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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 जुलाई, 2015

डायरी : मधु कांकरिया

मन जो इन दिनों फालतू बिल्ली बन गया है, बहलाऊँ बहल जाता है, भगाऊँ भाग जाता है। कल शाम एकाएक लोडशेडिंग हो गई थी। गर्म, सूनी और अँधेरी शाम में मोमबत्ती की रोशनी में रहना बहुत डिप्रेसिंग लग रहा था। यूँ भी इन दिनों पीछे की तरफ का हमारा घर भुतहा घर बन गया है। मकान से अधिकांश किरायेदार जा चुके हैं, इस कारण हर जगह घुप्प अँधेरा और साँय साँय करता सन्नाटा। न इनसान न इनसानी आवाज। खाली कमरों में प्रेतात्मा की तरह डोलती मेरी काया और धक् धक् करता मन जो एकाएक फिर मेरी गिरफ्त से बाहर जा चुका था। उत्पाती मन को ठिकाने लगाने के लिए बाहर निकलना जरूरी हो गया था। बाहर निकलने के लिए नीचे उतरने लगी कि तभी सुनी घुटी घुटी सी दबी दबी सी आवाज जैसे कोई मुँह बंद कर रो रहा हो। शायद मुझे भ्रम हुआ होगा। मैंने दो कदम आगे बढ़ाया पर नहीं फिर वैसी ही आवाज बल्कि इस बार कुछ और साफ। पूरी चेतना से सुनने लगी। आवाज ग्राउंड फ्लोर के घर से आ रही थी। ताज्जुब घर के बाहर ताला जड़ा हुआ था। टॉर्च की रौशनी में बाहर की तरफ खुली हुई इकलौती खिड़की से अंदर झाँका तो कलेजा धक् से रह गया। भीतर पड़ोसिन की चार वर्षीय लड़की खिली अँधेरे में दीवार से चिपकी डरी सहमी सुबक रही थी। चेहरा आँसुओं से तरबतर। क्या हुआ? सुबकते हुए बोली वह कि पापा अभी तक नहीं आए। खिली की कामकाजी माँ रात नौ बजे घर लौटती है। दोपहर दो बजे उसकी आया उसे स्कूल से लाकर, खाना खिलाकर घर को बाहर से ताला लगाकर चल देती है। शाम साढ़े छह बजे के लगभग उसके पापा ऑफिस से आकर उसे बंद घर से आजाद करते हैं। यह हर दिन की कहानी पर आज लोडशेडिंग ने बात बिगाड़ दी, घुप्प अँधेरे ने डरा दिया उसे।खिली का आँसुओं से तरबतर चेहरा मुझे सभ्यता और संवेदना की आदिम गुफा में धकेल गया। विकास की इस यात्रा में क्या हम सचमुच आगे बढ़े हैं? क्या हम सचमुच सभ्य हुए हैं? खरगोश सी नाजुक बच्ची और फटे अखबार की तरह पड़ा बच्चा जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं। दुनिया में इससे ज्यादा कारुणिक दृश्य और क्या हो सकता है। मन करता है कि बात करूँ खिली की माँ से, कहूँ उससे कि जब घर में वैसा कोई आर्थिक अभाव नहीं तो फिर किस प्राप्ति की खोज में तुम इस नन्हीं कोंपल के बचपन को झुलसा रही हो? क्यों इनकी अंतहीन कल्पना की उड़ान पर बंदिश ठोक रही हो? क्या ऐसे ही बच्चे बड़े होकर चिड़चिड़े, अंतर्मुखी, बदमिजाजी, हीन भावना से ग्रस्त और अपराधी नहीं होंगे? क्या आधुनिकता और मुक्ति का मतलब मातृत्व का गला घोंटना है? और जो शैशव इतना असहाय, सहमा, खामोश और खौफ खाया होगा उसका यौवन कैसा होगा? याद आता है कि जब राजा स्कूल से आता था तो उसका पेट फूला रहता था बातों से। हर घटना, हर लम्हे को बताने को उतावला रहता था वह। एकबार मैं आते ही फोन से चिपक गई तो देखा वह काम करने वाली बाई को ही पढ़कर सुनाने लगा वह रिमार्क जो उसकी मैडम ने उसकी डायरी में लिखा था। किसको सुनाती होगी खिली अपनी दुनिया की अंतहीन बातें?ऐसे बच्चे अलग ढंग से ही विद्रोह करते हैं। एक बार चेन्नई में मैं एक दस वर्षीय लड़के को हिंदी सिखा रही थी। उसकी कहानी भी लगभग खिली जैसी ही थी। मैंने एक दिन उससे कहा कि वह 'मरने' के ऊपर कोई वाक्य बनाए। बच्चे ने वाक्य बनाया -मेरी माँ मर गई है। मैंने लड़के को कहा कि उसकी माँ इतनी स्वस्थ और छोटी उम्र की है फिर क्यों उसने ऐसा वाक्य बनाया? बच्चे ने जबाब नहीं दिया, बस मुँह बनाता रहा, पर उसकी माँ ने कहा, मेरे बेटे की यही छिपी हुई इच्छा है। मुझे पता है उसे मेरा बाहर निकलना पसंद नहीं है। लेकिन ये लोग यह नहीं जानते कि मैं इतना मर खप इन्हीं के लिए तो रही हूँ, इनके उज्जवल भविष्य के लिए। मैंने कहा भी कि वर्तमान को झुलसा कर आप कैसा भविष्य इन्हें देंगी। लेकिन उनका रिसीवर मेरे कहने के मर्म को ठीक ठीक पकड़ नहीं सका। 

5 .12 .07

गर्म गर्म हवा सी जिंदगी और बेरंग मौसम घर का। अपने अपने तहखानों में कैद सब, शायद भिड़ंत के डर से कोई बाहर नहीं निकलता। निकलता भी है तो बच बच कर। कई बार लगता है जैसे यहाँ लोग नहीं कुछ चुप्पियाँ रहती है जो प्रेतात्माओं कि तरह विचरण करती रहती है, कभी इधर कभी उधर। दोनों तहखानों के बीच कमजोर पुल की तरह है माँ जो चाहती है कि वातावरण थोडा हल्का हो। घर घर सा महके। इसलिए सभी चुप्पियों के बीच सायास कभी हलकी हँसी तो हलके संवाद के जीवंत चिह्न भी दिख जाते हैं। पर माँ भी क्या करे, खुद वह एक चलता फिरता अजायबघर है और जब तब अधूरी कामनाओं के टूटे पंख, अधबने स्वप्नों की किरचें, अनभोगे सुखों के सूखे पत्ते और अधूरे जीवन से उपजी कुंठाओं के चमदागड़ चीखने लगते है और बूँद बूँद जमा संतुलन गड़बड़ा जाता है।यह लगभग हर दिन की कहानी। पर इसी कहानी में आज आया एक नया ट्विस्ट।बाथरूम से नहाकर निकले छोटे भाई ने एकाएक देखा संगमरमरी हॉल में जगह जगह केसरया पदचिह्न। कैसे बने ये पदचिह्न? हम सोचने लगे कि तभी मंदिर से लौटी अम्मा ने जैसे ही यह सब देखा परम प्रमुदित हो दोनों हाथों को आसमान की ओर लहरा कर, आसमान की ओर ताकते हुए गदगद कंठों से घोषणा की कि ये केसरिया पगलिया ईश्वरीय चमत्कार है। जो उनके निरंतर धर्म में लगे होने के फलस्वरूप प्रकट हुए हैं। कुछ दिनों पूर्व ऐसे ही मंदिर में जमीन से केसर निकलने का चमत्कार भी माँ के ही मुँह से सुना था मैंने। मुझे डर लगा कि कहीं मीडिया को खबर लग गई तो वे न आ धमकें। आस्था अनास्था के बीच डोलते घर के दूसरे सदस्य भी भौंचक थे। सब कुछ एकाएक रहस्मय और अलौकिक हो गया था। पूरा घर बहुत दिनों बाद धर्म रूपी वृक्ष से एक डोर में बँधा इस चमत्कार से अभिभूत था। बदसूरती से घिरे फ्लैट में एकाएक रौनक आ गई। कोई इसे पूर्वजों का पुण्य बता रहा था तो कोई इसे साक्षात उनकी उपस्थिति के रूप में देख रहा था। तभी सब गुड़ गोबर हो गया। धर्म की धाक का हुक्का एकाएक धप से बुझ गया। काम करने वाली बाई ने झाड़ू लगाते वक्त कुछ फूटे हुए पुराने कैप्सूल लाकर दिए, किसी का पैर इन्ही कैप्सूलों पर पड़ गया था। केसरिया पदचिह्न उसी कैप्सूल से निकला द्रव्य था।सोचती हूँ कि यदि वे कैप्सूल किसी कारण कामवाली बाई के हाथ नहीं लगे होते तो?शायद अंधी आस्था ऐसे ही जन्म लेती है।

प्रस्तुति- मनीषा जैन
साभार- हिन्दी समय
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टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-
Pahla panna aaj Ki hakikst bayan Karta hai sahi hai bhoutik sukho ke pichhe bhagte hue masumiyat dam todti hai ,dusra panna batata hai kaise andhvishwas janm leta hai ,bahut achha likha hai badhai

कविता वर्मा:-
महिलाओ का करिअर बनाना गलत नहीं है लेकिन अपने बच्चे के मासूम बचपन की कीमत पर नहीं ? बेहद मार्मिक है उस बच्ची का यूं अकेले घुटना लेकिन कई माता पिता सिर्फ भौतिक सुख सुविधा को ही लाड प्यार समझते हैं ऐसे बच्चे फिर कभी किसी से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाते। दूसरा पन्ना अन्धविश्वास के पैदा होने को रोचक ढंग से प्रस्तुत करता है लेकिन ये अन्धविश्वास पूरे परिवार को जोड़ता भी है। इसलिए शायद हमारे पूजा पाठ व्रत उपवास जैसे धार्मिक आयोजन प्रचलित हैं।  दोनों ही पन्ने अच्छे लगे भाषा सधी हुई और कलात्मक होते हुए भी क्लिष्ट नहीं है।  आभार

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
दोनों ही प्रसंग महत्वपूर्ण और मार्मिक भी। पहला प्रसंग कुछ और विस्तार की मांग करता है।
मधु कांकरिया और मनीषा जी को साधुवाद

फ़रहत अली खान:-
पहला पन्ना शुरुआत में ख़ासा रोचक लगा; यूँ लगा गोया कोई भूतिया फ़िल्म चल रही हो। फिर बात मार्मिक हो गयी, बच्ची का दर्द महसूस होने लगा। पति-पत्नी का एक साथ नौकरी करना आजकल अक्सर घरों के ज़रूरत हो गयी है; लेकिन बच्चों और बुर्जुर्गों की ज़रूरियात के साथ तालमेल बिठाकर चलना चाहिए; ऐसा न कर पाने की सूरत में घर के माहौल और ज़हनों पर बुरे असरात पड़ते हैं, जो आगे नज़र आने लगते हैं।
दूसरा पन्ने में जिस घटना का ज़िक्र आया है, उसे मैं 'अंध-विश्वास' के बजाए 'ग़लत-फ़हमी' और 'कम-इल्मी' वाली बात कहना ज़्यादा बेहतर समझता हूँ।
'अंध-विश्वास'(यानी बिना-जाँचे-परखे या बिना-सोचे-समझे-देखे विश्वास) हम किस पर करते हैं? ये विचार करने योग्य प्रश्न है।
एक मासूम बच्चा जिसने दुनिया में अच्छा-बुरा समझना अभी-अभी शुरु ही किया है, अपने पिता की उंगली पकड़े कहीं भी चल देता है, जहाँ चाहे उसका पिता उसे ले जाए।
एक शख़्स जो बरसों से किसी डॉक्टर से इलाज कराता आ रहा है, डॉक्टर से ये नहीं पूछता कि डाक्साब आपने ये जो दवा पर्चे पर लिखी है ये कहीं मुझे नुक़्सान तो नहीं दे जायेगी? बिना-जाँचे-परखे वो वही दवा घर जाकर खाना चालू कर देता है। हाँ अगर कोई जानकार(इल्म वाला, ज्ञानी) शख़्स हुआ तो ये ज़रूर देख लेता है कि डाक्साब ने फ़लाँ-फ़लाँ दवाएँ दी हैं, जिनके फ़लाँ-फ़लाँ कंटेंट हैं; ये है ज्ञान का फ़ायदा जो जाँचने परखने की सलाहियत भी देता है और आरज़ू भी।
लेकिन अपने 'रब' की तुलना किसी भी हाल में हम किसी इंसान से नहीं कर सकते; हरगिज़ नहीं, हरगिज़ नहीं, हरगिज़ नहीं।
इसलिए मुझे 'अंध-विश्वास', 'सच्चा-विश्वास' और 'विश्वास' जैसे लफ़्ज़ों पर गहन विचार करने की ज़रुरत है; बात अगर निकलेगी तो बहुत लम्बी हो जायेगी।

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