अजमेर ज़िले के एक क़स्बे में जन्मे अब्दुल रहीम 'क़ाबिल' अजमेरी(1931-1962) को उर्दू के बेहतरीन रूमानी शायरों में गिना जाता है। क़ाबिल अजमेरी ने कम-उम्री में ही शायरी करना शुरु कर दी थी और इक्कीस बरस के होते-होते ये बड़े शायरों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो चुके थे। बचपन से ही इन्होंने दुखों के पहाड़ झेले और टीबी से जूझते हुए 31 वर्ष की अल्पायु में दुनिया से रुख़्सत हो गए। आज पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक); पढ़कर साथी इन पर कुछ कहें:
1.
वो हर मक़ाम से पहले, वो हर मक़ाम के बाद
सहर थी शाम से पहले, सहर है शाम के बाद
(मक़ाम - जगह/अवसर; सहर - सवेरा)
मुझी पे इतनी तवज्जोह, मुझी से इतना ग़ुरेज़
मेरे सलाम से पहले, मेरे सलाम के बाद
(तवज्जोह - ध्यान; ग़ुरेज़ - बचना/नज़र-अंदाज़ करना/दूर भागना)
चिराग़-ए-बज़्म-ए-सितम हैं हमारा हाल न पूछ
जले थे शाम से पहले, बुझे हैं शाम के बाद
(चिराग़-ए-बज़्म-ए-सितम - सितम की महफ़िल का चिराग़)
वही ज़ुबाँ, वही बातें, मगर है कितना फ़र्क़
तुम्हारे नाम से पहले, तुम्हारे नाम के बाद
हयात गिर्या-ए-शबनम, हयात रक़्स-ए-शरर
तेरे पयाम से पहले, तेरे पयाम के बाद
(हयात - ज़िन्दगी; गिर्या-ए-शबनम - ओस रूपी आँसू; रक़्स-ए-शरर - बिजली की नाचती हुई लहर)
ये तर्ज़-ए-फ़िक्र, ये रंग-ए-सुख़न कहाँ 'क़ाबिल'
तेरे कलाम से पहले, तेरे कलाम के बाद
(तर्ज़-ए-फ़िक्र - सोचने का तरीक़ा; रंग-ए-सुख़न - शायरी का अंदाज़; कलाम - बात/शायरी)
2.
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
इश्क़ इंसान की ज़रूरत है
कुछ तो दिल मुब्तला-ए-वहशत है
कुछ तेरी याद भी क़यामत है
(मुब्तला-ए-वहशत - अकेलेपन की भावना से ग्रस्त)
जी रहा हूँ इस ऐतमाद के साथ
ज़िन्दगी को मेरी ज़रूरत है
(ऐतमाद - यक़ीन)
हुस्न ही हुस्न, जलवे ही जलवे
सिर्फ़ एहसास को ज़रूरत है
उसके वादे पे नाज़ थे क्या-क्या
अब दर-ओ-बाम से नदामत है
(दर-ओ-बाम - दरवाज़ा और दीवार; नदामत - शर्मिंदगी)
उसकी महफ़िल में बैठ कर देखो
ज़िन्दगी कितनी ख़ूब-सूरत है
रास्ता कट ही जाएगा 'क़ाबिल'
शौक़-ए-मंज़िल अगर सलामत है
(शौक़-ए-मंज़िल - मंज़िल पाने का शौक़)
3.
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
आरज़ू के नए चिराग़ जले
(आरज़ू - इच्छा)
हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
आए दुनिया हमारे साथ चले
लब पे हिचकी भी है, तबस्सुम भी
जाने हम किस से मिल रहे हैं गले
(लब - होंठ; तबस्सुम - मुस्कराहट)
मस्लेहत सर-निगूँ, ख़िरद ख़ामोश
इश्क़ के आगे किस की दाल गले
(मस्लेहत - नीति/नीति बनाने वाले; सर-निगूँ - सिर झुकाए; ख़िरद - अगुवाई करने वाले)
और अंत में इन्हीं का कहा एक ऐसा शेर जो शुरुआत से ही दुखों के पहाड़ झेलकर कम-उम्री में दुनिया छोड़ गए 'क़ाबिल' की ज़िन्दगी की सच्चाई बयाँ करता है, ग़ौर फ़रमाइएगा:
अजल की गोद में 'क़ाबिल' हुई है उम्र तमाम
अजब नहीं जो मेरी मौत ज़िन्दगी हो जाए
(अजल - मौत, तमाम - पूरी)
प्रस्तुति- फरहत ख़ान
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टिप्पणियाँ:-
कविता वर्मा: वाह फरहत जी क्या चुनाव है गज़लों का । पहली गज़ल का तो एक एक शेर दिल में उतरने वाला है ।
वही जुबां वही बातें मगर है कितना फर्क
तुम्हारे नाम से पहले तुम्हारे नाम के बाद ।
हासिले गज़ल है ।दूसरी गज़ल का तीसरा शेर जी रहा हूॅ और तीसरी गज़ल का हम बदलते हैं रुख हवाओं का बहुत अच्छा लगा । फरहत जी कहीं पढ़ा था कि गज़ल में कम से कम पॉच शेर होने चाहिये कृपया इस पर रोशनी डालिये
फ़रहत अली खान:-
कविता जी;
जी, ये सही है कि ग़ज़ल में कम से कम पाँच शेर होते हैं। यहाँ जो ग़ज़लें मैं पोस्ट करता हूँ, वो अक्सर पूरी नहीं होती हैं; यानी कुछ अशआर मैं छोड़ देता हूँ। कभी ग़ज़ल के ज़्यादा लंबा होने के कारण ऐसा करना पड़ता है और कभी ऐसा करने की दूसरी वजहें भी होती हैं।
फ़रहत अली खान:-
इससे इतर एक और उल्लेखनीय बात ये भी है कि जब कोई गायक कोई ग़ज़ल गाता है तो अमूमन वो ग़ज़ल के 4 शेर ही सुनाता है क्यूँकि 5 शेर लय में गाने में अपेक्षाकृत ज़्यादा समय लगता है, जिससे ऑडियो सामान्य अवधि से ज़्यादा लंबा हो जाता है।
मनीषा जैन :-
तीनो ही ग़ज़ल बेमिसाल। अद्भुत शायरों की शायरी पढ़वाने के लिए बहुत आभार फरहत जी।
और शायरों के विषय में जानकारी भी सुखद होती है।
चंद्र शेखर बिरथरे :-
अद्भुत बेमिसाल लाजवाब ग़ज़ले । इतने कम उम्र के शायर की लफ्ज़ो की ख्यालों की बेमिसाल अदायगी । जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है ।
कहते हैं शायरी और कविता के लिए जिंदगी के अनुभव जरूरीहोते है मगर किसी किसी को ये हुनर ऊपर वाले की रहमत से जन्मजात मिलता है ।
शुक्रिया फरहत सर । चंद्रशेखर बिरथरे
मनीषा जैन :-
आह "क़ाबिल" अजमेरी, मेरे पसंदीदा शाइर, क्या कहूँ इन के बारे में...
"क़ाबिल" अजमेरी का जाना उर्दू अदब की दुनिया का ऐसा नुक़्सान है जिस की कभी भरपाई नहीं हो सकती।
31बरस की उम्र अदब की दुनिया में कमसिन ही मानी जाती है। ऎसी कमसिन उम्र में ऐसा पुख़्ता और मेयारी कलाम जब कह गए हैं हज़रत तो सोचिये अगर 30-40 बरस और ये जिए होते तो क्या हंगामा बरपा काट जाते शाइरी की दुनिया में।
"क़ाबिल" साहब ने इतनी छोटी सी उम्र में इतने दर्द-नाक हादसे देख लिए थे की सुन कर रूह काँप जाती है। 7 साल की उम्र में वालिद को TB में खोया, और 14 साल की उम्र तक आते आते ये अपनी माँ और बहन को भी खो चुके थे। बाद में ये भी TB का ही शिकार हुए। 1948 में ये अपने भाई के साथ पाकिस्तान के शहर हैदराबाद में आ गए। जब ये "क़्वेटा" के 'सेनिटोरियम' भर्ती थे तो वहां इन की मुलाक़ात नर्स "नरगिस सूसन" से हुई जो इन की शाइरी से बहुत मुतास्सिर थीं, इन से फिर शादी हुई और इन से इन्हें "ज़फ़र क़ाबिल अजमेरी" के रूप बेटा नसीब हुआ, जो आज खुद भी बहुत अच्छे शाइर हैं।
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