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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अक्तूबर, 2018

निर्बंध दस



मेरे खुरदुरे चेहरे पर चिपकी कुछ चिंदियाँ
यादवेन्द्र

(पिछले कुछ सालों में समय समय पर मेरी बगैर तारीख डायरी में दर्ज कुछ इंदराज)

यादवेन्द्र

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया।सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी
प्रजातियाँ  सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें। यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों के  नाम पूछे  जाएँ  तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा।  ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा ।

जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है।सरकारी आँकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. की प्राप्ति होती है ।  देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है।सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है।देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है।करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है ।जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है।अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है ।दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम, केला, सेब, अंगूर, अनानास, अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,
फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी व्यावसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक
व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता ।आम का ही उदाहरण देखें... सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,सफेदा, अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि लगता है अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बाद  हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी ।
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.। लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं।राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
मुझे  आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केन्द्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं।इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख
पायेगी ।कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म की  पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है ।कहाँ हैं धान  की  अब इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो दिखेगा कि पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है ।
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अपने मित्र का इंतजार करते उस शाम मुझे कोई आधा घण्टा गाजियाबाद में प्रमुख सड़क( नेशनल हाई वे)  किनारे बैठना पड़ा - इतनी गाड़ियों की आपाधापी में एक स्त्री को दो छोटे बच्चों और सामान लेकर सड़क पार करने की काफी देर तक कोशिश करते हुए देखना बड़ा आतंकित करने वाला अनुभव रहा।वह एक हाथ से एक बच्चे की बाँह  थाम रही थी और दूसरे बच्चे को उस बच्चे का हाथ थामने को बोल रही थी,दूसरे हाथ में अपना सामान उठा रही थी पर जिस बच्चे का हाथ उसके हाथ में नहीं था वह बार बार भाई का हाथ छोड़ दे रहा था और माँ की डांट सुन रहा था....उस बच्चे को लेकर उस स्त्री को भरोसा नहीं हो पा  रहा था कि सड़क की दोनों पटरी पार करते हुए वह कस कर अपने भाई का हाथ पकड़े रहेगा या साँय साँय दौड़ती गाड़ियों से घबरा कर बीच सड़क इधर उधर करने लगेगा।उसकी एक दुविधा और रही होगी कि यदि वह सामान वहीं छोड़ कर पहले दोनों बच्चों को सुरक्षित उस पार पहुँचाने की और फिर आकर सामान ले जाने की सोचे ...पर उस स्थिति में जाने कितनी देर तक चंचल नासमझ बच्चों को उस पार अकेला छोड़ना पड़े और इधर यूँ ही लावारिस पड़ा हुआ सामान जहाँ छोड़ कर गयी थी वहाँ लौट कर आने पर उसे मिले या नहीं?मेरा सारा जीवन रुड़की जैसे छोटे शहर में निकल गया जहाँ ऐसी मुश्किल कभी नहीं आयी और सारा नजारा देख कर महसूस हो रहा था कि मुझे यहाँ सड़क पार करना होता तो उसकी मुश्किल मेरे लिए भी उस स्त्री जैसी ही होती।उस स्त्री की जो दुर्दशा और दनादन दौड़ती गाड़ियों के बीच दौड़ कर सड़क पार करे न करे वाली दुविधा देखी उसने मेरी आँखें खोल दीं...दूर दराज के गाँवों से रोजगार की तलाश में आने वाले लाखों लोग ऐसी ही मुश्किल रोज सुबह शाम झेलते हैं - उनके पास इतनी व्यस्त सड़क न पार करने का कोई विकल्प नहीं।जब बहुत देर हो गयी तो मैंने अपना ओढ़ा हुआ अभिजात्य परे रखते हुए उस स्त्री को आश्वस्त किया कि बच्चों की सुरक्षा ज्यादा जरूरी है सो उन दोनों को दोनों हाथों में थाम  कर वह सड़क पार कर ले,सामान साथ चल कर मैं उसपार पहुँचा देता हूँ।कुछ पलों के असमंजस पर पार पाते हुए उसने हामी भर दी। सुरक्षित उसपार पहुँच कर उस युवा स्त्री की आँखों में मेरे लिए जितना 'असीस' था वह अकल्पनीय और अनूठा था।उसने संकोच पूर्वक कहा,आप इतने बड़े हैं मैं आप को "असीस" क्या दूँगी... पर दिल्ली आकर पहली बार ऐसा संकट सामने आया है और जैसी बिन मांगी मदद आपने की है उसका एहसान हमेशा याद रखूँगी।

वापसी के लिए मुड़ते हुए मेरे मुँह से निकला - मन से निकला हुआ "असीस" वापस मत लो .... कभी वक्त जरूरत आन पड़े तो किसी की ऐसी ही मदद कर देना...तुम्हारा असीस ऐसे ही तुम तक पहुँच जाएगा।
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बहुत दिनों से जवानी में देखी एक बेहतरीन फ़िल्म फिर से देखने के मन था "दरार"। - संक्षेप में कहें तो यह कश्मीर के एक सीमावर्ती गाँव की कहानी है जहाँ दिन रात सीमापार से गोला बारूद बरसता रहता है। ज्यादातर लोग गाँव छोड़ कर जा रहे हैं पर एक युवा जोड़ा ऐसा नहीं कर सकता। पत्नी
गर्भवती है और किसी भी समय उसको प्रसव हो सकता है .... सारी स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि पत्नी को उसी हाल में छोड़ कर पति को भी जान बचाने के लिए सुनसान पड़े गाँव से बाहर भागना पड़ता है। मुझे यह अब याद नहीं कि पति हालात बेहतर होने पर अगले दिन जब वापस आता है तो  बच्चा हो चुका होता है .... या कुछ अनहोनी हो जाती है। पर अंततः दोनों सुनसान हो चुके गाँव को छोड़ कर चल देते हैं - पर कुछ कहे बगैर उनके बीच अलगाव की एक स्पष्ट दरार बन जाती है। दहशत और अनिश्चितता के विजुअल प्रभाव मुझे अब भी खूब याद हैं हाँलाकि फ़िल्म पैंतालीस साल पहले बनी थी और बम्बई की फ़िल्मी दुनिया में लगभग अनजाने कलाकारों ने अपने भावपूर्ण अभिनय से दर्शकों को बाँध कर रखा हुआ था। वेद राही को बतौर फ़िल्म निर्देशक मैंने पहली बार देखा था पर उनकी कहानियों से परिचित था। बाद में "प्रेम परबत" देख कर तो मैं उनका दीवाना बन गया।
बहरहाल जब गूगल पर जाकर मैंने daraar hindi film ढूँढ़ा तो ऋषि कपूर और जूही चावला की 1996 की फ़िल्म से संबंधित ढ़ेरों जानकारी मिली पर जिस फ़िल्म में मेरी रूचि थी उसका कहीं कोई अता पता न मिले .... मेरे मन में अपने बूढ़ेपन के अनकहे स्मृतिलोप का ख्याल आया कि हो न हो ,मैं उस फ़िल्म का वास्तविक नाम भूल रहा हूँ। देर तक उलझन में रहा ,फिर मैंने सोचा क्यों न daraar old hindi film  टाइप कर के देखा जाये - ऐसा कर के भी कुछ हाथ नहीं आया। फिर मैंने darar hindi film ढूँढ़ा तो वेद
राही की इस फ़िल्म के बारे में अत्यल्प सामग्री मिली -फिल्म देख पाने की आस मन में रह गयी। दुनिया पर राज करने वाली अंग्रेजी में दरार को daraar भी लिखा जाता है ,darar भी .... और इनमें से किसी को
गलत नहीं कहा जा सकता। मुझे लगा हिंदी और अंग्रेजी की वर्तनी के बीच के अंतर को समझने के लिए यह बड़ा सटीक उदाहरण है। 
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कविगुरु रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक बड़ी दिलचस्प कविता कल पढ़ी - "फाँकी" जिसमें बीनू नामक बीमार स्त्री की सरलता और उसके पति का चालाकी  से उसको फाँकी (झाँसा) देते रहना दर्शाया गया है। लंबी बीमारी से निजात पाने के लिए बीनू को भरे पूरे ससुराल से हवा पानी बदलने को बाहर भेजा जाता है तो वह  इस आज़ादी का खूब आनंद लेती है। रास्ते में बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर छह घंटे रुकना पड़ता है - एक दीनहीन भिखारी स्त्री बीनू को अकेला पाकर पास आकर अपनी गरीबी का दुखड़ा रोती  है और बेटी की शादी के लिए पच्चीस रु माँगती है। बीनू धर्म और गरीबों की मदद को ध्यान में रख कर अपने पति से उसकी मदद करने को कहती है। वह उसका मन रखने के लिए उस स्त्री को पैसे देने के बहाने कमरे से बाहर ले जाता है और डाँट फटकार कर दो रु देकर भगा देता है।पर बीनू बीमारी से उबर नहीं पाती है और प्राण त्याग देती है। उसका पति यह सोच सोच कर ग्लानि से भर जाता है कि उसने अपनी प्रिय पत्नी के साथ कुछ रुपयों की खातिर फाँकी मारी यानि धोखा किया - पश्चात्ताप के लिए पति फिर बिलासपुर जाता है पर उस रुक्मिणी नामक भिखारन का पता नहीं चलता। पति को यही लगता रहता है कि पत्नी की जान शायद बच जाती यदि वह पच्चीस रु रुक्मिणी को दे देता ... और उसके ऊपर बीनू के पच्चीस रु अब भी बकाया हैं।

इस कविता पर अनेक राष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त बाँग्ला फ़िल्मकार बुद्धदेब दासगुप्ता ने एन एफ़ डी सी की
आर्थिक मदद से हिंदी में छोटी सी फ़िल्म बनाई है जो रबीन्द्र नाथ ठाकुर की डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ के अवसर पर तेरह कविताओं पर आधारित फीचर फ़िल्म "त्रयोदशी" का हिस्सा है। पढने में आया कि बांग्लादेश की एक फ़िल्म कंपनी इम्प्रेस टेलीफ़िल्म भी रेशमी मित्रा के निर्देशन में भारत और बांग्लादेश के कलाकारों को लेकर इस कविता पर अलग फ़ीचर फ़िल्म का निर्माण कर रही है जिसकी शूटिंग चटगाँव और ढाका के साथ साथ बंगाल के अनेक स्थानों पर की जा रही है।

अनेक ख्यात लोगों के अलग अलग स्वर में यह दिलचस्प कविता "यू ट्यूब" पर सुनी देखी  जा सकती है।   

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"साइकिल मेरे पिता की सवारी है" शीर्षक से मैंने अपने शुरूआती कवि दिनों में कविता लिखी थी जबतक  पिताजी ने स्कूटर लिया नहीं था और हमारी दोनों बहनें उनकी साइकिल से स्कूल खूब पहुँचाई  लाई गयी हैं - कभी उनके द्वारा ,कभी मेरे द्वारा। मैंने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई साइकिल के भरोसे पूरी की हाँलाकि ज़िद्दी दमे के चलते डॉक्टर ने साइकिल को हाथ भी न लगाने का फ़रमान सुना दिया था - और तो और जयप्रकाश अग्रवाल जैसे मित्र मुझे जोंक की तरह चूसते हुए दो पैसे बचाने के लिए डबल
राइडिंग करवाते थे। सब कुछ के बाद भी मैं हृष्ट पुष्ट जिन्दा बचा रहा।1980 में रुड़की आने पर मेरा साइकिल प्रेम और परवान चढ़ा -  कम से कम पंद्रह बीस बार हम तीन चार मित्र अपनी अपनी साइकिलों से तीस बत्तीस  किलोमीटर दूरी
तय कर के हरिद्वार गए ,गंगा नहाये ( कभी कभी किसी तीर्थयात्री से अँगोछी माँग ली तो कभी नयी खरीद ली) और कुछ खा पी के हँसी ख़ुशी लौट आये।दो तीन बार ऐसा भी हुआ कि हरिद्वार चलने का मन बना
लिया और साइकिल उठायी तो पंक्चर - धुन में आकर किराये की खटारा साइकिल ली लेकिन हरिद्वार जाना नहीं छोड़ा। अब जब  बच्चों को  बताता हूँ तो उनको विश्वास नहीं होता।
पाँच छः साल पहले तक शनिवार इतवार को नहर किनारे खूब साइकिल चलाया करता था - बारह  पंद्रह किलोमीटर तक। फिर घर बदला  और कुछ दिनों तक साइकिल गैराज में घुसी अनदेखी पड़ी रही .. धीरे धीरे व्यस्तता का बहाना और साइकिल मुझसे छूट ही गयी। कुछ साल पहले जब किसी काम के सिलसिले में भरतपुर जाना हुआ तो मालूम हुआ करीब तीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र  में फैले भरतपुर पक्षी अभयारण्य में भ्रमण करने के लिए पैदल ,किराये की साइकिल,रिक्शा या तांगा ही साधन है - ज़ाहिर था मेरा साइकिल प्रेम एकबार फिर से जाग पड़ा।हाँलाकि जो साइकिल हमें मिली थी वह एकदम खटारा थी पर हल्की गुनगुनी सुबह तीन घण्टे तक रंग बिरंगे पक्षियों,पेड़ों और जंतुओं के साथ घुल मिल कर मन माफ़िक ढंग से विचरण करना जीवन में सिर्फ़ एक बार मिलने वाला अनुभव साबित हुआ।साईकिल लौटाते हुए देखा कि कुछ पैसों के लालच में गोरी चमड़ी वालों पर ख़ास मेहरबानी की जा रही ही - अगली बार जाने पर यह ध्यान रखूँगा कि मुझे भी ढंग की साईकिल मिले ।
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कल राहुल बड़े दिनों बाद इंस्टीच्यूट छोड़ने के बाद मेरे पास  निश्चिन्त मन आया था, नयी नौकरी के दबाव से पूरी तरह मुक्त।वायदे के मुताबिक़ हमें छुट्टी में सैर सपाटे और फ़ोटोग्राफ़ी के लिए कम से कम आधा दिन साथ बिताना था।अनायास ही हमें सत्ताईस अट्ठाईस साल पुराने साथी धर्मराजु का साथ मिल गया - संयोग से उनके लिए रुड़की के दस किलोमीटर के दायरे में मेरे साथ घूमने का यह पहला मौक़ा था। नहर किनारे हम भेंड़ों के झुंड से तो मिले ही पर मुहम्मद शमीम और उनकी बेगम से मिलना जीवन में याद रह जाने वाली घटना बन गयी।बादलों से ढँके आसमान और तेज बर्फ़ीली और गीली हवा वाले मौसम में हम गाड़ी से नहर की पटरी पकड़े हुए कमल ताल की ओर बढ़ रहे थे कि एक जगह से सफ़ेद धुंआ उठता हुआ दिखा - हैरत हुई कि गाँव से दूर इस उबड़ खाबड़ सड़क पर आग कहाँ लग गयी। पास पहुंचे तो चालीस पैंतालीस साल का एक लम्बा छरहरा आदमी अपनी बीवी ( बातचीत से मालूम हुआ)के साथ आस पास से पत्तियाँ  और टहनियां इकठ्ठा कर हाथ सेंक रहा था - बड़ी बेतकल्लुफ़ी पर अदब से उसने हमें भी अपने साथ बुला लिया।बातचीत में मालूम हुआ दो घंटे पहले वह करीब पचास किलोमीटर दूर के गाँव से अपनी बाइक पर निकल था और सात आठ किलोमीटर दूर के गांव में पहुंचना था - ठंडे  मौसम ने उसकी उँगलियाँ सुन्न कर दी थीं और  बाइक चलाना मुश्किल पड़ रहा था। सो उसने रास्ते के किनारे ठंड पर काबू पाने  का यह उपाय ढूँढा - जंगल में मंगल।नहर किनारे सुनसान हुआ तो क्या ,अब देखिये कि ख़ुदा ने आपलोगों को हमसे मिला
दिया। आधे घंटे का हमारा साथ मेरे जीवन में एक प्रेरणादायक स्मृति के रूप में दर्ज़ हो गया .... इंसानों  के
जंगल में कोई अजनबी नहीं ,जीवन के इस मोड़ पर अचानक मिल गये जैसे यादवेन्द्र के लिए मुहम्मद शमीम अजनबी नहीं ,हाँलाकि उनका गाँव घर कभी देखा नहीं। जाते जाते उन्होंने अपने गाँव का पता ठिकाना और मोबाईल नम्बर सहज भाव से थमा दिया .
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कुछ महीने पहले किन्नौर जाते हुए सतलुज नदी के भिन्न भिन्न रूपों को नज़दीक से निहारने का आनंद मिला - कैलाश से निकलने वाली यह नदी शिमला के बाद कालपा तक लगभग साथ साथ चलती रही। पुराने ग्रंथों में इसका शुतुद्री, शताद्री, शतद्रु या छतुद्री  के नाम से उल्लेख मिलता है - यानी सैकड़ों प्रवाहों वाली नदी।सिंधु जल तंत्र की यह पूरबी सहायक नदी है और उन पाँचो नदियों में सबसे लंबी है जिनसे पंजाब ( पाँच नदियों का पानी ) नाम पड़ा है।  हिमाचल के किन्नौर ,शिमला ,कुल्लू ,सोलन और मंडी जिलों से बहती हुई यह नदी पंजाब में प्रवेश कर जाती है। जिस भाखड़ा बाँध को पंडित नेहरू ने "उभरते हुए भारत के नये मंदिर" कह कर सम्बोधित किया था वह सतलुज नदी पर ही बना है - इस यात्रा में हम देश की बड़ी नाथपा झाकरी और करछम वांगतू जल विदयुत परियोजनाओं को देखते हुए गुज़रे जहाँ हमें अपार जलराशि की सकारात्मक शक्ति देखने को मिली।

हिंदी के अनूठे लेखक प्रो कृष्णनाथ ने "स्पीति  में बारिश"  और "किन्नर लोक में" में सतलुज और ब्यास नदियों को बेहद दिलचस्प ढंग से याद किया है। "स्पीति में बारिश" में स्पीति नदी  के साथ हुए संवाद के बारे में वे लिखते हैं - मैदानों से एक ऋषि ( विश्वामित्र) बैलों के रथ पर सवार होकर स्पीति की दो बहनों ब्यास और सतलुज से मिलने आया था ... इन विशाल नदियों के पार जाने की गरज से उस ऋषि ने उनकी खूब लल्लो चप्पो की कि वे अपनी धारा नीची कर लें तो वह पार चला जाए - ऋषि का आग्रह मान कर दोनों नदियाँ नीचे झुक गयीं। पार जाकर कृतज्ञ ऋषि ने उन्हें वरदान दिया : "हे नदियों ! तुम्हारी शांत लहरें बहें। पानी जुए की रस्सी छोड़ दे। निष्पाप  ,निष्कलुष ,आनंदित तुम दोनों मोटी न होओ। "और आज के सन्दर्भ में सोचें तो किसी स्त्री के लिए कभी मोटी न होने के वरदान से ज्यादा आनंददायक क्या हो सकता है। 
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भारत और पाकिस्तान की हुकूमत जाहिरा तौर पर एक दूसरे पर भौंकने वाले अमित्र हैं पर नक्शे पर खींच दी गयी एक लकीर के दोनों ओर रहने वाली अवाम में गहरा अपनापा और एक ही ख़ानदान की दो शाखें होने का साझा भाव भी है। आये दिन इनकी सरहदों (धरती पर या समुद्र में) के आरपार भटक जाने वाले इंसान कैद की हवा खाने को अभिशप्त हैं।ऐसे में एक देश का सुरक्षा कर्मी कैद होने वाले देश के गुनाहगार लोगों के साथ कुछ अपनापा ही न महसूस करे बल्कि उसको स्मृतियों में स्थायी रूप से दर्ज़ करने की कोशिश करता दिखाई दे जाये तो चेहरे पर मानवीय मूल्यों की बहाली वाली मुस्कुराहट आ ही जाती है।

चार दिन पहले एक छोटी सी खबर (तस्वीर सहित)छपी कि पाकिस्तान की समुद्री सीमा लांघने के जुर्म में कराची की जेल में बंद 218 भारतीय मछुआरों को छोड़ा गया तो एक सुरक्षा कर्मी ने उनके साथ जुड़ी यादों को सँजोने के वास्ते उनके विदा होते समय एक सेल्फी ली और दूसरी तस्वीर मुक्त हुए कैदियों के भारत लौटने के लिए रेलगाड़ी पर बैठ कर पड़ोसी
अवाम की खुशहाली की दुआएँ करते हवा में लहराते हाथों की है ।

दुश्मनी की सियासत निर्मित दीवारें ढ़हाते हुए इस उपमहाद्वीप के इन मामूली पढ़े लिखे सरल ह्रदय
पैगम्बरों को सलाम ..... 
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प्रो बीना अग्रवाल मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में अध्यापन करती है, कुछ साल पहले "इंडियन एक्सप्रेस" की रविवारी पत्रिका में उन्होंने दिल्ली के हुमायूँ के मकबरे की सुबह की सैर का बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है-
सुबह सुबह बाग़ से फूल बटोर कर ले जाने वाली एक स्त्री के साथ बातचीत का नमूना:
ये फूल क्यों तोड़ रही हो?
क्यों,क्या फूल तेरे हैं?
नहीं मेरे नहीं हैं..पर यह पब्लिक पार्क है,इनकी खूबसूरती सबको भाती है।
कल तक तो ये फूल सूख जायेंगे।
सो तो हमसब के साथ होना है..तुमने खुद ही बताया फूल कल तक सूख जायेंगे।
उड़हुल से डाइबिटिज़ ठीक होता है(कहते कहते उसने अपने मुँह में एक फूल डाल लिया)
मैं कहना चाहती थी कि इन फूलों से ज्यादा भला तेज़ कदमों से की गयी सैर करेगी डाइबिटीज में...
पर मैंने जवाब दिया: तुम अपनी बालकनी में गमले में भी उड़हुल उगा सकती हो।
पर मैंने सिर्फ तीन फूल ही तो तोड़े हैं,ज्यादा नहीं।
यदि हर सैर करने वाला तीन तीन फूल तोड़ेगा तो यहाँ बचेगा ही क्या?
पर तुम उतनी चौधराहट क्यों झाड़ रही हो,क्या ये फूल तेरे हैं?
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एक और मज़ेदार संवाद:
अरे ये पब्लिक पार्क है,यहाँ के फूल क्यों तोड़ रही हो?
लग रहा है जैसे ये सारे तुम्हारे फूल हैं,बड़ी आईं मालकिन बनकर रौब झाड़ने...
पर तुम इनको लेजाकर करोगी क्या?
पूजा पर देवता को चढ़ाऊँगी।
पर ये तो मुस्लिम मकबरा है,देखो तो चारों ओर कब्र ही कब्र हैं।तुम्हारे देवता कब्रों पर उगे फूलों से प्रसन्न होंगे?मुझे लगता है ये अशुभ होगा।
बीना जी बताती हैं कि इसके बाद पूजा के लिए फूल तोड़ने वाली वहाँ नज़र नहीं आयीं।
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1984 - 85 की बात होगी - रोटरी इंटरनेशनल ने पांच छह राज्यों को मिला कर गठित डिस्ट्रिक्ट में इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के अंतर्गत मेरा चुनाव डेढ़ महीने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाने के लिए किया था - यह अलग बात है कि पारिवारिक कारणों से मैंने यात्रा शुरू करने से दो दिन पहले न जाने का निर्णय किया।इस दल में सम्भवतःदिल्ली,पंजाब,हरियाणा,चंडीगढ़,हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश शामिल थे (तब उत्तराखंड नहीं बना था)। इस प्रवास की तैयारी महीनों पहले शुरू कर दी थी- जिन जिन शहरों में जाना था वहाँ के लेखकों से मिलने और हिंदी कविता के बारे में उन्हें बताने की योजना बनाई थी। विजय बहादुर सिंह के सम्पादन में तभी राधाकृष्ण प्रकाशन से 'जनकवि' संकलन प्रकाशित हुआ था और मैंने उसको आधार बना कर कुछ छोटी कविताओं का चयन और अंग्रेजी अनुवाद किया था। कल रात एक पुरानी डायरी में उनमें से एक कविता मुझे मिली - केदार नाथ अग्रवाल की "मैंने उसको" --- बगैर किसी सम्पादन या संशोधन के मैं उस कविता का तब किया अनुवाद सबके साथ साझा कर रहा हूँ :
I Saw Him 

Whenever I saw him
saw him steel ,
like steel .....
saw him shining red hot,
saw him melting,
saw him moulding.

I saw him 
shooting
just like a bullet!

००

निर्बंध नौ
मातृत्व की इच्छा कोई गुनाह नहीं है
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_94.html?m=1







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