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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अक्टूबर, 2018

व्यंग्य
तमाशेबाज राजा
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सम्पत सरल 

   
प्रजा के लिए बिना कुछ किए-धरे, प्रजा ही के श्रमधन से प्रजा पर राज करने की तीन शैलियां होती हैं- आसुरी, दैवीय और तमाशाई।
राजा छंटा हुआ तमाशेबाज था।



 वह न सिर्फ राजा होने के मजे जानता था, बल्कि यह भी जानता था कि मजे सिर्फ प्रजा के दम पर ही किए जा सकते हैं। प्रजा है तभी हरम सुंदरियों से अटा पड़ा है। प्रजा है तभी दरबार में मुजरों की झमाझम है। सामान्य छींक भी आ जाती है, तो दर्जनों सेवादार रूमाल लिए दौड़ते हैं। पता नहीं राजा किस पड़ौसी राजा से चौपड़-पासे खेलने कब, किस द्वार से निकल पड़े, सो महल के हर द्वार पर हर पल कारें स्टार्ट किए ड्राइवर तैनात रहते हैं। सब प्रजा से वसूली जाने वाली दौलत की बदौलत ही तो है।

   राजा जानता था कि जमाना पहले सा नहीं रहा। आसुरी शैली शासन चलाने में बाधक ही नहीं, घातक भी होती है। शिक्षा ने सब मटियामेट कर दिया। चार अक्षर सीखे हुए नागरिकों को बहलाया ही जा सकता है, दबाया नहीं जा सकता। किसी एक पर भी हल्का सा हाथ उठालो, तो सलाम बजाने वाले असंख्य हाथ मुट्ठियों में तब्दील हो जाते हैं। तैश में आकर किसी की ओर अपने दो जूते फेंको, तो चार लौटते हैं। नागरिकों को बैल समझकर हांक भी नहीं सकते, कमबख्त सींग उठा लेते हैं। गोलियां दागकर दस-बीस के प्राण हर लो, तो जीवित बचे लोग मृतकों की अस्थियों से वज्र बना लेते हैं।

   उसने एक बार को यह भी सोचा था कि अबाध राज-काज के लिए सम्पूर्ण राज्य को प्रजामुक्त भी किया जा सकता है, लेकिन फिर परिणाम जानकर निराश हुआ कि जब प्रजा ही नहीं रहेगी, तो मुझे राजा कौन पुकारेगा? बिना प्रजा के राजा का मतलब होता है ऐसे स्कूल में मास्टरी करना जिसमें एक भी विद्यार्थी नहीं हो। किसकी फीस से मास्टर को वेतन मिले? कौन मास्टर को करबद्ध प्रणाम करे? किस मूर्ख को मास्टर बैंत से सबक सिखाए?

   वह जानता था कि राज करने की दैवीय शैली अवश्य ठीक-ठाक है, पर असुविधाजनक बहुत है। यों तो राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। अतः स्वयं को देवता घोषित करके प्रजा के हाथों में आरती का थाल थमाया जा सकता है। धर्मभीरु प्रजा आरती का थाल सहर्ष थाम भी लेती है, लेकिन राजा के लिए बारहों मास हर घड़ी देवता बने रहना आसान नहीँ होता। आखिर देवता की भी अपनी प्राइवेट लाइफ होती है। कोई देवता आरतीकर्ताओं की मनोकामनाओं की पूर्ति का प्रेशर कब तक झेले? जिसकी इच्छापूर्ति नहीं करो, वही आरती का थाल फेंककर आंखें दिखाने लगे।


देवता बनकर दर्शन दे देने भर से दर्शनार्थियों की जठराग्नि शांत नहीं की जा सकती। यह बात देवता भले ही न जानते हों, राजा जानता था। आरती का दीया बिना घी के नहीं जल सकता। दीये के लिए घी का जुगाड़ करो, तो मथने के लिए दही चाहिए और दही जमाने के लिए दूध। इस तुच्छ काम के लिए दूध की सप्लाई होने लगी, तो क्षीर सागर सूख जाएगा और रोज निर्जल ताजा दूध से लबालब क्षीर सागर में किलोल नहीं करो, तो फिर कोई राजा क्या ऐसी-तैसी कराने के लिए बनता है?

   देवता के थोथे वरदानों से कभी रोटी पैदा नहीं हो सकती, यह राजा को अच्छी तरह मालूम था। भूखी प्रजा किसी दिन बगावत कर बैठती है, यह तो और अच्छी तरह मालूम था। भूखा भक्त देवता को दो टूक कह देता है- 'यह ले तेरी कंठी माला, भूखे भजन न होय गोपाला'। दीये की सूखी बाती कपूर के संग मिलकर मशाल बन जाए, तो और आफत। राजाजी देवता बनने के चक्कर में राजापने से ही हाथ धो बैठें।

   राजा ऐसा शासन चाहता था कि प्रजा बिना ना-नुकर किए कमाई की अंतिम पाई तक उसे टैक्स भी देती रहे और हंसते-मुस्कराते अंतिम सांस तक उसे महान शासक भी मानती रहे।

    राजा ने प्रजा की नब्ज पहचान ली थी कि प्रजा को विकास से कतई संतुष्ट नहीं किया जा सकता। रावण ने लंका सोने की बना दी थी फिर भी वह विभीषण का पैदा होना कहां रोक पाया था?

   अतः राजा ने 'सुशासन' के लिए तमाशाई शैली अपनाई।
   राजा जानता था कि तमाशाई शैली न सिर्फ आसुरी और दैवीय शैलियों का फ्यूजन है जो जरूरी कन्फ्यूजन क्रिएट कर लेती है, बल्कि तमाशाई शब्द से करिश्माई की रिदम भी निकलती है।

   तमाशाई शैली में राजा-प्रजा में ऐसी ट्यूनिंग बन जाती है कि राजा माथा पीटने की बात कहता है और प्रजा ताली पीटने लगती है। राजा को यही तो चाहिए था।




 उसके पूर्ववर्ती राजाओं ने भले ही फूट डालकर राज चला लिया था, किंतु समय के साथ वह फॉर्मूला निरापद नहीं रह गया था। उसने सोचा कि राज करने का मजा तब है जब सब प्रजाजन एक भी रहें और नेक भी रहें। चूंकि वह बाल्यकाल से तमाशेबाजी करता रहा था। अतः वह तमाशेबाजी की ताकत जानता था। वह प्रजा के मनोविज्ञान से अवगत था कि कैसा भी तमाशा दिखाओ, महिला-पुरुष, छोटा-बड़ा, धनी-निर्धन, अज्ञ-विज्ञ, सज्जन-दुर्जन, साधु-गृहस्थ, साक्षर-निरक्षर, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, अगड़ा-पिछड़ा सब घुस के देखते हैं।

    राजा ने सम्पूर्ण राज्य में मुखबिर छोड़ रखे थे। अकसर स्वयं भी भेष बदल-बदलकर बस्तियों की रैकी करता रहता था।

    एक दिन राजा को भनक लगी कि दिनोंदिन पैट्रोल की बढ़ती कीमतों से प्रजा में आक्रोश है। राजा महल के छज्जे पर खड़ा हुआ। मुख में पैट्रोल भरकर तीली लगाई और लगा फेंकने मुख से आग के छल्ले। तमाशा कामयाब रहा। प्रजा न सिर्फ पैट्रोल की कीमतें भूल गई, बल्कि अपने वाहनों में महंगा पैट्रोल भरा-भराकर तमाशा देखने उमड़ पड़ी।

    लोगों ने दरबारियों से बिजली न आने की शिकायत की। तुरंत राजा ने  मोर्चा संभाला। वह शिकायतकर्ताओं की बस्ती में गया और बिना दस्ताने पहने बिजली के नंगे तारों से लटककर एक से दूसरे खंबे तक चार ट्रिप कर डाले। दर्शकों के तन-मन में प्रसन्नता का ऐसा करंट दौड़ा कि धरती का कागज, समुद्र की स्याही और हिमालय की कलम बनालो, तो भी वर्णन नहीं किया जा सकता था।

    मंहगाई की वजह से नागरिकों की गृहस्थी का बैलेंस बिगड़ने लगा। राजा ने महल के सामने वाले मैदान में दस मीटर का फासला रखते हुए दो बल्लियां गाड़ीं। बल्लियों के ऊपरी सिरों से एक रस्सा बांधा। फिर सिर पर मटका धर, हाथों में बांस पकड़, ढोल की ताल पर रस्से पर चलते हुए ऐसी नट-कला का प्रदर्शन किया कि नागरिकों के एक मिनट में समझ में आ गया कि बैलेंस कैसे साधा जाता है।

    नगर सेठ ने कारखाना डालकर ढेर एलईडी बल्ब बना लिए। पांच करोड़ रुपयों का मुनाफा था, मगर खपें तब तो? घरों में लोग ट्यूबलाइट वापरते थे। नगर सेठ ने तरकीब से काम लिया। उसने राजा को एक करोड़ रुपया भेंट किया। राजा ने डूंडी पिटवाकर शुभ मुहर्त में सब लोगों को इकट्ठा किया। महल में से आधा दर्जन ट्यूबलाइटें उतारकर लाया और ट्यूब लाइटों को तोड़-तोड़कर गपागप खाना शुरू किया। लोग सांस रोककर तमाशा देखते रहे। ज्योंही तमाशा सम्पन्न हुआ, लोगों ने नगर सेठ की दुकान का रुख किया। जल्द खत्म होने की आशंका के चलते सबने एमआरपी की अनदेखी करके ब्लैक में खरीद-खरीदकर एलईडी बल्बों का पूरा स्टॉक खत्म कर दिया। घर पहुंचकर तमाम ट्यूब लाइटें उतारीं और वहां एलईडी बल्ब लगा दिए।


   राज्य के एक भू-भाग में भयंकर आग लग गई। कुछ लोग आग बुझाने में जुटे और कुछेक दमकल बुलाने दौड़े। पता लगा कि दमकलें तो बरसों से  कागजों में आग बुझा रही हैं। दरअसल दमकलों का बजट तो राजा ने विभिन्न मॉडल की महंगी कारें खरीदने पर उड़ा दिया था। क्रोधित भीड़ देखकर राजा को चिंता हुई कि समय रहते उपाय नहीं किया, तो आग की लपटें महल को घेर लेंगीं।

    वह अग्नि-स्थल पर पहुंचा। महल से निकलते समय उसने तीनेक फिट व्यास का अंगुलीभर मोटी लोहे की छड़ का एक गोल-चक्र, जिस पर तेल में भीगा हुआ कपड़ा लिपटा था, ले लिया था। राजा ने जलती आग से स्पर्श करके गोल-चक्र में आग लगाई। लंबे चिमटों के सहारे जलता गोल-चक्र दो कारिंदों को थमाया और तेज गेंदबाजों की तरह लंबी-लंबी दौड़ लगाते हुए, लगा उसमें से आर-पार निकलने। अपना सब कुछ जलता हुआ देखकर जो लाचार दहाड़ें मार-मारकर रो रहे थे, जलते गोल-चक्र में से राजा का आरपार निकलना देखकर वे बुक्का फाड़-फाड़कर हंसने लगे।

    प्यासे लोगों ने पानी मांगा, तो राजा ने बहती नदी पर पुष्पक विमान उतार दिया। तमाशा देखकर सब न सिर्फ प्यास भूल गए, बल्कि अपनी नाजायज मांग का स्मरण कर शर्म से पानी-पानी हो गए।


  बेरोजगारों ने राजा को चिट्ठी लिखी कि महाराज, महंगी शिक्षा के बावजूद खाली बैठे हैं। जिंदगी पत्थर धरे सीने सी हो गई है।

   राजा ने झट तमाशा दिखाकर समस्या का निदान कर दिया। उसने बेरोजगारों से खचाखच भरे स्टेडियम में नंगे बदन लेटकर सीने पर दो-तीन भारी पत्थर रखवाए और उन पत्थरों को तगड़े पहलवान के हाथों भारीभरकम हथौड़े से तुड़वाया। बेरोजगार दर्शक हतप्रभ कि पत्थर चूर-चूर हो गए, पर राजा के सीने पर खरोंच तक नहीं आई ! कुछ मिनट के तमाशे से राजा ने कई करोड़ बेरोजगारों को जीने की कला सिखा दी।

    राजा कायिक ही नहीं, वाचिक तमाशेबाजी में भी निष्णात था।
    उसने पुस्तकों के महात्म्य पर ऐसी आकाशवाणी की कि निरक्षर जन भी पुस्तकें खरीदने दौड़ पड़े।

    भले ही राजा की स्वयं की डिग्रियां संदेहास्पद थीं, किन्तु उसने पंद्रह मिनट तक परीक्षार्थियों को परीक्षा में शतप्रतिशत अंक लाने के ऐसे-ऐसे नुस्खे बताए कि सब ने पाठ्यसामग्री कबाड़ियों के हवाले की और प्राप्त राशि से सिनेमा देख आए। परीक्षार्थी इस उम्मीद से परीक्षा ही टाल गए कि हो न हो एक दिन राजा डिग्रियां प्राप्ति का नुस्खा भी जरूर बताएगा।

   राजा ने गणित पर गजब ज्ञान पेला, तो प्रजा बेचारी त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठी कि हे भगवान, राजाजी कहीं आज नए शून्य या बड़े दशमलव का आविष्कार न कर बैठें?


   तमाम तमाशेबाजी के बावजूद राजा को यह अहसास जरूर था कि  सुशासन हेतु तमाशाई शैली की अपनी खूबी है, तो खामी भी है। खूबी यह कि तमाशा दिखाने के बाद प्रजा मूल समस्या भूल जाती है, पर खामी यह कि हर बार साला नया तमाशा दिखाना पड़ता है।
        
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परिचय
सम्पत सरल
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    शरद जोशी तथा के. पी. सक्सेना की कविसम्मेलनों और मुशायरों में हास्य-व्यंग्य गद्य-पाठ की परम्परा को आगे बढ़ाने वाला चर्चित नाम। अप्रैल 8, 1962 को राजस्थान में शेखावाटी के गांव मणकसास (जिला-झुंझुनूं) में जन्म। मैट्रिक तक की पढ़ाई गांव में। शेष शिक्षा जयपुर में। राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), बी.एड.। हिन्दी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन। टी.वी. के लिए धारावाहिक लिखे, तो धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत भी। अबतक दो कृतियां- चाकी देख चुनाव की (राजस्थानी व्यंग्य-काव्य), छद्मविभूषण (हिन्दी गद्य-व्यंग्य) प्रकाशित।
     कविसम्मेलनों और मुशायरों में भागीदारी हेतु संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, जापान, कनाडा, सऊदी अरब, सिंगापुर, हांगकांग, संयुक्त अरब अमीरात, थाईलैंड, ओमान, नेपाल की यात्राएं। थोड़े समय अध्यापन कार्य भी। अब पूर्णतः स्वतंत्र लेखन।

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