image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2015

कहानी : अमृता नीरव

दुख-सुख का तराजू जीवन

यार तुम्हारी राईटिंग में इतनी निगेटिविटी क्यों रहती है? – बहुत झल्लाया हुआ-सा स्वर था। वो मेरे पोट्रेट पर काम कर रहा था। उसे व्यक्तिगत तौर पर खिलते और चटख रंग पसंद है, इसलिए उसकी सारी की पेंटिग्स में बहुत खुले और खूबसूरत रंग हुआ करते हैं। जैसे ही उसने ब्रश का पहला स्ट्रोक दिया... मटमैला-सा रंग कैनवस पर छिटक गया... उसने बहुत उखड़े मन से ब्रश को पानी में डुबोया और कपड़े के हल्के स्ट्रोक्स से उसे सूखाने लगा। मटमैले रंग ने उसका मन खराब कर दिया था... मुझे लगा कि उसके ब्रश को भी मेरी बीमारी लग गई, मैं और उदास हो गई। उसने झल्ला कर मेरे कंधें झिंझोड़े...  बोलती क्यों नहीं? – मुझे समझ नहीं आया कि अभी इस वक्त उसे क्या याद आया होगा कि इस विचार ने उसकी एकाग्रता को भंग कर दिया। अभी हमारे बीच कुछ भी साझा नहीं है... कोई अंकुरण तक नहीं हुआ है... फिर भी उसने पता नहीं कैसे मेरी जमीन पर हक जमा लिया है। मैं घबराकर विषयांतर करती हूँ – कला का लक्ष्य क्या है?
उसकी चिढ़ जस-की-तस है – ब्यूटी, सौंदर्य, खूबसूरती... - थोड़ी देर का पॉज देने के बाद – तुम्हें क्या लगता है?
मैंने खुद को पूरी तरह से संतुलित किया – मेरे हिसाब से व्यक्तित्व का परिष्कार...।
बात पूरी होने से पहले ही उसने झपट ली – ... और तुम्हें लगता है कि ये सिर्फ ट्रेजेड़ी और निगेटिविटी से ही हो सकता है!
मैं फिर निरूत्तर...। कहीं से दिमाग में कुछ क्लिक हुआ... – मैंने बहुत सारी जगह पढ़ा-सुना है ऐसा। शैली ने भी कहा है ना कि – ‘अवर स्वीटेस्ट सांग आर दोज विच दैट टेल ऑफ सेडेस्ट थॉट...’ या फिर ‘है सबसे मधुर वो गीत जिसे हम दर्द के सुर में गाते हैं...’- मैंने थोड़ा-सा चिढ़ाते हुए कहा।
बकवास है... कोरी बकवास... जीवन सिर्फ दुख ही दुख नहीं है। योर एप्रोच इज वन साइडेड... – उसकी झल्लाहट बरकरार थी।
मैंने मुस्कुराकर कहा – दूसरी साइड के लिए तुम और तुम्हारे जैसे तमाम लोग हैं ना...! देखो कितने खूबसूरत रंग होते हैं तुम्हारी पेंटिग्स से... फुल ऑफ लाइफ...। – मैंने उसे पटरी पर लाने की कोशिश की, कुछ हद तक सफल रही ही होऊँगी तभी तो कंम्प्युर-मोबाइल में आने वाले स्माईली की तरह हल्की सी मुस्कुराहट उसके होंठों के कोनों से झरी थी, लेकिन वो पूरी तरह से मेरी बात से मुत्तमईन नजर नहीं आया। उसने अपने स्टूडियो की लाइट बुझा दी थी... इशारा था यहाँ से बाहर चलने का। बाहर आते ही सफेद रोशनी आँखों पर पड़ी थी, उसकी बड़ी-खुली बॉलकनी मुझे हमेशा ही फेसिनेट करती रही है, और उस पर पड़ा बेंत का झूला... उसके घर में मेरी सबसे पसंदीदा जगह... तुरंत पहुँचकर कब्जा कर लिया। वो शायद उसी विचार में डूब-उतरा रहा था।

मुझे नहीं लगता कि दुख को जीवन का मूल स्वर होना चाहिए। - उसकी सुई वहीं अटकी पड़ी है।
मैंने अनमने होकर जवाब दिया – मुझे लगता है दुख संभावना है... सब कुछ के एक दिन ठीक होने की... ये प्रवाह है, गति है।
और सुख....? – मुझे पता नहीं क्यों ये यकीन हुआ कि वो मेरी बात से प्रभावित हुआ।
सुख... – मैंने थोड़ा सोचते हुए कहा – वो अंत है, रूका हुआ पानी... क्योंकि उसमें बेहतर होने की संभावना नहीं है। - मैं इस विषय से थोड़ा ऊब गई थी – पता है संभावना है तो ही जीवन है। जिस दिन ये खत्म, जीवन खत्म... तो सुख के कुछ समय बाद ही जीवन की ढलान शुरू हो जाती है। इस दृष्टि से सुख वर्तमान है और दुख भविष्य... – मैं अपने ही निष्कर्ष पर मुग्ध हो गई... शायद वो भी... – ओ... ।
लेकिन सुख और दुख जीवन का ही हिस्सा है। - उसने फिर से विचार का सिरा मुझे थमा दिया।
हाँ... अब ये अलग मामला है कि किसी को कुछ तो किसी को कुछ आकर्षित करता है। - मैंने बात को बंडल बनाते हुए कहा।
उसने सवाल किया, तीखा, चुभता हुआ – तो तुम्हें दुख आकर्षित करता है...! – उसने फिर से उसे खोलकर फैला दिया। मुझे लगा मैं एक गहरी खाई के मुहाने पर खड़ी हूँ। मैं चुप हो गई। बहुत देर तक वो मेरे जवाब का इंतजार करता रहा। मुझे अच्छा लगा कि उसने मुझे हारने के अहसास से बचा लिया, वो बहुत मीठे से मुस्कुराया – ठीक है तुम दुख हो मैं सुख... तुम संभावना हो, मैं अंत... तुम मेरा भविष्य हो मैं तुम्हारा वर्तमान...- पता नहीं कैसे वो एक जटिल-से संबंध को इतनी सरलता से परिभाषित कर गया।
मुझे लगा कि इस बहाने उसने जीवन की परिभाषा तय कर डाली...। मैंने दूर क्षितिज पर नजरों की कूची फेरी तो... सूरज का निचला हिस्सा धरती में धँस गया। शाम उतर आई थी।

000 अमिता नीरव
--------------------------------
टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
एक अच्छी कहानी कहीं बनती हुई ठहर गयी। आगाज़ बहुत ठोस और कलात्मक बन्धाव के साथ था पर अंजाम तक आते आते कभी कहानी फ़लसफ़े में अटकी तो कहीं निबन्ध में।
अमिता नीरव :-
हो सकता है ये कहानी, कहानी के शास्त्रीय मापदंडों पर खरी नहीं उतरती हो। इससे भी सहमत हूँ कि इसमें कोई घटना नहीं है.... प्रेरणा भी नहीं है।
अभी लिखने की बहुत प्रारंभिक अवस्था में हूँ। लिखना शौक नहीं है, मज़बूरी है। अपनी बेचैनी से त्राण पाने का जरिया.... जैसा कि मैंने कहा है, लिखने के प्रारंभिक दौर में हूँ। ये कहानी की तरह नहीं ब्लॉग की तरह लिखा गया है। एक विचार को विस्तार देने का रचनात्मक प्रयास था। इसमें सिर्फ संवाद है। अभी अपने भीतर उठते सवालों का ही जवाब तलाश रही हूँ। इसलिये philosophy मेरी प्रेरणा है।
कोई बारीक विचार, कोई बारीक अनुभूति को पकड़ कर अलग करना और विस्तार देना ही इसका लक्ष्य था।  अब तक जो भी लिखा वो फ़लसफ़े से अलग नहीं हो पाया। जब अपने सवालों से बाहर आ पाऊँगी तब शायद कहानी, जैसी कहानी लिख पाऊँगी। इसके लिए शुभकामना की आकांक्षी हूँ।
ये जो भी है इसे पढ़कर इस पर आपने प्रतिक्रिया दी इसके लिए आभारी हूँ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें