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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 अक्टूबर, 2018


पड़ताल: 


अपने हिस्से का आसमान 



बद्री सिंह भाटिया



बद्रीसिंह भाटिया 
ग्राम्य जीवन की बेजोड़ कहानियों का समुच्य



‘‘मैं भी इन वादियों को छोड़कर किसी और पहाड़ पर अपना बसेरा बना लूँगा, तब तुम इंसानों की रक्षा कोई न कर पाएगा, तुम तब सब के सब प्रकृति माँ की नाराजगी के शिकार बन नदी-नालों में बहते जाओगे, तुम्हारे ऊपर अथाह सागर का पानी बरस पड़ेगा, जो तुम्हारे घर, खेत, खलिहानों को दूर तक बहा ले जाएगा.....तुम्हारे अपने देवता तुम्हे ठुकरा देंगे। वे तुम्हे छोड़कर ...लौट जाएंगे और कभी वापिस नहीं आएँगे....(गाइड, पृष्ठ 139)

संदीप शर्मा के कहानी संग्रह अपने हिस्से का आसमान में संकलित गाइडकहानी पर्यावरण और पर्यटन को केंद्रीय विमर्श बनाकर रची गई है। पहाड़ विशेषकर हिमाचल प्रदेश में जहाँ पर्यटन जीवन और रोजी के लिए एक अहम पहलु है वहाँ पर्यावरण की सुरक्षा भी महŸवपूर्ण है। कहानी कुल्लू घाटी की सुप्रसिद्ध मून पीक के आरोहण की है। प्रतिवर्ष सैकड़ों पर्वतारोही, पर्यटक आते हैं और मून पीक के आकर्षण स्थानीय गाइडों द्वारा ऐसा बना दिया जाता है कि वे वहाँ जाने को लोभ संवरण नहीं कर पाते। पूर्णमासी को वहाँ चाँद को निहारने का एक और ही अनुभव है। पर्यटन के नाम पर जहाँ कभी कोई नहीं जाता था। जहाँ प्रकृति किसी को जाने की इजाजत नहीं देती थी, जो अजेय थे। जो पवर्तराज ने अपनी तपस्या के लिए आरक्षित किए थे। आज वे स्थान विकास की नई धारा के कारण सुगम हो गए हैं। कहीं गाडि़याँ चली जाती हैं तो कहीं पर्यटकों को स्थानीय युवा गाइड  उन बीहड़ और दुर्गम रास्तों में पर्यटकों को ले जाते हैं।

कहानी गाइडस्पेन के पर्यटक दल और दो स्थानीय युवाओं के माध्यम से बुनी गई है। कमल गाइड हैं तो दीपक एक चरवाह जो अपनी बकरियों के साथ व्यस्त और मस्त है। वह पहाड़ की तराई में अपने रेवड़ के साथ रह रहा है। मून पीक को रात में देखने के शौकीन स्पेनिश दल की एक युवा पर्यटक एकाएक एक ढलान पर फिसल जाती है और उसके टखने में इतनी मोच आ जाती है कि चलना दुभर हो जाता है। कमल जो पर्यटकों के साथ है समाधान निकालता है और दीपक को बुला कर मदद माँगता है। पर्यटक मर्सीडीज की हालत खराब देख पर्यटक दल और कमल सलाह देते हैं कि उसकी वजह से यात्रा रोकी न जाए। उसकी देखभाल दीपक कर लेगा। यदि सुबह तक ठीक हो गई तो वह उसे ले आएगा। रास्ते में बात करते कमल पर्यटकों को पहाड़ का दर्द भी समझाता है। पर्यटक तो आएँगे और आते रहेंगे। पहाड़ का वातावरण तो मानवीय छेड़छाड़ से छलनी होता जाएगा। हर पहाड़ के शिखर पर एक देवता है। उसकी साधना में खलल पड़ता है। वह अगाह करता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ उचित नहीं। यही बात दीपक भी मर्सीडीज को समझाता है। वह पहाड़ों और उसकी ढलानों पर असंख्या विभिन्न प्रकार के पेड़ों, जड़ी-बूटियों से प्यार करता है। वह मर्सीडीज की मरहम पट्टी भी करता है। उसे भोजन कराता है। घंटों बतियाता है। अगली सुबह उसे न चाहते हुए भी उसके साथियों ंसे मिलवाता है।





वह कहता है-मैं यह गाइड का काम कभी नहीं करना चाहता था। पर फिर भी मुझे आखिरी बार तुमने गाइड बना ही दिया।वह चिंतित हैं कि क्षेत्र के युवाओं ने पढ़ाई करना छोड़ गाइड का काम अपना लिया है। उन्होंने खेती करना छोड़ दिया है। हमारे खेत, बाग-बागीचे विरान हो रहे हैं। इसलिए वह नहीं चाहता कि यह काम करे।

पर्यटक दल लौट जाता है। दीपक से हुई बातचीत से प्रभावित मर्सीडीज अपने देश लौट जाती है। वह वहाँ से कमल के माध्यम से दीपक का हाल पूछती रहती है। फिर एक विराम और आठ साल बाद जब वह पुनः पता करती है तो बुरी खबर सुनती है। मून पीक के उस रास्तें की ओर पहाड़ पर बादल फटने से सारी ढलान बह गई। हजारों टन मलबे ने दीपक और उसके रेवड़ का भी अपने आगोश में ले लिया। दुखाँत यह कहानी इस बात की ओर भी इंगित करती है कि बेशक पर्यटन एक रोजगार का साधन है मगर पर्यावरण की रक्षा भी अहम् है।

एक कम डेढ़ दर्जन कहानियों के इस संकलन अपने हिस्से का आसमानकी कहानियाँ पाठकों को समाज के उन अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार कराती है जिनसे हम रोज दो चार होते हैं और उन्हें आम मान आगे सरक जाते हैं। संदीप शर्मा ने अपनी कहानियों में अधिकतर समाज के निम्न और निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं का निरूपण किया है। 

विभाजन का दर्द लिए उनकी कहानी बढांगावर्तमान समय में उस टीस को फिर जागृत करती है जो उस समय पूरे समाज ने झेली थी। वे बताते हैं कि मानवीय घृणा के अवसाद से पहाड़ भी अछूते नहीं रहे। उस कत्लेआम के निशान आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। वे खातरियाँ जहाँ अपनी जान की रक्षा के लिए छुपे लोगों का कत्ल हुआ था। वे बताते हैं कि वे डरे हुए थे। उन्हें भी जीवन से प्यार था, तडप थी। वे शरण माँग रहे थे। कि उनका भी एक गाँव था। गाँव छूटने का दर्द लिए वे भाग रहे थे। वे कैसे पहाड़ में आए उन्हें नहीं मालूम। वे बस जानते थे कि वे मुसलमान हैं। और जब वो मार-काट की आंधी आई तब वे घर-गाँव छोड़ किसी शरण्यस्थल की तलाश में निकल पड़े पर कहाँ? मेहर के पास आए तो उसने सुझाया कि तुम आगे सप्पड़ वाली जगह पर बनी खातरियों में छुप जाओ।

 वह सुबह देख लेगा मगर उन्हें तो रात को ही चिन्हित कर लिया गया और काट दिया गया। सभी खातरयिाँ खून से भर गईं। मेहर सुबह गया तो केवल एक हल्की सी कराहट ने दुःखी मेहर को रोक दिया। एक बाजू उठा और एक ओर घासफूस में ढके बदन की ओर ईशार किया। उसने देखा यह वहीं स्त्री है जो बच्चा लिए जा रही थी। कि वह निरीह आंखों से उससे शाम को भीख माँग रही थी। ठंडे होते हाथों से उसके मुँह से निकला कि इसे दीन मुहम्मद के पास पहुँचा देना।

बढांगासंभवततया लोक का घड़ा एक शब्द। यानी अफरा-तफरी यानी मारकाट। लोग एक शब्द भर से एक पूरे परिदृश्य को अभिव्यक्त करते। समझते।

बहुरूपियासमाज के एक और चेहरे को उदघाटित करती है। सामने तो यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति का चित्रण करती है जो जीवन की गाड़ी चलाने के लिए विभिन्न रूप धरता है। वह कभी शिव बनता है तो कभी हनुमान। लोगों की आस्था देख धन एकत्र करता है। एक प्रकार से कहें तो भावनात्मक खिलवाड़। समाज के विभिन्न मानसिकता के लोग अपने से दूसरों को अपने मीटर से आंकते हैं। एक पत्रकार ने तो उसे भिखारी कहा। वह मन ही मन नाराज हुआ। इसी तरह कुछ और भी विरूप प्रहार हुए। वह मानता था कि वह तो ईश्वर का प्रचारक है। जो लोग देते हैं तो ईश्वर के नाम देते हैं।

 लोगों के टोहको से मन भरा तो भीतर से आवाज आई कि उसे यह काम छोड़ देना चाहिए। और उसने छोड़ा भी। अपने पास ईश्वर के नाम संचित धन उसने मंदिर में देना चाह। वह गया मगर पुलिस के हवाले कर दिया गया कि इसी ने मंदिर से चोरी की है। लाँछित उसे कोर्ट कचहरी का सामना करना पड़ा। कोर्ट से जब  छुटकारा मिला तो बाहर देखता है कि एक व्यक्ति भगवा वस्त्र पहने विचर रहा है। उसे लगा यह भी तो साधु के वेश में उसकी तरह बहुरूपिया है। यह समाज ही बहुरूपिया है। किसको कैसे पहचाने का भाव लिए वह आगे बढ़ा।



कठपुतलियाँकहानी का पहला भाग तो मानवेतर कहानी के रूप में सामने आता है। कठपुतलियां आपस में बतिया रही हैं। वे पिछले दिन के क्रियाक्लाप पर भी बात कर रही हैं। कहानी कठपुतलियों के वार्तालाप से बाहर आ कर उनके मालिक के न रहने पर उसके बेटे द्वारा काम सम्भालने और तत्पश्चात की परिस्तिथयों पर केंद्रित है। लड़का जब पहली बार कठपुतलियाँ लेकर बाहर निकला तो उसे उतनी मान्यता नहीं मिली। फिर बहन ने सुझाया कि टेप रिकार्डर पर गाना बजाओ और कठपुतलियाँ नचाओ। यह काम किया और चल गया। 
कालांतर में उसके पास पैसे जुड़ गए। उसने बहन की और फिर अपनी शादी भी कर ली। बहन उसकी आगे न पढ़ एक स्कूल में चपरासी लग गई थी। वह ससुराल गई तो अपनी जगह भाभी को भी लगा गई। वहीं उसे एक समय किसी अध्यापिका ने टोहका दिया कि वे तो कठपुतलियों की कमाई खाते हैं। मीरा नामक उस भाभी को यह बुरा लगा। उसने घर आकर पति से वह काम छोड़ने को कहा। उसने भी यह मान कर कहीं नौकरी कर ली। तभी एक दिन उसे आभास हुआ कि वह स्वयं सारा दिन स्कूल में जो घूमती है वह भी तो एक कठपुतली है जिसकी डोर दूसरे के हाथ में है। वह मन की भड़ास उस अध्यापिका के पास भी निकालती है। इस प्रकार बहुरूपियाऔर कठपुतलियाँअपनी अलग-अलग भावभूमि लिए समाज को प्रतिष्ठापित करतीं हैं।

मानवेतर कहानियां वर्तमान समय में बहुत कम लिखी जा रही हैं। प्रयास हो रहे हैं। यदि गहराई्र से देखें तो पंचतंत्र की कहानियाँ आज कितनी प्रासंगिक हैं। आज उनका विकास हुआ है। प्रकृति, और अन्य जीव भी सोचते हैं। नंदी बैलअपने जीवन की कथा में एक हल चलाने वाले से नंदी बनने तक का सफर और उसके काम और नाम पर आदमी की निर्भरता और उसकी कुटिलता का बाखूबी वर्णन इस कहानी में मिलता है।

अपने हिस्से का आसमानशीर्षक कहानी का मूल कथाविधान अवैध संतान को लेकर है। रचनाकार ने इसे उस आम के पौधे से जोड़ा है जिसके फल समय पूर्व टपक जाते हैं और बालकों की मौज हो जाती है। इसी टपकने को प्रायः टपकू आम का पौधा कहा गया। और उसी टपकू शब्द को गाँव के एक घर में शादी के पांच महीने बाद ही पैदा हुए एक बालक के नाम कर दिया। उसे पिता ध्यानू ने नहीं स्वीकारा। पहले तो गला घोंटने को कहा मगर दादी ने उसे बचा लिया। वह दादी का लाडला हो गया। उसे उम्र भर पिता की स्वीकार्यता नहीं मिली। उसके शौक दादी पूरे करती। लोग जब उसे टपकू नाम से बुलाते तो उसे अपने होने का एहसास होता। उसे चिढ़ होती। मन में अपनी माँ के बारे में सोचता। ऐसा क्यों हुआ होगा? यद्यपि कहानी में इस भाग को ज्यादा नहीं उभारा गया है मगर इसे समझा जा सकता है। 
वह दादी से शिकायत करता है। दादी उसे ढाढस बंधाती, उन लोगों को गालियाँ दे उसका मन रखती है। टपकू पढ़ने में होशियार निकला। वह पढ़ता गया। दसवीं कर गया। तभी एक जगह फौज में भर्ती हो रही थी। वह भर्ती हो गया। अब उसका नाम राजकुमार ही रह गया। टपकू से उसे निजा़त मिली। उसने पैसा कमाया। अपना तिरस्कार करने वाले बापू से भी आशीर्वाद ले लिया। उसका ब्याह भी हो गया। समय बदलने के साथ ऐसा समझा गया कि अब कोई उसे टपकू नहीं कहेगा मगर नहीं यह ठप्पा जो लगा था वह उसके बच्चों ने भी भुक्ता। इस प्रकार यह कहानी समाज की प्रवृतियों की ओर ईशारा करती है कि लोग जैसे कैसे अपने से बाहर न देख परपीड़ा में प्रसन्न रहते हैं। वह आसमान उसे नहीं मिल पाता जिसकी उसे वांछना थी। नाम बिगाड़ने की एक और कहानी उपनामभी संकलन में है।

अकेला जीवन भी क्या होता है। इस चिंता को भी कहानी संग्रह की कहानियों में निरूपित किया गया है। ताऊ का कमर दर्दकहानी में निःसंतान ताऊ अपनी कमर दर्द के लिए दवाई मंगाता ही रह गया मगर न उसे उसके घरवालों ने लाकर दी न ही उस युवक से जो उससे मिलने आता था। और जब दवाई वह लेकर ही आया तो ताऊ ही नहीं रहा था। इस प्रकार यह एक निर्णीत अंत का प्राप्त कहानी भी है।




 इसी प्रकार की एक और कहानी है मंगलू की बकरियांभी है। घर का अकेला वह अपनी बकरियों को पालता रहता है। उसके पास थोड़ी सी जमीन है जिसे वह इसलिए काश्त नहीं कर पाता कि उसमें लगी फसल की रखवाली करना कठिन है। उस जमीन पर गाँव के मेहर की नज़र भी है। वह मेहर के खेतों के खैर के पेड़ों से कंटीली पत्तिया बकरियों के लिए लाता है जिसका उलाहना मेहर की घरवाली देती भी है। मंगलू बाकी समय में मेहर के खेतों में भी काम करता है। इसी प्रकार एक दिन वह पेड़ से फिसल कर गिर जाता है और पीठ की हड्डी टूटने से बेकार हो जाता है। कुछ दिन गाँव के लोगों ने तिमारदारी की और फिर बंद। भूखा प्यासा बकरियों को तड़पता देखता रहा और मृत्यु के द्वार पर आ गया। तभी मेहर आता है और उससे अंगूठा लगा उसे उऋण कर जाता है। अपने साथ उसकी बकरियों भी ले जाता है। प्रायः ऐसे लोगों पर सबकी नज़र रहती है कि वह कब मरे या मरणासन्न हो और उसकी सम्पति  हड़प ली जाए। उससे दर्शायी जा रही सारी हमदर्दी मात्र एक चाल के सिवा कुछ नहीं। वृद्धावस्था में अकेलेपन की कहानी नानीको भी संकलित किया गया है। नानी के लड़का नहीं है। बेटियाँ ही हैं। उसे डर है कि उसके बाद उसकी सम्पति का क्या होगा? कहानी के अंत में वसीयत का भी जिक्र है। नानी के मरने के बाद उसके एक ट्रंक से वसीयत निकली जिसमें उसने अपनी संपति अपनी बेटियों के नाम कर दी थी। यह आवश्यक नहीं जान पड़ता क्योंकि उतराधिकार नियम के तहत संपति की वारिस पुत्र और पुत्रियां ही होते हैं।  

बाल मानसिकता और एक गवंई बालक की शहर देखने की इच्छा को ढोल की तानके माध्यम से कहानी में निरूपित किया गया है। ढोली करतारे को लगा कि लोहड़ी का महीना है। यदि वह अमृतसर जाकर घर-घर ढोल बजाता है तो काफी सारे पैसे मिल जाएँगे। उसने ऐसे ही अपने बेटे सन्तु  को भी प्रेरित किया कि चल तुझे शहर दिखा कर लाऊँं । बच्चे ने शहर देखने का सपना देखा। उसे बहुत चाव था। वह साकार होता दिखा तो पिता के साथ चला गया। सारा दिन बच्चा यह सोचता रहा कि पिता उसे हरमंदिर साहिब दिखाएगा। मगर नहीं वह तो ढोल बजाने और पैसे एकत्र करने में इतना व्यस्त था कि उसने बच्चे के  भूख प्यास की भी परवाह नहीं की। फिर जब बच्चा चलने में अक्षम हो गया तो उसे डाँटा फटकारा भी। एक जगह  जलेबी खाने को दी और बस। शाम को आखिरी बस से घर लौटा तो रास्ते में शराब के ठेके से बोतल ले ली। कुछ लुच्चे साथी भी जुड़े और नशे से चूर वह घर की ओर चला। अंधेरा हो गया था वह एक जगह गिर गया। बच्चे ने बड़ी मुश्किल से उठाया। उसका ढोल भी उठा घर ले जाने लगा। कहानी में बच्चे भावनाओं के साथ किए पिता के खिलवाड़ को बाखूबी दिखाया गया है।

हमारा समाज लोक विश्वासों से भी परिचालित है। लोक विश्वास को लेकर संग्रह में पत्थर चौथऔर जुड़वांकहानियाँ है। पत्थर चौथ के बारे यह विश्वास है कि यदि भादो मास की चाँद चौथी को यदि चंद्रमा दिख जाए तो कलंक लगेगा। यह विश्वास श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कंध में एक कथा में वर्णित है कि श्री कृष्ण को भी ऐसा दोष लगा था। घर में दादी की हिदायत बच्चों को हो जाती है कि वे अमुक दिन चंद्रमा को नहीं देखेंगे मगर हालात यह कि घर से बाहर निकलना ही पड़ता है और चाँद दिख जाता है। इसका निवारण यह कि फिर किसी के घर पर छोटे कंकर फेंको और गालियाँ सुनो। इसी प्रकार एक चिंता कि जिनके बच्चे नहीं होते उन्हें गोपाल संतान पाठ करवाना चाहिए। ऐसे एक प्रोफेसर ने भी सौ ब्राह्मणों से यज्ञ एवं पाठ करवाया मगर मामला शून्य। और अंततः टेस्ट ट्यूब बेबी के विकल्प का सहारा लेना पड़ा। प्रोफेसर के यज्ञ और पाठ का चर्चा समाज में खूब हुआ। अपनी-अपनी आलोचना, टिप्पणियाँ भी। जब टेस्ट ट्यूब बेबी भी हुए तो फिर चर्चा और व्यंग्य। लोक विश्वास का जिक्र मंगतू की बकरियां कहानी में भी मिलता है। मंगतू जब पेड़ पर बकरियों के लिए पत्तियाँ काटने चढ़ता है तो कहीं गिदड़ बोलते हैं। वह इसे अपशकुन मानता है और किसी बुरी खबर की आशंका भी करता है। संभवतः वह पेड़ से गिरा भी उसी प्रभाव में हो।
रावण का पुतलाकहानी में कथा के पात्र को विश्वास हो जाता है कि उसका इष्ट रावण है। उसके कारण ही उसके सारे काम सिद्ध हो रहे है। मगर जब एक दिन उसका घर पटाखों से जलता है तो उसका विश्वास टूटता है। मन में एक विचार आता है कि रावण ने उसके घर की रक्षा क्यों नहीं की? रचनाकार ने इस कहानी में सामाजिक मनोविज्ञान को बाखूबी उभारा है। वास्तव में जब भी समाज में कोई कुछ करता है तो उसकी ओर सबकी भृकुटियाँ उठ जाती है। क्यों, कब, कैसे आदि के शब्द यत्र-तत्र की बैठकों में चर्चा के विषय तब तक प्रचलित रहते हैं। जब तक दूसरा मुद्दा सामने नहीं आ जाता।

शनिचरेकहानी मानवीय संवेदना की कहानी है। शनि का दान लेने वाला एक व्यक्ति शनिचरे के नाम से ही विखात था। उसने एक दिन एक घर की मालकिन से बेटी की शादी के लिए सहायता माँगी। गरीब बेचारी वह जैसे कैसे पैसे बचाती थी। उसके पास दो सौ रूपये थे। शनिचरे ने ज्यादा की माँग की। अगले शनिवार को वह नहीं आया। महिला भी चिंतित हो गई। वह बेटी के ब्याह की बात से भी चिंतित थी। उसने पति से बात भी की मगर परिणाम शून्य। आखिर उसे ध्यान आया कि वह कुछ पैसे पूजा में देवी के नाम रखती आई है। क्यों न ये पैसे उसे दे दिए जाएँ? अगले शनिवार को वह नहीं आया। वह चिंतित हो गई कि कहीं वह नाराज न हो गया हो। फिर अगले शनिवार को उस व्यक्ति का लड़का आता है और बताता है कि उसका पिता तो एक दुघटना में घायल हो गया है। महिला दुःखी होती है और उसके घर जाकर पैसे दे आती है। कहानी में निम्न मध्यवर्ग की धर्मभीरु महिला के भीतर की इंसानियत को उभारा गया है। महिला भी तंगी में थी मगर फिर भी उसने हौसला किया और शनिचरे की मदद कर दी।

इसी प्रकार उपनाम’, कन्न भी अलग भाव भूमि को लेकर बुनी गई है। रचनाकार ने भाषा और व्यवहार पात्रानुकूल प्रयुक्त किया है। निम्न मध्य वर्ग के लोग प्रायः थकान और अन्य दबावों से शराब की शरण में चल कर अपना और परिवार का नुकसान करते है। भाषा जहाँ लोक मिश्रित या एकांगी भाषा संवादों को भी प्रकट किया गया है। कोर्ट के दृश्य और कार्रवाइयों में भी सामान्य व्यवहार को दर्शाने में बरती असावधानी से संप्रेषण का आघात भी पहुँचा है। समाज एक जटिल प्रक्रिया है। इसके इतने पेच और खम है कि सभी तक पूरी प्रवीणता के साथ पहुँचना प्रायः कठिन हो जाता है।
कहानियों के रचनात्मक निर्वहन में लगभग सभी कहानियों में वर्णनात्मक शैली को अपनाया गया है। वर्णनात्मक शैली में कहानी एक चालक की तरह स्टिरियरिंग लिए अग्रसर होती है। रचना के पात्र उसी तरह चलते हैं वे भागते नहीं। पाठक को अपनी ओर खींचते नहीं। बस जिस तरह रचनाकार की मजबूत पकड़ में रहते हैं। उनके व्यवहारिक संवादों का प्रकटीकरण भी वर्णन के बीच में ही हुआ है। ग्राम्य जीवन को निरूपित करती ये कहानियाँ पाठक को अपने साथ ले जाने में सक्षम है। वे पात्र समाज में विचरण करते दिखते हैं। यह कला कहानी कहने की रचनाकार की सिद्धहस्तता को भी प्रदर्शित करती है।
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बद्री सिंह भाटिया की कहानी नीचे लिंक पर पढ़िए

प्रेतात्मा की गवाही
बद्री सिंह भाटिया
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