अमरजीत कौंके की कविताएं
कविता की ऋतु
जब भी
कविता की रुत आई
तुम्हारी यादों के कितने मौसम
अपने साथ ले आई
मैं कविता नहीं
जैसे तुम्हें ही लिखता हूँ
मेरे नयनों
मेरे लहू में
तुम्हारा अजब सा सरूर तैरता है
अजीब सा ख़्याल
हैरान करने वाला
पता नहीं कहाँ से सूझता है
तुम धीरे से
मेरे पास आ बैठती
तुम्हारी नज़र
मेरी कविता का
एक-एक शब्द
किसी पारखी की तरह
टँकार कर देखती
मेरे नयनों में
तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा आता
मेरे इर्द गिर्द शब्दों की
बरसात होती
और मैं किसी बच्चे की तरह
शब्दों को उठा उठा कर
उनको
कतारों में सजाता
कहीं भी हो चाहे
कितनी भी दूर
असीम अनंत दूरी पर
लेकिन
कविता की ऋतू में
तुम हमेशा
मेरे पास होती।
कविता और महबूब
महबूब जैसी होती है कविता
थोड़ा सा ध्यान न दो
तो यह रूठ जाती
फिर देर तक न मानती
थोड़ी देर
तुम इसके वापिस लौटने का
इंतज़ार करते
सोचते
कुछ दिन बाद
आ जाएगी वापिस
अपने आप
लेकिन कविता
महबूब जैसी होती
वह नहीं आती
अपने आप
भुला देती तुम्हें
छोड़ देती तुम्हें
तुम्हारे रहमो करम पर
तुम कुछ दिनों के लिए
बेगानी वादियों में भटकते
कविताएं लिखने की जगह
कविताओं की पुस्तकों के
पृष्ठ पलटते
कुछ देर
बेगानी कविताओं में उलझते
धीरे धीरे लेकिन
तुम्हें फिर अपनी
कविताओं की याद आती
बहुत सताती
तुम कविता को मनाते
लेकिन वो नहीं मानती
तुम मनाते
कितनी मिन्नतें कितने तरले
वह फिर अचानक मुस्कुराती
धीरे धीरे
मतवाली चाल चलती
वह फिर तुम्हारे पास आती
तुम्हारा मन
फिर शब्दों
फिर प्यार से महक उठता
वियोग का समय खत्म होता
लगता जैसे
तुम और वह
कभी बिछुड़े ही
नहीं थे।
ऐन आधी रात
ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पवन बिखेरती
अतीत की पुस्तक के पन्ने
और सामने की दीवार पर
कितना कुछ जगमगा उठता है
दूर गाँव में
याद आता है घर एक
जहाँ शाम को इंजन की ‘छुक-छुक’
मेरे बाल मन को
करती थी बेचैन
दादा मेरे अभी भी
आँगन में स्टूल रखकर
खाना खाने के लिये हाथ धोते
और दादी मेरी चूल्हे में
लकड़ियों से आँच तेज़ करती
उसका तांबे जैसा रंग तपता है
अन्धेरे में एक और घर दिखता है
जिसकी दीवारों से
कितने सुख-दुख साँझे
कितनी आँखें
उस घर में इन्तज़ार करतीं मेरा
कि कब लौटूँगा घर मैं
इस स्याह वक़्त के सीने पर
जलता चिराग रख कर
ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पास आती मेरे
मेरी मोहब्बत की पहली नायिका
जिसने मेरे मासूम क़दमों को
ऐसी भटकन भरी राह पर डाला
कि मेरे लिए उम्र का हर रास्ता
जंगल बनता गया
याद आती
रिश्तों की नगरी
तो कितने ही ज़हर-बुझे तीर
मेरे जिस्म में सरसराने लगते
कुछ रिश्ते अभी भी पास आते
और मेरा सीना इल्ज़ाम से भरते
आधी रात में पास आती मेरे
बहुत सी मटकती हूई
जामुनी नदियाँ
याद आता
उनका आना
और चले जाना
गहरी बेचैनी में
मैं करवटें बदलता
और
सो जाने की कोशिश करता
अंधेरी रात में जलता
यह
स्मृतियों का सूरज
बुझाने की कोशिश करता ।
लालटेन
कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर
कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी
तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई
इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं
लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की परिक्रमा करता।
और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
जला कर रखता ।
आवाज़
बहुत उदास होता हूँ
साँझ को
घर लौटते
परिन्दों को देखकर
अपना घर याद आता है
खुली चोंचें याद आती हैं
जिनके लिए
मैं चुग्गा चुगने का
वादा कर
एक दिन चला आया था
उदास होता हूँ बहुत
जब अपने
बेबस पंखों की तरफ देखता हूँ
अपने पाँव में पड़ी बेड़ियाँ
किश्तों में बँटा हुआ
अपना जीवन देखूँ
उस दौड़ की रफ़्तार देखूँ
जिस में मैं महज़
एक रेस का घोड़ा बनकर
रह गया हूँ
उदास होता हूँ बहुत
जब अपने भीतर
जगमगाती कविताओं की
याद आती
वह शब्दों का आकाश
जो उदासी के समय
मेरे सिर पर फैल जाता था
सघन छाँव बनकर
और मैं
कविता लिखकर
जीवन की मुक्ति तलाश लेता था
बहुत उदास होता हूँ
इस उदासी में
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तो मेरे भीतर पिघलने लगती
उदासी की बर्फ़
बूँद-बूँद
रिसने लगता है
समुद्र
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तुम्हारी आवाज़
किसी पेन-किलर की तरह
थोड़ी देर के लिए
मुझे मेरा
दर्द भुला देती है
मेरी जाग रही आत्मा को
कुछ देर के लिये फिर
गहरी नींद सुला देती है ।
बहुत दूर
बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में
पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ
वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अंधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते
वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।
अजनबी मनुष्य
क्यों मेरे लिये
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में जीता था
जो मेरी
साँसों में बसते थे
यह हादसा कैसे हुआ
कि मैं उनसे आँखें चुराने लगा
मैं उनकी मुसीबतें भुलाने लगा
जिन्हें कितनी बार
मैंने उनके साथ
अपने जिस्म पर झेला
वह तल्ख़ दर्द
कितने हमारे आँसू साँझे
हमने एक दूसरे के हाथों से पोंछे
एक दूसरे की राहों के काँटे
कितनी बार हमने
अपनी पलकों से समेटे
पता नहीं
वक़्त अचानक
यह क्या हादसा कर गया
कि मेरे भीतर
जो इन सब का अपना था
वह कैसे अचानक
धीरे-धीरे मर गया
उसके स्थान पर
मेरे भीतर
यह अजनबी-सा मनुष्य
कौन
प्रवेश कर गया
कि मेरे लिए
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में बसता था
जो मेरी साँसों में जीते थे ।
अपने घर में
अपने घर में बैठ कर
पहली बार मैंने धूप देखी
जो सुबह-सवेरे
उतर कर सीढ़ियाँ
आँगन में उतर आई
गुनगुनी धूप को अपने ऊपर ओढ़ते जाना मैंने
कि जीने के लिए
यह चमकती और निघ्घी धूप
कितनी ज़रूरी थी
अपने घर में उगे फूलों की
दबे पाँव वलती
खुशबू को सूँघते
मैंने पहली बार महसूस किया
कि मुर्दा हो रहे जीवन के लिए
फूलों की यह महक
कितनी लाज़मी थी
अपने घर में मैंने पहली बार
फूलों पर
गुनगुनाती तितली देखी
और सोचा
कि रंगों का मनोविज्ञान
समझने के लिये
प्रकृति की
इस रंगीन कारीगरी को
समझना कितना आवश्यक था
अपने घर में बैठकर
मुझे पहली बार
अहसास हुआ
कि दुनियाँ में
सब बेघरों के लिए
सचमुच
कितने ज़रूरी हैं घर ।
धीरे-धीरे
इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी
इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग ख़त्म होते
रंगों से ख़त्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं
कविताएँ पंक्तियों में सिकुड़तीं
पंक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते
इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते
आँखों में इन्तज़ार ख़त्म होता
तड़पते-तड़पते
होठों का लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मज़बूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें
पाजेब बना कर थिरकने लगता है
इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् अंग बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से क़लम
कोई कागज़
छीन कर ले जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बांध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता।
मैं किस वाद में हूँ
मैंने कविता लिखी
तो वे आ गए
अपने अपने वाद लेकर
मेरे माथे पर चिपकाने
मैंने कहा -
मैंने तो कविता लिखी
मैंने तो मन की
धरती पर बहती
भावनाओं का दरिया लिखा है
मैंने और कुछ नहीं लिखा
नहीं - तू नीला लिख
नहीं - तू लाल लिख
नहीं - तू पीला लिख
नहीं - तू गुलाल लिख
मैंने कहा -
मुझे तो हर रंग प्यारा
मेरे सपनों में तो
मेरे बज़ुर्ग भी जागते हैं
मेरे नयनों में
मेरे बच्चों का भविष्य भी चमकता
मुझे बिछुड़ी नदियाँ भी
याद आती हैं
और पीछे छूट गया बचपन भी
कारखानों में तिल-तिल मरते
मज़दूर भी मेरे ख्वाबों में सुलगते
जिनके साथ मैंने
उम्र के कितने बरस बिताए
मैं और कुछ नहीं
मैं उन मित्रों की
तड़प लिखता हूँ
मैं उन नदियों की
प्यास लिखता हूँ
मैं किस वाद में हूँ
मैं नहीं जानता
मैं तो कविता लिख रहा हूँ
मैं कविता लिख रहा हूँ
वे आपस में लड़ रहे हैं
मेरे माथे पर चिपकाने के लिए
अपने-अपने वादों का
लेबल घड़ रहे हैं।
००
परिचय
डा. अमरजीत कौंके,
जन्म : 1964, लुधियाना, शिक्षा – एम. ए. ( पंजाबी ), पीएच. डी
* पंजाबी में निर्वाण दी तलाश ‘च, द्वंद कथा, यकीन, शब्द रहनिगे कोल, स्मृतियां दी लालटेन, प्यास, काव्य संग्रह प्रकाशित,
* हिंदी में मुट्ठी भर रौशनी, अँधेरे में आवाज़, अंतहीन दौड़, बन रही है नई दुनिया, काव्य संग्रह प्रकाशित.
* हिंदी के दिग्गज लेखकों डॉ. केदार नाथ सिंह, श्री नरेश मेहता, कुंवर नारायण, अरुण कमल, राजेश जोशी,बिपन चंद्रा, हिमांशु जोशी, मिथिलेश्वेर, पवन करन, मणि मोहन की पुस्तकों सहित हिंदी से पंजाबी और पंजाबी से हिंदी में 35 पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित.
* पंजाबी में 2001 से " प्रतिमान " नाम की पंजाबी पत्रिका का निरंतर संपादन
* साहित्य अकादेमी, दिल्ली से साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरुस्कार,
* "प्यास" तथा " मुठ्ठी भर रौशनी " पुस्तकों के लिए भाषा विभाग पंजाब से सर्वोत्तम पुस्तक पुरुस्कार,
* गुरु नानक यूनिवसर्सिटी अमृतसर से साहित्य पुरुस्कार सहित अनेक संस्थानों द्वारा सम्मानित.....
पता - डॉ. अमरजीत कौंके
संपादक : प्रतिमान ( पंजाबी )
098142 31698
email: pratimaan@yahoo.co.in
अमरजीत कौंके |
कविता की ऋतु
जब भी
कविता की रुत आई
तुम्हारी यादों के कितने मौसम
अपने साथ ले आई
मैं कविता नहीं
जैसे तुम्हें ही लिखता हूँ
मेरे नयनों
मेरे लहू में
तुम्हारा अजब सा सरूर तैरता है
अजीब सा ख़्याल
हैरान करने वाला
पता नहीं कहाँ से सूझता है
तुम धीरे से
मेरे पास आ बैठती
तुम्हारी नज़र
मेरी कविता का
एक-एक शब्द
किसी पारखी की तरह
टँकार कर देखती
मेरे नयनों में
तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा आता
मेरे इर्द गिर्द शब्दों की
बरसात होती
और मैं किसी बच्चे की तरह
शब्दों को उठा उठा कर
उनको
कतारों में सजाता
कहीं भी हो चाहे
कितनी भी दूर
असीम अनंत दूरी पर
लेकिन
कविता की ऋतू में
तुम हमेशा
मेरे पास होती।
कविता और महबूब
महबूब जैसी होती है कविता
थोड़ा सा ध्यान न दो
तो यह रूठ जाती
फिर देर तक न मानती
थोड़ी देर
तुम इसके वापिस लौटने का
इंतज़ार करते
सोचते
कुछ दिन बाद
आ जाएगी वापिस
अपने आप
लेकिन कविता
महबूब जैसी होती
वह नहीं आती
अपने आप
भुला देती तुम्हें
छोड़ देती तुम्हें
तुम्हारे रहमो करम पर
तुम कुछ दिनों के लिए
बेगानी वादियों में भटकते
कविताएं लिखने की जगह
कविताओं की पुस्तकों के
पृष्ठ पलटते
कुछ देर
बेगानी कविताओं में उलझते
धीरे धीरे लेकिन
तुम्हें फिर अपनी
कविताओं की याद आती
बहुत सताती
तुम कविता को मनाते
लेकिन वो नहीं मानती
तुम मनाते
कितनी मिन्नतें कितने तरले
वह फिर अचानक मुस्कुराती
धीरे धीरे
मतवाली चाल चलती
वह फिर तुम्हारे पास आती
तुम्हारा मन
फिर शब्दों
फिर प्यार से महक उठता
वियोग का समय खत्म होता
लगता जैसे
तुम और वह
कभी बिछुड़े ही
नहीं थे।
ऐन आधी रात
ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पवन बिखेरती
अतीत की पुस्तक के पन्ने
और सामने की दीवार पर
कितना कुछ जगमगा उठता है
दूर गाँव में
याद आता है घर एक
जहाँ शाम को इंजन की ‘छुक-छुक’
मेरे बाल मन को
करती थी बेचैन
दादा मेरे अभी भी
आँगन में स्टूल रखकर
खाना खाने के लिये हाथ धोते
और दादी मेरी चूल्हे में
लकड़ियों से आँच तेज़ करती
उसका तांबे जैसा रंग तपता है
अन्धेरे में एक और घर दिखता है
जिसकी दीवारों से
कितने सुख-दुख साँझे
कितनी आँखें
उस घर में इन्तज़ार करतीं मेरा
कि कब लौटूँगा घर मैं
इस स्याह वक़्त के सीने पर
जलता चिराग रख कर
ऐन आधी रात
खुल जाती है आँख
पास आती मेरे
मेरी मोहब्बत की पहली नायिका
जिसने मेरे मासूम क़दमों को
ऐसी भटकन भरी राह पर डाला
कि मेरे लिए उम्र का हर रास्ता
जंगल बनता गया
याद आती
रिश्तों की नगरी
तो कितने ही ज़हर-बुझे तीर
मेरे जिस्म में सरसराने लगते
कुछ रिश्ते अभी भी पास आते
और मेरा सीना इल्ज़ाम से भरते
आधी रात में पास आती मेरे
बहुत सी मटकती हूई
जामुनी नदियाँ
याद आता
उनका आना
और चले जाना
गहरी बेचैनी में
मैं करवटें बदलता
और
सो जाने की कोशिश करता
अंधेरी रात में जलता
यह
स्मृतियों का सूरज
बुझाने की कोशिश करता ।
लालटेन
कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर
कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी
तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई
इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं
लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की परिक्रमा करता।
और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
जला कर रखता ।
आवाज़
बहुत उदास होता हूँ
साँझ को
घर लौटते
परिन्दों को देखकर
अपना घर याद आता है
खुली चोंचें याद आती हैं
जिनके लिए
मैं चुग्गा चुगने का
वादा कर
एक दिन चला आया था
उदास होता हूँ बहुत
जब अपने
बेबस पंखों की तरफ देखता हूँ
अपने पाँव में पड़ी बेड़ियाँ
किश्तों में बँटा हुआ
अपना जीवन देखूँ
उस दौड़ की रफ़्तार देखूँ
जिस में मैं महज़
एक रेस का घोड़ा बनकर
रह गया हूँ
उदास होता हूँ बहुत
जब अपने भीतर
जगमगाती कविताओं की
याद आती
वह शब्दों का आकाश
जो उदासी के समय
मेरे सिर पर फैल जाता था
सघन छाँव बनकर
और मैं
कविता लिखकर
जीवन की मुक्ति तलाश लेता था
बहुत उदास होता हूँ
इस उदासी में
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तो मेरे भीतर पिघलने लगती
उदासी की बर्फ़
बूँद-बूँद
रिसने लगता है
समुद्र
तुम्हारी आवाज़ सुनता हूँ
तुम्हारी आवाज़
किसी पेन-किलर की तरह
थोड़ी देर के लिए
मुझे मेरा
दर्द भुला देती है
मेरी जाग रही आत्मा को
कुछ देर के लिये फिर
गहरी नींद सुला देती है ।
बहुत दूर
बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में
पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ
वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अंधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते
वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।
अजनबी मनुष्य
क्यों मेरे लिये
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में जीता था
जो मेरी
साँसों में बसते थे
यह हादसा कैसे हुआ
कि मैं उनसे आँखें चुराने लगा
मैं उनकी मुसीबतें भुलाने लगा
जिन्हें कितनी बार
मैंने उनके साथ
अपने जिस्म पर झेला
वह तल्ख़ दर्द
कितने हमारे आँसू साँझे
हमने एक दूसरे के हाथों से पोंछे
एक दूसरे की राहों के काँटे
कितनी बार हमने
अपनी पलकों से समेटे
पता नहीं
वक़्त अचानक
यह क्या हादसा कर गया
कि मेरे भीतर
जो इन सब का अपना था
वह कैसे अचानक
धीरे-धीरे मर गया
उसके स्थान पर
मेरे भीतर
यह अजनबी-सा मनुष्य
कौन
प्रवेश कर गया
कि मेरे लिए
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में बसता था
जो मेरी साँसों में जीते थे ।
अपने घर में
अपने घर में बैठ कर
पहली बार मैंने धूप देखी
जो सुबह-सवेरे
उतर कर सीढ़ियाँ
आँगन में उतर आई
गुनगुनी धूप को अपने ऊपर ओढ़ते जाना मैंने
कि जीने के लिए
यह चमकती और निघ्घी धूप
कितनी ज़रूरी थी
अपने घर में उगे फूलों की
दबे पाँव वलती
खुशबू को सूँघते
मैंने पहली बार महसूस किया
कि मुर्दा हो रहे जीवन के लिए
फूलों की यह महक
कितनी लाज़मी थी
अपने घर में मैंने पहली बार
फूलों पर
गुनगुनाती तितली देखी
और सोचा
कि रंगों का मनोविज्ञान
समझने के लिये
प्रकृति की
इस रंगीन कारीगरी को
समझना कितना आवश्यक था
अपने घर में बैठकर
मुझे पहली बार
अहसास हुआ
कि दुनियाँ में
सब बेघरों के लिए
सचमुच
कितने ज़रूरी हैं घर ।
धीरे-धीरे
इसी तरह धीरे-धीरे
ख्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी
इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग ख़त्म होते
रंगों से ख़त्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं
कविताएँ पंक्तियों में सिकुड़तीं
पंक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं
और शब्द शून्य में खो जाते
इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करते
आँखों में इन्तज़ार ख़त्म होता
तड़पते-तड़पते
होठों का लरजना भूल जाता
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाते
दीवारें उसकी मज़बूरी बन जातीं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेडियाँ होते
आदमी उन्हें
पाजेब बना कर थिरकने लगता है
इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् अंग बन जाता
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से क़लम
कोई कागज़
छीन कर ले जाता
इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता
और आँखों पर पट्टी बांध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता।
मैं किस वाद में हूँ
मैंने कविता लिखी
तो वे आ गए
अपने अपने वाद लेकर
मेरे माथे पर चिपकाने
मैंने कहा -
मैंने तो कविता लिखी
मैंने तो मन की
धरती पर बहती
भावनाओं का दरिया लिखा है
मैंने और कुछ नहीं लिखा
नहीं - तू नीला लिख
नहीं - तू लाल लिख
नहीं - तू पीला लिख
नहीं - तू गुलाल लिख
मैंने कहा -
मुझे तो हर रंग प्यारा
मेरे सपनों में तो
मेरे बज़ुर्ग भी जागते हैं
मेरे नयनों में
मेरे बच्चों का भविष्य भी चमकता
मुझे बिछुड़ी नदियाँ भी
याद आती हैं
और पीछे छूट गया बचपन भी
कारखानों में तिल-तिल मरते
मज़दूर भी मेरे ख्वाबों में सुलगते
जिनके साथ मैंने
उम्र के कितने बरस बिताए
मैं और कुछ नहीं
मैं उन मित्रों की
तड़प लिखता हूँ
मैं उन नदियों की
प्यास लिखता हूँ
मैं किस वाद में हूँ
मैं नहीं जानता
मैं तो कविता लिख रहा हूँ
मैं कविता लिख रहा हूँ
वे आपस में लड़ रहे हैं
मेरे माथे पर चिपकाने के लिए
अपने-अपने वादों का
लेबल घड़ रहे हैं।
००
परिचय
डा. अमरजीत कौंके,
जन्म : 1964, लुधियाना, शिक्षा – एम. ए. ( पंजाबी ), पीएच. डी
* पंजाबी में निर्वाण दी तलाश ‘च, द्वंद कथा, यकीन, शब्द रहनिगे कोल, स्मृतियां दी लालटेन, प्यास, काव्य संग्रह प्रकाशित,
* हिंदी में मुट्ठी भर रौशनी, अँधेरे में आवाज़, अंतहीन दौड़, बन रही है नई दुनिया, काव्य संग्रह प्रकाशित.
* हिंदी के दिग्गज लेखकों डॉ. केदार नाथ सिंह, श्री नरेश मेहता, कुंवर नारायण, अरुण कमल, राजेश जोशी,बिपन चंद्रा, हिमांशु जोशी, मिथिलेश्वेर, पवन करन, मणि मोहन की पुस्तकों सहित हिंदी से पंजाबी और पंजाबी से हिंदी में 35 पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित.
* पंजाबी में 2001 से " प्रतिमान " नाम की पंजाबी पत्रिका का निरंतर संपादन
* साहित्य अकादेमी, दिल्ली से साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरुस्कार,
* "प्यास" तथा " मुठ्ठी भर रौशनी " पुस्तकों के लिए भाषा विभाग पंजाब से सर्वोत्तम पुस्तक पुरुस्कार,
* गुरु नानक यूनिवसर्सिटी अमृतसर से साहित्य पुरुस्कार सहित अनेक संस्थानों द्वारा सम्मानित.....
पता - डॉ. अमरजीत कौंके
संपादक : प्रतिमान ( पंजाबी )
098142 31698
email: pratimaan@yahoo.co.in
सभी कविताएँ भावनाओं के एक भिन्न धरातल पर ले जाती हैं। लेकिन एन आधी रात, आवाज ओर अपने घर मे कविताओं ने मन को भीतर तक छू लिया।
जवाब देंहटाएंShukriya ji
जवाब देंहटाएंअमरजीत कौंके की सभी कविताएँ पढ़ी ! जीवन से जुडी इन कविताओं से जुड़ना अपने समय को गहराई से देखना और जीवन की सच्चाइयों से जुड़ना है !अमरजीत कौंके की कविता समकालीन भारतीय कविता का प्रतिनिधित्व करती है ।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ अपने आप में अनूठी हैं |हर कविता एक विशिष्ट छाप छोड़ती सी प्रतीत होती है |भावानुभूती कोई भी हो बस यूँ लगता है कि कही न कहीं हर कविता से या तो मैं जुड़ी हुई हूँ या फिर कविता मुझसे जुड़ी हुई है | कविताओं की खूबसूरती इनकी सार्वभौमिकता में है |पाठक स्वयं को किसी भी विषय से अलग नहीं कर पाता |
जवाब देंहटाएंAapki sbhi kavitaen ek se barrh ker ek hain.
जवाब देंहटाएंLikhte vqt aap kavita k sath jese jeete ho usi trh hm parrhte vqk kavita k sath jeete hai.
Bht bht mubarakan ji
Bht khoob rachnaen hain.
यहाँ नोस्नटेलजिया की गूंज साफ सुनाई दे ती है.. इस पर बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं पर यहाँ ताज़गी है। कविताएँ दिल को छूती है।
जवाब देंहटाएंअमरजीत जी को हार्दिक बधाई।
प्रेम भरी उदास पनीली कविताये ... उदासी को सींच कर हरा कर देतीहै ।
जवाब देंहटाएंसारी रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं। विशेषकर ' मैं किस वाद में हूँ '। जीवन की धूप-छाँव को अपने में समेटे रचनाओं के सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई आपको💐💐
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