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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 सितंबर, 2015

कविता : सुकृता पॉल कुमार : अनुवाद सरिता शर्मा

आज पढ़ते है अंग्रेजी की कवयित्री सुकृता पाॅल कुमार की कविताएं। अनुवाद किया है सरिता शर्मा ने।

⭕ मेरी खोई हुई डायरी 

हर रात की
सचेत गोपनीयता में
अँधेरे और चुप्पी
के संगम से जन्मे

छह ऊबड़-खाबड़ साल कुचले पड़े हैं,

सोमवार, मंगलवार या बुधवार
के रूप में
चिह्नित नहीं
न ही पहली, दूसरी या तीसरी
तारीखों की शक्ल में
बल्कि चकतों और दमक के साथ

हर अक्षर बोझिल
छायाओं और दूतों से

मैंने डायरी में लिखा तो
अँगुलियाँ फड़की थीं
पास बैठे बच्चे के
सपनों से होते हुए

दाएँ से
और फिर बाएँ से
उतरते शब्द
सच्चे, सिर उठाए हुए,

शराफत और दुराचार के
इधर-उधर
चलते-फिरते प्रतीक

ईमानदार भावनाएँ
उबलती हुई शिकायतें

हाय राम
पूरी दुनिया से
और खुद से झगड़ा

यहाँ चिपचिपे जालों
में उलझी

वहाँ, सँकरे रास्तों की
तरेड़ों में खोई

पक्षियों के घोंसले में
अंडे तोड़ती हुई

शब्द जवाब देते हैं
अर्थ बाहर की ओर रेंग जाते हैं

पुराने जख्मों पर
नमक छिड़कते हुए;

यह सब
दिन के उजाले में कभी नहीं
जब हरेक पृष्ठ के
टुकड़े-टुकड़े करके

बच्चे ने फाड़ दी डायरी

घंटे और मिनट
उल्लास में लुढ़क गए

समय का चश्मा
खिड़की से बाहर उड़ गया
आजाद कबूतरों की भाँति।

⭕  परिवर्तक 

मैंने लाफिंग बुद्ध के
उस बूढ़े चेहरे पर
मासूमियत को देखा
जो अचानक आँसुओं से तर हो गया और
जिसने अपार आनंद की धाराओं को
गहरी झुर्रियों से ढुलकने दिया

उनकी भृकुटी के बीच टिकी
संगीत की सब बाईस श्रुतियों ने
नाद और अनहद के बीच
अपनी-अपनी तान में
एक सुर में गाया

भीतरी कान ने
दर्द और खुशी की
एकताल में गूँजती हुई
चुप्पी साध रखी थी
जो ध्वनि में नहीं
बल्कि श्रुति मंजरी के
रंग और छवियों में और
संगीत की भाषा बोलने वाली
तस्वीर में ढल गई।

मुझे तब पता नहीं था
जो मैं अब जानती हूँ

छत पर धम की भारी आवाज
रोज-रोज की नींद की
चट्टानी चुप्पी को तोड़ती हुई
उड़ने वाली लोमड़ी थी वह
जिसके पंख नहीं ले जाते
आकाश में अपना वजन
न ही करते हैं मुकाबला पहाड़ी कोहरे से

सपनों से बाहर भीड़ मचाते हुए
मैं निपट अकेली रात की
काली सुरंग में गिर पड़ूँगी
चाँदनी से भरी बर्फ
की महिमा में नहीं
बल्कि अनिद्र रातों के
सुस्त कोलाहल की वेदना में

ऊपर जाने की जोखिम भरी यात्रा
ऊपर चढ़ना मुश्किल
नीचे उतरना उससे भी कठिन
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परिचय
सुकृता पॉल कुमार

जन्म : केन्या

विधाएँ : कविता, आलोचना, चित्रकला, अनुवाद, संपादन

मुख्य कृतियाँ-
ड्रीम कैचर, विदाउट मार्जिन्स, फोल्ड्स ऑफ़ साइलेंस, नैरेटिंग पार्टीशन, दि न्यू स्टोरी, मैन, वुमन एंड एंडरोजिनी और इस्मत, हर लाइफ, हर टाइम्स
अनुवाद -
स्टोरीज ऑफ़ जोगिंदर पॉल, स्लीपवाकर्स
संपादन : मैपिंग मेमोरीज (अंग्रेजी और उर्दू कहानियों का एक संकलन), स्पीकिंग फॉर हरसेल्फ़ : एन एंथ्रोलोजी ऑफ़ एशियन वूमन्स राइटिंग्स (सह-संपादन), क्रॉसिंग ओवर (हवाई विश्वविद्यालय - अतिथि संपादक), म्यूज इंडिया (अतिथि संपादक) और मार्गरेट लॉरेंस रिव्यू 

साभार - कविताकोश
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टिप्पणियाँ:-

अल्का सिगतिया:-
कुछ कविताएँ दिल से लिखी। जाती। हैं। कुछ। दिमाग़  से।जहाँ। तक मेरी। छोटी। सीसमझ है। ,यहाँ दोनों  हैं।बाक़ी बातें। आप सब से समझूंगी

सुवर्णा :-
सामान्यतया अनुवादित कविताएँ मुझे कम समझ आती हैं। पर आज की कविताएँ सहज लगीं। विशेष तौर पर पहली बहुत अच्छी लगी।

प्रज्ञा :-
सुकृता पॉल की मेरी खोई हुई डायरी अधिक अच्छी लगी। ये कबिता अनेक स्त्रियों की डायरी की प्रातिनिधिक कविता बनती है इसलिये इसकी सघनता और व्यापकता अधिक है। दूसरी कविता का अंतिम हिस्सा अधिक अच्छा लगा। पर परिवर्तक का बिम्ब "संगीत  की भाषा। बोलने वाली तस्वीर में ढल गयी तक" सही प्रवाहित हुआ पर बाद का हिस्सा पता नही क्यों उससे ठीक जुड़ा नहीं महसूस हुआ। बाकी मित्र कहेंगे ही।

किसलय पांचोली:-
पहली कविता अच्छी लगी। विशेषकर .....ईमानदार भावनाएँ उबलती हुई शिकायतें/.... शब्द जवाब देते हैं अर्थ बाहर की और रेंग जाते हैं/... टुकड़े टुकड़े कर के बच्चे ने फाड़ दी डायरी/.....समय का चश्मा खिडक़ी से उड़ गया आजाद कबूतर की भांति।
यहाँ मैंने आखिरी उल्लेखित पंक्ति में  बाहर ' शब्द को हटाया है और कबूतरों को 'कबूतर' लिखा है।
मुझे लगा पूर्व में अर्थ बाहर की ओर रेंग जाते हैं का प्रभाव समय के चश्में और कबूतर के बिम्ब के साथ भी बाहर लिखने से कमतर  हो कर कविता में दोहराव पैदा कर रहा है।  दूसरे समय का चश्मा एक होगा तो कबूतरों की भांति कैसे उड़ेगा?
दूसरी कविता कम समझ आई।

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