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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 सितंबर, 2015

संस्मरण : गीतिका द्विवेदी

आज प्रस्तुत है समूह इंदौर एक की साथी गीतिका द्विवदी जी का एक संस्मरण। आप भी पढ़े व प्रतिक्रिया जरूर दीजिए।

यह संस्मरण मैंने कुछ समय पहले लिखा था।तब मेरे पिता जी जीवित थे।आज उसमें कुछ कड़ियों को जोड़ने जा रही हूँ।उस वक़्त चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर सकी थी,अब तो कुछ करने के लिए पिताजी ही नहीं रहे।
        

बात मेरे बचपन की है।मेरे सभी भाई -बहन मेरे पिताजी को पापा कहते थे।मैं सबसे छोटी थी।पापा कहने के प्रयास में बचपन की तोतली जबान ने ता-ता-ता कर जब तातु बोला तो मेरे पापा को इतना अच्छा लगा कि बड़े होने  पर भी वह मुझे तातु कहने को प्रोत्साहित करते  रहे।यह बात अलग है कि बड़े होने पर पता चला कि तातु ,पिता का एक पर्यायवाची शब्द है। 'तात् 'से तातु ! मेरे तातु विद्वान,शास्त्रीय संगीतज्ञ और अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे।मेरे पिताजी का अनुशासन मशहूर था।उनकी संतानों में सबसे छोटी होने के कारण मेरे समय तक अनुशासन की धार का पैनापन थोड़ा कम हो गया था।बचपन में मुझे अक्सर यह लगता था कि तातु मुझे दोनों बड़ी बहनों की तुलना में कम स्नेह करते हैं।कई बार मैं उनसे बिना डरे अपने मन का संदेह प्रकट कर देती थी।मैं जब कभी शिकायत करती तब वह  अक्सर हँसकर मेरे माथे  को चूम लेते थे।मेरी दोनों बहनें मुझसे उम्र में काफी बड़ी थी।एक बहुत अच्छी चित्रकार थी तो दूसरी गायिका।अक्सर तातु को देखती कभी बड़ी दीदी को चित्रकारी में मदद कर रहे हैं तो कभी छोटी दीदी के साथ रियाज़ कर रहे हैं।मुझसे पढ़ाई की बातें करते,जो मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।उस छोटी सी उम्र में मुझे लगने लगा कि मुझमें कोई विशेष योग्यता नहीं है इसलिए तातु मुझे प्यार नहीं करते हैं।                                                      
          एक दिन मैं बहुत उदास बैठी थी कि मेरे तातु मेरे पास आए और कहने लगे -'मेरी रेडियो (कभी -कभी मुझे इस नाम से भी पुकारते थे) क्या बात है,आज इतनी चुपचाप क्यों हो '?मैं वही पुराना राग अलापने लगी-'तातु आपको यह बताना ही होगा कि आप मुझे दोनों दीदियों से कम प्यार क्यों करते हैं।इस बार तातु गंभीर हो गए।उस दिन उन्होंने मेरे सिर को हँसते हुए चूमा नहीं बल्कि मेरे सिर को सहलाते हुए कहने लगे -बेटी अभी तुम बहुत छोटी हो यह समझने के लिए कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ।अच्छा चलो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ।उन्होंने मुझे एक राजा और उसकी तीन बेटियों की कहानी सुनाई जिसमें राजा अपनी तीसरी बेटी से सबसे अधिक प्यार करता है।एक दिन राजा तीनों बेटी को अपने पास बुला कर पूछता है कि वे लोग अपने पिता को कितना चाहती है ।दोनों बड़ी बेटियों ने राजा के तारीफ में ज़मीन आसमान एक दिए।जब छोटी बेटी से राजा ने पूछा तो उसने बड़े प्यार से कहा कि वो अपने पिता के प्यार को किसी शब्दों में बाँध नहीं सकती है किन्तु आज्ञापालन करते हुए मैं इतना कह सकती हूँ कि भोजन में जो महत्व नमक का है वही महत्व मेरे जीवन में आपका है।मैं आपको नमक की तरह प्यार करती हूँ।अपनी तुलना नमक से सुनते ही राजा क्रोधित होकर छोटी बेटी की शादी अत्यंत ही साधारण घर में कर दिया।राजा आखिरकार पिता भी थे।कुछ समय बीतने के बाद राजा एक दिन छोटी बेटी से मिलने उसके घर गए।बेटी ने अपने पिता का खूब सत्कार किया।अपने पिता के पसंद का भोजन बना कर  उसके समीप बैठ कर खाना खिलाने लगी ।पहला कौर खाते ही राजा चिल्लाते हुए कहने लगा कि तुमने कैसा भोजन बनाया है,इसमें तो नमक ही नहीं है।बेटी ने मुस्कुराते हुए राजा से कहा -पिता जी मैंने जानबूझकर कर भोजन में नमक नहीं डाला ताकि आप नमक के महत्व को समझ कर मेरे प्यार को भी समझ सकें।
           
          कहानी सुनने में तो बहुत मजा आया किंतु अब तक मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला था।तातु मेरे चेहरे के भाव को पढ़ते हुए कहने लगे -'नहीं समझी?तुम तो मेरी नमक हो!'उस दिन के बाद से मुझे तातु से कभी शिकायत नहीं हुई। मैं उनके जीवन की नमक बन कर बहुत खुश थी । सच कहूं तो दैनिक जीवन में वह भोजन में बहुत कम नमक खाते थे।प्रत्येक मंगलवार को तातु बिना नमक के भोजन करते थे परन्तु मुझे उनसे शिकायत नहीं थी कि वह सप्ताह में एक दिन मेरा त्याग क्यों कर देते हैं?
         मैं बड़ी हो गई।ब्याह के बाद उनसे बहुत दूर चली आई।तातु थोड़े बीमार रहने लगे।भूलने लगे थे।कभी -कभी अजीब सा व्यवहार करने लगते थे।डाक्टर ने बताया कि उनके शरीर में नमक की कमी हो गई है।मैं बहुत दूर थी।उनके विषय में सुनकर
तड़प उठती थी।परंतु गृहस्थी की मजबूरी मैं उनके पास जा भी नहीं पाती थी।एक बार मैं गयी तो उनकी हालत मुझसे देखी नहीं गई।नमक का घोल वो पीना नहीं चाहते थे।बहला कर उन्हें नमक का घोल पिलाया जाता था।मैं कोने में छुप-छुप कर रोती थी और कई बार अपने आप को अपराधी समझती थी।हाय !यह कैसी विडम्बना है मैं उनके कुछ काम नहीं आ पा रही हूँ।जी चाहता था सचमुच नमक बन कर उनके सारे कष्टों को हर लूँ ।
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गीतिका द्विवेदी
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टिप्पणियाँ:-

आलोक बाजपेयी:-
आपका संस्मरण दिल को छु गया। आप निश्चित ही बहुत अच्छी इंसान हैं।इतना मार्मिक लिखा की आंसू आ गए। शुक्रिया।

सोनल शर्मा:-
बहुत ही संवेदनशील पिता पुत्री की कहानी ....गीतिका जी ,सच में आपने बहुत मार्मिक लिखा है !

फ़रहत अली खान:-
ओह। सचमुच कितना मार्मिक संस्मरण है। सभी कुछ नज़र आया इसमें; पिता-पुत्री का रिश्ता, बालक-मन की बातें, एक बेटी की विवशता। अपनी भावनाओं को समझाने के लिए खाने में 'नमक' की ज़रूरत को बहुत अच्छे ढंग से समझाया गीतिका जी ने।

गीतिका द्विवेदी:-
नमस्कार  मैं जिस दिन से इस ग्रुप से जुड़ी हूँ,बहुत सीखी हूँ।आप सभी के समक्ष मेरी रचना प्रस्तुत हुई यह मेरे लिए बहुत ही आनंद का विषय था किंतु भय का भी ☺किंतु मैं सीखना चाहती हूँ इस नाते मैंने अपना सबसे पहला संस्मरण भेज दिया।आप लोगों ने जिस तरह से अपने विचार प्रकट किए मेरी इस पहली रचनात्मक संतान पर,मैं धन्य हो गई।मेरे दिल की बात आप लोगों के दिल तक पहुँच गई,यह मेरे लिए किसी अवार्ड से कम नहीं। शुक्रिया बिंदल जी  कविता जी धन्यवाद   Bhagchand जी शुक्रिया  राहुल वर्मा जी धन्यवाद वनिता जी धन्यवाद  आलोक जी शुक्रिया    सोनल जी धन्यवाद पहले है जिंदगानी (माफ़ी चाहूँगी,इस नाम से ही विचार आए थे)बहुत -बहुत शुक्रिया और उन सभी मित्रों को भी साधुवाद जिन्होंने इसे पढ़ा।अंत में मैं सत्यनारायण जी तथा मनीषा जी का भी धन्यवाद करना चाहती हूँ जिनकी वजह से मेरा संस्मरण आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुआ

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