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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 जुलाई, 2015

चर्चा : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ : रमेश उपाध्याय

मित्रो समय-समय हम यह देखते, पढ़ते और सुनते रहते हैं कि लिखने-पढ़ने वालों को, चित्रकारों, फ़िल्मकारों
आदि को सेंसर का सामना करना पड़ता है...फेसबुक.., वॉट्स एप्प, पर
हमें अपने विचारों की अभिव्यक्ति के
बदले सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है..कुछ कट्टर पंथियों ने तो पिछले दिनों कुछ ब्लॉगरों की हत्या तक की है....तस्लीमा देश निकाला भोग रही है...मुरुगन का मामला भी अभी हम भूले नहीं है...एम.एफ हुसैन को भी देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा...तो आइए आज हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा पर ही बात करते हैं....इस संबंध में हम क्या सोचते हैं....हमारी समझ क्या है ! अपनी समझ को एक दूसरे से साझा करते हैं....
बातचीत की शुरुआत के लिए
मैं आपके बीच...वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार, विचारक का लेख
इस लेख के बहाने हम लेख पर भी और विषय पर भी व्यापक चर्चा कर सकेंगे।
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ : रमेश उपाध्याय

मैं साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्रों में भी सक्रिय रहा हूँ। तीनों क्षेत्रों में मैंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न का सामना किया है। आम तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘‘बोलने की आजादी’’ के रूप में समझा जाता है, लेकिन वह सिर्फ बोलने की आजादी नहीं, उसमें और भी कई चीजें आती हैं। भाषण या वक्तव्य देने से लेकर लिखने और पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करने, चित्र और व्यंग्य चित्र बनाकर उन्हें प्रदर्शित और प्रकाशित करने, नाटक और नुक्कड़ नाटक लिखने-करने, डॉक्यूमेंटरी और फीचर फिल्में बनाने-दिखाने, रेडियो और टेलीविजन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने, सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया पर दूसरों से सहमत-असहमत होते या मतभेद और विरोध प्रकट करते हुए अपने विचार व्यक्त करने, सड़कों पर जुलूस निकालने और नारे लगाने, धरना-प्रदर्शन और घेराव-हड़ताल करने, साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाकर और सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाकर मनुष्य को बेहतर मनुष्य तथा दुनिया को बेहतर दुनिया बनाने तक के विभिन्न काम करने की स्वतंत्रता। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस व्यापक अर्थ में समझने पर ही उसके दमन या हनन और उसे प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले संघर्ष का अर्थ समझ में आता है। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजंेसी और सेंसरशिप लगाकर केवल प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। उन्होंने उसके जरिये नागरिक स्वतंत्रताओं और जनता के जनवादी अधिकारों का हनन भी किया था। वह इमरजेंसी तो 1977 में हट गयी, लेकिन एक अघोषित इमरजेंसी और सेंसरशिप अब भी लगी हुई है, जो उत्तरोत्तर सघन होती जा रही है। उसके अंतर्गत कभी कानून बनाकर और अक्सर गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन किया जाता है।

कानून बनाकर ऐसा करने का उदाहरण है 2008 में भारत सरकार द्वारा सन् 2000 के सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में धारा 66-ए को जोड़ा जाना (जिसे अभी मार्च, 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाया गया अनुचित अंकुश मानकर निरस्त किया है)। इस धारा के अनुसार पुलिस को यह अधिकार था कि वह चाहे जिस अभिव्यक्ति को अपराध मानकर दमनात्मक कार्रवाई कर सके। उदाहरण के लिए, फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखने वाली लड़की को ही नहीं, उस टिप्पणी को ‘लाइक’ करने वाली एक दूसरी लड़की को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को निरस्त कर दिया, बहुत अच्छा किया।

लेकिन गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो दमन और हनन किया जाता है, उसका क्या? पिछले काफी समय से धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर बने विभिन्न प्रकार के लोगों के समूह और संगठन लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, अखबारों और टी.वी. चैनलों के दफ्तरों आदि पर लगातार और उत्तरोत्तर बड़ी संख्या में हमले कर रहे हैं। यह एक प्रकार की अघोषित इमरजेंसी और नितांत गैर-कानूनी, बल्कि आपराधिक किस्म की सेंसरशिप है, जिससे किसी लेखक-पत्रकार को खामोश कर दिया जाता है, किसी अखबार या टी.वी. चैनल का स्वर बदल दिया जाता है, किसी कलाकार को देश छोड़कर दूसरे देश में जा बसने को मजबूर कर दिया जाता है, किसी सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता को जान से मार दिया जाता है, तो किसी साहित्यकार को जीते-जी अपनी साहित्यिक मृत्यु की घोषणा करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। इस इमरजेंसी और इस सेंसरशिप के रहते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है?

इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गयी इमरजेंसी का विरोध करने वाले लोगों के बीच हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई थीं :

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

अब फिर से ये पंक्तियाँ दोहरायी जाने लगी हैं, तो एक प्रकार से यह अच्छी ही बात है। लेकिन मुझे लगता है कि इन पंक्तियों का वास्तविक अर्थ न तब समझा गया था, न अब समझा जा रहा है। मुझे याद है कि इमरजेंसी के दौरान इन पंक्तियों को अक्सर दोहराने वाले एक पत्रकार मित्र से मैंने पूछा था कि ‘‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने’’ और ‘‘मठ और गढ़ सब तोड़ने’’ का क्या अर्थ है। उनका उत्तर था, ‘‘प्रेस की आजादी के लिए हम सारे खतरे उठाकर भी लड़ेंगे’’ और ‘‘जिस सरकार ने यह इमरजेंसी लगायी है, उसे बदलकर रख देंगे’’। सीमित अर्थों में उनका उत्तर सही था, लेकिन मैं उससे संतुष्ट नहीं था। एक दिन मैंने उन्हें मुक्तिबोध की पूरी कविता सुनाकर पूछा कि इसमें जो ‘‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’’ है, जिसे मुक्तिबोध ने ‘‘रहस्यमय व्यक्ति’’ कहा है, उसे ध्यान में रखते हुए बताइए कि कविता की इन पंक्तियों का क्या अर्थ है :

वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है,
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।

पत्रकार मित्र बेचारे क्या बताते! मैं तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी का प्राध्यापक रहा हूँ और मैंने हिंदी के कई प्रख्यात प्रोफेसरों तथा अग्रणी आलोचकों को इस कविता का अनर्थ करते देखा है। यहाँ कविता की व्याख्या करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं संक्षेप में और संकेत में कहना चाहता हूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ केवल ‘‘बोलने की आजादी’’ या ‘‘प्रेस की आजादी’’ नहीं, कुछ और है। उसका वास्तविक अर्थ मनुष्य को अभी तक प्राप्त अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर नहीं, बल्कि ‘‘अब तक न पायी गयी’’ अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर ही समझा जा सकता है।

मेरे विचार से मुक्तिबोध यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य अब तक अपनी संपूर्ण प्रगति और उन्नति के बावजूद पूर्ण मनुष्य नहीं बन पाया है, जबकि उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण मनुष्य बनना ही है। मनुष्यता की पूर्ण अवस्था वह है, जिसमें मनुष्य की अपनी संभावनाओं का, उसमें ‘‘निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं’’ का ‘‘परिपूर्ण आविर्भाव’’ हो। जब तक ऐसा नहीं है, तब तक मनुष्य अपूर्ण है, आधा-अधूरा है, उसकी अभिव्यक्ति भी आधी-अधूरी है; क्योंकि वह अपूर्ण मनुष्य होने के कारण अपनी मनुष्यता की पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। वर्तमान समाज और राज्य की व्यवस्था में मनुष्य को अभिव्यक्ति की जो क्षमता प्राप्त है, वह अपूर्ण है, अविकसित है। वह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था में ही पूर्ण रूप से विकसित होगी। मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति में तभी स्वतंत्र होगा, जब वह पूर्ण मनुष्य बनकर अपनी ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को प्राप्त कर लेगा।

इस प्रकार देखें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य का मनुष्य होना और अपनी मनुष्यता को व्यक्त करने में सक्षम होना। लेकिन जो भूखा है, बीमार है, अशिक्षित है, बेरोजगार है, हर तरह से लाचार है और पशुओं का-सा जीवन जीता है, उसे आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे भी दें, तो वह उसका क्या करेगा? वह स्वयं को व्यक्त करना चाहे और कर भी सके, तो क्या व्यक्त करेगा? कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसे आदमी को देखते हैं, जो बेघर और बेरोजगार है, जो माँगकर या चुराकर या छीनकर या कूड़े-कचरे में से कुछ बीनकर खाता है। आप उसके पास जाते हैं और कहते हैं कि ‘‘तुझे बोलने की आजादी है, बोल, क्या बोलना है तुझे’’, तो वह क्या बोलेगा? बहुत मुमकिन है कि वह आपसे भीख माँगेगा और भीख न मिलने पर गंदी गालियों से आपको नवाजेगा।

दुर्भाग्य से हमारे देश में, और आज की पूरी दुनिया में भी, ऐसे ही अमानुषिक बना दिये गये लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी अनुपात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या मनुष्यता की अभिव्यक्ति सबसे कम है। जो मनुष्य पशुवत जीवन जी रहा है, वह अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति कैसे करेगा? वह तो पशुता को ही व्यक्त करेगा। अतः उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने का अर्थ है पहले उसे पशु से मनुष्य बनाना और फिर उसे अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाते हुए पूर्ण मनुष्यता की ओर ले जाना। यह काम आज की पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था नहीं कर सकती, क्योंकि वही तो मनुष्यों को ऐसा अमानुषिक बनाती है। अतः यह हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। भाग्य, भगवान, सरकार या खुद उस अभागे पर यह जिम्मेदारी डालकर हम अपनी अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होकर भी वास्तव में क्या व्यक्त करते हैं? कम से कम मनुष्यता तो नहीं ही!

दूसरी तरफ उन लोगों को देखें, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबकी नहीं, सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखते हैं। उन्हें लगता है कि जो हम जैसा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। जो हमारे धर्म का, हमारी जाति का, हमारी पार्टी का या हमारे विचारों का नहीं है, वह कोई मानवेतर प्राणी है, जो हमारा शत्रु है, और हमारा यह अधिकार है कि हम उसे या तो अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बना लें, या उसे मार डालें। आजकल अपने देश में, और दूसरे तमाम देशों में भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यही रूप होता जा रहा है और इसकी भयानकता बढ़ती ही जा रही है। इसे हम सरेआम बरती और फैलायी जाने वाली घृणा, असहिष्णुता, हिंसा, बर्बरता, आतंकवाद आदि के विभिन्न रूपों में रोज देखते हैं। ऐसे लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझाना और उन्हें उनकी मनुष्यता की याद दिलाकर अमानुषिक कृत्यों से विरत करना भी हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। उन्हें मनुष्य बनाने की जिम्मेदारी हम उन व्यवस्थाओं पर नहीं डाल सकते, जो खुद ही उन्हें अमानुषिक, नृशंस और बर्बर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं।

मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है स्वयं अपनी मनुष्यता को बचाते और बढ़ाते हुए दूसरों को मनुष्य बनाना। यह एक आदर्श है, किंतु असंभव आदर्श नहीं। खोजने चलें, तो हमें आज की घोर अमानुषिक परिस्थितियों में भी मनुष्यता के उदाहरण मिल जायेंगे। मसलन, आप उन लोगों को देखें, जो शिक्षित हैं, सुसंस्कृत हैं, सृजनशील हैं, सभ्य और शिष्ट हैं, उदार और सहिष्णु हैं और जो घर-बाहर दोनों जगह आजादी, बराबरी और भाईचारे के जनतांत्रिक मूल्यों के अनुसार आचरण करते हैं। ऐसे लोग दुर्लभ नहीं हैं। खोजने चलेंगे, तो आप पायेंगे कि आपके आसपास ही ऐसे अनेक लोग हैं, जो आपके धर्म, आपकी जाति या आपकी-सी राजनीति वाले न होकर भी आपको मनुष्य मानते हैं। आप पायेंगे कि वे आपसे अपनी भिन्नता के आधार पर आपको अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बनाना अथवा ऐसा न कर पाने पर आपको मार डालना कत्तई न चाहते होंगे। वे ‘‘सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट’’ की जगह सब मनुष्यों को समान मानकर ‘‘जियो और जीने दो’’ वाली बात में, ‘‘मारो-खाओ हाथ न आओ’’ की जगह ‘‘दुनिया को बेहतर बनाओ’’ वाली बात में और ‘‘सबसे बड़ा रुपैया’’ की जगह ‘‘प्रेेम से बढ़कर कुछ नहीं’’ वाली बात में विश्वास करते होंगे। वे दूसरों में दोष और बुराइयाँ ही नहीं, गुण और अच्छाइयाँ भी देखते होंगे। हर बुराई या खराबी के लिए समाज या सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह कुछ बुराइयों और खराबियों के लिए खुद को भी जिम्मेदार मानते होंगे। वे समाज या राज्य की व्यवस्था को डंडे के जोर पर ठीक कर सकने वाले किसी तानाशाह को देश का शासक बनाने वाली बात की जगह जनतंत्र को सच्चा जनतंत्र बनाने तथा उसे बचाने-बढ़ाने वाली बात में विश्वास करते होंगे।

आप पायेंगे कि आपके आसपास ऐसे लोग हैं और वे कम नहीं हैं। विश्वास न हो, तो उन लोगों को देखें, जिन्हें अपने परिजनों से स्नेह और गुरुजनों से प्रोत्साहन मिला है। जिन्हें अच्छे मित्रों का साथ और सहयोग प्राप्त है। जिन्होंने प्रेम किया है और प्रेम पाया है। जो ज्ञान-विज्ञान में निपुण और साहित्य-संगीत आदि के प्रेमी हैं। जिनके विचार ऊँचे और सामाजिक सरोकार बड़े हैं। जो स्वहित के साथ सर्वहित के लिए भी सक्रिय रहते हैं। जो अपने भविष्य के साथ-साथ अपने पड़ोसियों और देशवासियों के भविष्य के बारे में भी सोचते हैं। जो स्वयं को पूर्ण मनुष्य बनाने के साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों को पूर्ण मनुष्य बनाने का स्वप्न देखते हैं और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अभिव्यक्ति की जो भी और जैसी भी स्वतंत्रता उन्हें प्राप्त है, उसका सदुपयोग करते हैं।

ऐसे लोग बोलेंगे, तो क्या बोलेंगे? वे एक तरफ मनुष्यों को अमानुषिक बनाने वाली व्यवस्था की आलोचना करेंगे, तो दूसरी तरफ अमानुषिक बना दिये गये लोगों को याद दिलायेंगे कि तुम्हें तुम्हारी मनुष्यता से वंचित कर दिया गया है, या पूर्ण मनुष्य बनने से रोक दिया गया है, इसलिए इस व्यवस्था को बनाये रखने के बजाय इसे बदलो। इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाओ।

लेकिन स्थापित व्यवस्थाएँ, चाहे वे किसी भी देश की हों, ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को अपने लिए खतरनाक मानती हैं और उसका दमन करती हैं। ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से उनके वे सब मठ और गढ़ असुरक्षित हो जाते हैं, जिनमें बैठकर वे मनुष्यों को अमानुषिक, गुलाम या पालतू पशु बनाती हैं। वे उनकी रक्षा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन और तेजी से करती हैं। इससे अभिव्यक्ति के लिए जो खतरे पैदा होते हैं, एक नहीं अनेक होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध ‘‘सारे खतरे’’ उठाने की बात करते हैं। स्थापित व्यवस्था के मठ और गढ़ भी अनेक और कई प्रकार के होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध उन ‘‘सब’’ को तोड़ने की बात करते हैं।
इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है ऐसी बात बोलना, जिससे बोलने वाले की मनुष्यता व्यक्त होती हो और उसके साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को पाने की संभावना पैदा होती हो।
०००
यह लेख रमेश उपाध्याय जी के ब्लॉगः
बेहतर दुनिया की तलाश से साभार है
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टिप्पणियाँ:-

संजीव:-
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शानदार तरीके से बात की गई है। अपनी तमाम क्षमता और संदर्भों के सही परिप्रेक्ष के साथ यह लेख अच्छी बहस उठाता है। दरअसल जीवन को सतही खांचों में बांटकर इस विषय पर विमर्श किया जाएगा तो वह मानव मुक्ति के व्यापक संदर्भ से कट जायेगा। स्वतंत्रता सिर्फ विचारों की अभिव्यक्ति की ही नहीं हो सकती है। स्वतंत्रता संपूर्ण जीवन में और सभी को एक साथ में जिया जाने वाला आचरण है। स्वतंत्रता खंडित रूप में कभी नहीं मिलती। क्या हम वर्तमान में स्वयं को पूर्ण स्वतंत्र अनुभव करते हैं? शायद नहीं तो हम अपने आपको किसी भी प्रकार से अभिव्यक्त करने में स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं? स्वतंत्रता एक क्रांति कारी आलोचनात्मक आचरण है जिसे हम सब सबके साथ मिलकर ही आचरित कर सकते हैं। इसमें भीख मांगने वाले और सुविधा जीवी बुद्धिजीवी का भेद नहीं किया जा सकता है। हम सब स्वतंत्रता के भय डरे हुए हैं। वह व्यक्ति जिसका जिक्र लेलेख में है वह आपसे हमसे यह भी तो कह सकता है कि पहले सत्ता द्वारा दी गई सुविधाओं को भोगना छोड कर सडक पर मेरी स्थितियों में होने का अनुभव करो तब बोलने की आजादी की बात करना।दरअसल हम इस तरह के जबाव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्योंकि हम स्वयं स्वतंत्रता की वावास्तविक अभिव्यक्ति से भयभीत हैं। स्वतंत्रता का अर्थ हममें से कोई भी नहीं समझ पाया है। हम सब अपने जीवन की सुविधाओं को सुरक्षित रखकर ही सोचते हैं।यही कारण है कि हम सब लौ
लौह पिंजरे में कैद हैं यह हमें सुनहरा दिखाई दे रहा है यही असली पराधीनता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे से हम दूसरों को बाहर नहीं कर सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ आतंकवादी होना भी हो सकता है उसे हम सिर्फ इसलिए गलत नहीं कह सकते की वह व्यापक मानवता के खिलाफ है। यह भी एक तरीका है स्वयं को अभिव्यक्त करने का यदि मुझे अन्य तरीकों से प्रतिबंधित किया गया है तो।
इस लेख में बहुत सार्थक मुद्दे उठाये जाने के बावजूद यह एक विशेष प्रकार के मानसिक अनुकूलन की ही अभिव्यक्ति है। इसके दायरे में भूखा होना अशिक्षित होना भिखमंगे होना मनुष्यता के दायरे में होना नहीं है। इन दायरों से बाहर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। हम स्वयं को और अपने वर्ग को ध्यान में रख कर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में सोचने के लिए अनुकूलित हैं। यह दायरा हमें मनुष्यता के संदर्भ से काट देता है। हम सब जिस सुनहरे लौह पिंजरे में कैद हैं उसे तोडने के संबंध में हम सोचने का साहस भी नहीं कर सकते हैं। जहाँ एक ओर जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी दिनरात जूझना पड रहा हो वहाँ उससे कहना की तुझे बोलने की आजादी है बोल और उसे बोलने न देकर स्वयं ही उसकी और से जबाव दे देते हैं। हमने वास्तव में    कभी उस भूखे व्यक्ति के पास जा कर यह प्रश्न नहीं किया और नहीं उसका जबाव जानने की कोशिश की।हम अपने पिंजरों में बैठे कर ही कल्पना करते।

मणि मोहन:-
सहमत संजीव भाई ...पर विमर्श का एक रास्ता तो खुलता दिखाई देता ही है ..अब देखो न इसी लेख लो पढ़कर आपने इतना कुछ सार्थक लिखा।
संध्या:-
यूँ अपने आप में परिपूर्ण लेख लेकिन कुछ मुद्दे संजीव जी ने उठाये ,मैं उनकी इस बात से पूर्णत:सहमत हूँ कि हम स्वयं को और अपने वर्ग को ध्यान में रखकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में सोचने को अनुकूलित हैं ।
निश्चित रूप से वो बर्ग जो दो वक्त की रोटी के लिए दिन भर जूझता है ।उसके लिए किसी भी तरह की अभिव्यक्ति का क्या अर्थ रह जाता है भला ? फिर भी लेखकीय जीव अपनी तरह से अपनी बात तो रखता ही है ।
मूलभूत आवशयकताओं की पूर्ती जहाँ जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा वनच्य हो ।वहाँ आखिर किस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात की जा सकती है ?

संजीव:-
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शानदार तरीके से बात की गई है। अपनी तमाम क्षमता और संदर्भों के सही परिप्रेक्ष के साथ यह लेख अच्छी बहस उठाता है। दरअसल जीवन को सतही खांचों में बांटकर इस विषय पर विमर्श किया जाएगा तो वह मानव मुक्ति के व्यापक संदर्भ से कट जायेगा। स्वतंत्रता सिर्फ विचारों की अभिव्यक्ति की ही नहीं हो सकती है। स्वतंत्रता संपूर्ण जीवन में और सभी को एक साथ में जिया जाने वाला आचरण है। स्वतंत्रता खंडित रूप में कभी नहीं मिलती। क्या हम वर्तमान में स्वयं को पूर्ण स्वतंत्र अनुभव करते हैं? शायद नहीं तो हम अपने आपको किसी भी प्रकार से अभिव्यक्त करने में स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं? स्वतंत्रता एक क्रांति कारी आलोचनात्मक आचरण है जिसे हम सब सबके साथ मिलकर ही आचरित कर सकते हैं। इसमें भीख मांगने वाले और सुविधा जीवी बुद्धिजीवी का भेद नहीं किया जा सकता है। हम सब स्वतंत्रता के भय डरे हुए हैं। वह व्यक्ति जिसका जिक्र लेलेख में है वह आपसे हमसे यह भी तो कह सकता है कि पहले सत्ता द्वारा दी गई सुविधाओं को भोगना छोड कर सडक पर मेरी स्थितियों में होने का अनुभव करो तब बोलने की आजादी की बात करना।दरअसल हम इस तरह के जबाव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्योंकि हम स्वयं स्वतंत्रता की वावास्तविक अभिव्यक्ति से भयभीत हैं। स्वतंत्रता का अर्थ हममें से कोई भी नहीं समझ पाया है। हम सब अपने जीवन की सुविधाओं को सुरक्षित रखकर ही सोचते हैं।यही कारण है कि हम सब लौ
लौह पिंजरे में कैद हैं यह हमें सुनहरा दिखाई दे रहा है यही असली पराधीनता।

संजीव:-
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे से हम दूसरों को बाहर नहीं कर सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ आतंकवादी होना भी हो सकता है उसे हम सिर्फ इसलिए गलत नहीं कह सकते की वह व्यापक मानवता के खिलाफ है। यह भी एक तरीका है स्वयं को अभिव्यक्त करने का यदि मुझे अन्य तरीकों से प्रतिबंधित किया गया है तो।

संजीव:-
इस लेख में बहुत सार्थक मुद्दे उठाये जाने के बावजूद यह एक विशेष प्रकार के मानसिक अनुकूलन की ही अभिव्यक्ति है। इसके दायरे में भूखा होना अशिक्षित होना भिखमंगे होना मनुष्यता के दायरे में होना नहीं है। इन दायरों से बाहर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। हम स्वयं को और अपने वर्ग को ध्यान में रख कर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में सोचने के लिए अनुकूलित हैं। यह दायरा हमें मनुष्यता के संदर्भ से काट देता है। हम सब जिस सुनहरे लौह पिंजरे में कैद हैं उसे तोडने के संबंध में हम सोचने का साहस भी नहीं कर सकते हैं। जहाँ एक ओर जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी दिनरात जूझना पड रहा हो वहाँ उससे कहना की तुझे बोलने की आजादी है बोल और उसे बोलने न देकर स्वयं ही उसकी और से जबाव दे देते हैं। हमने वास्तव में    कभी उस भूखे व्यक्ति के पास जा कर यह प्रश्न नहीं किया और नहीं उसका जबाव जानने की कोशिश की।हम अपने पिंजरों में बैठे कर ही कल्पना करते हैं।

[10:27, 6/27/2015] अशोक जैन:-: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

पहले तो क्षमा करें लेख बहुत लंबा पर तथ्यपरक है।

हमारे संविधान में हमें हमारे ज्ञान, विचारधारा , मत आदि के अनुसार बोलने की आजादी दी गई है। किंतु साथ ही यह भी सुनिश्चित करा गया है कि किसी दूसरे के प्रति घृणापूर्वक या अपमानजनक बोलना ना हो। अपनी बात रखने की सबको आजादी है पर वह देश के संविधान के अनुरूप होना चाहिए।

विरोध करने की स्वतंत्रता है पर वह भी संविधान के अनुरुप ही।

यह भी सत्य है कि समस्त सरकारें इस प्रकार कानून में संशोधन कर देती हैं कि कहीं न कहीं उनके विरुद्ध उठ रही आवाजों को दबाया जा सके। या प्रलोभन से रोका जा सके। पहले भी यही होता था और आज भी यही हो रहा है।

कहीं कहीं सरकारें भी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर  खतरनाक खेल खेलती हैं। जिसका उदाहरण दिल्ली सरकार द्वारा गणतंत्र दिवस के समय आंदोलन।

फ़रहत अली खान:-
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है लेकिन कुछ ख़ास दायरों में रहकर। ज़ाहिर है कि ये दायरे यानी इससे जुड़े सार्थक क़ानून बनाना सरकार का काम है। मगर ऐसा करते समय सरकार को समझदारी और दूरदर्शिता का परिचय देना होगा; केवल एक ही नहीं, बल्कि सारे पहलू, सारे आयाम देखने होंगे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होना एक अच्छे लोकतंत्र के लिए बे-शक बहुत ज़रूरी है, लेकिन 'स्वतंत्रता' और 'स्वच्छंदता' में बेहद महीन अंतर होता है, हमें ये बात समझना चाहिए।
उपाध्याय जी के लेख में जो मुझे हासिल-ए-मज़्मून और क़ाबिल-ए-ग़ौर बात नज़र आई वो ये कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ स्वयं अपनी मनुष्यता को बचाते और बढ़ाते हुए, दूसरों को मनुष्य बनाना।
किसी धर्म या ज़ात पर अमर्यादित टिप्पणी करना या लांछन लगाना अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आने लगेगा तब तो जनता भी उस पर हिंसक-अहिंसक प्रतिक्रिया देने के लिए आज़ाद होनी चाहिए; ऐसे तो लोकतंत्र चलने से रहा भई।
ये अच्छी बात है कि समाज की बेहतरी के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी दी जाए लेकिन अगर कोई शख़्स किसी धर्म या ज़ात से घृणा करता हो और ख़ुद को व्यक्त करने के नाम पर अपनी सारी भड़ास निकाल दे, तब क्या किया जाए? क्या ऐसे में सरकार को उस पर उचित कार्यवाही नहीं करनी चाहिए? और अगर सरकार से न्याय नहीं मिलेगा तो क्या पीड़ित जनता का आक्रोश नहीं फूटेगा? तो फिर ऐसी नौबत आने ही क्यूँ दी जाए?
इसलिए खुली छूट देने के बजाए इस बाबत कुछ अच्छे क़ानून बनाने चाहिए।
अभी मुझे अपने एक सीनियर की एक बार याद आ रही है जो अभी कल या परसों ही उन्होंने मुझसे कही।
उन्होंने कहा कि तुम्हें सामने जहाँ तक दिखाई दे रहा है, इसका मतलब ये थोड़ी हुआ कि क़ायनात बस वहीँ तक है।
यहाँ लफ़्ज़-ए-'क़ायनात' को उसके सीधे अर्थों के बजाए 'ज्ञान'/'बुद्धि' समझ कर ले

प्रज्ञा :-
बहुत ज़रूरी लेख। स्वतन्त्रता का अर्थ कई लोग केवल अच्छा खाने पहनने घूमने फिरने की छूट तक ही समझते हैं। आज़ादी एक बड़ा मूल्य है और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिये अनेक खतरे उठाने ही होंगे। दिनों दिन सत्ता प्रतिष्ठान संकट पैदा करेंगे ऐसे में आज़ादी और अभिव्यक्ति के लिये सतत संगठित संघर्ष करने होंगे

मनीषा जैन :-
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शानदार तरीके से बात की गई है। अपनी तमाम क्षमता और संदर्भों के सही परिप्रेक्ष के साथ यह लेख अच्छी बहस उठाता है। दरअसल जीवन को सतही खांचों में बांटकर इस विषय पर विमर्श किया जाएगा तो वह मानव मुक्ति के व्यापक संदर्भ से कट जायेगा। स्वतंत्रता सिर्फ विचारों की अभिव्यक्ति की ही नहीं हो सकती है। स्वतंत्रता संपूर्ण जीवन में और सभी को एक साथ में जिया जाने वाला आचरण है। स्वतंत्रता खंडित रूप में कभी नहीं मिलती। क्या हम वर्तमान में स्वयं को पूर्ण स्वतंत्र अनुभव करते हैं? शायद नहीं तो हम अपने आपको किसी भी प्रकार से अभिव्यक्त करने में स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं? स्वतंत्रता एक क्रांति कारी आलोचनात्मक आचरण है जिसे हम सब सबके साथ मिलकर ही आचरित कर सकते हैं। इसमें भीख मांगने वाले और सुविधा जीवी बुद्धिजीवी का भेद नहीं किया जा सकता है। हम सब स्वतंत्रता के भय डरे हुए हैं। वह व्यक्ति जिसका जिक्र लेलेख में है वह आपसे हमसे यह भी तो कह सकता है कि पहले सत्ता द्वारा दी गई सुविधाओं को भोगना छोड कर सडक पर मेरी स्थितियों में होने का अनुभव करो तब बोलने की आजादी की बात करना।दरअसल हम इस तरह के जबाव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्योंकि हम स्वयं स्वतंत्रता की वावास्तविक अभिव्यक्ति से भयभीत हैं। स्वतंत्रता का अर्थ हममें से कोई भी नहीं समझ पाया है। हम सब अपने जीवन की सुविधाओं को सुरक्षित रखकर ही सोचते हैं।यही कारण है कि हम सब लौ
लौह पिंजरे में कैद हैं यह हमें सुनहरा दिखाई दे रहा है यही असली पराधीनता है।

इस लेख में बहुत सार्थक मुद्दे उठाये जाने के बावजूद यह एक विशेष प्रकार के मानसिक अनुकूलन की ही अभिव्यक्ति है। इसके दायरे में भूखा होना अशिक्षित होना भिखमंगे होना मनुष्यता के दायरे में होना नहीं है। इन दायरों से बाहर लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। हम स्वयं को और अपने वर्ग को ध्यान में रख कर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में सोचने के लिए अनुकूलित हैं। यह दायरा हमें मनुष्यता के संदर्भ से काट देता है। हम सब जिस सुनहरे लौह पिंजरे में कैद हैं उसे तोडने के संबंध में हम सोचने का साहस भी नहीं कर सकते हैं। जहाँ एक ओर जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी दिनरात जूझना पड रहा हो वहाँ उससे कहना की तुझे बोलने की आजादी है बोल और उसे बोलने न देकर स्वयं ही उसकी और से जबाव दे देते हैं। हमने वास्तव में    कभी उस भूखे व्यक्ति के पास जा कर यह प्रश्न नहीं किया और नहीं उसका जबाव जानने की कोशिश की।हम अपने पिंजरों में बैठे कर ही कल्पना करते हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे से हम दूसरों को बाहर नहीं कर सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ आतंकवादी होना भी हो सकता है उसे हम सिर्फ इसलिए गलत नहीं कह सकते की वह व्यापक मानवता के खिलाफ है। यह भी एक तरीका है स्वयं को अभिव्यक्त करने का यदि मुझे अन्य तरीकों से प्रतिबंधित किया गया है तो।

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