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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अक्तूबर, 2018

सत्ता और इनकाउंटर
उदय चे

उसके कत्ल पे मैं भी चुप था मेरा नंबर अब आया
मेरे कत्ल पे आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है
नवाज देवबंदी

उदय चे


 ये लाइने सिर्फ लाइने नही है। ये हमारे आज के समाज की कोरी सच्चाई है। उत्तर प्रदेश जिसमे भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यहाँ राम-राज्य आया हुआ है। योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री का पद सम्भालते ही पुलिस को हर उस आवाज को सत्ता के खिलाफ उठती है, दफन करने की छूट दी। एक सफल तानाशाह की तरह छात्र, मजदूर, किसान, नोजवान, कर्मचारी, शिक्षक जिसने भी सत्ता की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। उनका बड़ी क्रूरता से पुलिस द्वारा दमन करवाया गया।

इस छूट का ही नतीजा है कि सरकार आने के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश की पुलिस इनकाउंटर-इनकाउंटर खेल रही है। यहाँ की पुलिस तो मीडिया को बुला कर लाइव इनकाउंटर तक कर रही है।

कुछ महीने पहले तो उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधीक्षक का सार्वजनिक ब्यान शोशल मीडिया पर आया था कि ऊपर से उसके पास बार-बार फोन आते है और ये पूछा जा रहा है कि उसकी ड्यूटी इलाके में बाकी जगहों से कम इनकाउंटर क्यो हुए है।

क्या इसका सीधा अर्थ ये नही निकलता की पुलिस को इलाके वार हत्या करने का कोटा दिया हुआ है। जो कोटा पूरा करेगा उसको बड़ा दाम, बड़ा इनाम और बड़ा पद मिलेगा।सरकारें घोषणा करती है ना कि खेल में पदक लाओ - पद पाओ।

यहां मौखिक घोषणा है कि लाश लाओ - पद पाओ। अखलाक के हत्यारे की जब जेल में बीमारी से मौत हुई तो उसको भी ये सब मान-सम्मान, मुआवजा, नोकरी दी गयी। ऐसे ही राजस्थान में एक मजदूर मुश्लिम की हत्या करने वाले को तो लोक सभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में विवेक तिवारी की पुलिस द्वारा हत्या भी उसी दाम, इनाम और पद के लालच में कई गयी हत्या है। लेकिन उस पुलिस वाले को क्या मालूम था कि गाड़ी में बैठा शख्स मुस्लिम, दलित न होकर अमीर ब्राह्मण निकल जायेगा।
"तीर से निकला कमान और मुँह निकली जबान वापिस नही आते"अब दांव उल्टा पड़ गया तो इनाम की जगह जेल पहुंच गया। जो बहुमत कम्युनिटी इस सत्ता की नीतियों और विचारों से सहमत रहती है मरने वाला इसी कम्युनिटी से था तो विरोध में बवाल तो होना ही था।

सरकार ने 25 लाख रुपये और 1 पहले दर्जे की नोकरी मृतक की पत्नी को देने का एलान कर दिया। अब सरकार एक हाथ से ये सब कर रही थी तो वही दूसरे हाथ से अपने संघठनो को दोषी पोलिस वाले के बचाव का इशारा कर दिया। सत्ता ने मुआवजा और नोकरी देकर अपने मजबूत वोटरों को भी बचा लिया और दूसरे हाथ से कातिल को भी बचाने में लगे है।
जिसका कत्ल हुआ वो परिवार भी योगी-योगी कर रहा है और कातिल भी योगी-योगी कर रहा है।

पुलिस वाले के पक्ष में बड़ी-बड़ी पोस्ट शोशल मीडिया पर लिखी जा रही है। पुलिस वाले को गरीब का बेटा और मृतक को अमीर, SUV गाड़ी वाला, अय्यास की तरह पेश करके हत्यारे के पक्ष में अमीर के खिलाफ गरीबी का बेटा वाला कार्ड खेला जा रहा है। जो इनकी पोस्ट के खिलाफ तार्किक कॉमेंट कर रहा है उसको मां-बहन की गालिया दी जा रही है।
कौन है ये लोग जो हत्यारो के पक्ष में माहौल बनाते है, इनकी फेसबुक प्रोफ़ाइल पर धार्मिक इंसान, धार्मिक चिन्ह का फोटो मिलता है, इनकी फेसबुक दीवार भरी हुई है जहरीली पोस्टो से, इनका खास एजेंडा ही सत्ता के पक्ष में माहौल और सत्ता का विरोध कर रहे आवाम के खिलाफ जहर फैलाना है। विरोधीयों को चुप करवाने के लिए मां-बहन की गालियां देना इनका मुख्य हथियार है।

पुलिस जिसको सविधान की नजर में जनता का रक्षक के तौर पर नियुक्त किया जाता है। लेकिन ये तो रक्षक की जगह भक्षक बनी हुई है।
पुलिस का काम है कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कानून के दायरे में रह कर कानूनी कार्यवाही करना। लेकिन क्या पुलिस करती है कानून के दायरे में रह कर कुछ,

इसका मुख्य कारण क्या है? क्यों सविधान की कसम खाकर नोकरी ज्वाइन करने वाले रंग बदल लेते है।
इसका मुख्य कारण सत्ता है। सत्ता का रंग जैसा होगा वैसा ही पोलिस का रंग होगा। अगर सत्ता निरंकुश है तो पुलिस और सेना भी निरंकुश होती है। सत्ता मेहनतकश की तो पुलिस भी मेहनतकश की। लेकिन भारत की सत्ताएं निरकुंश रही है। सभी सत्ताऐं अपने खिलाफ उठने वाली जायज-नाजायज आवाजो को पुलिस और सेना के माध्यम से ही दफन करती रही है। लेकिन वर्तमान केंद्रीय और उत्तर प्रदेश की सत्ता वैचारिक तौर पर मजदूर-किसान, दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधी है, इसलिए अपने खिलाफ उठने वाली सभी आवाजो को दफनाने के लिए पुलिस के अलावा शिक्षित लोगो की अंधी भीड़ का सहारा भी ले रही है। भीड़ कत्ल करती है, भीड़ कत्ल करने वालो के पक्ष में आवाज उठाती है, भीड़ कातिलों के लिए चंदा इकठ्ठा करती है, भीड़ कातिलों के खिलाफ उठने वाली आवाजो को चुप करवाती है।



एक पूरा ढांचा है। ढांचे में कई ग्रुप है। कत्ल करने वाले कत्ल करते है, फिर दूसरा ग्रुप कातिल के बचाव में और मरने वाले के खिलाफ  माहौल बनाता है। अगला ग्रुप हत्याओं के खिलाफ आवाज उठाने वालों को देखता है।
इसके बाद कत्ल करने वाला ग्रुप अगला शिकार के लिए निकल जाता है। ये सिलसिला सत्ता के इशारों पर चल रहा है। कभी गाय, कभी धार्मिक स्थान, कभी बच्चा चोरी के नाम पर लोग मारे जा रहे है।

सोचते थे कि जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ेगा वैसे-वैसे जात-धर्म और नफरत की दीवार भरभरा कर ढह जाएगी। टेक्नोलॉजी आएगी तो लोग दूर के लोगो से सम्पर्क में आएंगे तो एक दूसरे की संस्कृति, समाज, पहनावा, रहन-सहन, भाषा-बोली से सीखकर एक बेहतर समाज बनायेगे।
लेकिन क्या मालूम था कि इस शिक्षा और टेक्नोलॉजी को अमीर लोग अपनी सत्ता कायम रखने के लिए, पढ़े-लिखे लोगो को इस अंधी भीड़ का हिस्सा बनाने में करेगें। ऐसी भीड़ जो खून की प्यासी है। जो नफरत की दीवार को मजबूत करती है। ऐसी भीड़ जो दूसरों के धर्म, जात, संस्कृति, पहनावे, समाज, भाषा-बोली को तुच्छ और अपने को सर्वोपरी समझती है, ऐसी अंधी भीड़ जो सत्ता के आदेश पर अपनो का भी कत्लेआम कर दे। बाहुबली में जैसे कट्टपा अंधा होकर राज्य का आदेश मानता है। राज्य का आदेश राज्य के लिए, आवाम के लिए सही है या गलत है इस तरफ सोचे बिना लागू करता है। आजकी सत्ता के पास तो ऐसे लाखो कट्टपाओ की अंधी भीड़ जो न खुद सत्ता से सवाल करे और जो सवाल करे उसकी गर्दन काट दें। आज उस भीड़ की संख्या देश मे बढ़ती जा रही है। भीड़ द्वारा आवाजें बन्द की जा रही है।

लेकिन जो प्रगतिशील लोग अब भी इस भीड़ का हिस्सा न बनकर भीड़ के खिलाफ, भीड़ की आंखों को सच्चाई की रोशनी दिखाने के लिए व सरकार की बंदूक वाली नीति के विरोध मे मज़बूती से खड़े है। इन हत्याओं का विरोध करते है। वो मजबूती से सभी हत्याओ की जगह विवेक तिवारी की हत्या के खिलाफ भी मजबूती से खड़े है और लड़ रहे है। ये अच्छी बात है। उन्होंने ये साबित कर दिया है कि हत्या-हत्या ही होती है वो चाहे किसी की भी हो अमीर की हो चाहे गरीब की, स्वर्ण की हो चाहे दलित की ऐसी सत्ता द्वारा करवाई गई हत्याओ को देश का प्रगतिशील आवाम कभी मंजूर नही करेगा।
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उदय चे का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

धर्मनिरपेक्षता बनाम हिन्दुज्म - एक संघर्ष

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_37.html?m=1



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