आज करगिल दिवस पर जहां हर तरफ छप्पन से सत्तर इंच का सीना फुला कर हमें गौरव गाथाएं सुनाई जाएँगी मैं अपने एक मित्र अरुण आदित्य की तीन छोटी कविताओं से आपका तार्रुफ़ कराना चाहता हूँ। शायद अच्छा लगे।
:-सत्यनारायण पटेल
कारगिल : तीन कविताएं
अरुण आदित्य
1. अलक्षित
अभी-अभी जिस दुश्मन को निशाना बनाकर
एक गोली चलाई है मैंने
गोली चलने और उसकी चीख के बीच
कुछ पल के लिए मुझे उसका चेहरा
बिलकुल अपने छोटे भाई महेश जैसा लगा
जिस पर सन् 1973 में
जब मैं आठवीं का छात्र था और वह छठीं का
इसी तरह गोली चलाई थी मैंने
स्कूल में खेले जा रहे बंग-मुक्ति नाटक में
मैं भारतीय सैनिक बना था और वह पाकिस्तानी
बंदूक नकली थी पर भाई की चीख इतनी असली
कि भीतर तक कांप गया था मैं
लेकिन तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच
जिस तरह नजर अंदाज कर दी जाती हैं बहुत सी चीजें
अलक्षित रह गया था मेरा कांप जाना
सब दे रहे थे बांके बिहारी मास्साब को बधाई
जो इस नाटक के निर्देशक थे
और जिन्होंने कुछ तुकबंदियां लिखी थीं जिन्हें कविता मान
मुहावरे की भाषा में लोग उन्हें कवि हृदय कहते थे
नाटक खत्म होने के बाद
गदगद भाव से बधाइयां ले रहे थे बांके बिहारी मास्साब
और तेरह साल का बच्चा मैं, सोच रहा था
कि गोली मेरी और चीख मेरे भाई की
फिर बधाइयां क्यों ले रहे हैं बांके बिहारी मास्साब
अभी-अभी जब असली गोली चलाई है मैंने
तो मरने वाले के चेहरे में अपने भाई की सूरत देख
एक पल के लिए फिर कांप गया हूं मैं
पर मुझे पता है कि इस बार भी अलक्षित ही रह जाएगा
मेरा यह कांप जाना
दर्शक दीर्घा में बैठे लोग मेरे इस शौर्य प्रदर्शन पर
तालियां बजा रहे होंगे
और बधाइयां बटोर रहे होंगे कोई और बांके बिहारी मास्साब।
2. दुश्मन के चेहरे में
वह आदमी जो उस तरफ बंकर में से जरा सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आंखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूंछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूंछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूंछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दांतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूं
तो काली घनी मूंछों के साथ
उनका अठारह बीस साल पुराना चेहरा ही नजर आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूंछों से खेलता था
खेलता कम था, मूंछों को नोचता और उखाड़ता ज्यादा था
जिसे देख मां हंसती थी
और हंसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूंछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी मां की वो हंसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से मां के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में
पहली तनख्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूं पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा
मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीजें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ मां की हंसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीजें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूं हर बारा
आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाकात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी मां को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूं यह पत्र
उसकी आंखों से हो रही है बरसात
बाइनोकुलर से आंख हटा
जेब से पत्र निकालता हूं
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी मां
सोचता हूं तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
मां बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आंखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में
पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ दो डबडबाई आंखें नजर आती हैं
बार-बार सोचता हूं कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नजर आती हैं दो डबडबाई आंखें
बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आंखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर
बंकर से झांक रहे चेहरे की मूंछें
बिलकुल पिताजी की मूंछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?
3. स्वगत
खून जमा देने वाली इस बर्फानी घाटी में
किसके लिए लड़ रहा हूं मैं
पत्र में पूछा है तुमने
यह जो बहुत आसान सा लगने वाला सवाल
दुश्मन की गोलियों का जवाब देने से भी
ज्यादा कठिन है इसका जवाब
अगर किसी और ने पूछा होता यही प्रश्न
तो, सिर्फ अपने देश के लिए लड़ रहा हूं
गर्व से कहता सीना तान
पर तुम जो मेरे बारीक से बारीक झूठ को भी जाती हो ताड़
तुम्हारे सामने कैसे ले सकता हूं इस अर्धसत्य की आड़
देश के लिए लड़ रहा हूं यह हकीकत है लेकिन
कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं
जो मेरी जीत-हार की विसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज
और कह भी दूं तो क्या फर्क पड़ेगा
जब कि जानता हूं इनमें से कोई न कोई
उठा ही लेगा मेरी जीत-हार या शहादत का लाभ
मेरा जवाब तो छोड़ो
तुम्हारे सवाल से ही मच सकता है बवाल
सरकार सुन ले तो कहे-
सेना का मनोबल गिराने वाला है यह प्रश्न
विपक्ष के हाथ पड़ जाए
तो वह इसे बटकर बनाए मजबूत रस्सी
और बांध दे सरकार के हाथ-पांव
इसी रस्सी से तुम्हारे लिए
फांसी का फंदा भी बना सकता है कोई
इसलिए तुम्हारे इस सवाल को
दिल की सात तहों के नीचे छिपाता हूं
और इसका जवाब देने से कतराता हूं।
- अरुण आदित्य
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टिप्पणियाँ:-
आनंद पचौरी:-: बहुत लंबी गैरहाजिरी के बाद सभी साथियों से बहुत मार्मिक,सरल और आत्मीयता की गहन अनुभूति की कविताएँ।एक पूरी फिल्म सी घूम गई आंखों के सामने।मैने उस युदध् की भयानकता देखी है जिस पर आज सब इतरा रहे है़।उस संवेदनशील मन को प्रणाम जिस से आज ये कविताएँ अवतरित हुईं।
राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
अद्भुत कविताएं। पुनर्पाठ की मांग करती कविताएं। एक बार पढ़ना पर्याप्त नहीं। विशेषकर पहली कविता अलक्षित और तीसरी कविता स्वगत तो युद्ध की विभीषिका के पीछे छिपी सच्चाइयों परत दर परत उघाड़ती हुई।अरुण आदित्य जी को प्रणाम। आदरणीय सत्यनारायण जी के प्रति आभार
राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे
निरंजन श्रोत्रिय:-
अरुण की एकबार फिर से झिंझोड़ देने वाली कविताएँ। बचपन में कभी एक नारा सुना करता था -"जवान जीते जंग....सियासत करे ताशकंद।" युद्ध की विभीषिका/पीड़ा और उसके अन्तर्निहित राजनीतिक स्वार्थों को बेकनाब करती अरुण की ये कविताएँ जलते हुए सवाल हैं। ऐसे सवाल जो सबके मन में घुमड़ते ज़रूर हैं लेकिन पूछे नहीं जाते।
प्रदीप कान्त:-
अरुण की खासियत ही है कि वह सरल भाषा में जटिल विषयों पर कविता लिख लेता है । जहां गोली मेरी और चीख मेरे भाई की जैसे वाक्य भीतर तक उतरते हैं
आलोक बाजपेयी:-
अपने यहाँ युद्ध विरोधी साहित्य कम ही लिखा गया है क्योंकि भारतीय जनमानस का ज्यादा साबका युद्ध से नहीं पड़ा और युद्ध को लेकर एक रोमांच और देश भक्ति जोड़ दी गयी है।ऐसे में ये कविताएं एक सुखद अहसास की तरह है।कवि को सलाम।
अरुण आदित्य :-
आनंद पचौरी जी, निरंजन भाई, प्रदीप मिश्र, प्रदीप कांत, स्वरांगी, राजेंद्र श्रीवास्तव जी, अर्पण जी, सैंडी जी, बलविंदर जी, कविता जी, मनीषा जीआप सब को इन कविताओं को पढने और चर्चा में भाग लेने के लिए शुक्रिया।
वागीश जी और सत्या भाई, इन कविताओं को यहां साझा करने के लिए हार्दिक आभार।
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