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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 फ़रवरी, 2019

सुमन शर्मा की कविताएं





सुमन शर्मा



       
"तुम्हारी कविता बनना चाहती हूँ!"

क्यों छुपाते हो मुझसे
कि तुम ही उलझे से हो
डरते हो तुम-
जलने से
डूबने से
इसीलिए तो
बंदिशें लगाते हो
मेरी आँखों की मस्तियों पे
तो कभी रोकते हो
मुझे पास आने से
क्योंकि तुम्हे एहसास होता है
कि तुम पिघलने लगते हो
मेरी आंच से,
तुम डरते हो
अपना अस्तित्व खोने से
लेकिन मैं तो सिर्फ
तुम्हारी कविता बनना चाहती हूँ
बनके तुम्हारे एहसास-ए-लफ्ज़
वर्क-ए-ज़ीस्त पे
बस बिखर जाना चाहती हूँ ।






"सुधियों से सुवासित"

चाँद का आइना
देख-देख सज उठी
रोम-रोम है सुवासित
तेरी ही सुधियों से।

तारों टँका बिछौना
चाँदनी की चादर
उनींदी अँखियाँ
राह तकें तुम्हारी।

महके महके गुजर रहेे
तेरे ही ख्यालों से
चुपके-चुपके सेे
लम्हे अनजाने से

अँखियाँ पथराने से
साँसों के थमने से
विरह की अग्नि में
जल मिटने से पहले

छू लेना एक बार
अपना लेना एक बार
देखो दबी है अभी
चिंगारी एहसास की

कि जाने कब से सुलग रहे
मन में घुमड़ रहे
तेरे मिलन को
प्यासे मेरे जज़्बात!!











"सुनो  जाना...."

सुनो जाना!
जब तुम चुप रहते हो
सांसों की सरसराहट से
हृदय के स्पंदन  तक
कोई स्वर नही होता।
थम जाती है
धरती की गति
ऋतुएँ नही बदलतीं
और सम्पूर्ण सृष्टि में
रह जाती है केवल
स्थाई नीरवता
पूरी कायनात हो जाती है
 नि: शब्द!




   
"आदत"

एक आदत के तहत
देखती रहती हूँ तुम्हे
अपना आईना समझकर
हर पल पत्येक परिस्थिति में
खुद को तरासने की खातिर
तलासने के लिए
वजूद अपना
और.....
प्रीत के अथाह सागर से
अपनी प्यास के लिए
बस एक बूँद पाने को
जो नज़र आता है मुझे
तुम्हारी शफ़ाक आँखों में।

मेरा रातरानी सा रंग
जर्द हो गया है
खुद का पता ही नही मिल रहा
प्यास में डूबी आकण्ठ
दम घुट रहा है मेरा
कई दिनों से
नहीं देखा है मैंने तुम्हें
सुनो!मेरा आइना हो तुम
जिसे देख के निखर-निखर
संवर-संवर जाती हूँ मैं।।





"वादा"

समय का प्रत्येक क्षण
अपने बोझिल कदमों से
ऐसे चल रहा  जैसे
हर एक लम्हें ने
वादा किया हैे
सदा वही पर
तुम्हारे इंतज़ार का
जहाँ से तुमने मुझे
छोड़ा था जीने के लिए
एक एक सांस को
अपने नाम करने के बाद...

देखो न!उसी पल से
मेरा वक़्त ठहरा हुआ है
तुमसे किया कोई भी वादा
मैंने कब तोड़ा है?





"मुझमें ही कहीं.."

अमावस की अँधेरी रात में
बिखर जाती है चांदनी
तुम्हारे होने का एहसास
पूनम के चाँद की तरह
खिलता है जब
सुधियों के आँगन में।

मेरी सांसो में घुल जाती है
भीनी-भीनी संदली सुंगन्ध
जब तुमसे गुजरती हवा
छू जाती है मुझे
रोम-रोम पुलकित हो जाता
तुम्हारी मधुरिम धूप से।

मेरी तन्हाई का बियाबां जंगल
महक उठता है नन्दनवन सा
खिल जाते हैं अधरों पर
फूल मुस्कराहटों के
बिखर जाते हैं जब हरसू
तुम्हारी यादों के जुगनू

कि तुम पास न होकर भी मुझमें ही कहीं हो...





"मुझे प्रेम है.."

मुझे प्रेम है
तुम्हारी ख़ामोशी से
उन तमाम अनकही बातों से
जिन्हें बिन सुने ही
स्वीकार कर लिया है मैंने
अटूट वादे की तरह।

तुम्हारी ख़ामोशी
चुभती नही अब
सुकून देती है संगीत की तरह
सुर की तरह पिरो लिया है तुम्हे
सांसों की डोर से
और गुनगुनाती रहती हूँ।

तुम्हारी ख़ामोशी
गुंजित है अब
जीवन के हर क्षण में
अनहद नाद की तरह
व्यप्त हो गई है
मेरे हृदय के कण-कण में।









"दे दो मुझे"

 देखी थी आज
उतरते हुए
एक दर्द की कश्ती
तुम्हारे आँखों के समंदर में!

छलक उठी थी लहरें
टकरा के किनारों से
और भिगों गईं
तुम्हारे लिए छुपे
मेरे अंतर्मन में
सभी संवेदनाओं को!

जो रिसने लगीं हैं
आँखों से अब
आँसुओं के शक्ल में
भेद के भावनाओं का बंध!

दे दो मुझे अपने दर्दे हयात सभी
तुमसे मेरी हिस्सेदारी जो ठहरी...!!





"कभी-कभी"

कभी- कभी बहुत गहरे तक
चुभ जाती हैं तुम्हारी बातें
सहज-सरल सी बातें
विष बुझी बाण बन
बेध जाती हैं मेरा अंतर्मन

नही समझ पाती
उस वक़्त उन बातों का अभिप्राय
तुम्हारी सरलता या
मेरे रिसते घावों को
और कुरेदना
जिनके ऊपर
दिखावे की एक परत सी है

लेकिन अंदर से है उतना ही हरा
जितना कि जब ज़ख़्मी हुई थी
अप्रत्याशित ही
सम्भावनाओं से परे...

बहुत भोले हो
जानती हूँ
ये भी नहीं समझते
कि बेखयाली में कहीं तुम्हारी बातें
कल्पना के ठहरे पानी में
कंकड़ों की भाँति सच की तरंगे बना के
मेरी स्वार्गिक दुनिया की परिकल्पना को
एक क्षण में ही
नेस्तनाबूत कर देती हैं....




"क्या दूँ तुम्हें...?"

देना तो बहुत कुछ चाहती हूँ!
नीला आकाश
बसंती बयार
नदियों की कलकल
विस्तृत समन्दर
पहाड़ों की चोटियाँ
उस पर से फिसलती
बर्फ़ीली सर्दियाँ!

सूरज की किरणों की स्वर्णिम आभा
पूनम का चाँद
और पूरी आकाशगंगा
तारों से पूर्ण व्योम
और सारा ब्रह्मांड!

लेकिन मेरे पास तो कुछ भी नहीं!
रीते हाथ
सूखे सपने
मुरझाईं उम्मीदें
आँसूओं का सैलाब
आहों का अवसाद
बीते जीवन की कड़वाहट
और दर्द हज़ार!

ये कैसे दे दूँ तुम्हें?
तुम्हें एक एहसास दे रही हूँ!
जो है सिर्फ मेरा
तुम्हें अपना प्रेम दे रही हूँ
जिस पर अधिकार है सिर्फ तुम्हारा!
मेरा हृदय दे रही हूँ
जिस पर बन्धन नहीं किसी का!

अपनी सारी दुआएँ
तुम्हारे नाम कर रही हूँ!
तुम सूरज की तरह चमको!
चाँद की तरह उज्जवल हो
जीवन का प्रत्येक क्षण!

अपने उम्र का
हर पल दे रही हूँ
तुम जियो युग-युगांतर!
तुम सबके मन में अमर रहो
और प्रेम मेरा यूँ ही हो
मन में तुम्हारे
जन्म-जन्मांतर....!!
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सुमन शर्मा की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए

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