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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अक्तूबर, 2015

बुद्धिजीवियों को गुस्सा क्यों आता है? : भवदीप कांग

बुद्धिजीवियों को गुस्सा क्यों आता है?

भवदीप कांग

साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर या साहित्य अकादमी से इस्तीफा देकर अब तक 15 से भी अधिक लेखकों द्वारा 'देश में बढ़ती असहिष्णुता" पर विरोध जताया जा चुका है। लोकसभा चुनावों से पहले भी इसी तरह एक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया था और नागरिकों को आगाह किया गया था कि नरेंद्र मोदी सत्ता में न आने पाएं। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर उन्हें गुस्सा किस बात पर आ रहा है?

हाल ही में तीन बेहद व्यथित कर देने वाली घटनाएं हुई हैं। पहली, जिसमें गोमांस खाने की अफवाह के बाद एक व्यक्ति की आक्रोशित भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई। दूसरी, जिसमें एक चार वर्षीय बालिका के साथ इतनी नृशंसता से दुष्कर्म किया गया कि उसकी आंतें बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गईं। तीसरी, जिसमें कपास की फसलें बरबाद होने के बाद सोलह किसानों द्वारा आत्महत्या कर ली गई। इनमें से केवल एक घटना की वजह से हमारे वामपंथी उदारवादी बुद्धिजीवियों का खून खौला है। बताने की जरूरत नहीं कौन-सी घटना।

हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी वैसे भी पक्षपातपूर्ण आक्रोश प्रदर्शन के लिए जाने जाते हैं। मौजूदा दौर में दादरी की घटना के बहाने मोदी विरोध की जैसी लहर बह रही है, वह इसका एक और उदाहरण है। नृशंस लैंगिक अपराध उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के प्रति विरोध प्रदर्शित करने के लिए प्रेरित नहीं करते। न ही देश में किसानों के प्रति जिस तरह का आर्थिक आतंकवाद जारी है, वह उन्हें विचलित करता है। एक बच्ची के साथ हुआ जघन्य कृत्य 'आइडिया ऑफ इंडिया" को क्षति नहीं पहुंचाता, केवल और केवल सांप्रदायिक आधार पर होने वाली हिंसा से ही उसे ठेस पहुंचती है?

निश्चित ही, जिस तरह इखलाक की जान ली गई, वह घोर निंदनीय है। इतनी ही निंदनीय नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या की घटनाएं भी हैं। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उचित ही इस पर कदम उठाते हुए तमाम राज्य सरकारों को आगाह कर दिया है कि आगे से इस तरह की घटनाओं के प्रति जीरो टॉलरेंस का रवैया अपनाया जाए। संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को गृह मंत्री की इस बात को गंभीरता से लेते हुए दोषियों को उचित सजा दिलवाने के लिए कमर कस लेनी चाहिए।

लेकिन क्या जरूरी है कि हर बार हर चीज के लिए नरेंद्र मोदी को ही दोषी ठहराया जाए? इस बहस के ब्योरों में जाए बिना कि क्या आज देश के धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी माहौल को क्षति पहुंचाई जा रही है या नहीं, इतना तो कहना ही चाहिए कि हर चीज को मोदी से जोड़कर देखने की हमारी जो आदत बनती जा रही है, वह अनुचित है। कहीं भी कोई उग्र दक्षिणपंथी कोई बेतुका बयान दे तो हम मोदी को इससे जोड़ देते हैं। हर चुनाव को हम मोदी पर देश का निर्णय घोषित कर देते हैं। वामपंथी बुद्धिजीवी अपने कॉलमों में मोदी की लानत-मलामत करने में इतने खोए हुए हैं कि वे इस बात को नजरअंदाज ही कर देते हैं कि मोदी ने हिंदुओं और मुस्लिमों दोनों से ही अपील की है कि वे आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से संघर्ष करें।

अति तो ये है कि नई दिल्ली के नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी में पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती समारोहपूर्वक मनाए जाने को भी 'सेकुलर स्पेस" में दक्षिणपंथियों की बेजा घुसपैठ के रूप में देखा जा रहा है। इस संस्था के निदेशक वामपंथी उदारवादियों के चहेते माने जाते रहे हैं और उन्हें पद से हटाए जाने के बाद विरोध का कोलाहल शुरू हो गया है, लेकिन कोई भी यह उल्लेख नहीं कर रहा है कि अव्वल तो उनकी नियुक्ति ही नियमों को ताक पर रखकर की गई थी। गत वर्ष ही कांग्रेस द्वारा पं. जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती बेहद धूमधाम से मनाई गई थी, लेकिन भाजपा द्वारा पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती मनाना उन्हें हजम नहीं हो रहा है।

वास्तव में सच्चाई यह है कि देश को आजादी मिलने के बाद सात दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है, जब वामपंथी उदारवादी खुद को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विमर्श के दायरे में हाशिए पर महसूस कर रहे हैं। यही बात उन्हें रह-रहकर खल रही है। चूंकि वे इस कड़वी हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए उनमें गुस्से का प्रदर्शन करने की होड़ लगी हुई है। देशहित में दक्षिणपंथी धारा के उदारवादी स्वरों के साथ मिल-बैठकर बात करने और समस्याओं का समाधान खोजने में उनकी दिलचस्पी नहीं है। अगर उनके खेमे का कोई व्यक्ति इस आशय की पेशकश रखता भी है तो वे उसे अपराधियों से मिलीभगत करने की संज्ञा दे देते हैं। एक विवेकपूर्ण रवैया अपनाने के बजाय वे केवल नैतिक आक्रोश और बौद्धिक दंभ के प्रदर्शन को ही पर्याप्त मान रहे हैं। अगर दक्षिणपंथ को असहिष्णु, एकांगी और पूर्वग्रहग्रस्त माना जाता है तो आज वामपंथी उदारवाद भी तो वैसा ही बनता जा रहा है।

यह सच है कि समाज-विज्ञान की दिशा में दक्षिणपंथी चिंतकों की बौद्धिक परंपरा बहुत समृद्ध नहीं रही है, लेकिन अब जब पहली बार अकादमिक दुनिया में उनका दबदबा कायम हुआ है तो यह स्थिति धीरे-धीरे बदल सकती है। आपको गंभीरता से लिया जाए, इसके लिए आपका अंग्रेजीभाषी होना और टीवी-सेमिनारों में मुखर होना जरूरी मान लिया जाता है। समय के साथ यह धारणा भी बदलनी चाहिए।

अभी तो ये स्थिति है कि जहां भी बुद्धिजीवियों को लेशमात्र भी भगवा नजर आता है, वे भड़क उठते हैं। उदारवाद की रक्षा करते-करते वे खुद बेहद अनुदार हो गए हैं। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की भी अगर वे खिल्ली उड़ाते हैं तो किसी ठोस वैचारिक आधार पर नहीं, बल्कि केवल इसलिए कि वह दक्षिणपंथी वैचारिकी का हिस्सा है। एक पिछड़े-गरीब परिवार के व्यक्ति के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने को भी वे भारतीय लोकतंत्र की ताकत के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। वे तो नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश को भी यह कहकर नकारने की कोशिश करते हैं कि उन्हें केवल 31 प्रतिशत वोट मिले। इस तर्क के आधार पर तो कांग्रेस को भी कभी पूर्ण जनादेश नहीं मिला है!

वास्तव में नरेंद्र मोदी सामाजिक बदलाव के एक नए दौर की उपज हैं। कांग्रेस का 'माई-बाप राज" अब समाप्त हो चुका है। साथ ही कांग्रेस द्वारा जिन बुद्धिजीवियों को प्रश्रय दिया जाता था, वे भी हाशिए पर चले गए हैं। हालांकि इसका ये मतलब नहीं कि वे अप्रासंगिक हो गए हैं, क्योंकि किसी भी विमर्श का आधार बहुलता ही होता है। लेकिन उन्हें अपनी आत्मतुष्ट महानता के दुर्गों से नीचे उतरकर तू-तू-मैं-मैं करने के बजाय संवाद करने को तैयार होना पड़ेगा। अगर वे किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य नहीं हैं तो जनधन योजना, अटल पेंशन योजना, स्वच्छ भारत या खादी प्रोत्साहन कार्यक्रम जैसे अच्छे कदमों की सराहना करने से उन्हें क्यों हर्ज होता है? हाशिए पर चले जाने से तो बेहतर है कि रचनात्मक संवाद करें और समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखें।
०००
(लेखिका पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं )

1 टिप्पणी:

  1. Very balanced,analytical and good article. It seems that the old order does not want to let Modi settle and work.They assume that they may come back to power only by discrediting him.It has been proved time and again that common people of India understand politics very well.
    My Hindi keyboard is not working so I am using english......

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