image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 नवंबर, 2017

पड़ताल: गर्माहट से बर्फ करतीं कविताएं

नवनीत शर्मा


नवनीत शर्मा
उमा जी की कविताएं पढ़ता रहा। कभी मैं तस्सवुफ यानी अध्यात्म की नदी में नहाया... कभी प्रेम की सघन बूंदों ने मेरे पाठक के बाल सँवारे, कभी मेरा दिल किया कि मैं एक पेड़ के पास जाकर खड़ा हो जाऊं और उसे उसे कहूँ, 'मुझे अपनी आगोश में ले लो।' पहली कविता है, 'बर्फ आैर खा़क।' यहीं से एक सघन यात्रा शुरू हुई और काफी आगे तक गई। सिलाइयां जब मौन की हों तो सन्‍नाटे की ही स्‍वेटर बननी थी लेकिन उसकी गरमाहट में कोई बर्फ हो रहा था और कोई खा़क़। वाह..। प्रेम की इस सघन अनुभूति को इतने संक्षेप में कहने के लिए आभार। यहीं मुझे बशीर बद्र का शे'र याद आया,

वो जाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
जो दूसरा उसे पहने तो दूसरा ही लगे

लेकिन उमा जी कविता में स्वेटर और उसके संदर्भ और हैं, कहीं अधिक फलित हैं। यहां गरमाहट में भी बर्फ होने की विडंबना है। यहीं आकर कविता हमें अलग रूप में मिलती है।

दूसरी कविता ने मुझे तत्‍काल पाश के पास ले जा पटका..सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना। यह उर्दू शब्‍दावली के मुताबिक चरबा नहीं है। चरबा यानी चोरी। महफूम कहीं भी किसी से भी मिल सकते हैं। और इस कविता की बनावट और बुनावट दोनों अलग हैं। यहां बात सपनों के गायब हो जाने के खतरे से आगाह कर रही है। एक अंग्रेजी कहावत याद आती है, who dream the most do the most... खूबी यह भी है कि इस कविता के साथ भले ही कविता में ट्रीटमेंट अलग है और कहन भी अपनी है लेकिन ऐसा लगा कि इतनी नफीस और सूक्ष्‍म बात कहने वाली कविता आडंबर जैसे घोर गद्यात्‍मक और कविता की गति को मंथर करने वाले शब्‍द के मोहपाश में क्‍यों फंस गई।

उमा झुनझुनवाला
चौथी कविता ने मुझे गहरे तक उदास कर दिया। बहुत खूब। ऐसी गरिमामयी पीड़ा कि घुट घुट कर रोने को जी किया। थॉमस हार्डी का निराशावाद में भी आशावाद और रॉबर्ट ब्राउनिंग का अपनी प्रेमिका की कब्र पर फूल रख कर यह कहना कि यह तुम्‍हें मेरी याद अगले जन्‍म में भी दिलाएगा....यानी आशावाद में भी एक निराशा। यह कविता इन दोनों स्थितियों के बीच कहीं यह कविता हमें ला पटकती है। उदास भी करती है और ढाढस भी बंधाती है। यहां लुटपिट कर भी पिफर से होने की जो उम्‍मीद है, वह अवसाद और संतोष के बीच कहीं खड़ा करती है। कल से इस कविता को पढ़ कर सुबह ग्रीन बनाते हुए गुनगुा रहा था...

रहें न रहें हम, महका करेंगे...

अरे !!!!! तुफैल चुतर्वेदी का एक शे'र भी याद आया :

अपनी तस्‍वीर तो दे जा एे बिछड़ने वाले
डूबते शख्‍़स से तिनका नहीं छीना करते।

इस कविता पर निशब्‍द हूं। पांचवीं कविता भी ग़ज़ब है। अन्‍य कविताओं की अपेक्षा यह अधिक मुखर है लेकिन इस मुखरता में भी जो शालीनता है, वही उमा झुनझुनवाला होना है शायद। प्रवीन शाकिर की याद किसी टिप्‍पणी में की गई है। हिज्र कविता को पढ़ते हुए वाक़ई याद आईं मुझे भी मेरी पंसदीदा शायरा। और....दरख्‍़त पे टंगी मेरी रूह को हिज्र की आदत है...सच कहूं तो लुट गया मैं।

महावीर वर्मा

एक नया ब्रह्माण्ड में अंधेरे और उजाले के संदर्भ बहुत शिद्दत के साथ आए हैं। तीरगी और राेशनी पर बहुत शायरों ने लिखा है, कवियों ने भी। ये दोनों बिंब बहुत प्रयोग हुए हैं। कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्‍मा छूट जाने के अज्ञेय के भय की कट अभी तक तो निकली नहीं है लेकिन इस कविता में भी बात बिलकुल नई आई है। बहुत बार उजाला चौंधिया देता है लेकिन अंधेरा सुकून देता है, अपने पार झांकने की अनुमति देना उजाले के वश का नहीं है। इस कविता के कई अर्थ हैं। एक बड़ा सीधा सा अर्थ है विसंगतियों के साथ लेकर चलने की कुव्‍वत। इसके और पाठ आवश्‍यक हैं।


उन्नत करें
फिर...
सम्पूर्ण सौन्दर्य की मीमांसा
खाएँ अँधेरा पीएँ उजाला
पा लें शीर्ष परमानंद
और रच दें
एक नया ब्रह्माण्ड


उमा झुनझुनवाला जी रंगमंच से जुड़ी हैं....इन कविताओं में मुझे वे इफेक्‍ट भी दिखे हैं। टू द पाइंट बात और वही कहना जो कहने को है। वही कह सकना, जो कहना हो, बड़ी बात है। वरना बहुत लोग बाय प्रॉडक्‍ट से खुश हो जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा होता है, एक शे'र आमद का लग गया... बाकी ग़ज़ल पूरी करने के लिए कसरत। लेकिन इन कविताओं की खूबी यही है कि ये वही कहती हैं जो यह कहने वाली थीं। ये कविताएं रहेंगी और बाखूबी रहेंगी।


जब कभी तुम
अपनी बाईं ओर देखोगे
मेरे होने की गंध
पिघल कर चुपके से
तुममे व्याप जायेगी

फिर बतियाएंगे
हम वही सारे क़िस्से
शब्दविहीन ज़ुबानो में
और मुस्कुराएंगे
कई कई जन्मो तक
००
उमा झुनझुनवाला की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़ी जा सकती है - https://bizooka2009.blogspot.in/2017/11/blog-post_52.html?m=1

नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं। दैनिक जागरण में वरिष्‍ठ समाचार संपादक के पद पर कार्यरत। एक कविता संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' 2016 में प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह शीघ्र प्रकाश्‍य। एक पुस्‍तक ' साग़र पालमपुरी - व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व। ग़ज़लें रेख्‍ता पर उपलब्‍ध। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. हार्दिक आभार आपका।
    सादर
    नवनीत

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नवनीत जी
      अनुग्रहित हुई । आपकी यह समीक्षा मेरे लिए अमूल्य निधु है। हृदय से आभार आपका।
      सादर
      उमा झुनझुनवाला

      हटाएं