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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 अप्रैल, 2020

मौत से दो दो हाथ


रेणु की कहानी पहलवान की ढोलक



मृत्युंजय पाण्डेय


           हिन्दी जगत इस बात से परिचित है कि रेणु का क्षेत्र बाढ़, अकाल, सूखा, मलेरिया, हैजा आदि प्रकोपों से हमेशा प्रभावित रहा। इसको लेकर रेणु हमेशा चिन्तित रहे। इन समस्याओं को वे अपनी रचनाओं में उठाते रहे। उसे भोगते रहे। उससे लड़ते रहे। घोर अंधकार और निराशा के बीच वे उम्मीद का दीप जलाते रहे। अपने अंचल के लोगों के रंगहीन और रसहीन जीवन में वे रंग और रस घोलते रहे। उनकी उदास आँखों में सुनहले सपने बोते रहे। मलेरिया और हैजा से प्रकोपित व्यक्ति न तो हँसता है और न ही मुस्कुराता है। उसके मन और चेहरे पर हमेशा एक आतंक की छाया मंडराती रहती है। इस आतंक को रेणु ने देखा भी था और झेला भी था। रेणु अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहते हैं— “हर साल हमारे एक दर्जन साथी, हमजोली हमसे बिछुड़ जाते... हमारे साथ पढ़ने वाले, साथ खेलने वाले। और, हर साल क्या, अगले महीने या दूसरे ही दिन अथवा—घड़ी में घड़ा फूट जा सकता है। हमने मैलेग्नेड-मलेरिया से मरते हुए लोगों को देखा था—डेढ़ घण्टे में ही मृत्यु।” रेणु काल को हराकर साहित्य की दुनिया में आए थे। वे मलेरिया को बुखार नहीं पिशाच मानते थे। पाँच मुँहवाला, विकराल पिशाच—अट्टहास करता हुआ, चारों ओर अस्थिपंजर, मुंड और हड्डियों के ढेर बिखरे हुए। ऐसा कहा जाता है कि पूर्णिया अंचल के कौये भी इस पिशाच से नहीं बच पाते थे। अर्थात् उन्हें भी मलेरिया होता था।
     
मलेरिया से संबन्धित अपने अनुभवों को बताते हुए रेणु लिखते हैं— “मलेरिया की मुझपर विशेष कृपा थी। हर साल, हर किस्म के ज्वर-ताप में यह काया तपती थी। मलेरिया के किस्म? जाड़ा देकर आनेवाला- जडैया। एक दिन बाद देकर आनेवाला-एकैया। दो दिन बाद देकर चढ़ने वाला—तीहिया। और तुरत-फुरत प्राण-पखेरू को झपट्टा मारकर उड़ जानेवाला—बाई जडैया। अर्थात्, ‘पार्निसस-मलेरिया’—बुखार के साथ पेट चलना शुरू होता है। हैजा के सारे लक्षण प्रकट होते और एक-दो घण्टे में पहलवान-पट्ठा आदमी चल बसता।” पूर्णिया में आसिन-कातिक के महीने में हर साल मलेरिया महामारी का रूप धारण करती थी। इस प्रकोप का असर फसलों पर भी पड़ता था। इतनी संख्या में लोग मर जाते कि फसल की कटाई और बोआई के लिए मजदूर नहीं मिल पाते थे। कहीं आदमी सूखकर गिरता था तो कहीं फसल।
     
रेणु के मैला आँचल उपन्यास में मलेरिया और काला-आजार को एक प्रमुख समस्या के रूप में दिखाया गया है। इसी के उन्मूलन के लिए वे डॉ प्रशांत को पटना से मेरीगंज गाँव लाते हैं। उपन्यास में रेणु ने दिखाया है कि 1946 में कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन के बाद सरकार डॉ प्रशांत को विदेश भेजना चाहती है, लेकिन वह पूर्णिया के किसी गाँव में रहकर मलेरिया और काला-आजार पर रिसर्च करना चाहता है। हेल्थ मिनिस्टर के सामने पूर्णिया और सहरसा के नक्शे को फैलते हुए वह कहता है— “मैं इसी नक्शे के किसी हिस्से में रहना चाहता हूँ। यह देखिए, यह है सहरसा का वह हिस्सा, जहाँ हर साल कोशी का तांडव नृत्य होता है। और यह पूर्णिया का पूर्वी अंचल जहाँ मलेरिया और काला-आजार हर साल मृत्यु की बाढ़ ले आती है।” एक है पानी की बाढ़ और एक है मृत्यु की बाढ़। इन दोनों बाढ़ों को रेणु रोकना चाहते हैं। प्रशांत एम. बी. बी. एस. होकर भी अपने रिसर्च के लिए मलेरिया सेन्टर को चुनता है। डॉ प्रशांत के इस फैसले पर उसके सहपाठी डॉक्टर उसे बेवकूफ और न जाने क्या-क्या कहते हैं। उसके इस फैसले को भावुकता के रूप में देखते हैं। थोड़ी देर के लिए यहाँ रेणु को याद कीजिए। मैला आँचल और परती : परिकथा लिखने के बाद उन्हें भी बेवकूफ और न जाने क्या-क्या कहा गया। एक तरह से रेणु का साहित्य एक रिसर्च ही है। रेणु कुछ ऐसे तथ्यों का उद्घाटन करते हैं, जिससे दुनिया अनभिज्ञ थी। उन्होंने पूर्णिया और सहरसा के जीवन पर एक नयी रोशनी डाली है।
     
1945 में प्रकाशित रेणु की कहानी प्राणों में घुले हुए रंग का नायक भी डॉ प्रशांत की तरह एम. बी. बी. एस. होने के बावजूद अपनी पूरी जिन्दगी गाँव में गुजार देता है। अपने गाँव में ही वह मातृ-औषधालय खोलकर मलेरिया और हैजा से मरते हुए व्यक्तियों को मौत के मुँह से बचा लाने का प्रयास करता है। जिस तरह डॉ प्रशांत गाँववालों और संथालियों के बीच कोई भेद-भाव नहीं करता, उसी तरह इस कहानी का नायक भी गाँववाले और खानाबदोश मगहिया-डोमों के बीच कोई भेद नहीं मानता। उन दोनों के लिए रोगी महत्त्वपूर्ण हैं, जाति या व्यक्ति नहीं। लेकिन विडम्बना देखिए, ‘मैला आँचल के संथाली और इस कहानी का मगहिया डोम दोनों ही जमींदार साहब और गाँव के प्रतिष्ठित लोगों के शिकार होते हैं। रेणु अपने डॉक्टर से जो काम 1945 में नहीं करवा पाते हैं, वह डॉ प्रशांत से मैला आँचल में करवाते हैं। रेणु की एक अन्य कहानी इतिहास, मजहब और आदमी (नवम्बर, 1947) में भी हम देखते हैं कि मनमोहन बहुत लिखा-पढ़ी करके तथा अपनी माँ से लड़कर गाँव में मेडिकल कैंप लाता है। उसके आसपास के गाँवों में ज़ोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था। लोग भूख और रोग दो युद्धों से लड़ रहे थे। प्रत्येक गाँव से रोज आठ-दस लाशें उठ जाती थीं। वह डॉक्टरों के साथ सुबह से शाम तक गाँव-गाँव घूमकर दवाइयाँ और भोजन बाँटता रहता है। आजादी से पहले तक रेणु की रचनाओं की मुख्य समस्या बाढ़, मलेरिया और हैजा ही है। इस महामारी से मरते हुए प्राणियों को बचाने के लिए वे बार-बार डॉक्टर को, किसी-न-किसी रूप में गाँव लाते हैं। उनका यह सपना मैला आँचल में भी दिखता है। मैला आँचल उपन्यास 1954 में प्रकाशित होता है, लेकिन रेणु इसके लेखन कार्य में बहुत पहले से ही जुट गए थे। अपने प्रिय मित्र गोपीकृष्ण प्रसाद से मैला आँचल लिखने की चर्चा रेणु एक पत्र में करते हैं— “समय मिलते ही कुछ लिखने बैठ जाता हूँ, बड़ी चीज के कैनवास पर रेखाएँ खींच रहा हूँ—रंग घोल रहा हूँ...गोपी जी सच कहता हूँ—डर लगता है। इतनी बड़ी चीज संभाल सकूँगा या नहीं, मैं देखता हूँ कि सबकुछ मेरे इसी संसार में समा जाना चाहता है। गाँव की कोई भी चीज छूट न जाए...” पहलवान की ढोलक’, ‘प्राणों में घुले हुए रंग तथा इतिहास, मजहब और आदमी आदि कहानियाँ इस बात के प्रमाण हैं कि रेणु मैला आँचलकी तैयारी में बहुत पहले से जुट गए थे। यदि यह कहा जाए कि उनकी कई कहानियों में उनके उपन्यासों के सन्दर्भ दिखाई देते हैं तो कुछ गलत न होगा। एक बात का विशेष ध्यान दें— उनकी कहानियों में उपन्यास के सन्दर्भ दिखाई देते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि “उपन्यास लिखने की तैयारी के लिए उन्होंने कहानियाँ लिखी हैं, यह कहना उचित न होगा।” कहना तो छोड़िए ऐसा सोचना भी गलत होगा। रेणु जीतने बड़े उपन्यासकार हैं उतने ही अच्छे कहानीकार भी हैं। प्रेमचन्द के बाद वे हिन्दी के इकलौते ऐसे कहानीकार है, जिनके पास सर्वाधिक संख्या में एक से एक अच्छी कहानियाँ उपलब्ध हैं।
     
पहलवान की ढोलक कहानी पहली बार साप्ताहिक विश्वामित्र में 11 दिसम्बर, 1945 को प्रकाशित हुई थी। पहलवान की ढोलक कहानी के केन्द्र में है तो हैजा, लेकिन उसकी जड़ में 1943 का भीषण अकाल है। पहले सूखा पड़ा, फिर अनाज की कमी हुई, उसके बाद मलेरिया और फिर फैज़ा का प्रकोप बढ़ा। लगातार इन सारी चीजों ने मनुष्य को तोड़कर रख दिया। सन् 1943-44 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में भयानक अकाल पड़ा था। जिसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जानें गवाई थीं। यह अकारण नहीं है कि कहानी के इस प्रसंग को पढ़ते हुए देश की राजधानी से गाँव की ओर लौटते और भूख से दम तोड़ते हुए सैकड़ों-हजारों मजदूर-किसान याद आ रहे हैं। आज कोरोना महामारी के समय में भी लोग भूख से दम तोड़ रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे, जवान और बूढ़े मौत से लड़ रहे हैं। न तो ब्रिटिश-काल में अनाज की कमी थी और न ही आज है। पर उस समय भी गरीब लोग मरे थे और आज भी मर रहे हैं। उस समय भी लाखों भारतियों को जानबूझ कर मरने दिया गया और आज भी सब जानते हुए सैकड़ों मजदूरों को सड़कों पर भूखे मरने के लिए छोड़ दिया गया है। जमाखोरी उस समय भी हुई थी और आज भी हो रही है। उस वक्त भी कुछ लोग अपने घरों में बैठे जश्न मना रहे थे और आज भी कुछ लोग दारू-मुर्गा खाकर उनकी भूख पर लेक्चर दे रहे हैं। रेणु की यह कहानी 1944 में जितनी प्रासंगिक थी, उतनी आज भी है। कोरोना ने इसकी प्रासंगिकता को और बढ़ा दिया है। कोरोना ही क्यों! जब-जब भूख और महामारी से मनुष्य दम तोड़ेगा, तब-तब रेणु की यह कहानी हमारे सामने आकर खड़ी हो जाएगी।
     
कहानी में प्रवेश करने से पूर्व रेणु उस भयावह दृश्य को उपस्थित करते हैं, जिसे पढ़कर मन हिल जाता है। जाड़े का दिन। अमावस्या की ठंडी और काली रात में हैजे से पीड़ित गाँव भयभीत शिशु की तरह थर-थर कांप रहा है। पूरे गाँव में अंधकार और सन्नाटा पसरा हुआ है। कहीं कोई गति नहीं। कोई हलचल नहीं। कोई जीवन नहीं। मानो उन मनुष्यों के गाँव में अँधेरा और सन्नाटे का ही साम्राज्य हो। रेणु उस निस्तब्धता को शब्द देते हुए लिखते हैं— “अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी! निस्तब्धता करुण-सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी, अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। सियारों का क्रंदन और पेचक (उल्लू) की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोपड़ी से कराहने और कै करने की आवाज, ‘हरे राम! हे भगवान! की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से माँ-माँ पुकारकर रो पड़ते थे, पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी। कुत्तों में परिस्थितियों को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख़ के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे। रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी—सिर्फ पहलवान की ढोलक।” जब तक आप इस अंधकार, निस्तब्धता और कराह में प्रवेश नहीं करेंगे, तब तक आप रेणु के उस दर्द को, उस पीड़ा को नहीं समझ सकते, जिसे वे बचपन से झेलते-देखते आ रहे थे। सिर्फ पहलवान की ढोलक और पहलवान की पहलवानी के सहारे कहानी के एक पक्ष तक पहुँचा जा सकता है। सिर्फ उसके ऊपरी कथानक को जाना जा सकता है। कहानी के अंदरूनी सतह में प्रवेश करने के लिए इस अंधकार को भेदना बेहद जरूरी है।
     
रेणु की इस कहानी में हम देखते हैं कि एक तरफ सामंती व्यवस्था ढह रही है और दूसरी ओर पूंजीवाद का आगमन हो रहा है उसका वर्चस्व बढ़ रहा है। वृद्ध राजा साहब सामंती व्यवस्था के प्रतीक है तो नए राजकुमार पूंजीवादी की पैरोकारी करते हैं। राजा साहब के मरते ही राजकुमार पहलवान लुट्टन सिंह को राजदरबर से निकाल देते हैं। राजकुमार दंगल की जगह घोड़े के रेस को महत्त्व देते हैं। उनका न तो पहलवान से कोई मतलब है और न ही पहलवानी से। एक तरह से उनका अपनी पुरानी परम्परा और संस्कृति से भी कोई मतलब नहीं है। कहानी के इस प्रसंग के माध्यम से यह भी ध्वनित होता है कि सामंती व्यवस्था में सबकुछ खराब ही था, ऐसी बात नहीं है। अनेक कमियों के बावजूद उसमें कुछ अच्छी चीजें थीं।
     
पहलवान लुट्टन सिंह जाति का दुसाध है, लेकिन काम वह एक क्षत्रिय का करता है। उसके काम और कर्म से प्रभावित होकर ही राजा साहब उसे सिंह की उपाधि देते हैं। यानी वह दुसाध होकर भी सिंह का काम करता है। लुट्टन सिंह अपने से पहले दूसरों के बारे में सोचता है। मात्र नौ वर्ष की उम्र में उसके माता-पिता उसे अनाथ करके चले गए थे। संयोग से उसकी शादी हो गई थी। अतः उसकी विधवा सास ने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे। एक तो वे जाति के दुसाध थे और दूसरे गरीब भी बहुत थे। सर पर किसी बड़े-बुजुर्ग का हाथ भी नहीं था। जाहिर है तंग करने वाले गाँव के कुछ दबंग और मनचले लोग ही होंगे। ऐसे लोग गाँवों में होते हैं। अपनी सास की तकलीफ को देखकर उसके सिर पर कसरत करने की धुन सवार हो जाती है। उसके जिम्मे तीन ही काम थे— गाय को चरना, उसके थान का ताजा-ताजा दूध पीना और कसरत करना। नियमित दूध पीने और कसरत का परिणाम यह हुआ कि किशोरावस्था में ही उसके सीने तथा बाँहें सुडौल तथा मांसल हो गए। जवानी में पहुँचते-पहुँचते वह गाँव का अच्छा पहलवान समझे जाने लगा। लोग उससे डरने लगे। जैसे-जैसे उसकी छाती चौड़ी होती गई वैसे-वैसे उसकी सास की स्थिति सुधरती गई।
     
जब माटी पर संकट आता है, तब वह पंजाब के मशहूर पहलवान चाँद सिंह के लड़कर माटी की लाज रखता है। होता यह है कि लुट्टन एक बार दंगल देखने श्यामनगर मेला जाता है। वह देखता है कि चाँद सिंह दंगल के मैदान में श्यामनगर की माटी को ललकार रहा है, लेकिन उसकी ललकार का जवाब कोई नहीं देता। उसकी दहाड़ सुनकर ही सब घबरा जाते हैं। लुट्टन से यह दहाड़ बर्दाश्त नहीं होती। माटी की लाज रखने के लिए शेर के बच्चे को माटी का शेर चुनौती दे देता है। लोग उसे बहुत समझाते हैं, राजा साहब भी मना करते हैं, लेकिन माटी का शेर नहीं मानता। कुछ ही देर में लुट्टन चाँद सिंह को चारों खाने चित कर देता है। बाद में वह काला खाँ को भी हराकर अपनी प्रसिद्धि में चार चाँद लगाता है। राजा साहब उसे राजदरबर में रख लेते हैं। उसका तथा उसके दोनों बेटों का भरण-पोषण राजदरबर में होने लगता है।
     
अंत में मलेरिया और हैजा से पीड़ित गाँववालों को ढाढ़स बढ़ाने के लिए पहलवान तथा उसके दोनों बेटे रात-रात भर ढोलक बजाते हैं। उस मनहूस और अंधेरी रात को चुनौती देते हैं। रेणु लिखे हैं— “पहलवान संध्या से सुबह तक चाहे जिस ख्याल में ढोलक बजाता हो, किन्तु गाँव के अर्द्धमृत औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न ही महामारी की सर्वनाश गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।” पहलवान गाँववालों के लिए मौत से दो दो हाथ करता है। दो दो हाथ करने की उसकी आदत पुरानी है। अपनी सास के लिए वह जमाने से दो दो हाथ करता है। माटी की लाज बचाने के लिए शेर सिंह से दो दो हाथ करता है। गाँववालों का कर्ज चुकाने के लिए वह उनके बच्चों को दो दो हाथ करने का तरीका सिखाता है और अंत में गाँव की ही खातिर वह मौत से दो दो हाथ करता है। पहलवान न तो जमाने से हारता है और न ही शेर सिंह से। वह हारता है तो सिर्फ मृत्यु से। पर वह हारकर भी जीत जाता है और मृत्यु जीतकर भी हार जाती है। जीवन के दंगल में कभी चित न होनेवाला पहलवान, मौत के दंगल में चित हो जाता है। वह हमेशा कहा करता था— “जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे पेट के बल सुलाना। मैं जिन्दगी में कभी चित नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना...” पहलवान की इस जीवटता को देखते हुए शमशेर बहादुर सिंह की काल तुझ से होड़ है मेरी कविता याद आ रही है। वह जब तक जिंदा रहा काल से होड़ लेता रहा और मरते-मरते उस अपराजित काल के हृदय पर अपना नाम लिख गया।
     
पहलवान जब अपने दोनों जवान बेटों की लाशों को दोनों कंधों पर लादकर नदी में बहाने जाता है, उस दृश्य को देख मौत भी अपनी विजय पर शर्मिंदा हो गई होगी। दोनों पुत्रों की मृत्यु के बाद भी पहलवान की ढोलक की आवाज बंद नहीं हुई। पहले की ही भाँति वह ढोल बजाता रहा, लोगों की हिम्मत बढ़ाता रहा। ऐसा नहीं है कि पहलवान अंदर से टूटा नहीं होगा, उसकी आँखों से आँसू नहीं गिरे होंगे। किसी पिता के लिए दुनिया का सबसे बड़ा बोझ पुत्र की लाश को उठाना होता है। पहलवान इस बोझ को भी उठाता है। उसके जीवन की कहानी भी कुछ अजीब है, बचपन में माँ-बाप को आग दिया, जवानी में पत्नी को खोया और बुढ़ापे से कुछ पहले जवान बेटों की लाश को अकेले कंधा दिया।
     
मौत को भी चुनौती देने वाले दिलेर पहलवान के अन्दर एक शिशु हमेशा विराजमान रहा। उसका बचपना कभी नहीं गया। छाती थोड़ी चौड़ी करते हुए कहता, ‘लुट्टन सिंह को होल-इण्डिया के लोग जानते हैं। पहलवान के अन्दर छिपे बच्चे को बाहर लाते हुए रेणु लिखते हैं— “दो सेर रसगुल्लों को उदरस्थ करके, मुँह में आठ-दस पान की गिलौरीयों को ठूँस, ठुड्डी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल में मेला घूमता। मेला से दरबार लौटते समय उसकी अजीब हुलिया रहती—आँखों पर रंगीन अबरख का चश्मा, हाथ में खिलौनों को नचाता और मुँह से पीतल की सिटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस आता। बल और शरीर की वृद्धि के साथ-साथ बुद्धि घटकर बच्चों की बुद्धि के बराबर ही रह गई थी उसमें।” यह बचपना ही उसकी मनुष्यता और आदमीयत की पहचान है। उसके अन्दर बचपना है, पर वह बच्चा नहीं है। वह अपने दोनों बेटों को सांसरिक ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान की नित्या शिक्षा देता है। राजदरबार में आने से पहले उसका सारा जीवन अभाव एवं गरीबी में बिता था, अच्छे कपड़े क्या होते हैं, खिलौने क्या होते हैं, मिठाइयाँ कैसी होती है, इन सबसे वह अनभिज्ञ ही था, इसलिए जब पहली बार ये चीजें उसे मिलती हैं तब वह बच्चों की तरह स्वाभाविक हरकत करता है। उसके भीतर का बच्चा बाहर आ जाता है। वह बचपन की चीजों को पाकर कुछ-कुछ बच्चा बन जाता है।

अब आते हैं कहानी के उस बिन्दु पर जो रेणु की अपनी खास विशेषता है। इस विशेषता को रेणु के अलावा हिन्दी साहित्य में और कोई दूसरा हासिल नहीं कर सका। लुट्टन सिंह का गुरु कोई पहलवान नहीं बल्कि ढोलक है। ढोल की आवाज के प्रताप से वह पहलवान हुआ है। इस कहानी में रेणु ने दस बार ढोलक बजाई है और हर बार कुछ नए अंदाज और नए अर्थ में ढोलक की ध्वनि निकलती है। कहानी की शुरूआत में पहलवान डरावनी रात्रि को ललकारता है। पहली आवाज है— चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा। अर्थात् आजा भिड़जा!! दूसरी आवाज है— चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा। यानी उठाकर पटक दे!! तीसरी से लेकर नौवीं तक ढोल की आवाज दंगल की है। तीसरी आवाज है—‘  चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा। यानी आजा भिड़जा। चौथी आवाज है— ढाक्-ढिन्ना, ढाक्-ढिन्ना, ढाक्-ढिन्ना, अर्थात् वाह पट्ठे! वाह पट्ठे!! पाँचवीं आवाज है— चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धा, चट्-गिड़-धाअर्थात् मत डरना! मत डरना!! छठवीं आवाज है— धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना...!! लुट्टन को सुनाई देता है— दाँव काटो, बाहर हो जा, दाँव काटो, बाहर हो जा! सातवीं आवाज है— चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा...’ अर्थत् उठा पटक दे! उठा पटक दे!! आठवीं आवाज है— धिक-धिना, धिक-धिना...। अर्थात् चित करो—चित करो!! नवीं आवाज है— धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़... अर्थात् वाह बहादुर! वाह बहादुर!! ढोल की हर आवाज के साथ पहलवान को एक नयी शक्ति और एक नया संकेत मिलता है। मानो ढोल उसे दाँव लड़ना सीखा रहा हो। दसवीं और अंतिम आवाज उस समय की है जब पहलवान के दोनों बेटे मौत से लड़ रहे थे। पहलवान बेटों के कहने पर ढोल से यह आवाज निकालता है— चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा। इसका अर्थ है उठा पटक दो, उठा पटक दो। दोनों बहादुर रात भर काल को उठा-उठाकर पटकते रहे। और जब थक गए तो दोनों पेट के बल पड़ गए। दोनों पहलवानों को मौत भी चित न कर सकी। पूरी शक्ति लगाकर उसने दाँत से मिट्टी खोद ली थी, लेकिन चित नहीं हुआ था। काल को ललकारने वाली ऐसी कहानी कभी-कभी ही लिखी जाती है।

कहानी समाप्त करने के बाद मन में सवाल उठता है अब क्या? अब क्या होगा? पहलवान और उसके बेटों की मृत्यु के बाद गाँववालों को ढाढ़स कौन देगा? सियारों और उल्लुओं की डरावनी आवाज को कौन ललकारेगा? निर्बल कंठों में कौन संजीवनी शक्ति भरेगा? कहा जा सकता है, पहलवान के न रहने पर उस सुनसान गाँव में अब कोई आवाज सुनाई नहीं देगी। धीरे-धीरे सारा गाँव कफन में तब्दील हो जाएगा। एक समय आयेगा जब न तो मुर्दों को कफन मिलेगा और न ही उनकी मृत्यु पर कोई रोने वाला होगा।

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परिचय
मृत्युंजय पाण्डेय


जन्म :                                        20 जुलाई, 1982
मूल निवासी :                             दिघवा दुबौली, गोपालगंज (बिहार)
शिक्षा :                                       एम. ए., एम. फिल., पीएच. डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)

प्रकाशित पुस्तकें :                          
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव, कहानी से संवाद, कहानी का अलक्षित प्रदेश, रेणु का भारत, कविता के सम्मुख, साहित्य, समय और आलोचना, केदारनाथ सिंह का दूसरा घर 

सम्पादन :               
नयी सदी : नयी कहानियाँ (तीन खंडों में), प्रेमचंद : निर्वाचित कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद : निर्वाचित कहानियाँ

सम्मान :           देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2018)

जीविका :         अध्यापन, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)

सम्पर्क :           25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
मोबाइल :          9681510596       ईमेल : pmrityunjayasha@gmail.com    




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