image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 नवंबर, 2017

उमा झुनझुनवाला की कविताएँ



कविताएं



एक

बर्फ़ और ख़ाक


मौन की सलाइयों पे
किसी एक रोज़
बुनी थी तुमने

सन्नाटे की एक स्वेटर

जिसकी गरमाहट में
तुम बर्फ़ हो रहे थे
----और मैं ख़ाक

००


दो

संभावित ख़तरा


जब जब नींद टूटती है
सपने टूट जाते हैं
लेकिन सपनों का टूटना
उतना ख़तरनाक नहीं होता
जितना खो जाना...

मेरे सपने हर नींद पे टूटते हैं
मगर रात ख़त्म होते होते
दिन भर बुन लेती हूँ
फिर कुछ नए नए सपने
टूट कर बिखर जाने के लिए

सुनो मेरे सपनों
टूटना और बुनना चक्र है जीवन का
इसकी सार्थकता भी इसी में है
टूटने पर ही
बुनने का होश रहता है

बस एक गुज़ारिश है तुमसे
तुम कभी खो मत जाना  
आडम्बरों की बड़ी भीड़ है यहाँ
जहाँ कुचल दिए जाने का
एक संभावित ख़तरा बना रहता है हरदम

००



तीन

देह का अदेह होना



देह अदेह हुई
पिघल गई
मिट्टी हो गई
खुशबू बन गई
और समा गई
उसकी रूह में
मेरी रूह बनकर

अब देह उसकी
रूह मेरी है
और देह का अदेह होना
जारी है
लगातार...

००


चार

मुस्कुराहटें


झील किनारे
साँझ सवेरे
मैं और एक सूखा पेड़
और अनवरत अनंत
टहलती शब्दविहीन बातें

सुनो पेड़
जब मैं चली जाऊँगी
किसी एक रोज़
तब भी रहूंगी यहीं
अदेह बन कर

जब कभी तुम
अपनी बाईं ओर देखोगे
मेरे होने की गंध
पिघल कर चुपके से
तुममे व्याप जायेगी

फिर बतियाएंगे
हम वही सारे क़िस्से
शब्दविहीन ज़ुबानो में
और मुस्कुराएंगे
कई कई जन्मो तक
००




पांच


सच वही नहीं होता



सच सिर्फ़ वही कहाँ होता है
---शब्दों में घुलकर जो हमारी कविता में बहता है

कुछ अक्षरों को छू नहीं पाते
कुछ स्पंदित होने से डरते हैं
कुछ जन्मने से पहले मर जाते हैं
कुछ आँखों में जम कर रह जाते हैं
---------सच हमेशा सच जैसा कहाँ होता है

बादल का सच शहरों के रोमांस में नही होता
उसका सच खेत की छाती में दफ़्न होता है
सच हमेशा पेड़ का हरा नही होता
ठूँठ उसका कहीं किसी कोने दमकता रहता है
------------बादल का सच हमेशा पेड़ कहाँ होता है

बहती हवा का सच आज़ाद होना नही होता
जैसे बन्द पिंजरे का स्वर्ग जन्नत नही होता
खुली आँखों मे पोसा गया सपना, सपना नही होता
झूठ का सच प्रायोजित खेल सा होता है
---------रोटी में दिखता चाँद अब चाँद कहाँ होता है

क़त्ल एक हादसा और हादसा साज़िश है
संसद से सड़क तक का ये एक ऐलान है
घोषित भीड़ का सच झूठ नही होता है
वह घोषित द्रोहियों का स्थापित सच होता है
----मरनेवालों का सच इंसान का सच नही होता है
सच सिर्फ़ वही कहाँ होता है
---शब्दों में घुलकर जो हमारी रगों में बहता है

००



छ:

हिज्र

मुबारकां ए चाँद
कि--- तू है
तेरा मुर्शिद है
वस्ल की रात है

फ़िक्र न कर
दरख़्त पे टँगी
मेरी रूह को
हिज्र की आदत है

००



सात

एक नया ब्रह्माण्ड


मैं और तुम
जैसे...
घुलनशील पदार्थ
जैसे अँधेरे में उजाला
और उजाले में अँधेरा
मेरे अन्दर
तुम्हारे अन्दर

मेरी अभिलाषाएँ
जैसे...
मैं बन अँधेरा देखूँ
तुम्हारी उजली रूह
और घुल जाऊँ तुममें
तुम उजली पोशाक बन
बन जाओ मेरा आवरण

उन्नत करें
फिर...
सम्पूर्ण सौन्दर्य की मीमांसा
खाएँ अँधेरा पीएँ उजाला
पा लें शीर्ष परमानंद
और रच दें
एक नया ब्रह्माण्ड

००



आठ

मिलन


मैं क्षितिज के
उस कोण पे खड़ी हूँ
जहाँ अँधेरा और उजाला
दो विपरीत ध्रुवों पे
मौजूद है

अँधेरा और उजाला
दो अलग अलग अस्तित्व हैं
लेकिन इस कोण से
मुझे सब अँधेरे की तरफ़
बढ़ते नज़र आ रहें हैं


अँधेरे में
आकर्षण बहुत है
सारे गुरुत्वाकर्षणों से परे
अंतरिक्ष के उस काले छिद्र
के खिंचाव में सारी अभिलाषाएं
समा जाने को आतुर हैं

समुद्र में घटनाएं घटित हो रही हैं
घटनाएँ बादल बन रही हैं
बादल नम हो रहें हैं
नमी में उजालों के कण
अंतरिक्ष में फ़ैल रहे हैं

क्षितिज के
जिस कोण पे मैं खड़ी हूँ
वहाँ एक छोटी सी चाह
अपनी बड़ी बड़ी आँखों से
उजालों के उन कणों को
सुडुक रही है अपने अन्दर

उन आँखों का गुरुत्वाकर्षण
ज़्यादा मुलायम था जो
मेरे रोमकूपों को भरता गया
अपनी कोमल सिक्त बूंदों से
मेरी रूह को उजाला दे गया

मैंने देखा
क्षितिज के इस कोण पे
चल रहा था जो संघर्ष
अँधेरे और उजाले में
आकाश और समंदर के मिलन ने
उसे एक नीली रेखा में बदल दिया

अब नीला उजाला
नर्म चाहतों के साथ
अँधेरे की आकर्षक धुन पर
लहरों सा नर्तन करते झूम रहे हैं
और चाँद की मीठी रौशनी में
आकाश और समंदर आलिंगनबद्ध हैं

मैं क्षितिज के
इस कोण पे खड़ी
इस अदभुत मिलन की साक्षी
उस नीली रेखा में


घुलती मिलती घटती बढती
अँधेरे उजाले में समाती
उत्सव के महा उत्सव की
प्रतीक्षा में...
पुलक...
अनवरत...

००


नौ

एक आम आदमी का संलाप - २


छद्म शत्रुओं का विनाश कर
अपने रहनुमाओं के आदेश पर
जब आप अपने घरों को लौटेंगे
चाहे वो छोटी सी झोपड़ी हो
या कब्रगाह,
आप मामूली होते हुए भी
वर्तमान और भविष्य के नौजवानों के लिए
एक बेहतरीन मिसाल होंगे

अब तक आप अपने पूर्वजों की शान थे
पीढ़ी दर पीढ़ी उनके कारनामों की
करते आए थे आप चर्चा
अब आपकी औलादें जिंदा गवाह होंगी
आपके कारनामों की
जो आने वाली नस्लों को
आपकी बहादुरी के कारनामे
बड़े फ़क्र के साथ सुनाएँगी

आप सभी जाने और अनजाने लोगो ने
एक नई तारीख़ क़ायम की है आज
आप चाहे नज़र आएँ या न आएँ,
लेकिन आपकी ग़ैर मौजूदगी में भी
आपकी मौजूदगी बरक़रार रहेगी
उन सारे लोगो के लिए
जो आपको रंगीन तस्वीरों में देखेंगे
और आपको अपनी विरासत मानेंगे

आज के बाद
आप सभी घोषित विजेता
अपने मालिक और आकाओं की
चौकस आंखों के नीचे
सूरज की गर्मी में
अपने जिस्म के पसीनों में लथपथ
अपनी रोजमर्रा की रोटी कमाने के लिए
बहादुरी से आगे बढ़ पाएँगे

अपने आकाओं की काबिलियत
और इज्ज़त-ओ-एहतराम का
आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं
आपकी खामियों के बावजूद
वो आपसे प्यार करते हैं
इसलिए वो आपकी कहानियाँ बुनेंगे
और फिर आने वाली नस्लें दाद देगी
आपकी दानिशमंदी और हुनर की

ओ आम आदमी की संतानों
फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं
आपके आकाओं ने आपकी परवाह करते हुए
फ़र्ज़ की परिभाषा को नया रूप दे दिया है
इसलिए पूरा का पूरा तंत्र
आपकी आम से ख़ास की यात्रा को
स्वर्णिम इतिहास में बदलने की तैयारी में है
उद्धहरण चिह्नों में अंकित आपके नाम
विस्मयकारी चिह्नों में नज़र आएँगे

अब आम आदमी के संलाप की आवश्यकता ख़त्म हो गई है
००
अवधेश वाजपेई

दस

दशहरा


उठा धनुष
चढ़ा प्रत्यंचा
कि ठीक तेरे सामने
खड़ा है छद्मरूपी रावण
तेरे पहचानने भर की देर है
नीले रंग से सराबोर
झूठ को शिवत्व बता
मानस को छलने का
हुनर हासिल है इसे
मगर याद रखना
खुली आँखों का अंधापन
रोग नहीं, मूर्खता है

बार बार दोहराने पर
झूठ भी सत्य जान पड़ता है
बाज़ार के विज्ञापनों सा
फिर वह चमचमाने लगता है
सच के सत्यापन की होड़ में
नए नए झूठों का आविष्कार
नवनिर्मित दुनिया का
नया नया आसमान लगता है
मित्रता और शत्रुता का भेद
यकीन को धोखा देने लगता है
शब्दों के जाल में लिपटा सुख
बेबसी को चौंधियाने लगता है

जादूगर है ये स्वयंभू
चिह्नित आकारों को
बार बार बदल, हर बार
नया चोगा पहन
मुस्कुराता है, बातें करता है
हिमायती बन लुटता है
एक अनदेखे शत्रु का
हवाई निर्माण करता है
उससे लड़ने के लिए फिर
उकसाता है, हथियार थमाता है
डिब्बों में आँसुओं का समंदर भर
तालियों का सुख बटोरता है

आँखों पे चढ़ा रखा है
तुमने जो ये पर्दा
वह गाँधी के ऐनक सा नहीं है
ये न्याय के नाम पर
गांधारी के आँखों पे बंधी पट्टी है
जीना चाहते हो अगर
दिन और रात को समझना होगा
इसलिए हे मनुज
उठा धनुष, चढ़ा प्रत्यंचा
अब भी वक़्त है
असत्य पर वार कर
कि दशहरा तभी सार्थक होगा

००
संपर्क:
उमा झुनझुनवाला
लेक गार्डन्स गवर्नमेंट हाउसिंग
४८/४ सुलतान आलम रोड
ब्लाक - X/७
कलकत्ता - ७०० ०३३
९३३१०२८५३१


परिचय: उमा झुनझुनवाला
जन्म - 20 अगस्त 1968, कलकत्ता
शिक्षा - एम.ए (हिंदी) बीएड
नाट्य क्षेत्र में सन १९८४ से सक्रिय
निर्देशन के साथ साथ अभिनय
नाट्य लेखन -
पूर्णांग मौलिक नाटक -
1. रेंगती परछाईयाँ- ऑथर्स प्रेस
2. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी...
एकांकी -
3. राजकुमारी और मेंढक,
4. बुरे बुरे ख़्वाब,
5. शैतान का खेल,
6. हमारे हिस्से की धुप कहाँ है,
7. आग़ अब भी जल रही है,
8. जाने कहाँ मंजिल मिल जाए,
9. शपथ
अनुदित नाटक -
उर्दू से हिंदी -
10. यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा) - राजकमल प्रकाशन
11. आबनूसी ख्याल (एन रशीद खान) राजकमल प्रकाशन
12. लैला मजनू (इस्माइल चुनारा) दृश्यांतर, नई दिल्ली

अंग्रेजी से हिंदी -
13. एक टूटी हुई कुर्सी एवं अन्य नाटक (इस्माइल चुनारा)- ऑथर्स प्रेस (दोपहर, एक टूटी हुई कुर्सी, पत्थर और यतीमखाना)
14. धोखा (राहुल वर्मा)
15. बलकान की औरतें (जुलेस तास्का)

बंगला से हिंदी -
16. मुक्तधारा (टैगोर), (उर्दू में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित / अनुवाद - उमा और अज़हर आलम )
17. गोत्रहीन (रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता),
18. अलका (मनोज मित्र)
रानी लक्ष्मी बाई संग्रहालय, झाँसी के लिए स्क्रिप्टिंग, लाइट, संगीत की परिकल्पना
बंगला डॉक्यूमेंट्री फिल्म का हिंदी में अनुवाद
पत्र-पत्रिकाओं में रंगमंच पर आलेख, कविताएं और कहानी प्रकाशित

निर्देशन -
पूर्णांग नाटक
यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा), अलका (मनोज मित्र), जब आधार नहीं रहते हैं (मोतीलाल केमू), नमक की गुड़िया (अज़हर आलम) आदि

कथा मंच के अंतर्गत लाइसेंस और खुदा की कसम (मंटो), आखरी रात और दुराशा (टैगोर), बड़े भाईसाहब और सद्गति (प्रेमचंद), बदला (अज्ञेय), मवाली (मोहन राकेश), सुइंयों वाली बीबी (इकबाल माजिद), पेशावर एक्सप्रेस और शहज़ादा (कृष्ण चंदर), माता विमाता (भीष्म साहनी), बाजिया तुम क्यों रोती हो, इश्क़ पर ज़ोर नहीं (मुज़फ़्फ़र हनफ़ी),  फाइल (मधु काकडिया),एक माँ धरती सी, रश्मिरथी माँ व एक अचंभा प्रेम (कुसुम खेमानी), एक सपने की मौत (शैलेंद्र), रिहाई (सईद प्रेमी), पॉलीथिन की दीवार (अनीस रफ़ी), दोपहर, पत्थर (इस्माइल चुनारा), एक वृश्चिक की डायरी (शिव झुनझुनवाला) एवं अन्य कहानियाँ l
बाल रंगमंच के अंतर्गत - शैतान का खेल, मेरे हिस्से की धुप कहाँ है, ओलोकुन, राजकुमारी और मेंढक, शपथ, बुरे बुरे ख़्वाब एवं अन्य
45 से ज़्यादा नाटकों में अभिनय :-
बलकान की औरतें , धोखा, रेंगती परछाइयाँ, अलका, गैंडा, पतझड़, सवालिया निशान, यादों के बुझे हुए सवेरे, शुतुरमुर्ग़, कांच के खिलौने , लोहार , नमक की गुड़िया, सुलगते चिनार, महाकाल आदि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें