आज एक कहानी रूस के विश्व प्रसिद्ध साहित्कार लियो तोलस्तोय की एक लम्बी कहानी जिसका अनुवाद किया है प्रेमचंद जी ने।
मनुष्य का जीवन आधार क्या है ?
माधो नामी एक चमार जिसके न घर था, न धरती, अपनी स्त्री और बच्चों सहित एक झोंपड़े में रहकर मेहनत मजदूरी द्वारा पेट पालता था। मजूरी कम थी, अन्न महंगा था। जो कमाता था, खा जाता था। सारा घर एक ही कम्बल ओढ़ कर जाड़ों के दिन काटता था और वह कम्बल भी फटकर तारतार रह गया था। पूरे एक वर्ष से वह इस विचार में लगा हुआ था कि दूसरा वस्त्र मोल ले। पेट मारमारकर उसने तीन रुपये जमा किए थे, और पांच रुपये पास के गांव वालों पर आते थे।
एक दिन उसने यह विचारा कि पांच रुपये गांव वालों से उगाहकर वस्त्र ले आऊं। वह घर से चला, गांव में पहुंचकर वह पहले एक किसान के घर गया। किसान तो घर में नहीं था, उसकी स्त्री ने कहा कि इस समय रुपया मौजूद नहीं, फिर दे दूंगी। फिर वह दूसरे के घर पहुंचा, वहां से भी रुपया न मिला। फिर वह बनिये की दुकान पर जाकर वस्त्र उधार मांगने लगा। बनिया बोला-हम ऐसे कंगालों को उधार नहीं देते। कौन पीछेपीछे फिरे? जाओ, अपनी राह लो।
वह निराश होकर घर को लौट पड़ा। राह में सोचने लगा-कितने अचरज की बात है कि मैं सारे दिन काम करता हूं, उस पर भी पेट नहीं भरता। चलते समय स्त्री ने कहा था कि वस्त्र अवश्य लाना। अब क्या करुं, कोई उधार भी तो नहीं देता। किसानों ने कह दिया, अभी हाथ खाली है, फिर ले लेना। तुम्हारा तो हाथ खाली है, पर मेरा काम कैसे चले? तुम्हारे पास घर, पशु, सबकुछ है, मेरे पास तो यह शरीर ही शरीर है। तुम्हारे पास अनाज के कोठे भरे पड़े हैं, मुझे एकएक दाना मोल लेना पड़ता है। सात दिन में तीन रुपये तो केवल रोटी में खर्च हो जाते हैं। क्या करुं, कहां जाऊं? हे भगवान्! सोचता हुआ मन्दिर के पास पहुंचकर देखता क्या है कि धरती पर कोई श्वेत वस्तु पड़ी है। अंधेरा हो गया, साफ न दिखाई देता है। माधो ने समझा कि किसी ने इसके वस्त्र छीन लिये हैं, मुझसे क्या मतलब? ऐसा न हो, इस झगड़े में पड़ने से मुझ पर कोई आपत्ति खड़ी हो जाए, चल दो।
थोड़ी दूर गया था कि उसके मन में पछतावा हुआ। मैं कितना निर्दयी हूं। कहीं यह बेचारा भूखों न मर रहा हो। कितने शर्म की बात है कि मैं उसे इस दशा में छोड़, चला जाता हूं। वह लौट पड़ा और उस आदमी के पास जाकर खड़ा हो गया।
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पास पहुंचकर माधो ने देखा कि वह मनुष्य भलाचंगा जवान है। केवल शीत से दुःखी हो रहा है। उस मनुष्य को आंख भरकर देखना था कि माधो को उस पर दया आ गई। अपना कोट उतारकर बोला-यह समय बातें करने का नहीं, यह कोट पहन लो और मेरे संग चलो।
मनुष्य का शरीर स्वच्छ, मुख दयालु, हाथपांव सुडौल थे। वह परसन्न बदन था। माधो ने उसे कोट पहना दिया और बोला-मित्र, अब चलो, बातें पीछे होती रहेंगी।
मनुष्य ने परेमभाव से माधो को देखा और कुछ न बोला।
माधो-तुम बोलते क्यों नहीं? यहां ठंड है, घर चलो। यदि तुम चल नहीं सकते, तो यह लो लकड़ी, इसके सहारे चलो।
मनुष्य माधो के पीछेपीछे हो लिया।
माधो-तुम कहां रहते हो?
मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।
माधो-मैंने भी यही समझा था, क्योंकि यहां तो मैं सबको जानता हूं। तुम मन्दिर के पास कैसे आ गए?
मनुष्य-यह मैं नहीं बतला सकता।
माधो-क्या तुमको किसी ने दुःख दिया है?
मनुष्य-मुझे किसी ने दुःख नहीं दिया, अपने कर्मों का भोग है। परमात्मा ने मुझे दंड दिया है।
माधो-निस्संदेह परमेश्वर सबका स्वामी है, परन्तु खाने को अन्न और रहने को घर तो चाहिए। तुम अब कहां जाना चाहते हो?
मनुष्य-जहां ईश्वर ले जाए।
माधो चकित हो गया। मनुष्य की बातचीत बड़ी पिरय थी। वह ठग परतीत न होता था, पर अपना पता कुछ नहीं बताता था। माधो ने सोचा, अवश्य इस पर कोई बड़ी विपत्ति पड़ी है। बोलो-भाई, घर चलकर जरा आराम करो, फिर देखा जायेगा।
दोनों वहां से चल दिए। राह में माधो विचार करने लगा, मैं तो वस्त्र लेने आया था, यहां अपना भी दे बैठा। एक नंगा मनुष्य साथ है, क्या यह सब बातें देखकर मालती परसन्न होगी! कदापि नहीं, मगर चिन्ता ही क्या है? दया करना मनुष्य का परम धर्म है।
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उधर माधो की स्त्री मालती उस दिन जल्दीजल्दी लकड़ी काटकर पानी लायी, फिर भोजन बनाया, बच्चों को खिलाया, आप खाया, पति के लिए भोजन अलग रखकर कुरते में टांका लगाती हुई यह विचार करने लगी-ऐसा न हो, बनिया मेरे पति को ठग ले, वह बड़ा सीधा है, किसी से छल नहीं करता, बालक भी उसे फंसा सकता है। आठ रुपये बहुत होते हैं, इतने रुपये में तो अच्छे वस्त्र मिल सकते हैं। पिछली सर्दी किस कष्ट से कटी। जाते समय उसे देर हो गई थी, परन्तु क्या हुआ, अब तक उसे आ जाना चाहिए था।
इतने में आहट हुई। मालती बाहर आयी, देखा कि माधो है। उसके साथ नंगे सिर एक मनुष्य है। माधो का कोट उसके गले में पड़ा है। पति के हाथों में कोई गठरी नहीं है, वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा है। यह देखकर मालती का मन निराशा से व्याकुल हो गया। उसने समझा, कोई ठग है, त्योरी च़ाकर खड़ी हो देखने लगी कि वह क्या करता है।
माधो बोला-यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।
मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।
माधो-क्या भोजन नहीं बनाया?
मालती-(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।
माधो-मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा....
मालती-पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?
माधो-यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।
मालती-(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।
माधो-फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।
मालती-बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।
माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली-अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?
माधो-बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।
मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।
माधो-प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?
यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली-खाइए।
मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली-तुम कहां से आये हो?
मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।
मालती-तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?
मनुष्य-मैं कुछ नहीं बता सकता।
मालती-क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?
मनुष्य-किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!
मालती-क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?
मनुष्य-हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।
मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी-
मालती-सुनते हो?
माधो-हां।
मालती-अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।
माधो-जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।
मालती-वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?
माधो-क्या जानूं। कोई कारण होगा।
मालती-हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?
माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।
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परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।
माधो-मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?
मनुष्य-मैं कोई काम नहीं जानता।
माधो-अभ्यास बड़ी वस्तु है, मनुष्य यदि चाहे तो सबकुछ सीख सकता है।
मनुष्य-मैं सीखने को तैयार हूं, आप सिखा दीजिए।
माधो-तुम्हारा नाम क्या है?
मनुष्य-मैकू।
माधो-भाई मैकू, यदि तुम अपना हाल सुनाना नहीं चाहते तो न सुनाओ, परन्तु कुछ काम अवश्य करो। जूते बनाना सीख लो और यहीं रहो।
मैकू-बहुत अच्छा।
अब माधो ने मैकू को सूत बांटना, उस पर मोम च़ाना, जूते सीना आदि काम सिखाना शुरू कर दिया। मैकू तीन दिन में ही ऐसे जूते बनाने लगा, मानो सदा से चमार का ही काम करता रहा हो। वह घर से बाहर नहीं निकलता था, बोलता भी बहुत कम था। अब तक वह केवल एक बार उस समय हंसा था जब मालती ने उसे भोजन कराया था, फिर वह कभी नहीं हंसा।
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धीरेधीरे एक वर्ष बीत गया। चारों ओर धूम मच गई कि माधो का नौकर मैकू जैसे पक्के मजबूत जूते बनाता है, दूसरा कोई नहीं बना सकता। माधो के पास बहुत काम आने लगा और उसकी आमदनी बहुत ब़ गई।
एक दिन माधो और मैकू बैठे काम कर रहे थे कि एक गाड़ी आयी, उसमें से एक धनी पुरुष उतरकर झोंपड़े के पास आया। मालती ने झट से किवाड़ खोल दिए; वह भीतर आ गया।
माधो ने उठकर परणाम किया। उसने ऐसा सुन्दर पुरुष पहले कभी नहीं देखा था। वह स्वयं दुबला था, मैकू और भी दुबला और मालती तो हिड्डयों का पिंजरा थी। यह पुरुष तो किसी दूसरे ही लोक का वासी जान पड़ता था-लाल मुंह, चौड़ी छाती, तनी हुई गर्दन; मानो सारा शरीर लोहे में ला हुआ है।
पुरुष-तुममें उस्ताद कौन है?
माधो-हुजूर, मैं।
पुरुष-(चमड़ा दिखाकर) तुम यह चमड़ा देखते हो?
माधो-हां, हुजूर।
पुरुष-तुम जानते हो कि यह किस जात का चमड़ा है?
माधो-महाराज, यह चमड़ा बहुत अच्छा है।
पुरुष-अच्छा, मूर्ख कहीं का! तुमने शायद ऐसा चमड़ा कभी नहीं देखा होगा। यह जर्मन देश का चमड़ा है, इसका मोल बीस रुपये है।
माधो-(भय से) भला महाराज, ऐसा चमड़ा मैं कहां से देख सकता था?
पुरुष-अच्छा, तुम इसका बूट बना सकते हो।
माधो-हां, हुजूर, बना सकता हूं।
पुरुष-हां, हुजूर की बात नहीं, समझ लो कि चमड़ा कैसा है और बनवाने वाला कौन है। यदि साल भर के अन्दर कोई टांका उखड़ गया अथवा जूते का रूप बिगड़ गया तो तुझे बंदीखाने जाना पड़ेगा, नहीं तो दस रुपये मजूरी मिलेगी।
माधो ने मैकू की ओर कनखियों से देखकर धीरे से पूछा कि काम ले लूं? उसने कहा-हां, ले लो। माधो नाप लेने लगा।
पुरुष-देखो, नाप ठीक लेना, बूट छोटा न पड़ जाए। (मैकू की तरफ देखकर) यह कौन है?
माधो-मेरा कारीगर।
पुरुष-(मैकू से) होहो, देखो बूट एक वर्ष चलना चाहिए। पूरा एक वर्ष, कम नहीं।
मैकू का उस पुरुष की ओर ध्यान ही नहीं था। वह किसी और ही धुन में मस्त बैठा हंस रहा था।
पुरुष-(क्रोध से) मूर्ख! बात सुनता है कि हंसता है। देखो, बूट बहुत जल्दी तैयार करना, देर न होने पाए।
बाहर निकलते समय पुरुष का मस्तक द्वार से टकरा गया। माधो बोला सिर है कि लोहा, किवाड़ ही तोड़ डाला था।
मालती बोली-धनवान ही बलवान होते हैं। इस पुरुष को यमराज भी हाथ नहीं लगा सकता, और की तो बात ही क्या है?
उस आदमी के जाने के बाद माधो ने मैकू से कहा-भाई, काम तो ले लिया है, कोई झगड़ा न खड़ा हो जाए। चमड़ा बहुमूल्य है और यह आदमी बड़ा क्रोधी है, भूल न होनी चाहिए। तुम्हारा हाथ साफ हो गया है, बूट काट तुम दो, सी मैं दूंगा।
मैकू बूट काटने लगा। मालती नित्य अपने पति को बूट काटते देखा करती थी। मैकू की काट देखकर चकरायी कि वह यह कर क्या रहा है। शायद बड़े आदमियों के बूट इसी परकार काटे जाते हों, यह विचार कर चुप रह गई।
मैकू ने चमड़ा काटकर दोपहर तक स्लीपर तैयार कर लिये। माधो जब भोजन करके उठा तो देखता क्या है कि बूट की जगह स्पीलर बने रखे हैं। वह घबरा गया और मन में कहने लगा-इस मैकू को मेरे साथ रहते एक वर्ष हो गया, ऐसी भूल तो उसने कभी नहीं की। आज इसे क्या हो गया! उस पुरुष ने तो बूट बनाने को कहा था, इसने तो स्लीपर बना डाले। अब उसे क्या उत्तर दूंगा, ऐसा चमड़ा और कहां से मिल सकता है! (मैकू से)-मित्र, यह तुमने क्या किया? उसने तो बूट बनाने को कहा था न! अब मेरे सिर के बाल न बचेंगे।
यह बातें हो ही रही थी कि द्वार पर एक आदमी ने आकर पुकारा। मालती ने किवाड़ खोल दिए। यह उस धनी आदमी का वही नौकर था, जो उसके साथ यहां आया था। उसने आते ही कहा-रामराम, तुमने बूट बना तो नहीं डाले?
माधो-हां, बना रहा हूं।
नौकर-मेरे स्वामी का देहान्त हो गया, अब बूट बनाना व्यर्थ है।
माधो-अरे!
नौकर-वह तो घर तक भी पहुंचने नहीं पाये, गाड़ी में ही पराण त्याग दिए। स्वामिनी ने कहा है कि उस चमड़े के स्लीपर बना दो।
माधो-(परसन्न होकर) यह लो स्लीपर।
आदमी स्लीपर लेकर चलता बना।
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मैकू को माधो के साथ रहतेरहते छः वर्ष बीत गए। अब तक वह केवल दो बार हंसा था, नहीं तो चुपचाप बैठा अपना काम किए जाता था। माधो उस पर अति परसन्न था और डरता रहता था कि कहीं भाग न जाए। इस भय से फिर माधो ने उससे पताबता कुछ नहीं पूछा।
एक दिन मालती चूल्हे में आग जल रही थी, बालक आंगन में खेल रहे थे, माधो और मैकू बैठे जूते बना रहे थे कि एक बालक ने आकर कहा-चाचा मैकू, देखो, वह स्त्री दो लड़कियां संग लिये आ रही हैं।
मैकू ने देखा कि एक स्त्री चादर ओ़े, छोटीछोटी कन्याएं संग लिए चली आ रही है। कन्याओं का एकसा रंगरूप है, भेद केवल यह है कि उनमें एक लंगड़ी है। बुयि भीतर आयी तो माधो ने पूछा-माई, क्या काम है?
उसने कहा-इन लड़कियों के जूते बना दो।
माधो बोला-बहुत अच्छा।
वह नाप लेने लगा तो देखा कि मैकू इन लड़कियों को इस परकार ताक रहा है, मानो पहले कहीं देखा है।
बुयि-इस लड़की का एक पांव लुंजा है, एक नाप इसका ले लो। बाकी तीन पैर एक जैसे हैं। ये लड़कियां जुड़वां है।
माधो-(नाप लेकर) यह लंगड़ी कैसे हो गई, क्या जन्म से ही ऐसी है?
बुयि-नहीं, इसकी माता ने ही इसकी टांग कुचल दी थी।
मालती-तो क्या तुम इनकी माता नहीं हो?
बुयि-नहीं, बहन, न इनकी माता हूं, न सम्बन्धी। ये मेरी कन्याएं नहीं। मैंने इन्हें पाला है।
मालती-तिस पर भी तुम इन्हें बड़ा प्यार करती हो?
बुयि-प्यार क्यों न करुं, मैंने अपना दूध पिलापिलाकर इन्हें बड़ा किया है। मेरा अपना भी बालक था, परन्तु उसे परमात्मा ने ले लिया। मुझे इनके साथ उससे भी अधिक परेम है।
मालती-तो ये किसकी कन्याएं हैं?
बुयि-छह वर्ष हुए कि एक सप्ताह के अंदर इनके मातापिता का देहांत हो गया। पिता की मंगल के दिन मृत्यु हुई, माता की शुक्रवार को। पिता के मरने के तीन दिन पीछे ये पैदा हुईं। इनके मांबाप मेरे पड़ोसी थे। इनका पिता लकड़हारा था। जंगल में लकड़ियां काटतेकाटते वृक्ष के नीचे दबकर मर गया। उसी सप्ताह में इनका जन्म हुआ। जन्म होते ही माता भी चल बसी। दूसरे दिन जब मैं उससे मिलने गयी तो देखा कि बेचारी मरी पड़ी है। मरते समय करवट लेते हुए इस कन्या की टांग उसके नीचे दब गई। गांव वालों ने उसका दाहकर्म किया। इनके मातापिता रंक थे, कौड़ी पास न थी। सब लोग सोचने लगे कि कन्याओं का कौन पाले। उस समय वहां मेरी गोद में दो महीने का बालक था। सबने यही कहा कि जब तक कोई परबन्ध न हो, तुम्हीं इनको पालो। मैंने इन्हें संभाल लिया। पहलेपहल मैं इस लंगड़ी को दूध नहीं पिलाया करती थी, कयोंकि मैं समझती थी कि यह मर जायेगी, पर फिर मुझे इस पर दया आ गई और इसे भी दूध पिलाने लगी। उस समय परमात्मा की कृपा से मेरी छाती में इतना दूध था कि तीनों बालकों को पिलाकर भी बह निकलता था। मेरा बालक मर गया, ये दोनों पल गईं। हमारी दशा पहले से अब बहुत अच्छी है। मेरा पति एक बड़े कारखाने में नौकर है। मैं इन्हें प्यार कैसे न करुं, ये तो मेरा जीवनआधार हैं।
यह कहकर बुयि ने दोनों लड़कियों को छाती से लगा लिया।
मालती-सत्य है, मनुष्य मातापिता के बिना जी सकता है, परन्तु ईश्वर के बिना जीता नहीं रह सकता।
ये बातें हो रही थीं कि सारा झोंपड़ा परकाशित हो गया। सबने देखा कि मैकू कोने में बैठा हंस रहा है।
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बुयि लड़कियों को लेकर बाहर चली गयी, तो मैकू ने उठकर माधो और मालती को परणाम किया और बोला-स्वामी, अब मैं विदा होता हूं। परमात्मा ने मुझ पर दया की। यदि कोई भूलचूक हुई हो तो क्षमा करना।
माधो और मालती ने देखा कि मैकू का शरीर तेजोमय हो रहा है।
माधो दंडवत करके बोला-मैं जान गया कि तुम साधारण मनुष्य नहीं। अब मैं तुम्हें नहीं रख सकता, न कुछ पूछ सकता हूं। केवल यह बता दो कि जब मैं तुम्हें अपने घर लाया था तो तुम बहुत उदास थे। जब मेरी स्त्री ने तुम्हें भोजन दिया तो तुम हंसे। जब वह धनी आदमी बूट बनवाने आया था तब तुम हंसे। आज लड़कियों के संग बुयि आयी, तब तुम हंसे। यह क्या भेद है? तुम्हारे मुख पर इतना तेज क्यों है?
मैकू-तेज का कारण तो यह है कि परमात्मा ने मुझ पर दया की, मैं अपने कर्मों का फल भोग चुका। ईश्वर ने तीन बातों को समझाने के लिए मुझे इस मृतलोक में भेजा था, तीनों बातें समझ गया। इसलिए मैं तीन बार हंसा। पहली बार जब तुम्हारी स्त्री ने मुझे भोजन दिया, दूसरी बार धनी पुरुष के आने पर, तीसरी बार आज बुयि की बात सुनकर।
माधो-परमेश्वर ने यह दंड तुम्हें क्यों दिया था? वे तीन बातें कौनसी हैं, मुझे भी बतलाओ?
मैकू-मैंने भगवान की आज्ञा न मानी थी, इसलिए यह दंड मिला था। मैं देवता हूं, एक समय भगवान ने मुझे एक स्त्री की जान लेने के लिए मृत्युलोक में भेजा। जाकर देखता हूं कि स्त्री अति दुर्बल है और भूमि पर पड़ी है। पास तुरन्त की जन्मी दो जुड़वां लड़कियां रो रही हैं। मुझे यमराज का दूत जानकर वह बोली-मेरा पति वृक्ष के नीचे दबकर मर गया है। मेरे न बहन है, न माता, इन लड़कियों का कौन पालन करेगा? मेरी जान न निकाल, मुझे इन्हें पाल लेने दे। बालक मातापिता बिना पल नहीं सकता। मुझे उसकी बातों पर दया आ गई। यमराज के पास लौट आकर मैंने निवेदन किया कि महाराज, मुझे स्त्री की बातें सुनकर दया आ गई। उसकी जुड़वां लड़कियों को पालनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मैंने उसकी जान नहीं निकाली, क्योंकि बालक मातापिता के बिना पल नहीं सकता। यमराज बोले-जाओ, अभी उसकी जान निकाल लो, और जब तक ये तीन बातें न जान लोगे कि (1) मनुष्य में क्या रहता है, (2) मनुष्य को क्या नहीं मिलता, (3) मनुष्य का जीवनआधार क्या है, तब तक तुम स्वर्ग में न आने पाओगे। मैंने मृत्युलोक में आकर स्त्री की जान निकाल ली। मरते समय करवट लेते हुए उसे एक लड़की की टांग कुचल दी। मैं स्वर्ग को उड़ा, परन्तु आंधी आयी मेरे पंख उखड़ गए और मैं मन्दिर के पास आ गिरा।
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अब माधो और मालती समझ गए कि मैकू कौन है। दोनों बड़े परसन्न हुए कि अहोभाग्य, हमने देवता के दर्शन किए।
मैकू ने फिर कहा-जब तक मनुष्य मनुष्यशरीर धारण नहीं किया था, मैं शीतगमीर्, भूखप्यास का कष्ट न जानता था, परन्तु मृत्युलोक में आने पर परकट हो गया कि दुःख क्या वस्तु है। मैं भूख और जाड़े का मारा मन्दिर में घुसना चाहता था, लेकिन मंन्दिर बंद था। मैं हवा की आड़ में सड़क पर बैठ गया। संध्यासमय एक मनुष्य आता दिखाई दिया। मृत्युलोक में जन्म लेने पर यह पहला मनुष्य था, जो मैंने देख था, उसका मुख ऐसा भयंकर था कि मैंने नेत्र मूंद लिये। उसकी ओर देख न सका। वह मनुष्य यह कह रहा था कि स्त्रीपुत्रों का पालनपोषण किस भांति करें, वस्त्र कहां से लाये इत्यादि। मैंने विचारा, देखो, मैं तो भूख और शीत से मर रहा हूं, यह अपना ही रोना रो रहा है, मेरी कुछ सहायता नहीं करता। वह पास से निकल गया। मैं निराश हो गया। इतने में मेरे पास लौट आया, अब दया के कारण उसका मुख सुंदर दिखने लगा। माधो, वह मनुष्य तुम थे। जब तुम मुझे घर लाये, मालती का मुख तुमसे भयंकर था, क्योंकि उसमें दया का लेशमात्र न था, परन्तु जब वह दयालु होकर भोजन लायी तो उसके मुख की कठोरता जाती रही! तब मैंने समझा कि मनुष्य में तत्त्ववस्तु परेम है। इसीलिए पहली बार हंसा।
एक वर्ष पीछे वह धनी मनुष्य बूट बनवाने आया। उसे देखकर मैं इस कारण हंसा कि बूट तो एक वर्ष के लिए बनवाता है और यह नहीं जानता कि संध्या होने से पहले मर जाएगा। तब दूसरी बात का ज्ञान हुआ कि मनुष्य जो चाहता है सो नहीं मिलता, और मैं दूसरी बार हंसा।
छह वर्ष पीछे आज यह बुयि आयी तो मुझे निश्चय हो गया कि सबका जीवन आधार परमात्मा है, दूसरा कोई नहीं, इसलिए तीसरी बार हंसा।
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मैकू परकाशस्वरूप हो रहा था, उस पर आंख नहीं जमती थी। वह फिर कहने लगा-देखो, पराणि मात्र परेम द्वारा जीते हैं, केवल पोषण से कोई नहीं जी सकता। वह स्त्री क्या जानती थी कि उसकी लड़कियों को कौन पालेगा, वह धनी पुरुष क्या जानता था कि गाड़ी में ही मर जाऊंगा, घर पहुंचना कहां! कौन जानता था कि कल क्या होगा, कपड़े की जरूरत होगी कि कफन की।
मनुष्य शरीर में मैं केवल इस कारण जीता बचा कि तुमने और तुम्हारी स्त्री ने मुझसे परेम किया। वे अनाथ लड़कियां इस कारण पलीं कि एक बुयि ने परेमवश होकर उन्हें दूध पिलाया। मतलब यह है कि पराणी केवल अपने जतन से नहीं जी सकते। परेम ही उन्हें जिलाता है। पहले मैं समझता था कि जीवों का धर्म केवल जीना है, परन्तु अब निश्चय हुआ कि धर्म केवल जीना नहीं, किन्तु परेमभाव से जीना है। इसी कारण परमात्मा किसी को यह नहीं बतलाता कि तुम्हें क्या चाहिए, बल्कि हर एक को यही बतलाता है कि सबके लिए क्या चाहिए। वह चाहता है कि पराणि मात्र परेम से मिले रहें। मुझे विश्वास हो गया कि पराणों का आधार परेम है, परेमी पुरुष परमात्मा में, और परमात्मा परेमी पुरुष में सदैव निवास करता है। सारांश यह है कि परेम और पमेश्वर में कोई भेद नहीं।
यह कहकर देवता स्वर्गलोक को चला गया।
साभार @ हिन्दी समय
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