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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 नवंबर, 2017

मारिन सोरेसक्यू की कविताएं



                 मारिन सोरेसक्यू  ( 1936 - 1996 )

रोमानिया में जन्मे मारिन सोरेसक्यू ने कवि के अलावा नाटक और  निबंध भी लिखे साथ ही  अनुवाद के कार्य में भी संलग्न रहे । दूसरे अन्य यूरोपियन कवियों की तरह जिन्होंने युद्ध के बाद लिखना शुरू किया था , सोरेसक्यू ने भी रूमानी प्रतीकात्मकता के पूर्वाग्रहों से मुक्त होना जरूरी समझा । उनकी कविताओं में एक प्रतीक कथा होती है जो मानवीय यथार्थ तक फैंटेसी और रहस्योक्ति के रास्ते पहुंचती है । उनकी कविताओं में एक अलग तरह के कौतुक और परिहास को भी देखा जा सकता है ।परंतु यह कौतुक और परिहास कवि के लिए एक साधन मात्र है , साध्य नहीं ।अपनी कविताओं में वे मनुष्य और उसकी अस्मिता , उसकी स्वतंत्रता और उसके जीवन संघर्षों से जुड़े प्रश्नों से जूझते दिखाई देते हैं ।
                 
अपनी कविताओं और नाटकों के लिए उन्हें कई  प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान मिले । अपने मुल्क रोमानिया में उनकी लोकप्रियता का अंदाज  इसी बात से लगाया जा सकता है कि श्रोताओं की अपार भीड़ के कारण उनके कविता पाठ स्टेडियम में आयोजित किये जाते थे । अपनी मृत्यु के कुछ पहले ही उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था । तो लीजिये प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ ।



बीमारी
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डॉक्टर , मैं महसूस कर रहा हूँ
कि कुछ घातक घट रहा है
मेरे ज़ेहन के आस - पास
हर एक अंग दुःख रहा है ,
दिन के वक्त सूर्य पीड़ा में है ,
रात को चाँद और सितारे ।

आसमान में
उस बादल के टुकड़े में
मैं महसूस कर रहा हूँ एक टांका
जिस पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया
हर सुबह जागता हूँ
मैं ठंड के अहसास के साथ ।

बेकार ही लीं मैंने तमाम दवाएं
मैंने नफरत की , प्रेम किया , पढ़ना सीखा
और ढ़ेर किताबें पढ़ डालीं
संवाद किया लोगों से , थोड़ा बहुत चिंतन भी ,
मैं सह्रदय रहा और खूबसूरत भी
परन्तु इन में से
कुछ भी काम नहीं आया डॉक्टर !
और ये तमाम साल यूँ ही गुजर गए ,
डर का वाज़िब कारण है मेरे पास
मैं जिस दिन जन्मा
मृत्यु से ग्रस्त हो गया था ।

अवधेश वाजपेई

प्रश्न
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आज क्या ?
सोमवार -
पर था तो सोमवार
पिछले सप्ताह ही ।

मंगलवार ?
परन्तु पिछले पूरे साल था ,
और कुछ नहीं सिर्फ मंगलवार ।

बुधवार ?
जहां तक मुझे याद है
इससे पहले वाली शताब्दी
बुधवार से ही शुरू हुई थी ।

गुरूवार ?
ऐसे ही किसी गुरूवार को
कार्थेज का विनाश हुआ था
ऐसे ही किसी गुरूवार को
आग के हवाले की गई थी अलेक्सेंद्रिया की लायब्रेरी
अब यह मत कहना मुझसे कि तब से अब तक
एक भी दिन नहीं गुजरा ।

शुक्रवार ? शनिवार ?
हाँ मैंने सुना है
इन दिनों के बारे में
कृपा करें - परिकल्पनाएं नहीं ।

शायद रविवार ?
सृष्टि के निर्माण से पहले का समय
रविवार कहलाता था
मुझे याद है ।

अब देखो न
सप्ताह के तमाम दिन हो चुके
हमारे लिए
नया कुछ भी नहीं बचा ।

यह रास्ता
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मन में कुछ विचार करते हुए
हाथों को पीछे बांधे
मैं चलता हूँ रेल की पटरियों के बीचों बीच
एक दम सीधे रास्ते पर

पूरी गति के साथ
ठीक मेरे पीछे
आती है ट्रेन
जिसे कुछ भी नही पता मेरे बारे में

यह ट्रेन
कभी नहीं पहुंच पायेगी मुझ तक
क्योंकि मैं हमेशा थोड़ा आगे रहूंगा
उन चीजों से
जो सोचती नहीं हैं

फिर भी
यदि यह पूरी निर्दयता के साथ
गुजर जाती है मेरे ऊपर से
तब भी
रहेगा कोई न कोई हमेशा
अपने ज़ेहन में ढेर चीज़ें लिए
हाथ पीछे बांधे
इसके आगे चलने को तैयार

मेरे जैसा कोई
हर वक्त
जबकि यह काला दैत्य
भयानक गति से करीब आ रहा है
पर कभी भी
पकड़ नहीं पायेगा मुझे ।

अवधेश वाजपेई


कलाकार
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कितने अद्भुत लचीले हैं ये कलाकार
कितने खूबसूरत ।
अपनी कमीज की मुड़ी आस्तीनों के साथ
हमारे लिए जीते हुए ।

मैंने कहीं नहीं देखा
इतना कलात्मक और परिपूर्ण चुम्बन
नाटक के तीसरे भाग में
जब वे अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे थे ।

बहुरंगी , तेल चुपड़े
सिर पर टोपी लगाये
तमाम तरह के काम करते हुए
वे आते और जाते हैं
जैसा नेपथ्य से उन्हें कहा जाता है
उन शब्दों के साथ
जो फिसलते हैं लाल कालीन की तरह ।

इतनी स्वाभाविक होती है मंच पर उनकी मृत्यु
कि कब्रगाहों में
सबसे भयानक त्रासदी के शिकार
मृतक भी भावुक हो उठते हैं
उनकी कलात्मकता पर ।

और एक हम हैं
काठ के उल्लू की तरह चिपके हुए
अपने एक ही जीवन से
और इस एक को भी जीने का शऊर नहीं
हमारे पास ।

हम , जो सिर्फ बकवास करते हैं
या फिर
शताब्दियों तक खामोश रहते हैं ,
फूहड़ और उबाऊ ...
हमे पता ही नहीं
कि हमारे हाथ
क्या कमाल कर सकते हैं ।

सुबह
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सूर्य ....हम नहाते हैं तुम्हारे झाग से
आसमान के ताक पर
रखा हुआ है
हमारा ज़रूरी साबुन ।

तुम्हारी तरफ फैलाते हैं
हम अपनी बाँहें
और रोशनी के साथ इस तरह रगड़ते हैं
अपना शरीर
कि आनन्द के अतिरेक से दुखना शुरू कर देती हैं हड्डियाँ ,
ओह ! यह आनन्द
सुबहों का इस धरती पर !
जैसे किसी बोर्डिंग स्कूल के स्नानघर में
अपने मुंह में पानी भर कर
बच्चे , एक दूसरे को तर बतर करते हैं ।

हमें अभी तक नहीं मालूम
कि कहाँ ढूंढें
सबसे अच्छे किस्म के तौलिये -
तो फिलहाल सिर्फ एक मृत्यु है
जिससे हम अपने चेहरे पोंछेंगे ।

प्रस्तुति और अनुवाद : मणि मोहन

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