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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 अक्तूबर, 2018

 भारत में तालिबानी भीड़ 

उदय चे

उदय चे


भारत में तालिबानी भीड़ समय-समय पर अपना तांडव मेहनतकश आवाम पर करती है। उनका शिकार कभी मुस्लिम, दलित, बाहरी राज्य के मजदूर तो कभी मेहनकश आवाम के लिए सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले लेखक, कलाकार, बुद्विजीवी प्रगतिशील नेता बनते है।
अभी ताजा घटना गुजरात की है जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों पर हमले जारी है जिस कारण हजारों की तादात में मजदूरों का अपने घरों को पलायन जारी है। जिसको जो भी परिवहन का जरिया मिल रहा है अपनी जान बचा कर भाग रहा है। मेहनतकश आवाम पर ये हमला कोई पहली बार या सिर्फ गुजरात में हुआ हो ऐसा नही है। इससे पहले भी ऐसे हमले अलग-अलग राज्यो में होते रहे है। ऐसे ही मेहनतकश अपनी जान को बचा कर अपने घर की तरफ भागता रहा है। कभी आसाम तो कभी महाराष्ट्र तो कभी कोई दूसरा राज्य ऐसी अमानवीय घटनाओ में शामिल रहे है।


अब सबसे पहले तो सवाल ये है कि इन हमलों के पीछे जो हमको भीड़ दिखती है, जो इन्सान के खून की प्यासी बन जाती है।

1. इस भीड़ में कौन लोग शामिल होते है।
2. कौन इस भीड़ को चला रहा है। और कौनसा विचार इस भीड़ के पीछे मजबूती से खड़ा है।
3. क्या सिर्फ ये भीड़ बाहरी मजदूर को ही टारगेट करती है।
4. भीड़ के गुस्से का कारण क्या है।
5. पीड़ितों के पक्ष में हर जगह कौन लोग और कौनसा विचार मजबूती से खड़ा रहता है।

     पहले, दूसरे और तीसरे सवाल का जवाब को शुरू में ढूंढने की कोशिश करते है।


इस भीड़ को हर जगह धर्म-जाति-इलाका के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां, कार्पोरेट, दलाल नोकरशाह और फासीवादी विचार मजबूती से स्पोर्ट करता है। उसको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। आज जिन बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूरों को मारपीट कर निकाल जा रहा है इसी मजदूर से सत्ता ने अपने पक्ष में इन राज्यो में मन्दिर के नाम पर वोट मंगवाए है।

इस भीड़ में कौन लोग शामिल किए जाएंगे इसका फैसला इस भीड़ का शिकार कौन होगा इस आधार पर तय किया जाता है। अगर मुस्लिमो के खिलाफ भीड़ इकठ्ठा करनी है तो भीड़ में हिन्दू धर्म की सभी जातियों के लोगो को शामिल किया जाता है। अगर भीड़ को दलितों पर हमला करना है तो हिन्दू धर्म के स्वर्ण-पिछड़ी जातियां शामिल की जाती है। अगर बाहरी राज्य के मजदूरों को शिकार बनाना है तो सभी धर्मों के शूरमा शामिल किए जाते है, क्या दलित, क्या स्वर्ण, क्या हिन्दू क्या मुस्लिम।

    अब अगर शिकार कोई बाहरी देश से हो तो सभी धर्म, जातियां, सभी राज्यो के सभी नागरिक भीड़ का हिस्सा होते है।

हम रोते-चिल्लाते तब है जब हम खुद शिकार होते है। लेकिन जब हम शिकारी भीड़ का हिस्सा होते है तो हुंवा-हुंवा करके अपनी बहादुरी को प्रदर्शित करते है।

अब सवाल है नम्बर 4 भीड़ के इस गुस्से का कारण क्या है, क्यो वो आदमखोर भीड़ बनकर इंसानो का खून पीती है।
 
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है असमानता पर आधारित ये व्यवस्था। असमानता पर आधारित उस व्यवस्था के कारण अमीर-गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। एक बहुत बड़ा तबका कमर तोड़ मेहनत करने के बाद भी रोजमर्रा की जरूरतें रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा, इलाज से वंचित है। लेकिन एक बहुत छोटा वर्ग न मेहनत करता है लेकिन फिर भी उसके पास वो सब है जो इस दुनिया मे मेहनतकश आवाम ने पैदा किया है। जैसे उसके पास अल्लादीन का चिराग वाला जिन्न है। जो मांगो वो सब हाजिर मिलेगा।

     जो मेहनतकश आवाम है जो मेहनत करने के बाद भी मौलिक संसाधनों से वंचित है। उसमें धीरे-धीरे गुस्सा पनप रहा होता है। अब ये गुस्सा निकलना तो उस वर्ग पर चाहिए जो बिना मेहनत किये मेहनतकश आवाम की मेहनत की कमाई को लूट कर एसो-आराम कर रहा है। लेकिन ये गुस्सा निकल रहा है मेहनतकश का दूसरे मेहनतकश पर, इसके पीछे क्या कारण है?

जो लुटेरा वर्ग है वो बड़ा शातिर है। वो कभी मेहनतकश को अहसास ही नही होने देता की उसकी मेहनत को लूटा जा रहा है। वो बड़े ही शातिराना तरीके से ये प्रचार करता है कि मजदूर-किसान की बदहाली का असली कारण फैलाना धर्म के लोग है, फैलानी जात के लोग है, पड़ोसी मुल्क है, पड़ोसी राज्य के लोग है। उसके इस प्रचार में मीडिया से लेकर उनके द्वारा बनाये गए धार्मिक, जातिय व इलाकाई संगठन, राजनीतिक पार्टियां शामिल रहते है।

     "ये इंसान को दूसरे इंसान की जाति-धर्म का डर दिखाकर इकठ्ठा किया जाता है। उनको जाति-धर्म आधारित संगठनों में भीड़ के रूप में भर्ती करते हुए पहला पाठ ही ये पढ़ाया जाता है कि देखो फैलानी जाति, फैलाना धर्म और फैलाना मुल्क के लोग कितने संगठित है। संगठित होने के कारण ही वो हमारी जाति-धर्म-इलाका का हक खा कर आगे बढ़े जा रहे है। आज जो शिक्षा-रोजगार-स्वास्थ्य, भुखमरी या जितनी भी इंसान की समस्याएं है उनका जिम्मेवार ये ही लोग है। वो हिंसक है, निर्दयी है, आदमखोर है। वो तैयार है हमारे पर हमला करने के लिए, वो तैयार है हमको मिटाने के लिए, अगर आज हम संगठित नही हुए तो आने वाले समय में हमारी जात-धर्म का नामो-निशां ही मिट जाएगा इसलिए जितना जल्दी हो इकठ्ठा होकर दूसरी जात या धर्म के लोगो को रोकना होगा। उनको मिटाना होगा। "

धीरे-धीरे लोग जातीय, धार्मिक, इलाकाई, राष्ट्रवादी संगठनों में जमा होने लगते है। वो अपने से दूसरी पहचान वालो से नफरत करने लगते है, उनको अपना दुश्मन समझने लगते है। इस फिराक में रहते है कि कब हमको मौका मिले ताकि उनको मारकर अपना छीना जा रहा हक बचाया जा सके।"

     भीड़ के दिमाग में ये बैठाया जाता है कि ये जो मौजूदा कानून व्यवस्था है वो दुसरो का पक्ष लेती है। ऐसी कानून व्यवस्था की परवाह किये बिना  भीड़ को अपने हको के लिए इंसाफ करना जरूरी है क्योंकि भीड़ द्वारा किया गया इंसाफ सर्वोपरि है।

     इसके बाद भीड़ जो तांडव समय-समय पर करती है उसी का नतीजा कभी मुंबई, कभी बंगाल, कभी आसाम, कभी गुजरात तो कभी दूसरी जगह की घटनाएं हमारे सामने आती रहती है। भीड़ कभी मुस्लिमो, कभी सिखों, कभी ईसाइयों, कभी दलितों को, कभी दूसरी भाषा वालो को, कभी उतर भारतीयों या कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बंग्लादेशी घुसपेटियों, कभी रोहिंगयाओ के खात्मे के लिए इकठ्ठा होकर नरसंहार करती रहती है।

     आवाम की असली दुश्मन कार्पोरेट पूँजी जिसकी लूट नीति के कारण सभी समस्याएं पैदा हुई है। जिसका विरोध मेहनतकश आवाम को इकठ्ठा होकर करना चाहिए। लेकिन पूंजीपतियों द्वारा सत्ता में बैठाए गए राजनीतिज्ञ, सिस्टम में बैठें दलाल नोकरशाह के जाल में फंस कर हम असली दुश्मन के खिलाफ लड़ने की बजाए हिंसक भीड़ का हिस्सा बनकर हमारे ही मेहनतकश आवाम का कत्लेआम कर रहे है।


     लेकिन फिर भी उम्मीद की चिंगारी बाकी हैं, एक बहुत बड़ा तबका जिसमे प्रगतिशील कलाकार, पत्रकार, बुद्विजीवी, छात्र, किसान, मजदूर, नोजवान ओर वामपन्थी पार्टियां मजबूती से इस भीड़ और भीड़ को संचालित करने वालो के खिलाफ लड़ रहे है। अपनी जान की कुर्बानियां दे रहे है। उम्मीद की किरण का सवेरा बहुत जल्दी होगा। वो सुबह जिसमें ऐसी भीड़ किसी को अपना शिकार नही बनाएगी। किसी मेहनतकश को अपना काम धंधा छोड़ कर भीड़ के डर से ऐसे कभी नही भागना पड़ेगा। किसी मां से न नजीब छीना जाएगा और न किसी बेटे से उसका बाप अखलाक छीना जाएगा और नही किसी स्वामी को इसलिए मारा पीटा जाएगा क्योंकि वो तार्किक आलोचना कर रहे है। उस दिन मेहनतकश इकठ्ठा होकर लुटेरे की लूट बन्द करवाएगा।

     मेहनतकश आवाम को भी लुटेरी फासीवादी सत्ता की चाल में फंसने की बजाए दुश्मन को पहचानने की जरूरत है। जाति, धर्म, राष्ट्रवाद के मुद्दों पर उलझने की बजाए मेहनतकश आवाम की एकता और उसकी सत्ता स्थापित करने की तरफ बढेंगे।

वो सुबह कभी तो आयेगी,  वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नग़मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आयेगी ...
००

उदय चे का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

सत्यता और इनकाउंटर
उदय चे

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_4.html?m=1



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