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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 जुलाई, 2015

ग़ज़ल : जिगर मुरादाबादी

मुशायरों के अभी तक के सबसे कामयाब शायर माने जाने ग़ज़ल सम्राट जिगर मुरादाबादी (1890-1961) की ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक)- भाग-2:
  
1.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

आज क्या बात है कि फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है

मिलके भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बे-ख़ुदी से मिलता है
(कार-ओ-बार-ए-जहाँ - दुनिया के क्रिया-कलाप; बे-ख़ुदी - आपे में न रहने वाली स्थिति)

रूह को भी मज़ा मुहब्बत का
दिल की हम-साएगी से मिलता है
(हम-साएगी - साथ/मिल-जुल कर रहना)

2.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़बान है प्यारे

इसको क्या कीजिए जो लब न खुलें
यूँ तो मुँह में ज़बान है प्यारे

हम ज़माने से इन्तेक़ाम तो लें
इक हसीं दरम्यान है प्यारे
(हसीं - हसीन/ख़ूबसूरत; दरम्यान - बीच में)

'तू' नहीं, 'मैं' हूँ; 'मैं' नहीं, 'तू' है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
(गुमान - आभास/संदेह)

कहने-सुनने में जो नहीं आती
वो भी इक दास्तान है प्यारे

रख क़दम फूँक-फूँक कर नादाँ
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
(नादाँ - नादान; ज़र्रा - कण)

हाँ तेरे अहद में 'जिगर' के सिवा
हर कोई शादमान है प्यारे
(अहद - काल/समय; शादमान - ख़ुश)

3.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
(नाले - विलाप)

नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले

मेरे दिल की बे-ताबियाँ भी लिए जा
दबे पाँव मुँह फेर कर जाने वाले
(बे-ताबी - बेचैनी)

तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
'नहीं' कह के सब से, गुज़र जाने वाले
(साकित - स्थिर)

मुहब्बत में हम तो जिए हैं, जिएंगे
वो होंगे कोई और, मर जाने वाले

4.
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
(इंतिख़ाब - चुना जाना)

हर-चंद कर दिया मुझे बर्बाद इश्क़ ने
लेकिन उन्हें तो शेफ़्ता-ए-दिल बना दिया
(हर-चंद - ज़्यादातर/अक्सर; शेफ़्ता-ए-दिल - मनमोहक)

पहले कहाँ ये नाज़ थे, ये इश्वा-ओ-अदा
दिल को दुआएँ दो, तुम्हें क़ातिल बना दिया
(नाज़ - ग़ुरूर; इश्वा-ओ-अदा - शोख़ी और अदा)

प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
कविताएं पहली और तीसरी अच्छी हैं। दूसरी कविता कलाकार बच्चा में काव्यात्मकता की भारी कमी है। यह अनुवादक की कमी प्रतीत नहीं होती, क्योंकि अनुवाद समग्र रूप से बहुत उम्दा बन पड़े हैं। पहली कविता खेल तो अद्भुत है।  बढिया।
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

बलविंदर:-
"जिगर" का तो हर कलाम ही बेमिसाल है..ये ग़ज़लियात भी बहुत उम्दा हैं.
अल्लाह मियाँ जब अपने बन्दों को हुस्न तक़सीम कर रहे थे, तब हज़रात-ए-जिगर कौसर पर बैठे पी रहे थे..उन्हें जिगर की ये मस्ती और बेपरवाही शायद पसंद न आई और हुस्न के एवज़ इश्क़ अता फ़रमाया...इस लिए मिज़ाज से आशिक़ और तबीयत से हुस्न-परस्त.
रंग आबनूसी, मुंह पर चेचक के दाग़, छोटा सा क़द..शक्ल-ओ-शबाहत से शाइर होने का क़तई यक़ीन ना आये..लेकिन जब मुशायरे में जब पढ़ने लगें तो इन से खूब-सूरत और कोई नहीं लगता था.
हज़रत-ए-जिगर मुशायर कीे रूह-ए-रवां होते थे.
इन का कलाम हुस्न-ओ-इश्क़ के आस-पास ही सीमित रहा है.

बलविंदर:-
पहली ग़ज़ल से एक शे'र और हाज़िर है...

सिलसिला फित्ना-ए-क़यामत का
तेरी ख़ुश-क़ामती से मिलता है
दूसरी ग़ज़ल कुछ तवील है, इस में 16 अशआर हैं...लेकिन इसी ज़मीन में "जिगर" ने एक ग़ज़ल और कही है उस के चंद अशआर हाज़िर हैं..

सब पे तू मेहरबान है प्यारे
कुछ हमारा भी ध्यान है प्यारे

तू जहां नाज़ से क़दम रख दे
वो ज़मीं आसमान है प्यारे

हम से जो हो सका सो कर गुज़रे
अब तिरा इम्तिहान है प्यारे

क्या कहे हाल-ए-दिल ग़रीब "जिगर"
टूटी-फूटी ज़बान है प्यारे

फ़रहत अली खान:-
आप सभी ने शायद एक बात ग़ौर की होगी; पहली ग़ज़ल का तीसरा शेर देखें:
"आज क्या बात है कि फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है"

यहाँ मुझ जैसा कोई आम आदमी होता तो 'तेरी हँसी' की तुलना 'फूलों के रंग' से करता;
लेकिन जिगर साहब ने 'फूलों के रंग' की तुलना 'तेरी हँसी' से की है;
यानी 'तेरी हँसी' 'फूलों के रंग' से नहीं मिलती,
बल्कि 'फूलों का रंग' 'तेरी हँसी' से मिलता है।
एक बार फिर से पढ़कर ग़ौर फ़रमाएँ।

पहली ग़ज़ल का पहला शेर भी देखें:
'आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है'

कितना सच्चा शेर है। इंसान ज़िन्दगी में कितने ही लोगों से मिलता है, लेकिन उसका दिल बहुत कम लोगों से ही मिल पाता है।

वसुंधरा काशीकर:-
सभी ग़ज़ले बेहतरीन है। भूल दाता हूँ मैं सितम उसके,ज़र्रे ज़र्रे में जान है प्यारे,मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिए जा, मुहब्बत में हम तो जिए हैं, हासिलें ग़ज़ल शेर लगे. चौथी ग़ज़ल तो क्या कहने!! बहुत ख़ूब!

नयना (आरती) :-
पहली ग़ज़ल बहुत ही बेह्तरीन

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले---------हासिलें ग़ज़ल शेर लगे

"आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है" को पढकर एक शेर याद आ गया .
मेरे दोस्तो,मेरे साथियों.कोई दे सको तो जवाब दो
कहाँ खो गई वो मुरव्वतें, वो हसीन लम्हे किधर गये

फ़रहत अली खान:-
आज की ग़ज़लों में से जो एक शेर मुझे बेहद पसंद है, उसका भी मैं ज़िक्र करना चाहूँगा।
दूसरी ग़ज़ल का तीसरा शेर:

हम ज़माने से इन्तेक़ाम तो लें
इक हसीं दरम्यान है प्यारे

कोई शख़्स अगर ज़माने से किसी बात पर ख़फ़ा हो और इन्तेक़ाम लेना चाहे(यानी बात-बात पर किसी से भी झगड़ा कर लेता हो) तो उसकी शादी करा देनी चाहिए; क्यूँकि शादी के बाद अच्छे-अच्छे ज़मीन पर आ जाते हैं। फिर 'ज़माने से इन्तेक़ाम' और 'उस शख़्स' के बीच में 'उसकी पत्नी (और परिवार)' आ जाते हैं। ये शेर ऐसे ही लोगों के लिए है।

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