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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 जुलाई, 2015

चर्चा : बिजूका समूह में अनुशासन : अलकनंदा साने

अलकनंदा साने:-
आज इतना बढ़िया आलेख था और उस पर उतनी ही वैचारिक संजीव जी की टिप्पणी . सुबह एक नजर ही  डाल पाई थी , संग्रहणीय है संजीव जी , सत्या जी धन्यवाद .

सत्या जी , इन दिनों लगातार समूह का अनुशासन टूट रहा है , जिसके लिए समूह ख्यात  था  . आप भी देख ही रहे होंगे . आज इतनी अच्छी पोस्ट पर एक अच्छी बहस हो सकती थी, होना चाहिए थी .इसी कारण मैं यह कहने से अपने आप को रोक नहीं पाई ...

सत्यनारायण:-
मित्रो आज छुट्टी का दिन है...

अलकनंदा जी ने एक बात रखी
है...अलकनंदा जी ने जो बात कही
उसका संबंध समूह के साथियो
से है...मैं समझता हूँ कि उनकी
बात का जवाब मुझ अकेले के पास
नहीं है...बल्कि समूह के हर साथी
के पास अपना जवाब होगा और
होना चाहिए....और आशा यह
करता हूँ...हरेक साथी अलकनंदा जी की बात का जवाब पूरी ईमानदारी
से दे....एडमिन से कहाँ चूक हो रही
है...और समूह के साथी कहाँ भूल
कर रहे हैं....आज हम यही बात
करते हैं....उम्मीद है....आप अपनी
बात खुलकर रखेंगे......

वागीश:-
एक लंबे अंतराल के बाद वापस आ कर बिजूका पर एक अजीब सी ख़ामोशी देख कर मैं भी हतप्रभ सा हूँ। जहां विचारों और रचनात्मकता का समृद्ध आदान-प्रदान होता था वहाँ ऐसी  चुप्पी क्यों छाई रहती है? इसका जवाब भी समूह के साथियों के पास ही होगा। अलकनंदा जी का सवाल भी इसी बात के एक दूसरे पहलू की ओर इशारा करता है।

क्यों न हम भी आज अपने मन की बात ईमानदारी और साफगोई से रखें! (तभी हमारी मन की बात उनके मन की बात से अलग होगी!!)

सत्यनारायण:-
वागीश जी आपकी बात से सहमत
हूँ....एक रचनाकार साथी में...और
रचनाकार न हो तो भी एक बेहतर
इंसान में साफ़गोई से, ईमानदारी
से किसी भी संदर्भ में, मुद्दे पर अपनी
बात कहने कहने की कला..या साहस..होना चाहिए....

मुझे अगर किसी साथी को समूह की
किसी प्रक्रिया से कोई असहमति है
..कोई आपत्ति है...तो वह भी बेहिचक
कहना चाहिए.....कही गयी बात पर
समूह ही विचार भी करे....

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
आदरणीय अलकनंदा जी
कृप्या समूह में अनुशासन-भंग की बात पर थोड़ा और विस्तार से बताइए
ताकि उसपर आज छुट्टी के दिन विस्तृत चर्चा भी हो सके और उसके निदान की प्रक्रिया भी शुरू की जा सके

अलबत्ता मुझे इल्म है कि 1-2 बार जाने-अनजाने में संभवतः मुझसे भी इस बारे में कोई त्रुटि हो ही गई होगी,पर त्रुटि को सुधारने हेतु तत्पर हूँ मैं

मनीषा जैन :-
मेरे विचार में यहाँ आई किसी भी रचना पर बात तो जरूर होनी चाहिए । कम से कम चुप्पी न हो। चाहे हम थोड़े शब्दों में ही कुछ कहें। और यह एक ऐसा मंच है जहाँ त्वरित प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जाती है और रचनाकार को लाभ ही होता है।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
ताई की बात हमारे लिए बहुत  मायने रखती है। जहां तक चुप्पी की बात है, तो कई बार  कहने के लिए कुछ महत्वपूर्ण या सार्थक न होने पर भी लोग सहभाग नहीं लेते। कई बार व्यस्तता होती है। कभी नेट उपलब्ध नहीं होता। कल की चर्चा इतनी महत्वपूर्ण और उपयोगी थी, किंतु देर रात तक बैंक की सीरियस मीटिंग में फंसे रहने के कारण मैं कुछ कह नहीं सका।

अलकनंदा साने:-
किसी विषय पर टिप्पणी नहीं करना अनुशासन हीनता नहीं है लेकिन कोई विषय चल रहा है उसमें बीच में कुछ और पोस्ट करना मेरे विचार से अनुशासन भंग करना है ।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
जहां तक अनुशासन भंग वाली बात है, तो वह अवश्य बताई जाए। जैसे मुझे लगता है कि छुट्टी के दिन को छोड़कर सामान्य दिनों में कोई भी सूचना आदि व्यक्तिगत रूप से पोस्ट न की जाए,  बल्कि कुछ महत्वपूर्ण है, तो एडमिन को भेजी जाए और यदि एडमिन उचित समझें तो समूह में साझा करें।
जहां तक सन्नाटे की बात है तो प्रबुद्ध चर्चा वाले समूह में सीमित चर्चा स्वाभाविक है।  मैं कुछ अन्य समूहों पर नजर डालता हूं जहां चौबीस घंटे बकवास और कई बार अश्लील चुटकुले चलते ही रहते हैं।  वहां कभी सन्नाटा नहीं होता।  पर यह अपनी अपनी पसंद की बात है।  उनके सम्मान में कोई कमी न करते हुए मैं बस उसमें शामिल नहीं होता।

अंजू शर्मा :-
हाँ सन्नाटा तो है पर उसे तोड़ने के लिए प्रयासों का सार्थक होना जरूरी है। मैं इन दिनों निजी कारणों से व्यस्त तो हूँ ही, मेरे फोन में आ रही परेशानियों से जूझ रही हूँ।  दोनों के  समाधान में ही मेरी सक्रियता निहित है।

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
कई बार किसी न किसी कारण से किसी रचना पर अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया देना संभव नहीं हो पाता
पर हाँ,विषय-परिवर्तन,निजी बातचीत या इसी तरह की कोई और क्रिया-प्रतिक्रिया तो यकीनन गलत है
इतने बेहतरीन समूह और इतने गुणी अग्रजों की मौजूदगी से सभी को लाभ उठाना चाहिए।

सत्यनारायण:-
मित्रो मैं पहले भी बता चुका हूँ
आज पुनः कि मेरे से होने वाली भूल चूक और मेरा भी ध्यान दिया सकते हैं
कई बार काम के दबाव कुछ टिप्पणी या बाते अनदेखी रह जाती है...तो मुझे अलग से मेसैज करके या कॉल करके भी बता सकते हैं.....

निरंजन श्रोत्रिय:-
दरअसल जिसे हम निष्क्रियता कह रहे हैं वह निजी कारणों/तकनीकी मजबूरियों के अलावा एक तरह की उकताहट भी हो सकती है जो किसी भी नई तकनीक/ माध्यम के लगातार इस्तेमाल के कारण हो जाती है। अब फेसबुक को ही लें। जब यह शुरू हुआ तो बड़ा आकर्षक लगा था। मैं खुद घंटों इसमें व्यतीत करता था। लेकिन धीरे-धीरे ऊब होने लगी (जिसे मालवी में कचवाहट कहते हैं)। तो यह तो हर माध्यम के साथ होता है। इसे लेकर भावुक होना ज़रूरी नहीं। यह ज़रूर होना चाहिए कि इसके इस्तेमाल को प्रेरित करने के लिए इसमें कई तरह के पूर्वाभिमुखीकरण या ओरिएंटेशन की दरकार है। हमें यह भी सोचना होगा कि "और भी ग़म है ज़माने में वाट्सअप के सिवा"। इसे जीवन/दिनचर्या की प्राथमिकता बनाने की ज़िद मुझे ठीक नहीं लगती।

सत्यनारायण:-
निरंजन जी की बात काफी हद ठीक
है...मैं ख़ुद भी कई समूह में जुड़े होने के बावजूद सक्रिय भूमिका नहीं
निभा पता....अगर कुछ अच्छा पोस्ट हुआ हो तो पढ़ ज़रूर लेते हैं...लेकिन बहुत कम समूह है जिनमें पढ़ने लायक...विचार करने लायक रचनात्मक सामग्री पोस्ट होती है...अनेक समूह है जिनमें हास्यास्द पोस्ट
लगती हैं.....या फिर आत्ममुग्धता
परख.....इस मामले में हम बचे हुए हैं....और इसमें समूह के साथियो का बड़ा ही योगदान है....

आशीष मेहता:-
रमेशजी का विचारपरक आलेख, उस पर संजीवजी द्वारा "मानसिक अनुकूलन" पर इशारा  (एक विचारवान टिप्पणी)। इस बीच कुछ साथियों की व्यस्तता एवं आदरणीय ताई का उचित सवाल  (अनुशासन पर)।        बलविन्दर भाई, आपके इल्मी जुनून से बड़े  'कारक', मेरा सवाल एवं आपकी मृदुल व्यवहारिकता रही। शुक्रिया अदा करते वक्त, अपनी कसमसाहट ज़ाहिर नहीं कर पाया... अपना मठ नहीं तोड़ पाया। खैर, .. राहुल भाई  'थम्स अप' शेयर करें , तो आभार।                         रमेशजी याद दिलायें, मुक्तिबोध कहें या फिर कबीर...गढ़ और मठ बनते अपने हैं, मन कमबख्त किसी दूसरे के मठ पर निगाह जमाए रहता है। वर्चस्वी कहें या पूंजीवादी... या कोई भी "...वाद" , सभी अपने सामर्थ्य अनुसार मठ बना ही रहे हैं। रमेश जी का आलेख ऐसा आह्वान करता है जिस पर जग ठहरा सा, उदासीन सा है। संजीवजी की टिप्पणी भी वैचारिक द्वंद्व को stimulate करती है। पर, उसके बाद क्या  ? . . . यह सवाल भी इसी मंच बीते दिनों उठ चुका है। समूह भी शायद इस पर कुछ ठहर सा गया है (स्वाभाविक रूप से)। चाहे तो, 'मानसिक अनुकूल बन' का हवाला दे सकते हैं। इसी कचवाहट (निरंजन सर ) के चलते कुछ असक्रियता रही शायद कल  । घुन बिना गेहूँ के ही पिस गया।.... देवेन्द्रजी के स्वास्थ्य लाभ हेतु शुभकामनाएँ।

वागीश:-
मेरी समझ में अलकनंदा जी कुछ और कह रही हैं।
चुप्पी और अनुशासन अलग अलग है। वैसे ही जैसे अनुशासन, 'अनुशासन पर्व' (जो विनोबा जी ने इमरजेंसी के लिए कहा था) और स्वेच्छाचार आदि अलग अलग हैं और हम सब समझते है। मेरी समझ में व्हाट्सएप्प जैसे फोरम गंभीर रूप से जनतांत्रिक हैं जहां एक से दूसरा जुड़ता है और इस क्रम में सामूहिकता भी अपने नए अर्थ लेती जाती है। जो एडमिन है वो जो चाहे सो करे ऐसा नहीं हो सकता। उसने पहली बार कुछ लोगो को साथ लाया होगा पर जब वे सब हम हुए तो एडमिन हममें से एक है न कि जिसे तंज़ में कहा जाता है 'more equal than equals' (हालाँकि ऐसा arrogance कई लोगो को स्वाभाविक रूप से हो जाता है!) समूह की प्रकृति और नियम क़ायदे भी सबकी सहमति से  ही बनाता है। ग्रुप भी सबके सहयोग से ही एक प्रतिष्ठा या अर्थवत्ता प्राप्त करता है। एडमिन सबकी तरफ से एक ज़िम्मेदारी संभालता है, बस! हाँ, जो यह करता है उसका काफी समय और  निष्ठा लगती है। लेकिन उसे अपने व्यक्तिगत पसंद और नापसंदगी से ऊपर उठ कर काम करना होता है तभी शायद सबका सहयोग और स्नेह मिल पाता है। इस परिप्रेक्ष्य में अलकनंदा जी की बात पर शायद अधिक गंभीरता से बात करनी चाहिए और एक तरह का 'mid-term course correction' की ज़रुरत हो तो वो भी करना चाहिए ताकि पुरानी ऊर्जा वापस आये और आपसी विशवास मज़बूत हो सके।
लंबे पोस्ट के लिए क्षमा।

अलकनंदा साने:-
वागीश जी ,
आपने मेरी बात की गंभीरता को समझा और उसे आगे बढ़ाया , इसलिए सर्वप्रथम धन्यवाद.जनतंत्र की इस पहल का भी हार्दिक स्वागत.आपकी कही सारी बातों से सहमत हूँ , लेकिन एक बात इसमें जोड़ना चाहती हूँ कि अनुशासन की जो बात मैंने उठाई , उसे मैं लगभग दो / ढाई महीनों से अनुभव कर रही थी और इस संदर्भ में मेरा ऐसा मानना है कि कई बार जनतंत्र की बजाय थोड़ा अधिनायक वाद भी जरुरी होता है. इस समूह में या इस तरह के समूह में सभी लोग पर्याप्त परिपक्व हैं/होते हैं, लेकिन बीच बीच में अंकुश की आवश्यकता सभी क्षेत्रों में रहती है.यहाँ भी थी, लेकिन कुछ समय से थोड़ी ढिलाई होने लगी थी और मैं  फिर अपने आपको रोक नहीं पाई.जहाँ थोड़ा भी जुड़ाव होता है, वहां यह एक अधिकारभाव आ ही जाता है.अनेक बार मन हुआ कि बोलूं , लेकिन हम कितनी भी जनतंत्र की बात कर लें , आधिकारिकता अपनी जगह होती है और इन मायनों में मुझे कोई अधिकार नहीं था कि मैं कोई टिप्पणी करूँ , लेकिन मैं आपकी,सत्या जी की और समूह के सभी साथियों  की आभारी  हूँ कि सभी ने मेरे अनधिकृत हस्तक्षेप को अत्यंत सकारात्मकता से ग्रहण किया .

वागीश:-
अलकनंदा जी, आप हम सबके स्नेह से समूह बनता या बिगड़ता है। स्नेह में अधिकार तो होता ही है। तो फिर आपका हस्तक्षेप अनधिकृत कैसे हुआ? वैसे मैं अनुशासन का बहुत हिमायती नहीं हूँ। पर स्वछँदता का भी हिमायती नहीं। स्वविवेक से जो स्वानुशासन बने वो मैं सबसे बेहतर मानता हूँ। और आज संजीव ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अपनी कल की बात बढ़ाते हुए जो बात रखी वो इसी अभिव्यक्ति की नैतिकता के सवाल को साफ़ करती है। और जब अनुशासन 'अनुशासन पर्व' में तब्दील हो जाता है तो यह अधिनायकत्व में बदल जाता है, अपने पूरे शाब्दिक नैतिकता के आवरण के बावजूद!! यही इमरजेंसी में हुआ था। यही फिर हो रहा है...

सत्यनारायण:-: बलविन्दर जी
बस इतनी सी बात
ध्यान रखना है...जब जिस रचना पर या विषय पर बात चल रही हो...अपनी बात को उसी रचना या विषय
पर केन्द्रीत करे....विषयांतर करने
से बचे....
००
और यदि आपके पास किसी भी
विधा की कुछ ख़ास रचनाएँ...और आप चाहते हैं कि इन्हें समूह के साथी
भी पढ़े...समूह में साझा हो....या
आप किसी विषय पर समूह में बहस
- सामूहिक विमर्श करना चाहते
हैं..तब भी विषय से जुड़ी सामग्री...
एडमिन को भेज दे....
आपके द्वारा भेजी रचनात्मक सामग्री
को एडमिन क्रमानुसार साझा कर
सकेंगे....आपके द्वारा सुझाए विषय पर बातचीत भी आयोजित कर सकेंगे....
बस...इतनी भर बात है.....आशा है....आप सहित सभी साथियो का
सहयोग मिलेगा.....

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