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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 नवंबर, 2015

साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों लौटाए जा रहे हैं..

आज की बातचीत की शुरुआत में वागीश झा जी का बीज लेख प्रस्तुत कर रहे हैं....आपसे आशा है कि बात

को आगे बढ़ाएँगे....साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों लौटाए जा रहे हैं...यह तो सभी जान ही रहे हैं....कुछ

कलाकारों ने पद्म श्री और अन्य सम्मान भी लौटाने शुरू कर दिए हैं...लेखकों , कलाकारों को यह क़दम

स्वागत योग्य है...समूह सभी साथी इस विषय की अपने ढंग से पड़ताल करे...यही अनुरोध है... प्रस्तुत है

वागीश जी का बीज लेख....



तै करो किस ओर हो तुम



000 वागीश झा

साहित्यकरों के द्वारा सम्मान वापस करने का सिलसिला जारी है। ऐसे ख्यातनाम लेखकों से लेकर

नवोदित रचनाकार जो देश के अलग अलग क्षेत्रों से आते हैं उनकी संख्या 30 पार गयी कहते हैं। जो अपने

परिवार के ही एक सम्मानित बुज़ुर्ग की नृशंश और कायराना हत्या का मातम न मनाये, रोये न, ग़मी में

शामिल न हो उससे क्या रिश्ता! यहाँ से शुरू हुआ एक सिलसिला। फिर सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह में कालिख

पोतने वाले का मुह मीठा कराया गया। उस्ताद ग़ुलाम अली की संगीत सभा कुत्सित राष्ट्रवाद की भोंडी

चीख में गुम हो गयी। ऐसी कट्टर सोच और हिंसक असहिष्णुता के प्रति एक लिज़लिज़ी चुप्पी के विरुद्ध

अपनी आवाज़ दर्ज़ करा रहे हैं ये सृजनकर्मी। सम्मानित लेखकों का एक दूसरा तबका भी इस चिंता में

शरीक है। जिस हिन्दुस्तान की बहुलतावादी, सद्भावना और आपसी सौहार्द्र का विचार जनतांत्रिक मूल्यों

का प्राण हो वे भी इसकी रक्षा के लिए साथ खड़े हैं। पर सम्मान लौटना उनका तरीका नहीं। उधर सत्ताधीश

इसे सरकार के खिलाफ साजिश बता रहे हैं। बड़े मंत्रीगण लेखकों पर 'राजनीति करने' का इलज़ाम लगा रहे

हैं। कैसी मज़ेदार विद्रूपता है -पेशेवर राजनीतिज्ञ कह रहे हैं की राजनीती करना अनैतिक है। ऐसी

आत्महीनता के शिकार जन प्रतिनिधियों को एक निहथ्थे व्यक्ति का हज़ारो की तर्कान्ध और वहशी भीड़

के द्वारा पीट पीट कर मार देना एक सामान्य सी घटना लगती है। ऐसा तो आये दिन होता रहा है, कौन सी

नयी बात है। उन्हें पता तो है ही कि संकीर्ण धार्मिकता का ये खूनी खेल वो तिज़ारत है जो सत्ता दिलाती है।

रक्तबीज की मानिंद ये हर तरफ उग रहे हैं, नए नाम से। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद नफरत की आग से पनपती

है। खून की फसल ऐसे ही विष वामन से तैयार होती है। लोग पूछ रहे हैं - इस महान देश के सर्वोच्च

निर्वाचित नायक चुप क्यों हैं। अरे, चुप कहाँ हैं, बोले तो कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। पर इसके लिए केंद्र सरकार

कैसे दोषी हुई, साहब मासूमी से पूछते हैं। और इस पर देश की जनता सोचती है इस तर्क से तो अपने घर में

अपनी पत्नी की हत्या शुद्ध रूप से पारिवारिक मामला हुआ, इसमें न तो राज्य शामिल है न केंद्र!! और

फिर तो केंद्र सरकार केवल संसद में होने वाली घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार मानी जायेगी!! कुछ कह रहे हैं,

क्या ऐसी घटना पहली बार हुई है? इन लेखकों का विवेक तब क्यों नहीं जागा था? आज क्यों इतने बेचैन

हैं। ये साजिश नहीं तो क्या है। इसका मतलब तो ये हुआ कि एक बार नहीं बोलने पर दुबारा बोलने का

नैतिक अधिकार ही नहीं हो। फिर तो अँगरेज़ कहते सदियों से गुलाम थे, तब नहीं बोला, तो अब विद्रोह

करने का क्या नैतिक हक़ है तुम्हें? हाँ उन्होंने भी विरोध के गीतों और स्वर को राजद्रोह माना। और आज

भी राज सत्ता के द्वारा महान त्याग और बलिदान से प्राप्त समताकामी मूल्यों और जनतांत्रिक अधिकारों

के हनन के खिलाफ बोलने वालों को देश द्रोही करार दिया जा रहा है। क्या यह छिटपुट हो रही हिंसा का

सवाल है? या केवल समय समय पर किये जाने वाले दंगो या नरसंहारों की कुछ सामान्य घटनाएं हैं, ये

सब? लेखकों और समाज के एक सजग तबके को यह इतना मासूम प्रश्न नहीं लगता। यह सांस्कृतिक

राष्ट्रवाद की विचारधारा को लागू करने का सुनियोजित प्रयास है। देश की तमाम संस्थाओं को

कठपुतलियों में तब्दील करने की स्पष्ट मुहिम चल रही है। अब केवल शब्दजाल नहीं, दशानन की खूंखार

ताक़त खुल कर सामने है, दल बल के साथ। सदियों के बलिदान से प्राप्त जनतांत्रिक ढाँचे और संवैधानिक

मूल्यों का एक systemic subversion शुरू हो चुका है। उनकी नज़र में एक विद्रूप असहिष्णुता को राजधर्म

की मान्यता देने जैसा काम चल रहा है। संकीर्ण राष्ट्रवाद के कानफोड़ू नारो से बुद्धि और विवेक को कुंद

करने का एक व्यापक अभियान है ये। और इसका विरोध, देशद्रोह करार दिया जा रहा है। लेखकों की

कुण्डलियां (dossier) बनाये जा रहे हैं। सम्मान लौटने वालों में एक जाने माने भाषाविद् गणेश देवी के

बड़ोदा स्थित घर पर ख़ुफ़िया एजेंसी के लोग यह जानने दूसरे ही दिन यह जानने पहुंचे कि कहीं वे लोगों में

विद्वेष फ़ैलाने की साजिश में तो शामिल नहीं! यह सामान्य समय नहीं है। गणेश देवी के शब्दों को उधर लें

तो यह देश को एक खतरनाक Civilizational Turn देने की सुनियोजित कोशिश है। अरे साहब, मर्यादा

पुरूषोत्तम राम ने तो एक धोबी के सन्देह भर से सीता की अग्नि परीक्षा लेकर राजधर्म की मिसाल पेश की

थी। आप कैसे राम भक्त हैं जो राज सत्ता के लिए सदियों के त्याग से प्राप्त सभ्यतागत खूबियों के विनाश

के लिए मौत के आह्वान कर रहे 'राष्ट्र यज्ञ' के मुख्य होता बन बैठे। और अगर ये इतना 'महान राष्ट्रीय

यज्ञ' है तो आहुति तो देनी होगी। सच बोलने बाले, आम जानत की मुह की बोली बन उनका पक्ष लेने वालों

से अधिक उपयुक्त आहुति और क्या होगी! हम अपने नम्बर की प्रतीक्षा करें या फिर विरोध के गीत का

एक स्वर बनें! और अंत में एक कार्टून की बानगी। गौर करें कि कुछ आड़ी तिरछी लाइने, कुछ रंगों के साथ

मिल कर बिना बोले कैसे एक नृशंश विचार की भयावहता तो कला में समेट लेता है। इन बातों पर आप या

हम कुछ बोलें या न बोलें आपकी मर्ज़ी। पर यह अपना पक्ष स्पष्ट करने की एक निर्णायक घडी हो सकती

है। फैसला हमको आपको करना है - तै करो किस ओर हो तुम!!

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टिप्पणियाँ:-

सतीश आलिया:-

१९८४ के अक्टूबर में सिखों का जगह जगह नरसंहार हुआ। दिसंबर में भोपाल में जहरीली गैस रिसी हजारों

बेकसूर मारे गए। अब त्रासदी अनवरत जारी है। गिरफ्तार यूका चेयरमैन को मुख्यमंत्री कार से विदा करने

गए, प्रधानमंत्री ने अमेरिका भिजवाया। तब के मुख्यमंत्री के प्रिय अफसर और अब सम्मान लौटा रहे

साहित्यकार वाजपेयी ने तब जनता के पक्ष में क्या किया था? किसी को याद हो तो क्रपया बताइएगा,

ग्यान में व्रद्धि होगी। पुरस्कार या सम्मान लौटना नंपुसक विरोध से ज्यादा कुछ नहीं। ये वैसा ही है जैसा

दंगों में जान बचाकर या कहें दुम दबाकर घर में घुसे रहना और दंगे के बाद दंगे पर कविता लिखना और

छपने पर भुगतान प्राप्त करना। गणेशशंकर विद्यार्थी, गांधी जी जैसा साहस क्यों नहीं दिखाते दंगा

रोकने? मुझे याद है १९९२ का भोपाल का दंगा बतौर रिपोर्टर रोज घर से निकलता था, खबर लिखी, कविता

भी। देखा, भोगा यथार्थ। उसी वक्त सरकारी सुविधाओं से लैस अफसरों को भी देखा जो घर से नहीं निकले

और बाद में कविता लिखी बेची। हत्याएं अपराध हैं, विरोध करना ही चाहिए। मैदान में आकर। हमारी पसंद

की सरकार है तो कितना भी बड़ा अपराध चलेगा, मर्जी की सरकार नहीं है तो सम्मान लौटाएंगे। इसे

दोगलेपन के सिवाय क्या कहा जाए। कलबुर्गी , डाभोलकर आदि की हत्या का पुरजोर विरोध होना ही

चाहिए। तसलीमा के विरोध, बैन का भी विरोध होना चाहिए। रुशदी के सेटेनिक वर्सेस पर बैन भी

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन था। असीम के कार्टून पर वार भी गलत था और भारतीय मकबूल हुसैन

को कतरी नागरिक बनने को मजबूर करना भी शर्मनाक था, तब राज्यों और देश में किसकी सरकारें थीं?

अब सम्मान लौटाने वालों ने तब क्या किया था? यह सब खुद को लड़ाई के अयोग्य घोषित करना और

उनको और मजबूत करना ही है, जो लोगों को मारने में तनिक देर नहीं लगाते, न हिचकिचाते। चाहे १९८४,

हो २००१ का गोधरा, अहमदाबाद हो, मुजफ्फरपुर हो, दादरी हो।

सत्यनारायण:-

ऐसा नहीं है सतीश जी सबकी अपनी समझ और आज़ादी होती है....हर कोई हमारे चाहने से न जागेगा और

न सोएगा

सतीश आलिया:-

यही तो। लोकतंत्र में सबको कहने का हक है, फैसला बहुमत करता है। राजनीति करने की चाहत वालों को

भले वे साहित्यकार भी हों, खुलकर सामने आना और मुद्दों पर चुनाव भी लड़ना चाहिए। जनता तय करे

कौन सही कौन गलत। लोकतंत्र में तो बहुमत ही फैसला है।

सत्यनारायण:-

क्या आपको लगता है कि चुनाव लोकतंत्रिक ढँग से होते हैं...!

मणि मोहन:-

सतीश भाई दिग्विजय सिंह ने यही कहकर केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवा दिया

क्या आम आदमी के लिए संघर्ष के लिए चुनाव लड़ने के आलावा और कोई रास्ता नही ?

इस देश में प्रतिरोध के इतने मुद्दे हैं कि सम्मान और पुरस्कार कम पड़ जायेंगे ।

और जब प्रतिरोध किसी भी स्तर पर शुरू होता है तो कई बार कुछ पापी भी अपने पाप धोने के लिए गंगा

जी में भीड़ के साथ घुस जाते हैं लेकिन सिर्फ इसी वजह से प्रतिरोध की मुहीम को कटघरे में तो नही खड़ा

किया जाना चाहिए ।

सतीश आलिया:-

जब पुरस्कार या सम्मान की सहमति जताई जा रही होती या तालियों के बीच सम्मान लिया जा रहा होता

है तब भी प्रतिरोध जताने के मुद्दे होते ही हैं। फिर भी सम्मान दिए लिए जाते रहते हैं। मौका देखकर या

सीजन देखकर लौटाने की होड़ भी सियासी ज्यादा, मुद्दों की फिक्र कम लगती है।

सत्यनारायण:-

पिछले 50 साल मैंने और दूसरे लेखक मित्रों ने शोषण, साम्राज्यवाद, विषमता, सांप्रदायिकता, धर्मान्धता,

अत्याचार और मौलिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध लिखा है. मेरे लिखे 5 उपन्यास, 2 नावलेट, 8 नाटक,

3 यात्रा संस्मरण पुस्तकें, 15 नुक्कड़ नाटक और लगभग 200 लेख आदि देखे जा सकते है. इसके बाद भी

अगर संगीत नाटक अकादमी मुझे सम्मानित करना चाहती है तो क्या मै सम्मान लेने से इनकार कर दूं?

यह सम्मान मुझे नरेंद्र मोदी या भाजापा नहीं दे रही है. यह वरिष्ठ रंगकर्मियों की एक कमेटी का निर्णय है.

मुझे या किसी और लेखक को सम्मानित करने का अर्थ व्यक्ति विशेष नहीं उन मूल्य और विचारों को

मान्यता देना और प्रतिष्ठित करना है जिनके लिए लेखक लिखता रहा है. सफाई देते हुए दुख होता है पर

बताना जरुरी हो गया है की मैने किसी भाजापा के प्रधानमंत्री की प्रशंसा ने कभी कुछ नहीं लिखा है और न

किसी भाजापा सरकार के दौरान कोई बड़ा पद प्राप्त किया है. साहित्य अकादमी द्वारा प्रायोजित विदेश

यात्राओं पर भी नहीं गया हूं. मैंने 'पाले बदलने का खेल' नहीं खेला है और मुझे 'विस्फोट' करके अपनी

निष्ठा प्रमाणित करने पर न विश्वास है न उसकी जरुरत है. इससे पहले भी लिख चुका हूं कि मै उन लेखकों

के सरोकारों और भावनाओं से पूरी तरह सहमत हूं जो अकादमी के पुरस्कार लौटा रहे है. पर जिस तरह

उन्हें गौरवान्वित किया जा रहा है उससे गंभीरता और ईमानदारी पर संदेह होता है. ००० असग़र वजाहत

स्वरांगी साने साहित्य अकादमी कलबुर्गी की हत्या के विरोध में पुरस्कार वापस किए जा रहे हैं। न केवल

साहित्य अकादमी के बल्कि राज्य स्तर के भी। पुरस्कार लौटाने वालों का भी विरोध हो रहा है। जो लोग

उनके इस कदम का विरोध कर रहे हैं उन्हें उनके पुरस्कार लौटाने के विरोध का भी सम्मान करना चाहिए।

बात यह तक हो रही है कि पुरस्कार से उन्हें सम्मान मिला और पुरस्कार लौटाना भी पब्लिसिटी स्टंट है।

ग़ौर करिए यह पुरस्कार आपको या मुझे नहीं मिला है। यह उन लेखकों को मिला है जिनका पहले से नाम

था। उनके कार्य का यह उन्हें प्रतिदान दिया गया था। माना जा रहा है कि पुरस्कार पाने में लॉबिंग होती है

और उसे लौटाने में भी एक ख़ास विचार शक्ति हावी हो रही है। दरअसल इस मुद्दे को यूँ समझिए कि इन

दिनों देश में दो ताकतें काम कर रही है। एक है जो ‘हिंदू, हिंदी-हिंदूस्तान’ का मंत्र दे रही है। दूसरी इस मंत्र

को फासिज़्म मान रही है। अब तक किसी सामान्य के लिए ख़ुद को हिंदू कहना उतना ही ख़तरनाक था जैसे

ख़ुद को सांप्रदायिक कहलवा लेना। उन लोगों को लगता है अब हिंदू कहलवाना गाली नहीं है। लेकिन हिंदू

कहलवाने के दूसरे ख़तरे भी है कि आप एक ख़ास विचार धारा में डाल दिए जा सकते हैं। दूसरे वे लोग जो

इसे फॉसिज़्म कह रहे हैं। वो ऐसा क्यों कह रहे हैं। तो उसकी वजह भी साफ़ है कि देश में केंद्र में ऐसी

सरकार है जो तुष्टिकरण की नीति का विरोध करती है। यदि वो किसी को तुष्ट नहीं करती तो ज़ाहिर है

किसी को पुष्ट भी कर रही है। जातिवाद का नया दौर शुरू हो गया है। वी.पी. सिंग के कमंडल से निकला

आरक्षण अब बिहार के यादवों तक पहुँच गया है। तीसरे लोग भी है जो इस पूरे मामले से अनभिज्ञ है। यदि

कुछ धूँधला जानते भी है तो उन्हें लगता है इससे हमें क्या? और ऐसे ही लोग सबसे ज़्यादा ख़तरनाक होते

हैं जो या तो चुप होते हैं, या तटस्थ। और ये बहुसंख्यक में होते हैं। अब फिर मुद्दे पर लौटते हैं कि सवाल

उठ रहे हैं इन्होंने तब विरोध क्यों नहीं किया और अब क्यों कर रहे हैं? मतलब यदि सिख दंगों के वक़्त

गलती हो गई तो अभी उस ग़लती को न सुधारते हुए ग़लत परंपरा को चलने दिया जाए? ये तर्क की

दाभोलकर की हत्या पर क्यों नहीं किया या मुज़फ्फरपुर के दंगों पर क्यों नहीं किया, इसलिए बेमानी है कि

तब नहीं जागे तो अब क्यों जाग रहे हो जैसा ये सवाल है। देखिए हर घटना के पीछे के हालात होते हैं।

अण्णा हज़ारे का आंदोलन, निर्भया के मामले में सबके साथ आने के बाद से एक विश्वास जगा है कि सबके

साथ होने पर चीज़ें बदल सकती है। जेपी का आंदोलन जब हुआ था या देश में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन जब

हुआ था तब के हालात उसके लिए पोषक थे। आज ये दोनों आंदोलन फेल हो जाएँगे। याद कीजिए फ्रांस की

राज्य क्रांति, लहू के एक क़तरा बहे बिना क्रांति हो गई थी। जिसे मध्यम वर्ग ने किया। जिसे तत्कालीन

चित्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों ने किया। अपनी कूची और कलम के ज़ोर पर ये विरोध हो रहा है। किसी

की हत्या या किसी पर कालिख (सुधीर कुलकर्णी मामला) नहीं। राशि नहीं लौटा रहे केवल घोषणा कर रहे हैं

कि बातें भी हो रही है तो इस देश में काला धन कमाने वालों की लंबी सूची है जो आयकर तक में चोरी कर

लेते हैं। लेखक आत्मसम्मान की रक्षा के लिए सम्मान लौटा रहे हैं कि चाहो तो मार दो पर झूठा सम्मान न

दो। ग़ला काट दो पर ज़ुबान बख़्श दो। निरंजन श्रोत्रिय:श्रोत्रिय- मेरी इस पुरस्कार लौटाने वाले कई लेखकों

से बात हुई है-उदय जी से तो काफी पहले (15दिन) जब इन्होंने लौटाया था उसके अगले दिन सुबह, फिर

राजेश जोशी (फ़िलहाल मुम्बई) और मंगलेश जी से आज। सभी लोग अपने निर्णय पर दृढ़ थे और कहीं भी

ऐसा नहीं लग रहा था कि वे सुर्खियाँ बटोरने के लिए यह कर रहे हों। बल्कि राजेश-मंगलेश का यह कहना

था कि हम लेखकों के बीच कोई संवाद होता तो सारे 25 लेखक यह पुरस्कार एक साथ, एक वक्तव्य के

साथ लौटाते। सो, इनकी नीयत पर शक करने का मुझे तो कोई कारण नज़र नहीं आता।रहा सवाल नामवर

जी का तो उनके विचलन पिछले कई दिनों से सुर्ख़ियों में रहे हैं। इस समय सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा इस

माहौल के खिलाफ लेखकीय एकजुटता का है। उसका सम्मान किया जाना चाहिए। काशीनाथ सिंह से बहुत

दिनों से यह उम्मीद की जा रही थी जो अब पूरी हुई।उधर नामवर जी का वक्तव्य कि पुरस्कार लौटाना

कोई हल नहीं है। नरेश शांडिल्य नामक लेखक इसे सुहागरात के बाद पत्नी को मायके लौटा देने के

समतुल्य मानते हैं। दरअसल ऐसे बयान इस हिंसक समय में अधिक चिंतित करते हैं।

संदीप कुमार:-

हुत मासूम हैं वो लोग जिनको देश के माहौल में कोई बदलाव नहीं दिख रहा. साहित्यकारों में जो स्वतः

स्फूर्त भावना उभरी है वह भी स्वागत योग्य है. वरना सच कहूँ तो मेरे मन में यह डर भी था कि चूँकि

फलाने ने पहले लौटा दिया इसलिए चिलाने जी नहीं लौटायेंगे. सरकार का डर और घबराहट भरे बयां देख

कर गर्व भी हुआ की जोरे कलम अभी बाकि है. बाकी आपने शांडिल्य जी की खूब याद दिलाई. एक लन्दन

वाले लेखक भी इसी तर्ज पर उदय सर को कूड़ा बता रहे हैं. भगवान दास मोरवाल ने उनका पुरस्कार लौटा

कर नयी राह दिखाई है.

सत्यनारायण:-

उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने कथा यूके लौटाकार सराहनीय क़दम उठाया है...उनका तर्क भी

वाजिब है....

अज्ञात:-

शायद विदेश में बैठे या वहाँ से जुड़े कई लेखकों को बहुत सा अनुदान और फायदे मिल रहे हों क्यूकि ऐसे

लोगों के विरोध की संख्या बहुत ज्यादा है

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-

मेरी एक ही अपेक्षा है। मैं दोहराऊंगा - अपेक्षा। जब लेखक हिम्मत कर रहे हैं तो समूह के साथी कम से कम

स्पष्ट रहें कि वे किसके साथ खड़े हैं। इतनी ईमानदारी तो अपेक्षित है कि आप फेंस के इस पार रहें या उस

पार। ऐसा नहीं कि हाथ आधे खड़े हैं और किसके पक्ष में हाथ पूरा खड़ा करना है स्थिति के अनुसार तय कर

लेंगे। जो तटस्थ हैं वक्त कल उनसे भी मांगेगा हिसाब इतिहास के पन्नों पर लिखा जाएगा उनका भी

अपराध

आशीष मेहता:-

आत्मीय व्यक्तित्व के धनी श्री सत्यनारायण पटेल जी, पिछले कई महीनों से 'पक्षधरता' की अपील कर रहें

हैं । बीती कुछ दुर्घटनायें तब तो घटी भी नही थीं । इससे परे, कई शनिवारीय मुद्दों में जाहिर होता रहा है

कि "चाय के प्याले" से कई जिन्दगीयों में कोई सुकून, कोई तसल्ली नही है। पक्षधरता...... राजनैतिक है,

वैचारिक है, तथा 'और कुछ' भी हो सकती है। पक्षधरता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक हैं, सो वे

किसी भी सरकार (चाहे बहुमत हो य गठब न्धन हो, या भले ही emergency हो) में पनपेंगी । आज के बीज

वक्तव्य का शीर्षक भी इसी के आसपास है। चार दिन पहले एडमिन द्वारा नवाज़े गए पुरस्कार (अति

व्यस्तता ) को आज मंच के सदस्यों ने सजगता से लौटा दिया है (त्वरित एवं झरझर उपस्थिति से एडमिन

प्रसन्न हुए)। साबित किया है कि यह मुद्दा दिल से जुड़ा है और इस पर बहस के लिए किसी न्योते या बीज

वक्तव्य की जरूरत नहीं है। मैं उत्सुक हूँ, यह जानने के इस स्व-स्फूर्त, बगैर किसी रणनीति के बनती हुई

इस 'स्वागत-योग्य एकता' का क्या कोई उद्देश्य है ? 30 तक पहुंची गिनती (और उसमें न शामिल होने

वाले पुरस्कृत साहित्यकारों के लिए समान रूप से सम्मान रखते हुए) के जिम्मेदार संवेदनशील,

प्रगतिशील, समाज के कर्णधार घटक से जानना चाहता हूँ, क्या यह विरोध है? या व्यथा ? मान लीजिए

काशीनाथ सिंह जी बाद, बाकी भी जिन सब से उम्मीदें हैं, वह पूरी हो जाती हैं, फिर क्या ? मान लीजिए

असगर वजाहतजी और विनोद कुमार शुक्लजी और अन्य साथी भी इस सिलसिले का समर्थन करतें हैं,

तब क्या मुद्दा रहता है ? क्या "सुपर 30" में से कोई, कम से कम इस मंच पर, अभिव्यक्ति के खतरे को

उठाने की ज़हमत करेगा ? (एडमिन जिम्मेदारी लें कि हम में से कोई गोली नहीं चलाएगा।) मेरा करबद्ध

निवेदन उस "भावना/ विचार/पक्ष" को जानने का है जिसके चलते, पुरस्कार लौटाने वाले किसी भी

साहित्यकार ने "स्व-विवेक " से यह किया। और यदि स्व-विवेक इस्तेमाल किया, तो इसका उद्देश्य क्या

है? क्या, देश छोड़ने वाले "फिदा", दक्षिण के "अपनी साहित्यिक आत्महत्या घोषित करने" और इस विरोध

प्रक्रिया में कोई समानता है ? 'पुरस्कार लौटाना' सही या गलत ? यह बहस निर्विवाद रुप से सभी चिन्तकों,

विचारकों को 'पक्षधरता' की तरह धकेल रही है। मेरी पावन धरा पर जब शिया-सुन्नी लड़ सकते हैं,

दिगम्बर-श्वेताम्बर ३६ हो सकते हैं । तो इस कर्णधार वर्ग में इस बात पर दो गुट बने, तो क्या हैरानी ?

इसलिए, इस बहस को मीडिया के लिए छोड़ दें। उनके तो बाल बच्चे हैं, PM के नहीं तो क्या ?

सत्यनारायण:-

काशीनाथ जी ने अपना सम्मान लौटाने की घोषणा कर दी है....जिनके पास ऐसे सम्मान नहीं हैं...वे साथी

भी इस निर्णय का सम्मान कर रहे हैं और अपना समर्थन दे रहे हैं....कुछ साथी असगर वजाहत, विनोद

कुमार शुक्ल, अलका सरावगी वाली राह पर हैं....लेकिन वे भी इस कट्टरता, साम्प्रदायिकता और फासिस्ट

नज़रिए का विरोध करते हैं....उन्होंने अपने बयानो में यह स्वीकार किया है.

आशीष मेहता:-

सत्य भाई, एक तर्कशील नाम बता दें, जो दादरी कांड की, या साम्प्रदायिकता की, या कट्टरता की भर्त्सना

या विरोध नहीं कर रहा हो। कौन नही करेगा ? दस में से आठ "मासूम" भी कर देंगे। दादरी उन्माद या

दुर्घटना का विरोध तो ठीक, प्रधानमंत्री की चुप्पी का विरोध ??? वह भी पुरस्कार लौटा कर ? तर्कवादी

विचारधारा के चार से ज्यादा नाम आपके पास भी है, जो विरोध के इस तरीके को ठीक नहीं मानते । इस

विषमकाल (??)(यदि वाकई ऐसा है तो) में महत्वपूर्ण "विरोध" है। फासीवाद का, साम्प्रदायिकता का

विरोध। यहाँ तो विरोध के तरीके पर ही सहमति नहीं हो पा रही और मंसूबे सरकार हिलाने के हैं। 'विरोध के

स्वर' तो तब भी मासूमों के मन में फूटते हैं, जब "राममंदिर" के लिए उच्चतम न्यायालय हथोड़ा ठोकता

है। और तब भी जब एक सजायाफ्ता आतंकी भी अपने जनाजे में हुजूम खींच ले जाता है। मासूम के पास

क्या है लौटाने को ? अपनी जान के अलावा।

संदीप कुमार:-

आशीष जी उदय प्रकाश ने इसकी शुरुआत अपने पुरस्कृत लेखक की हत्या पर साहित्य अकादमी की चुप्पी

के खिलाफ की थी. वैसे भी जब सब तरीके नाकाफी हैं तो समर्पण ही सबसे बड़ा हथियार है. ऐसा न होता तो

सरकार इतनी असहज न होती

संजीव:-

अमानवीयता के खिलाफ आवाज उठाने के किसी भी तरीके के पक्ष में न होने का तो कोई सवाल ही नहीं

उठना चाहिए। इस बात पर बहस अलग से होना चाहिए कि सच्चे साहित्यकार को जो मानवीय गौरव और

गरिमा के पक्ष मे है और एक गुरूतर दायित्व महसूस करता है उसे पुरस्कारों की राजनीति का हिस्सा

बनना भी चाहिए या नहीं। पुरस्कार हमेशा ही सत्ता द्वारा सहमति के साथ दिया जाता है जिसके दूरगामी

निहितार्थ होते हैं। य आज हम सब अपनी ऊर्जा पुरस्कार लौटाने में व्यय कर रहे हैं । होना यह चाहिए था

कि हम सडकों पर होते इस वक्त जो नहीं हो पा रहा है।



आशीष मेहता:-

जी संदीप जी, इस तरह की 'सुचिंतित दृढ़ता'

(http://www.bbc.com/hindi/india/2015/09/150904_uday_prakash_return_sahitya_akademi_dil)

के पीछे के द्वंद्व एवं भविष्य की उम्मीदों की थाह लेने की चाहत है। कई बार मीडिया के मार्फत सही

विचार नहीं सामने आ पाते हैं, सो विनम्र निवेदन किया था कि भले "बहस" न करें।बल्कि, इस मंच पर ऐसी

साहसी शक्सियतों में से कुछ अपने शब्दों में अपने विचार रखें, जिसका उद्देश्य वाद-विवाद, मत भेद से

परे, विचार विमर्श हो। मेरी आज की गुजारिश में भी कुछ दुविधाएं हैं, जो शायद ऐसे मूर्धन्य, साहसी एवं

संवेदनशील व्यक्ति से रूबरू हो, सुलझ जाती। मैं (गैर-साहित्यिक पृष्ठभूमि से) और मेरे जैसे कई लोग

'सड़क पर आन्दोलन' करने की प्रेरणा ले पाते, शायद। खैर... पुरस्कार लौटाने में पता नहीं कितनी ऊर्जा

व्यय हो रही है, और इसका प्रतिफल क्या होगा। पर "पुरस्कार लौटाने की बातों" पर निस्संदेह ऊर्जा नष्ट हो

रही है, देशव्यापी स्तर पर।

संजीव:-

हमें याद रखना चाहिये कि जब सार्त्र को नोबल पुरस्कार की घोषणा हूई तो अपने वक्तव्य मैं उन्होंने क्या

कहा था और क्यों कहा था। पुरस्कार उनके लिए सडे हुए आलू के बोरे के समान हैं। यह महत्वपूर्ण बात है

कि उन्होंने पुरस्कारों के पीछे के मंसूबों का भान था। नोबल पुरस्कार किसी तानाशाह के द्वारा नहीं दिया

जा रहा था। लेकिन वे यह जानते थे कि पुरस्कार उनके लेखन की धार को कुंद कर सकता है।

सत्यनारायण:-

मित्रो पुरस्कार लौटना भर पर्याप्त नहीं है यह बात ठीक है....लेकिन आगे और क्या किया जा सकता

है...संभव है कि इस बात पर विचार हो रहा हो...और आगे हमें देखने को भी मिले...सड़क पर उतरना भी

पर्याप्त नहीं है...लेकिन जितना संभव हो...उतना करने की कोशिश इमानदारी से हो...यही हम चाहते हैं....

मणि मोहन:-

 तरीके पर तो बहस बाद में की जानी चाहिए और होगी भी ।पर इस वक्त तो जरूरत प्रतिरोध की है ..यह

प्रतिरोध जारी रहना चाहिए...जो नही लौटा रहे उन्हें भी इस प्रतिरोध में अपने तरीके से ( जो उन्हें ठीक लगे

) शामिल होकर इस कार्यवाही को सार्थक परिणाम तक पहुंचाने की पहल करनी चाहिए। लेकिन इस

प्रतिरोधात्मक मुहीम में यह ध्यान रखा जाना चाहिए की संयम का ध्यान रखें और अपनी ऊर्जा आपसी

विवाद में नष्ट न करें । साथ ही लेखकों के बीच आपसी फूट भी न पड़े ।

संजीव:-

पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों को इसके पीछे निहित विचारों को स्पष्ट करना चाहिए। उनके विचारों

को सभी माध्यमों पर प्रसारित किया जाना चाहिये।

मणि मोहन:-

माध्यम पर उन्हें कम ही बोलने दिया जा रहा है संजू बाबा ...एंकर ही सत्ता और व्यवस्था की कमान

सम्भाले हुए हैं

संजीव:-

सही कहा मणि भाई पर कुछ तो तरीका खोजना ही होगा उनके विचारों को जनता तक पहुंचाने का।

विरोधियों की बात सुनकर जनता लेखकों को प्रतिक्रियावादी समझ रही है।

टीकम शेखावत:-

विनम्रता के साथ प्रेषित हैं. इस बार के ऑस्कर शायद एक विशेष वर्ग के लेखको के नाम होने वाले हैं.

उनकी उपलब्धी यह होगी की उन्होंने गली मोहल्ले से लेकर साहित्य अकादेमी तक के पुरस्कार लौटा दिए.

जिनकी लेखनी को पुरे भारतवर्ष ने सर आँखों पर उठाया अब वो अपना पुरस्कार लौटा रहे हैं क्योंकि

आजादी के ६८ साल बाद उन्हें अचानक से जागृति हुई हैं. उनकी कलम की आत्मा का खात्मा हो गया हैं

और उनके भीतर का लेखक जाग गया हैं. ( एक कवि की पंक्तिया याद आती हैं - ‘चाल बदल कर आने

वालो , वस्त्र बदल कर जाने वालों’) जागृति भी देखिये भेडचाल के रूप में फ़ैल रही हैं. सभी को सही और

गलत का साक्षात्कार अचानक से हो गया हैं.लगता हैं राम राज आ गया हैं. इस ऐतिहासिक पल को आने

वाले समय में लोग ‘अच्छे दिन’ कहेंगे. क्या यह एक यूटोपिया नहीं हैं? हैरानी तब होती हैं जब साहित्य

अकादेमी को बाद में पता चलता हैं की फला-फला लेखक पुरस्कार लौटा रहा हैं, लेकिन पहले फेसबुक और

व्हाट्स अप पर खबर आ जाती हैं. पत्रकारों को अग्रिम तौर पर पता चल जाता हैं. कई बार लगता हैं इस

तरह का तमाशा एक सोची समझी कोशिश है जो वापिस एक बार पुरस्कृत होने की वाही वाही लेने जैसा हैं.

इस बहाने नई पीढ़ी कई वरिष्ठ लेखकों को पहचानने लगेगी. सब ये कैसे भूल गए साहित्य अकादेमी

व्यक्ति विशेष को नहीं दिया जाता हैं बल्कि यह सम्मान लेखक की लेखनी को मिलता हैं. अगर कोई

लेखक आहत हैं तो शौर शराबा क्यों, अभी क्यों ( क्यों पानसरे साहब और दाभोलकर साहब के समय नहीं

हुआ ये सब). भूल गए, देश दिवाना है आप की कलम पर! अपना दुःख, संवेदनाये व्यक्त करने के लिए

उसका सहारा क्यों नहीं लिया गया ? क्या पुरस्कार लौटाना कलम को धिक्कारने जैसा नहीं है. क्या

आजादी के पिछले ६७ साल में कभी आपकी बिरादरी को नहीं लगा की पुरस्कार लौटाना चाहिए. लेखक की

तो कोई जात , धर्म व समाज नहीं होता तो फिर यह अभियान ‘मुंबई बम धमाके’ या ‘निर्भया’ के समय

क्यों नहीं हुआ? सिर्फ इसलिए की उस समय जो मरे थे वे सा – अकादेमी पुरस्कृत नहीं थे! यह प्रेम आपकी

जमात तक ही क्यों सिमित हैं? अच्छा होता अगर आप मिलकर दिवंगत कलबुर्गी साहब के विषय को

अपनी लेखनी से आगे लाते. पुलिस, सरकार से बात करते ( पकिस्तान से बातचीत उचित हैं, लेकिन अपने

देशके भीतर बात नहीं की जाती!) कम से कम एक एक माहौल बनाते! शायद वाह वाही नहीं मिलती किन्तु

एक सकारात्मक प्रयास जरूर होता कलमकारों के द्वारा देश के लिए. इस प्रार्थना के साथ काश, कोई तो

पुरस्कार लौटाने वाला मेरे दिए हुए कथन पर अपवाद हो . भवदीय, सत्यनारायण: जब समाज बचेगा, तब

ही साहित्य भी बचेगा _________________ विमल कुमार --------- यह देश के इतिहास में ही नहीं,

संभवतः विश्व के इतिहास की यह पहली घटना है जब इतनी बड़ी संख्या में लेखकों ने अकेडमी पुरस्कार

लौटाएं और पदों से इस्तीफे दिए हैं. मेरी जानकारी में करीब तैतीस लेखकों ने अबतक अकेडमी पुरस्कार

और करीब दस से अधिक लेखकों ने राज्यों की अकेडमी के पुरस्कार लौटाएं हैं. संभव है कि अभी कुछ और

लोग भी लौटाएं. बंगाल के करीब सौ लेखकों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर देश में बढ़ती साम्रदायिकता और

अभिव्यक्ति की आजादी के बढ़ते खतरे पर चिंता जताई है. उधर कोंकणी के लेखकों ने आन्दोलंन करने की

बात कही है. दो ज्ञानपीठ लेखकों केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण तथा व्यास सम्मान से सम्मानित

विश्वनाथ त्रिपाठी तथा दो साहित्याकेद्मी पुरस्कार प्राप्त लेखक काशीनाथ सिंह और अरुणकमल ने भी

पुरस्कार लौटनेवाले लेखकों का समर्थन किया है और इस लडाई में सबको शामिल होने की भी बात की है

लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस लडाई के तत्काल नतीजे निकलेंगे लेकिन मैं विष्णु खरे की तरह इस को

खारिज भी नहीं करता हूँ. ज्ञानेद्रपति ने भी कहा है कि वक़्त आने पर वे भी पुरस्कार लौटा देंगे फ़िलहाल वह

साहित्य अकेडमी को कमजोर नहीं करना चाहते हैं. गिरिराज किशोरे भी यही बात कह रहें हैं लेकिन वो ये

आशंका भी व्यक्त कर रहे है कि अकेडमी को सरकार कब्जे में कर लेगी. यही आशंका काशीनाथ सिंह की

भी है, पर उन्होंने आज अकेडमी पुरस्कार लौटा दिया है. नामवर जी का बयान हौसला अफजाई करनेवाला

नहीं है. लेकिन उन्होंने विरोध के अन्य तरीके अपनाने की बात कही है लेकिन यही बात तो साहित्य

अकेडमी के अध्यक्ष भी कह रहें हैं और सरकार के मंत्री. विनोद कुमार शुक्ल और अलका सरावगी तथा

मृदुला गर्ग पुरस्कार लौटने के पक्ष में नहीं हैं कुछ ऐसी ही बात चंद्रकांत देवताले ने भी कही है पर ये सभी

मोदी सरकार में व्याप्त स्थितियों की आलोचना भी कर रहे हैं अभी तक गोविन्द मिश्र, सुरेन्द्र वर्मा,

रमेशचन्द्र शाह और मंज़ूर एह्तशाम का कोई बयान मुझे देखने को नहीं मिला है. लेकिन मैं उनसभी लोगों

को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ये पुरस्कार लौटाए. उनके प्रति मेरे मन में इज्ज़त बढ़ गयी है यह जानते हुए

कि उनमे से कई लेखक वामपंथी नहीं हैं और वे कलावादी या ढुलमुल स्टैंड लेते रहे हैं लेकिन वे सभी हमारी

लडाई में सभी साथी हैं. जिन लोगों ने पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें मैं किसी नैतिक कठघरे में भी खड़ा नहीं

करता हूँ. महज पुरस्कार लौटना ही विरोध दर्ज करने की कोई कसौटी नहीं रचनाकार के लिए पर मैं अपने

मित्र एवं प्रिय कहानीकार उदयप्रकाश को विशेष धन्यवाद् देता हूँ जिन्होंने ये शुरुआत की. अशोक वाजपेयी

भी धन्यवाद के काबिल हैं जिन्होंने अपनी वाम विरोधियों दृष्टि के बावजूद एक अच्छा कदम उठाया

लेकिन जिन लोगों ने पुरस्कार लौतानेवालों का मजाक उड़ाया है उनकी मैं घोर निंदा करता हूँ. फेसबुक पर

ऐसी कई टिप्पणियां मैंने देखी हैं जिस से उनलोगों की घटिया मानसिकता का पता चलता है. मैं मोरवाल

को भी बधाई देता हूँ कि उन्होंने इंदु शर्मा कथा सम्मान लौटा कर एक जरूरी काम किया है. इस पूरे प्रसंग

में कुछ तथ्यों को जान लेना जरूरी है क्योंकि बहुत सारे तथ्य अभी मीडिया के सामने आये नहीं हैं. शायद

इसलिए कई लोग गलत बयानी भी कर रहे हैं. कलबुर्गी की हत्या ३१ अगस्त को होती है और साहित्य

अकेडमी की नींद एक महीने बाद टूटती है और उनकी स्मृति में धारवाड़ में शोक सभा ३० सितम्बर को

होती है जबकि उदयप्रकाश ४ सितम्बर को ही अकेडमी पुरस्कार लौटा देते हैं, क्या साहित्य अकेडमी की

संवेदनशीलता ख़त्म हो गयी थी या वह वर्तमान सरकार से इतनी डरती है कि इतनी देर से वो शोकसभा

करती है. आमतौर पर एक मैंने अबतक अकेडमी को एक हफ्ते या दस दिन के भीतर ही शोक सभाएं करते

देखा है और ये तो हत्या से हुई मौत है. अकेडमी को तो और संवेदनशील होना चाहिए था. लेकिन जब १६

सितम्बर को विश्वनाथ त्रिपाठी के नेतृत्व में ११ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष से

मिलकर कलबुर्गी की हत्या पर दिल्ली में शोक सभा की मांग करता है तो अध्यक्ष उनकी मांग को ख़ारिज

कर देते हैं. क्या साहित्य अकेडमी का कोई नियम है कि दिल्ली से बाहर रहनेवाले लेखकों की स्मृति में

शोक सभा दिल्ली में नहीं हो सकती है. लेकिन साहित्य अकेडमी ने दिल्ली से बाहर रहनेवाले लेखकों की

स्मृति में भी सभाएं की है. आखिर अध्यक्ष किस बात से डरे हुए थे. अगर उन्हें भी डर था कि शोक सभा

करने से कलबुर्गी की तरह वे भी सांप्रदायिक ताकतों के शिकार हो जायेंगे तो वे यह आशंका जाहिर करते.

क्या वो इसलिए नहीं करना चाहते थे कि भाजपा सरकार नाराज़ हो जायेगी. वे निर्वाचित अध्यक्ष हैं सरकार

द्वारा नियुक्त तो नहीं कि उनकी नियुक्ति खतरे में पड़जाये. वे साहित्य अकेडमी की स्वायत्ता की बात कह

रहे है लेकिन क्या शोक सभा आयोजित होने से अकेडमी की स्वायत्ता के भंग होने का कोई खतरा उन्हें

नज़र आ रहा था. चलिए हम थोड़ी देर के लिए ये भी मान लेते हैं कि उनसे भूलचूक हो गयी पर वे तो

अकेडमी पुरस्कार लौटाने वालों में से कुछ को आपातकाल का समर्थक बताने लगे ये भी कहने लगे कि

अकेडमी ने लेखक की किताब को भारतीय भाषाओँ में अनुवाद करा कर उसे कीर्ति प्रदान की है. इस से तो

ये भी पता चलता है वह लेखकों का सम्मान करना नहीं जानते .. आखिर लेखक ने तो पुरस्कार पाने के

लिए कोई आवेदन नहीं किया था और न अपनी किताब का अनुवाद करने के लिए कोई अनुरोध किया था

तो फिर उन्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए, फिर उन्होंने यह भी कहा कि लोग पुरस्कार लौटकर राजनीति

कर रहे है लेकिन उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि देश के कोने-कोने से लोग संस्था के राजनीतिकरण

के लिए पुरस्कार नहीं लौटा रहे थे. और वे अख़बार की सुर्ख़ियों के लिए पुरस्कार लौटा रहे थे जैसा कि

नामवर जी ने यूनीवार्ता से बातचीत में यह बात कही. क्या नयनतारा सहगल और कृष्णा सोबती अख़बार

कि सुर्ख़ियों में आने के लिए कदम उठा रही थी, अगर अख़बार में नाम आने के लिए इन लेखकों ने ऐसा

किया तो यशपाल की कहानी ‘अख़बार में नाम’ की याद आना स्वाभाविक है जिसमे एक बच्चा मोटर के

नीचे इसलिए आ जाता है को वो अख़बार में अपना नाम देखना चाहता है. यह सही है कि अंगरेजी के

अख़बार हिन्दी के लेखकों को भाव नहीं देते हैं और उनके जीने मरने की खबर भी नहीं देते हैं. पुरस्कार

लौटनेवाले कई लेखकों के नाम वे नहीं छापते पर मीडिया के लिए यह एक अनहोनी घटना थी शयद

इसलिए उसने कुछ दिन तवज्जो दी लेकिन बाद में मीडिया भी ढीला पड़ गया. और भाजपा के मंत्रियों के

उलटे सीधे बयां छापने लगा जिसमे पुरस्कार लौटानेवलों पर हमले किये गए और ये कहा गया कि लेखकों

ने ये पुरस्कार पहले क्यों नहीं लौटाए तब तो इस तर्क से ये भी कहा जा सकता है कि टैगोर ने जलियांवाला

काण्ड की घटना पर सर की उपाधि क्यों लौटाई उस से पहले क्यों नहीं लौटाई. ये भी तर्क दिया जा सकता है

कि भक्तिकाल के लेखकों ने भी कोई दरबार में विद्रोह क्यों नहीं किया, १८५७ की लडाई में कितने लेखक

आगे आये. अरुण जेटली ने इसे कागजी क्रांति कहा लेकिन उन्हें भी कागजी नेता कहा जा सकता है क्योंकि

वे जमीनी नेता तो नहीं. खुद तो चुनाव नहीं जीत पाते हैं. रविशंकर प्रसाद ने कहा कि आपातकाल में लेखकों

ने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए जबकि उन्हें मालूम है कि रेणु जी ने पद्मश्री लौटाया कई लेखक जेल गए कई

लेखकों ने विरोध में रचनाएँ लिखी जिसमे धर्मवीर भारती और भवानी बाबू शामिल हैं. ८४ के दंगों के विरोध

में खुशवंत सिंह ने पद्मभूषण लौटा दिया था इसके अलावा तीन और लेखको ने भी विरोध में पुरस्कार

लौटाए और यह ख़बरें मीडिया में आयीं लेकिन संस्कृति मंत्री ने तो लेखकों को लिखना बंद करने की बात

की, फिर यह कहा कि ये कानून व्यस्था तो राज्य की जिम्मेदारी है. अगर सबकुछ राज्य की जिम्मेदारी है

तो केंद्र ‘भूमि अधिग्रण’ कानून क्यों बना रहा था. विकास भी राज्य की ही जिम्मेदारी है लेकिन स्मार्ट

सिटी से लेकर सफाई अभियान भी केंद्र चला रहा है. इस पुरे प्रकरण में शशि थरूर भी लेखकों को नसीहत

देने लगे कि पुरस्कार का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन जब अकेडमी खुद कलबुर्गी का सम्मान नहीं

कर रही तो लेखक क्या करें अगर वे पुरस्कार नहीं लौटाते है तो लोग कहते है कि लेखक पुरस्कार से चिपके

हैं अगर वे लौटते हैं तो उसने पुरस्कार का असम्मान किया, फिर यह भी कहा जाता है कि विरोध के और भी

तरिके हैं. अगर लेखक धरना दे तो पुलिस उसे उठा लेती है पकड़ लेती है लाठी से पिटाई करती है आमरण

अनशन करे तो गिरफ्तार कर लेती है, साहित्य अकेडमी के सामने नारेबाजी करे तो यह लेखकों का अशिष्ट

व्यवहार माना जता है. विरोध में कविता कहानी लिखों तो सरकार के कानों पर जू तक नहीं रेंगती. नक्सली

कह कर पुलिस जेल में डाल देती है इसलिए साहित्य अकेडमी को यह बताना चाहिए कि लेखक किस तरह

विरोध प्रकट करे, फिर ये भी तर्क दिया गया कि साहित्य अकेडमी को बचाना जरूरी है लेकिन किसी ने या

नहीं कहा कि संवेदनशीलता को बचाना अधिक जरूरी है. जब देश और समाज ही नहीं बचा तो साहित्य

अकेडमी के बचने से क्या लाभ होगा. कुछ लोगों को अकेडमी से पुरस्कार, यात्रा, सेमीनार आदी की उम्मेदे

हैं कुछ को किताबों के प्रकाशन की उम्मीद है शायद वे इसलिए इसे कमजोर नहीं करना चाहते हैं. मैं भी

चाहता हूँ कि अकेडमी बचे लेकिन इस अकेडमी को अब गंभीर लेखकों की जरूर नहीं है. पिछले दस पंद्रह

सालों में अकेडमी की साख काफी गिरी है. इस पूरे प्रकरण में कई लोगों की कलई भी खुल गयी और पता

चल गया कि उनके क्या दृष्टिकोण हैं. मैं भी यह नहीं मानता हूँ कि पुरस्कार लौटकर लेखकों ने कोई

शहादत दी है पर इन लेखकों ने कम से कम आवाज़ तो बुलंद की. मुझे केकी एन दारूवाला की अध्यक्ष को

लिखी गयी चिठ्ठी अच्छी लगी जिसका आशय यह है कि मैं भ्रष्ट युपीए- दो का प्रशंसक नहीं हूँ पर इस देश

में एम. ऍफ़ हुसैन और तसलीमा नसरीन के संदर्भ में कट्टरपंथी ताकतों के आगे भाजपा और वाम दलों को

झुकते देखा है. दरअसल इस देश को खतरा इन्हीं कट्टरपंथी ताकतों से है और चुनावी राजनीति ने समाज

का जाति और धर्म के आधार पर बुरी तरह ध्रुवीकरण कर दिया है. मोदी सरकार ने इसे और बढ़ने का काम

किया है. लेखकों के प्रतिरोध को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. यह केवल कलबुर्गी की हत्या का

मामला नहीं. पिछले डेढ़ वर्षों में जिस तरह का माहौल बना है वो बहुत घुटन भरा है लेकिन ये कहने का अर्थ

ये नहीं कि कांग्रेस के कार्यकाल में सब कुछ अच्छा था. आज जैसे ही आप भाजपा कि आलोचना करो वे

आपको कांगेसी बता देते है जैसे पहले कांगेस की आलोचना करो तो वे आपको साम्रदायिक और भाजपाई

बता देते थे. मुझे लगता है कि आनेवाले दिन और अंधेरों से भरें होंगे और फासीवाद ताकतें बढेंगी क्योंकि

अब विपक्ष के नाम पर कोई तीसरी ताक़त दिखाई नहीं देती. ऐसे में लेखकों को एकजूट होने की जरूरत है.

बीस तारिख को जलेस-प्रलेस-जसम-प्रेस क्लब -भारतीय महिला प्रेस कोर- दलित लेखक संघ आदि ने एक

सम्मलेन रखा है और २३ को मौन मार्च. बेहतर होगा हम अपने मतभेदों को भुलाकर इस लडाई में शामिल

हो और फेसबुक पर हलकी टिप्पणियां न करें . -----

प्रदीप मिश्र:-

आज़ादी और विवेक के पक्ष में प्रलेस, जलेस, जसम, दलेस और साहित्य-संवाद का साझा बयान और

आगामी कार्यक्रमों की सूचना देश में लगातार बढ़ती हुई हिंसक असहिष्णुता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़

पिछले कुछ समय से जारी लेखकों के प्रतिरोध ने एक ऐतिहासिक रूप ले लिया है. 31 अगस्त को प्रोफेसर

मल्लेशप्पा मादिवलप्पा कलबुर्गी की हत्या के बाद यह प्रतिरोध अनेक रूपों में प्रकट हुआ है. धरने-प्रदर्शन,

विरोध-मार्च और विरोध-सभाएं जारी हैं. इनके अलावा बड़ी संख्या में लेखकों ने साहित्य अकादमी से मिले

अपने पुरस्कार विरोधस्वरूप लौटा दिए हैं. कइयों ने अकादमी की कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दिया है. कुछ ने

विरोध-पत्र लिखे हैं. कई और लेखकों ने वक्तव्य दे कर और दीगर तरीक़ों से इस प्रतिरोध में शिरकत की है.

दिल्ली में 5 सितम्बर को 35 संगठनों की सम्मिलित कार्रवाई के रूप में प्रो. कलबुर्गी को याद करते हुए

जंतर-मंतर पर एक बड़ी प्रतिरोध-सभा हुई थी. इसे ‘विवेक के हक़ में’ / ‘इन डिफेन्स ऑफ़ रैशनैलिटी’ नाम

दिया गया था. आयोजन में भागीदार लेखक-संगठनों – प्रलेस, जलेस, जसम, दलेस और साहित्य-संवाद --

ने उसी सिलसिले को आगे बढाते हुए 16 सितम्बर को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद

तिवारी को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें उनसे यह मांग की गयी थी कि अकादमी प्रो. कलबुर्गी की याद में

दिल्ली में शोक-सभा आयोजित करे. विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान, रेखा

अवस्थी, अली जावेद, संजय जोशी और कर्मशील भारती द्वारा अकादमी के अध्यक्ष से मिल कर किये गए

इस निवेदन का उत्तर बहुत निराशाजनक था. एक स्वायत्त संस्था के पदाधिकारी सत्ता में बैठे लोगों के खौफ़

को इस रूप में व्यक्त करेंगे और शोक-सभा से साफ़ इनकार कर देंगे, यह अप्रत्याशित तो नहीं, पर अत्यंत

दुखद था. अब जबकि अकादमी की इस कायर चुप्पी और केन्द्रीय सत्ता द्वारा हिंसक कट्टरपंथियों को

प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीके से दिए जा रहे प्रोत्साहन के खिलाफ लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने से लेकर त्यागपत्र

और सार्वजनिक बयान देने जैसी कार्रवाइयां लगातार जारी हैं, यह स्पष्ट हो गया है कि लेखक समाज इन

फ़ासीवादी रुझानों के विरोध में एकजुट है. वह उस राजनीतिक वातावरण के ख़िलाफ़ दृढ़ता से अपना मत

प्रकट कर रहा है जिसमें बहुसंख्यावाद के नाम पर न केवल वैचारिक असहमति को, बल्कि जीवनशैली की

विविधता तक को हिंसा के ज़रिये कुचल देने के इरादों और कार्रवाइयों को ‘सामान्य’ मान लिया गया है.

विरोध की स्वतःस्फूर्तता और व्यापकता से साफ़ ज़ाहिर है कि इस विरोध के पीछे निजी उद्देश्य और

साहित्यिक ख़ेमेबाज़ियाँ नहीं हैं, भले ही केन्द्रीय संस्कृति मंत्री ऐसा आभास देने की कोशिश कर रहे हों. इस

विरोध के अखिल भारतीय आवेग को देखते हुए मंत्री का यह आरोप भी हास्यस्पद सिद्ध होता है कि

विरोध करने वाले सभी लेखक एक ही विचारधारा से प्रेरित हैं, कि वे सरकार को अस्थिर करने की साज़िश

में शामिल हैं. सब से दुर्भाग्यपूर्ण है उनका यह कहना कि लेखक लिखना छोड़ दें, फिर देखेंगे. लेखक

लिखना छोड़ दें -- यही तो दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के हत्यारे भी चाहते हैं. केंद्र सरकार इन

हत्याओं की निंदा नहीं करती, लेकिन प्रतिरोध करने वाले लेखकों की निंदा करने में तत्पर है. इससे यह भी

सिद्ध होता है कि मौजूदा राजनीतिक निज़ाम के बारे में लेखकों के संशय निराधार नहीं हैं. ये वही संस्कृति

मंत्री हैं, जिन्होंने दादरी की घटना के बाद हत्यारी भीड़ को चरित्र का प्रमाणपत्र इस आधार पर दिया था कि

उसने हत्या करते हुए शालीनता बरती थी और एक सत्रह साल की लडकी को छुआ तक नहीं था. लम्बे

अंतराल के बाद, स्वयं राष्ट्रपति के हस्तक्षेप करने पर, प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी भी तो उसमें उत्पीड़क और

पीड़ित की शिनाख्त नहीं थी. उसमें सबके लिए शांति के उपदेश के सिवा और कुछ न था. सत्तारूढ़

राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष बिहार के चुनावों के दौरान लगातार बयान दे रहे हैं कि दादरी के तनाव का

असली कारण पुलिस की 'एकतरफ़ा' कार्रवाई है. यह सुनियोजित भीड़ द्वारा की गयी हत्या के लिए मृतक

को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश नहीं तो और क्या है! लेखकों ने बार बार कहा है कि उनका विरोध किसी

एक घटना या एक संस्था या एक पार्टी के प्रति नहीं है. उनका विरोध उस राजनीतिक वातावरण से है

जिसमें लेखकों को, और अल्पसंख्यकों तथा दलितों समेत समाज के सभी कमज़ोर तबकों को, लगातार

धमकियां दी जाती हैं, उन पर हमले किए जाते हैं, उनकी हत्या की जाती है और सत्तातंत्र रहस्यमय चुप्पी

साधे बैठा रहता है. कुछ ही समय पहले तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन को इन्हीं परिस्थितियों में विवश हो

कर अपनी लेखकीय आत्महत्या की घोषणा करनी पड़ी थी. ऐसे में साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त

संस्थाओं की ज़िम्मेदारी है कि वे आगे आयें और नागरिक आज़ादियों के दमन के इस वातावरण के विरुद्ध

पहलक़दमी लें. हम लेखक-संगठन लेखकों के इस विरोध अभियान के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त करते

हैं. हम साहित्य अकादमी से मांग करते हैं कि वह न केवल इस दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण की कठोर निंदा करे,

बल्कि उसे बदलने के लिए देश भर के लेखकों के सहयोग से कुछ ठोस पहलकदमियां भी ले. लेखकों-

संस्कृतिकर्मियों के इस विरोध की एकजुटता को अधिक ठोस शक्ल देने के लिए हमने आनेवाली 20 तारीख

को ‘आज़ादी और विवेक के हक़ में प्रतिरोध-सभा’ करने का फ़ैसला किया है. प्रतिरोध-सभा उस दिन

अपराह्न 3 बजे से प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सभागार में होगी. 23 तारीख को, जिस दिन साहित्य

अकादमी की कार्यकारिणी की बैठक है, हम बड़ी संख्या में श्रीराम सेन्टर, सफ़दर हाशमी मार्ग से रवीन्द्र

भवन तक एक मौन जुलूस निकालेंगे और वहाँ बैठक में शामिल होने आये सदस्यों को अपना ज्ञापन

सौंपेंगे, ताकि अकादमी की कार्यकारिणी मौजूदा सूरते-हाल पर एक न्यायसंगत नज़रिए और प्रस्ताव के

साथ सामने आये. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ) अली जावेद (प्रगतिशील लेखक संघ)

अशोक भौमिक (जन संस्कृति मंच) हीरालाल राजस्थानी (दलित लेखक संघ) अनीता भारती (साहित्य

संवाद)

अरुण देव:-

विमल जी का आलेख समालोचन पर है। कृपया मूल स्रोत का ज़िक्र अवश्य किया करें।

देश में बढती वैचारिक कट्टरता और हिंसक साम्प्रदायिकता के खिलाफ लेखकों का यह अखिल भारतीय

जुटाव ऐतिहासिक है. साहित्य के इतिहास में साझे सरोकारों को लेकर यह एकजुटता भक्ति काल (लगभग

१३५० से १६५० ई.) और स्वाधीनता संग्राम के समय दिखी थी. साहित्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा उसका

आकलन आगे होगा. वरिष्ठ साहित्यकार और ख्यात पत्रकार विमल कुमार ने इस प्रकरण के सभी पहलुओं

पर विस्तार से लिखा है और जो सवाल उठायें गए हैं भरसक उनके उत्तर भी देने की कोशिश की है. इस मुद्दे

पर कहीं भी कुछ लिखने – बोलने और राय बनाने से पहले इस आलेख को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए.

कितने अंधेरों में _____________________________ विमल कुमार

http://samalochan.blogspot.in/2015/10/blog-post_17

सत्यनारायण:

‘जौ तौ प्रेम खेलन का चाव, सिर धर तली गली मेरी आओ।‘ --------- देवेन्द्र पाल -------- जब उदय प्रकाश

ने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था तो शायद ही किसी के दिल में यह बात आई हो लेकिन

किसी सयाने का कहा सच साबित हुआ कि एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा सकती है। कामू के किसी

आखिरी लेखकीय साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि आपने जीवन में कौन से आयाम की सबसे

अधिक उपेक्षा की है तो उनका त्वरित उत्तर था “मेरा वह अंधेरा और अछूता जैविक हिस्सा जो मेरे भीतर

कुंडली मारे बैठा है।“ अपने इस अंधेरे और अछूते जैविक हिस्से को जब साहित्यकार पहचान लेता है तभी

उसके लिए पद-पुरस्कारों के खूँटे से पगहा तुड़ाना आसान हो जाता है। ऐसा ही हुआ है जो पुरस्कारों की

चिन्दियाँ हवा में हर रोज़ उछली जा रही हैं। हवा में उड़ती यह पुरस्कारों की चिन्दियाँ बर्बर सत्ता की आँखों

में काँच की किरचों की तरह चुभ रही हैं। मोदी के कई मंत्रियों की बौखलाहट उनके बेतुके बयानों में साफ

नज़र आ रही है। छोटी ही सही लेकिन प्रतीकात्मक प्रतिकार की यह एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक

सफलता है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है। हम एक ऐतिहासिक दौर से गुज़र रहे हैं या यों कह लें कि एक

ऐतिहासिक परिघटना के गवाह हैं। 47 में फ़सादों के बाद देश के बँटवारे के बाद से लेकर आज तक ऐसा

पहले कभी नहीं हुआ था। बहुत हुआ तो चारदीवारी के अंदर प्रस्ताव पारित किए

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