तू नही समझेगी..."
"पर क्यू?"
"अरे, माँ को पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा।"
"पर क्यों..?"
"अरे, बापू को नही जानती क्या कितनी मुश्किल से तो जाने देते हैं, पढने।अम्मा का जीना दूभर कर देंगे।"
"पर इन लोगो ने फिर कुछ किया तो..."
"कुछ नही फिर पिटेंगे साले, चल, अब मुँह बंद कर और घर चल, बहुत देर हो गई।"
"सत्य"
"सर, वो असम में जो उग्रवादियों ने हत्याएं की हैं उन
पर कोई स्टोरी बना कर डालते हैं अपने चैनल पर।"
"अरे,क्या बकवास करते हो? वो न्यूज़
नही बिकेगी।"
"पर सर पेशावर वाली तो....।"
"इतने साल हो गए तुम्हे पत्रकारिता में फिर भी कुछ
समझे नही अब तक.... जो बिकता है
वही छपता है।"
"पर सर क्या हमारा कोई दायित्व नही...."
"जितना कह"
000 निधि जैन
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टिप्पणियाँ:-
आभा :-
लघु कथा के बढ़िया उदाहरण। छोटे स्वरुप में वृहद समाज का सटीक चित्र पेश करती कहानियां। पढ़ कर अच्छा लगा।
आर्ची:-
सही है आजकल दुनिया के सारे तंत्र अर्थ तंत्र से ही संचालित होते हैं नैतिकता सामाजिक दायित्व वगैरह जैसे शब्द केवल शब्दकोष की शोभा बनकर रह गए हैं इस बात का बढिया चित्रण कम शब्दों मे... साधूवाद
मनचन्दा पानी:-
सभी लघु कथाएं बेहतर है। कम शब्दों में अपनी बात पूरी करती। और वास्तविकता के बहुत करीब ।
'विश्वास' कहानी बेतुकी लगी।
एक तो इसमें नारी को मुर्ख दिखाया गया है जो किसी को जाने समझे बिना अपने प्यारे पिता के घर से सब गहने और रुपये उठा लायी। ऐसा कहाँ होता है ?
दुसरे, पुरुष को धोखेबाज कहा गया है।
इस कहानी को मैं उसी साहित्य की श्रेणी में रखूँगा जो आजकल स्त्री और पुरुष के बीच की दूरियों को बढ़ाने के लिए लिखा जा रहा है।
सादर।
प्रज्ञा:-
आज की लघु कथाएं अभी पढ़ीं। मुझे सत्य और नाम अपनी रोचकता और कथ्य के हिसाब से बेहतर लगीं। शेष दो कुछ लड़खड़ाती सी लगीं।
आजकल सामाजिक सरोकारों से जुड़े रचनात्मक पक्ष को तरजीह नहीं दी जाती अक्सर। उन्हें उपदेश या प्रचार की श्रेणी में डाल कर उपेक्षित कर दिया जाता है। अरसे से ऐसा चलन है मुद्दों के प्रति उदासीनता एक सोची समझी साजिश है। अराजनीतिक की राजनीति सरीखी। इस लिहाज से सत्य कहानी न सिर्फ मीडिया के सच को खोलती लगी बल्कि सामजिक सत्य के स्तर पर भी बड़ी प्रतीकात्मक लगी। और नाम का अंत क्या तेज़ तमाचा है। बधाई।
प्रज्ञा:-
बिकने के पीछे के सूक्ष्म तन्तु और बड़ी मूल्यहीनता । बाजार और महत्वपूर्ण बनाये जाने की गतिविधियो जैसे नंगे सच के साथ ज़रूरी को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा हाशिये में धकेलने की सारी कवायदों पर ध्यान जाना लाज़मी है।
नयना (आरती) :-
" नाम" अपने कथ्य के मकसद में कामयाब कहानी है।"विश्र्वास" उतनी स्पष्ट नहीं हो पायी। "डर" डरते-डरते कहीं गयी हैं।"सत्य" उतनी कसी हुई नहीं बन पाई।फीर भी प्रयास उत्तम है ।कोशिशों में कमी न आने दे।शुभकामनाऐ
अर्जन राठौर:-
आज के टीवी चेनलों की अच्छी पोल खोली हे सटी क लेखन के लिए बधाई
अलकनंदा साने:-
सत्य और नाम में कटाक्ष अच्छा है, पर विश्वास कुछ खास नहीं लगी । लिखते पढते रहने से निखार आ जाएगा ।
इन कथाओं के रचनाकार में एक व्यंग्यकार के बीज दिखाई देते हैं। शुभकामना।
सुवर्णा:-
अच्छी लगीं कहानियाँ। थोड़े कसावट की गुंजाइश है पर फिर भी अच्छी हैं। मुझे विश्वास के अलावा तीनो ने प्रभावित किया। विश्वास कहानी को शायद फिर देखा जाना चाहिए। ये व्यकिगत रूप से लगता है मुझे।
फरहात अली खान :-
'नाम' और 'सत्य' क्रमशः राजनीति और मीडिया का काला सच सामने लाती हैं; इसलिए प्रभाव डालती हैं।
'विश्वास' भी कोई अव्यवहारिक कहानी नहीं है; इसे पढ़कर गोविंदा की फ़िल्म 'दूल्हे राजा' का एक दृष्य सामने आ गया। हालाँकि इसका शीर्षक 'विश्वासघात' होता तो ज़्यादा सटीक लगता।
'डर' से कहानीकार की बात कुछ कुछ तो स्पष्ट होती है परन्तु तस्वीर पूरी तरह खुलकर सामने नहीं आती। इसलिए ये कहानी सबसे कम प्रभावित करती है।
अब बात करें लिखने और अपनी बात कहने की कला की तो जहाँ 'विश्वास' और 'सत्य' इस कसौटी पर काफ़ी हद तक खरी उतरती हैं, तो वहीँ 'नाम' और 'डर' में कई कमियाँ नज़र आती हैं। अच्छे साहित्यकारों को बारीकी से पढ़ा जाए तो ये बात ख़ुद समझ में आ जायेगी कि वाक्य किस तरह बनाये जाएँ। जैसे जैसे लिखा-पढ़ा जाता है वैसे वैसे लेखन में निखार आता रहता है।
मिसाल के तौर पर:
'नाम' में चौथी लाइन देखें। मुझे लगता है कि ये कुछ यूँ भी हो सकती थी:
लड़के ने मायूस होकर कहा,"ठीक है, बात करूँगा।"
या यूँ हो सकती थी:
लड़का मायूस होकर बोला,"ठीक है, बात करूँगा।"
या फिर यूँ भी हो सकती थी:
लड़का(मायूस होकर): ठीक है, बात करूँगा।
(हालाँकि लिखने का ये तीसरा वाला तरीक़ा 'नाटकों' और 'एकांकियों' में प्रचलित है।)
कविता वर्मा:
आज की लघुकथाकार हैं निधि जैन जी। निधि जी की चारों लघुकथाओं में से नाम और सत्य को अधिकतम प्रशंसा प्राप्त हुई हैं। जिसमे एक लड़की नाम पहचान के लिए लड़का अपने स्वार्थ के लिए राजी हो जाता है। नाम यह कहानी शादी के बाद लड़की का नाम (शायद सरनेम ) बदलने के सदियों से चले आ रहे प्रचलित रिवाज को एक स्वार्थ के लिए बदलने वाले लडके की कहानी है जिसे बड़े सधे हुए अंदाज़ में कहा गया है। मीडिआ का एक प्रचलित वाक्य जो दिखता है वो बिकता है को एक संवेदनशील घटना से जोड़ कर चुने हुए सटीक शब्दों में लिखा गया है। डर कहानी हालांकि रूढ़ियाँ तोड़ घर से निकलने वाली लड़की की कहानी है जो अपनी मंजिल पाने लिए बाहरी लोगो से तो आसानी से लड़ लेती है लेकिन घर में लड़ना उसके लिए मुश्किल है। विश्वास थोड़ी कमजोर पड़ी है लेकिन यह भी जीवन की एक सच्चाई है। कुल मिला कर चारो कहानियां अपनी छाप छोड़ने में सफल रही हैं। लिखते रहिये शुभकामनाये।
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