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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 अप्रैल, 2020

दुआ-ए-रीम : समाज की रूढ़िवादी सोच को एक जवाब


शिप्रा खरे शुक्ला


           संगीत जुड़ाव है। जो बात बड़ी बड़ी दलीलें, तकरीरें और बहस घंटों कर के नहीं समझ आती, वह महज़ पांच-सात मिनट का एक गीत कह पाने में कामयाब रहता है। यह एक ऐसी आसान भाषा है जो लगभग हर किसी के आसानी से समझ आ जाती है। आप के साथ भी बहुत बार ऐसा हुआ होगा कि जिस बात को आप दिनों तक ना कह पाए हों वह काम किसी पांच मिनट के एक गीत के बोल ने कर दिया हो। हमारे दुख-सुख, हर्ष-उल्लास, कसक-चहक को जाने कितने ही गाने आसानी से व्यक्त कर देते हैं। कई बार हम खुद गानों का सहारा लेकर अपनी बात कह देते हैं।

           कल एक ऐसा ही गीत मैंने देखा सुना। इस इंटरनैशनल विमेंस डे पर हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में एक गीत रिलीज़ हुआ था, जिसने #लैंगिक_समानता को हंसते-खेलते समझा दिया। यकीन जानिए इस गीत को बेहद खूबसूरती से लिखा और परफॉर्म किया गया है। आज बात इसी गीत की करते हैं।

           नामचीन अल्लामा इकबाल की 1902 की चर्चित कविता 'लब पे आती है दुआ' बहुत लोगों ने सुनी होगी। हमारे घर के सामने बनी मस्जिद के बगल में बने मदरसे "मकतब हायातिया इस्लामिया" (प्राइमरी स्कूल) में यही प्रार्थना होती थी जिसे मैंने बचपन से सुना है। बेशक अब भी होती होगी शायद इसीलिए इस वीडियो सोंग की तरफ तुरंत ध्यान चला गया। अल्लामा इकबाल ने यह कविता बच्चों के सिलसिले में लिखी थी। जिन्होंने नहीं पढ़ी है उनके लिए मैं यहां शेयर क रही हूं---

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लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी!

दूर दुनिया का मिरे दम से अँधेरा हो जाए!
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए!

हो मिरे दम से यूँही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

ज़िंदगी हो मिरी परवाने की सूरत या-रब
इल्म की शम्अ से हो मुझ को मोहब्बत या-रब

हो मिरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्द-मंदों से ज़ईफ़ों से मोहब्बत करना

मिरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझ को
नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझ को
          अल्लामा इकबाल

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           इसी कविता के बोल में थोड़ा फेर बदल कर लेखक शोएब मंसूर ने दुआ-ए-रीम बना कर प्रस्तुत किया। दुआ ए रीम का अर्थ है दुल्हन की दुआ। इस गीत को दामिया फाहरुख, शहनाज और महक अली ने गाया है और इसे पाकिस्तान की सुपरस्टार माहिरा खान(शाहरुख खान की फिल्म 'रईस' वाली) पर फिल्माया गया है।गाने की खूबसूरती है कि इसमें एक दुल्हन के लिए मांगी जा रही पुरानी और नई दुआओं को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है और महज 7 मिनट 44 सैंकड के इस गाने में पितृसत्तात्मक समाज के ढांचे पर जबरदस्त प्रहार किया है।

          वीडियो की शुरुआत में देश, काल, भाषा और धर्म से परे महिला को एक स्थितिमें दिखाया गया है, जिसमें पितृसत्ता का प्रतिनिधित्व करती महिलाओं को दासता की अपनी विरासत आगे बढ़ाने की कला देख सकते है यह हिस्सा दुल्हन के शादी के माहौल में वहां दुआ गाने आईं महिलाएं गाती हैं।

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लब पे आवे है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िंदगी अम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी

मेरा ईमा हो शौहर की इताअत करना
उनकी सूरत की न सीरत की शिकायत करना

घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जावे
नेकियां मेरी चमकने से उजाला हो जावे

धमकियां दे तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा
पड़े थप्पड़ तो करूं शुक्र के जूता न हुआ

हो मेरा काम नसीबों की मलामत करना
बीवियों को नहीं भावे है बगावत करना

मेरे अल्लाह लड़ाई से बचाना मुझको
मुस्कुराना गालियां खा के सिखाना मुझको

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             लेकिन वीडियो का दूसरा हिस्सा ज़्यादा प्रभावी और ऊर्जा भर देने वाला है, क्योंकि ये बेहद सकारात्मक है। दूसरी दुआ जो खुद दुल्हन अपने लिए बगावती सुर लेने के बाद गाती है।ये बग़ावत की बात भी बेहद संवेदना से करता है पर हिंसा की बुनियाद लैंगिक भेदभावपर लगातार प्रहार करते हुए लैंगिक समानताके सुर का दामन कहीं नहीं छोड़ता है।

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लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
घर तो उनका हो हुकूमत हो खुदाया मेरी

मैं अगर बत्ती बुझाऊं के अंधेरा हो जाए
मैं ही बत्ती को जलाऊं के उजाला हो जाए

मेरा ईमान हो शौहर से मुहब्बत करना
न इताअत न गुलामी न इबादत करना

न करूं मैके में आकर मैं शिकायत उनकी
करनी आती हो मुझे खुद ही मरम्मत उनकी

आदमी तो उन्हें तूने है बनाया या रब
मुझको सिखला उन्हें इंसान बनाना या रब

घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जाए
भाड़ में झोंकू उनको और उजाला हो जाए

वो हो शाहीन तो मौला मैं शाहीना हो जाऊं
और कमीने हो तो मैं बढ़के कमीना हो जाऊं

लेकिन अल्लाह मेरे ऐसी न नौबत आए
वो रफाकत हो के दोनों को राहत आए

वो मुहब्बत जिसे अंदेशा-ए-ज़वाल न हो
किसी झिड़की, किसी थप्पड़ का भी सवाल न हो

उनको रोटी है पसंद, मुझको है भावे चावल
ऐसी उल्फत हो कि हम रोटी से खावे चावल

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            शोएब मंसूर की ये दुआ महज़ कुछ मिनटों में कई सारी अहम चीज़ों को छूती है खास तौर पर स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हैवाली बात। दुल्हन को सब्र की, दरगुज़र की नसीहत देने वाली तमाम की तमाम औरतें ही होती हैं। यह जवाब केवल पितृसत्ता पर नहीं, बल्कि उस समाजीकरण पर भी है जिसको महिलाएं भी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती हैं।औरतें वही सब आगे बढ़ा रही हैं, जो उन्हें मिलता आया है और इस गाने के जरिए दिखाने का प्रयास किया गया है कि कोई फरिश्ता नहीं आता है कहीं से।इस कड़ी को कहीं न कहीं तोड़ना ज़रूरी है और इसके लिए खुद फरिश्ता बन कर महिलाओं को ही कोशिश करनी होगी।

            महिलाओं के साथ हिंसा के मामले सब जगहों पर एक ही तरह के है। बस कहीं ज़्यादा है तो कहीं कम। इसलिए अच्छी बात जहां भी दिखे दिल खोल कर स्वीकार करिए क्योंकि महज़ सात मिनट चौवालिस सेकेंड में लड़कियों के अंदर ऊर्जा भरने की सलाहियत रखने वाला पड़ोसी मुल्क का यह वीडियो हालात और जज्बात की बात करता है।

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                       शिप्रा खरे शुक्ला
              अध्यक्ष कपिलश फाउन्डेशन
              गोला गोकरणनाथ-खीरी उ०प्र०
                       shipradkhare@gmail.com


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