छैले की जैकेट
मैं सिलाऊँगा
काली पतलूनें
अपनी आवाज की
मखमल सेऔर
तीन गज
सूर्यास्त से
पीली जैकेट।
टहलूँगा मैं
डान जुआँ
और छेले की तरह
विश्व के चमकीले
नेव्स्की चौराहे पर।
अमन में
औरता गयी
पृथ्वी चिल्लाती रहे :
''तुम जा रहे हो
हरी बहारों से
बलात्कार करने।''
निर्लज्ज हों,
दाँत दिखाते हुए
कहूँगा सूर्य को :
''देख, मजा आता है
मुझे सड़को पर
मटरगश्ती करने में।''
आकाश का रंग
इसीलिए तो
नीला नहीं है क्या
कि उत्सव जैसी
इस स्वच्छता में
यह पृथ्वी बनी है
मेरे प्रेमिका,
लो,
भेंट करता हूँ
तुम्हें कठपुतलियों-सी
हँसमुख
और टूथब्रश
की तरह
तीखी और
अनिवार्य कविताएँ!
ओ मेरे मांस से
प्यार करती औरतों,
मेरी बहनों की तरह
मुझे देखती
लड़कियों,
बौछार करो
मुझ कवि पर
मुस्कानों की,
चिपकाऊँगा मैं
फूलों की तरह
अपनी जैकेट पर उन्हें।
सस्ता सौदा
चलाने लगता हूँ
जब किसी औरत से
प्यार का चक्कर
या महज देखने लगता हूँ
राहगीरों की तरफ...
हर कोई
सँभालने लगता है
अपनी जेबें।
कितना हास्यास्पद!
अरे रंकों के यहाँ भी
कोई डाका डाल
सकता है क्या?
बीत चुके होंगे
न जाने कितने वर्ष
जब मालूम होगा -
शिनाख्त के लिए
शव-गृह में
पड़ा हुआ मैं
कम नहीं था धनी
किसी भी प्येरपोंट
मोरगन की
तुलना में।
न जाने
कितने वर्षों बाद
रह नहीं पाऊँगा
जीवित जब
दम तोड़ दूँगा
भूख के मारे
या पिस्तौल का
निशाना बन कर -
आज के मुझ उजड्ड को
अंतिम शब्द तक
याद करेंगे प्राध्यापक -
कब?
कहाँ?
कैसे अवतरित हुआ?
साहित्य विभाग का
कोई महामूर्ख
बकवास करता फिरेगा
भगवान-शैतान के
विषय में।
झुकेगी
चापलूस और
घमंडी भीड़ :
पहचानना
मुश्किल हो जायेगा उसे :
मैं-मैं ही हूँ क्या :
कुछ-न-कुछ वह
अवश्य ही खोज निकालेगी
मेरी गंजी खोपड़ी पर
सींग या प्रभामंडल
जैसी कोई चीज।
हर छात्रा
लेटने से पहले
होती रहेगी मंत्रमुग्ध मेरी कविताओं पर।
मालूम है मुझ
निराशावादी को
सदा-सदा रहेगी
कोई-न-कोई छात्रा
इस धरा पर।
तो सुनो!
मापो उन सभी
संपदाओं को
जिनका मालिक है
मेरा हदय
महानताएँ
अलंकार हैं
अमरत्व की ओर
बढ़ते मेरे कदमों की,
और मेरी अमरता
शताब्दियों में से
उद्घोष करती
एकत्र करेगी
दुनिया भर के
मेरे प्रशंसक -
चाहिए क्या
तुम्हें यह सब कुछ?
अभी देता हूँ
मात्र एक स्नेहपूर्ण
मानवीय शब्द
के बदले में।
लोगों!
खेत और राजपथ रौंदते हुए!
चले आओ
दुनिया के हर हिस्से से।
आज
पेत्रोग्राद,
नाद्योझिन्सकाया में
बिक रहा है
एक अमूल्य मुकुट
दाम है जिसका
मात्र एक मानवीय शब्द।
सच्च,
सौदा सस्ता है ना?
पर कोशिश तो करो
मिलता भी है कि नहीं -
वह एक शब्द मानवीय।
लेखक स्वयं अपने आपको समर्पित करता है ये पंक्तियाँ
प्रहार की तरह भारी
बज गये हैं चार
मुझ जैसा आदमी
सिर छिपाये तो कहाँ?
कहाँ है मेरे लिए बनी हुई कोई माँद?
यदि मैं होता
महासागर जितना छोटा
उठता लहरों के पंजों पर
और कर आता चुंबन चंद्रमा का!
कहाँ मिलेगी मुझे
अपने जैसी प्रेमिका?
समा नहीं पायेगी वह
इतने छोटे-से आकाश में।
यदि मैं होता
करोड़पतियों जितना निर्धन!
पैसों की हृदय को क्या जरूरत?
पर उसमें छिपा है लालची चोर।
मेरी अभिलाषाओं की अनियंत्रित भीड़ को
कैलिफोर्नियाओं का भी सोना पड़ जाता है कम।
यदि मैं हकलाने
लगता
दांते
या पेत्राक की तरह
किसी के लिए तो प्रज्ज्वलित कर पाता अपना हृदय।
दे पाता कविताओं
से उसे ध्वस्त करने का आदेश।
बार-बार
प्यार मेरा बनता रहेगा
विजय द्वार :
जिसमें से गुजरती रहेंगी
बिना चिह्न छोड़े प्रेमिकाएँ युगों-युगों की।
यदि मैं होता
मेघ गर्जनाओं
जितना शांत-कराहता
झकझोरता पृथ्वी की
जीर्ण झोंपड़ी।
निकाल पाऊँ
यदि पूरी ताकत से आवाज़ें
तोड़ डालेंगे
पुच्छलतारे पने हाथ
और दु:खों के बोझ से गिर आयेंगे नीचे।
ओ,
यदि मैं होता
सूर्य जितना निस्तेज
आँखों की किरणों से चीर डालता रातें!
बहुत चाहता हूँ मैं पिलाना
धरती की प्यासी प्रकृति को अपना आलोक।
चला जाऊँगा
घसीटता अपनी प्रेमिका को।
न जाने किस
ज्वरग्रस्त रात में
किन बलिष्ठ पुरुर्षों
के वीर्य से
पैदा हुआ मैं
इतना बड़ा
और इतना अवांछित?
सुनिये
सुनिये!
आखिर यदि जलते हैं तारे
किसी को तो होगी उनकी जरूरत?
कोई तो चाहता होगा उनका होना?
कोई तो पुकारता होगा थूक के इन छींटों को
हीरों के नामों से?
और दोपहर की
धूल के अंधड़ में,
अपनी पूरी ताकत लगाता
पहुँच ही जाता है खुदा के पास,
डरता है कि देर हुई है उससे,
रोता है,
चूमता है उसके मजबूत हाथ,
प्रार्थना करता है
कि अवश्य ही रहे कोई-न-कोई तारा उसके ऊपर।
कसमें खाता है
कि बर्दाश्त नहीं कर
सकेगा तारों रहित
अपने दुख।
और उसके बाद
चल देता है चिंतित
लेकिन बाहर से शांत।
कहता है वह किसी से,
अब तो सब कुछ
ठीक है ना?
डर तो नहीं लगता?
सुनिये!
तारों के जलते रहने का
कुछ तो होगा अर्थ?
किसी को तो होगी इसकी जरूरत?
जरूरी होता होगा
हर शाम छत के ऊपर
चमकना कम-से-कम
एक तार का?
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