परख बीस
सच बतलाना नदी !
अक्सर मित्रता या प्रेम में भी अवसर खोजे जाते हैं या फिर अवसर देखकर ही दोस्ती की जाती है। कभी कभी गहरी मित्रता हो जाए तो फिर बेड़ियां डालने का काम किया जाता है। मित्र की स्वतंत्रता में, उसके व्यक्तिगत जीवन में और उसकी निजिता में दखल दिया जाता है। कभी कभी गहरी मित्रता पर भी संदेह किया जाता है।
लेबनान के दार्शनिक कवि ख़लील जिब्रान ने प्रेम पर जो कहा है, वो काफी है-
मित्रता हमेशा एक मधुर जिम्मेदारी है, अवसर कभी नहीं। दुनिया में बहुत कम लोग इस जिम्मेदारी का एहसास कर पाते हैं। सबसे बड़ा शत्रु तो सन्देह है। उन्होंने एक स्थान पर कहा है- प्रेम और सन्देह में कभी बातचीत नहीं रही है। ख़लील जिब्रान की एक और बात ध्यान देने योग्य है- यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसे जाने दें, क्योंकि यदि वो लौटते हैं तो वो हमेशा आपके थे। और यदि नहीं लौटते तो कभी आपके नहीं थे।
हिमाचल के सुंदर इलाके पालमपुर से सम्बद्ध वरिष्ठ कवयित्री सरोज परमार ने मानव सम्वेदनाओं से सराबोर कविताएं लिखी हैं, प्रेम और प्रकृति उनकी कविताओं में भरपूर हैं। प्रेम में सरोज कहती हैं-
प्रेम चिड़िया नहीं हो सकता
प्रेम कुंआ भी नहीं हो सकता
प्रेम होता है झरना
झर झर कर भी
खत्म नहीं होता।
प्रेम हृदय की अनुभूति है। इसे एक अलग ही तल पर जाकर महसूस किया जा सकता है। सच ही कहा गया है कि यह देह और दिमाग से परे की चीज है-
तुमने जब भी कहा
साथ चलो
मैंने मांगा कुछ समय
समय- मिल ही नही पाया
तुम उठे, चल दिए
बिन बोले
मैं आज भी वहीं बैठी हूँ।
सरोज परमार की प्रेम कविताएं ओस की बूंदों जैसी नाज़ुक हैं, बर्फ़ के गिरते फाहों जैसी खूबसूरत और चाँदनी जैसी शीतल हैं। वो कहती हैं-
खुद को लिखना है खत में
उड़ेलना है खुद को खत में
याद दिलाना है मुझे
भीगते मौसम में
छींकते हुए इलायची अदरक वाली
चाय की फरमाइश
या फिर
लटकते फीतों को
सही ढंग से बांधने की हिदायत
या कम्बल में साथ साथ बुने सपनें।
स्त्री सम्वेदना और अनुभूति को सरोज परमार ने अपनी कविताओं में जमकर उकेरा है। भाषा कोई बंधन नहीं रहा है। बस भावनाओं का प्रवाह नदी जैसा है-
काश! यह सूइयां टूटकर गिर पड़े
और वक्त ठहर जाए
ताकि मैं सो लूं अपनी इच्छा से
खा लूं अपने मन से
जीभ को पता तो चले
स्वाद के तीखेपन का।
कवयित्री अपनी शर्तों पर जीना चाहती है, प्रेम में मुक्ति चाहती है, बंधन नहीं। सारे वादे, सारे सपनें और सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन होगा परन्तु अपनी शर्तों पर -
समूचे आकाश को अपने डैनों से
बुहारती फिरूँगी
स्वाति बूंदों को सहेज
अपनी कोख में
मोतियों से भर दूंगी तिजोरियां
शर्त है
जीने देना मुझे मेरी तरह।
सरोज परमार स्त्री विमर्श से परे सीधी और साफ टिप्पणी करती हैं। उन्हें मालूम है कि हमारे समाज में स्त्री और पुरुष में जो भेदभाव है, वो किस हद तक एक स्त्री को प्रभावित करता है -
औरत का कोई घर नहीं
उसका ससुराल है
मायका है
पति का घर है
उसका.....?
वास्तव में दिखाने को तो हम यह दिखाते हैं कि एक स्त्री ही पूरे घर की मालकिन है, परंतु होता इसके विपरीत है। उसे समय समय पर यह एहसास भी करवाया जाता है कि तुम्हारा कुछ भी नहीं है। इसलिए कवयित्री कहती है-
पिता!
मुझे मत देना
भांडे बर्तन
गहना गट्टा
कपड़ा लत्ता
दे देना थोड़ा सा आकाश
बित्ता भर पृथ्वी
अंजुरी भर समुद्र।
सामाजिक ताने बाने में एक स्त्री को उसका पूरा हक कभी नहीं दिया गया। उसके ऊपर सारी जिम्मेदारी तो डाल दी, कर्तव्यों का बोझ भी लाद दिया लेकिन अधिकारों की बात नहीं की। उसपर सारे बंधन, नियम, कानून आदि थोपे गए-
लड़की की पीठ
खाली दीवार
कोई भी पोस्टर लगा जाता है
एक फटता है
बरसते पानी से
दूसरे की इबारत शुरू
न हुआ तो एक जोंक सी
अफवाह ही चिपक गई
उतारते रहो बरसों
धोते रहो
पोंछते रहो, धोते रहो।
सरोज परमार ने संघर्ष भरे अपने जीवन में छोटी छोटी खुशियां खोज निकालने की भरपूर कोशिश की है। दूसरों की पीड़ा को महसूसने का प्रयत्न किया है। वो नदी से भी बतिया लेती हैं-
सच बतलाना नदी
तुम दुख में चीखती क्यों नहीं?
क्यों नहीं करती शिकायत?
कैसे तुम बिन बोले ही मुसीबतों को
उतार लेती हो अतल गहराइयों में
पीड़ा की गठरियां ढोते ढोते
उफ्फ तक नहीं करती क्यों?
सरोज परमार की नदियों पर बहुत कविताएं हैं। यूं लगता है जैसे नदी से उनका एक पक्का रिश्ता है। नदी को वो अपना दोस्त मानती हैं। नदी से बात करती हैं, नदी से सवाल करती हैं और नदी के साथ रहना चाहती हैं-
तुम्हारे संग रहते रहते
बहते बहते
मैं नदी होना चाहती हूं
खोना चाहती हूं वजूद
अपनापन
होना चाहती हूं सागर !
महासागर !
क्या तुम भी औरत होना चाहोगी ?
000
परख उन्नीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_30.html?m=1
सच बतलाना नदी !
गणेश गनी |
अक्सर मित्रता या प्रेम में भी अवसर खोजे जाते हैं या फिर अवसर देखकर ही दोस्ती की जाती है। कभी कभी गहरी मित्रता हो जाए तो फिर बेड़ियां डालने का काम किया जाता है। मित्र की स्वतंत्रता में, उसके व्यक्तिगत जीवन में और उसकी निजिता में दखल दिया जाता है। कभी कभी गहरी मित्रता पर भी संदेह किया जाता है।
लेबनान के दार्शनिक कवि ख़लील जिब्रान ने प्रेम पर जो कहा है, वो काफी है-
मित्रता हमेशा एक मधुर जिम्मेदारी है, अवसर कभी नहीं। दुनिया में बहुत कम लोग इस जिम्मेदारी का एहसास कर पाते हैं। सबसे बड़ा शत्रु तो सन्देह है। उन्होंने एक स्थान पर कहा है- प्रेम और सन्देह में कभी बातचीत नहीं रही है। ख़लील जिब्रान की एक और बात ध्यान देने योग्य है- यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसे जाने दें, क्योंकि यदि वो लौटते हैं तो वो हमेशा आपके थे। और यदि नहीं लौटते तो कभी आपके नहीं थे।
हिमाचल के सुंदर इलाके पालमपुर से सम्बद्ध वरिष्ठ कवयित्री सरोज परमार ने मानव सम्वेदनाओं से सराबोर कविताएं लिखी हैं, प्रेम और प्रकृति उनकी कविताओं में भरपूर हैं। प्रेम में सरोज कहती हैं-
प्रेम चिड़िया नहीं हो सकता
प्रेम कुंआ भी नहीं हो सकता
प्रेम होता है झरना
झर झर कर भी
खत्म नहीं होता।
प्रेम हृदय की अनुभूति है। इसे एक अलग ही तल पर जाकर महसूस किया जा सकता है। सच ही कहा गया है कि यह देह और दिमाग से परे की चीज है-
तुमने जब भी कहा
साथ चलो
मैंने मांगा कुछ समय
समय- मिल ही नही पाया
तुम उठे, चल दिए
बिन बोले
मैं आज भी वहीं बैठी हूँ।
सरोज परमार की प्रेम कविताएं ओस की बूंदों जैसी नाज़ुक हैं, बर्फ़ के गिरते फाहों जैसी खूबसूरत और चाँदनी जैसी शीतल हैं। वो कहती हैं-
खुद को लिखना है खत में
उड़ेलना है खुद को खत में
याद दिलाना है मुझे
भीगते मौसम में
छींकते हुए इलायची अदरक वाली
चाय की फरमाइश
या फिर
लटकते फीतों को
सही ढंग से बांधने की हिदायत
या कम्बल में साथ साथ बुने सपनें।
स्त्री सम्वेदना और अनुभूति को सरोज परमार ने अपनी कविताओं में जमकर उकेरा है। भाषा कोई बंधन नहीं रहा है। बस भावनाओं का प्रवाह नदी जैसा है-
काश! यह सूइयां टूटकर गिर पड़े
और वक्त ठहर जाए
ताकि मैं सो लूं अपनी इच्छा से
खा लूं अपने मन से
जीभ को पता तो चले
स्वाद के तीखेपन का।
कवयित्री अपनी शर्तों पर जीना चाहती है, प्रेम में मुक्ति चाहती है, बंधन नहीं। सारे वादे, सारे सपनें और सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन होगा परन्तु अपनी शर्तों पर -
समूचे आकाश को अपने डैनों से
बुहारती फिरूँगी
स्वाति बूंदों को सहेज
अपनी कोख में
मोतियों से भर दूंगी तिजोरियां
शर्त है
जीने देना मुझे मेरी तरह।
सरोज परमार स्त्री विमर्श से परे सीधी और साफ टिप्पणी करती हैं। उन्हें मालूम है कि हमारे समाज में स्त्री और पुरुष में जो भेदभाव है, वो किस हद तक एक स्त्री को प्रभावित करता है -
औरत का कोई घर नहीं
उसका ससुराल है
मायका है
पति का घर है
उसका.....?
वास्तव में दिखाने को तो हम यह दिखाते हैं कि एक स्त्री ही पूरे घर की मालकिन है, परंतु होता इसके विपरीत है। उसे समय समय पर यह एहसास भी करवाया जाता है कि तुम्हारा कुछ भी नहीं है। इसलिए कवयित्री कहती है-
पिता!
मुझे मत देना
भांडे बर्तन
गहना गट्टा
कपड़ा लत्ता
दे देना थोड़ा सा आकाश
बित्ता भर पृथ्वी
अंजुरी भर समुद्र।
सामाजिक ताने बाने में एक स्त्री को उसका पूरा हक कभी नहीं दिया गया। उसके ऊपर सारी जिम्मेदारी तो डाल दी, कर्तव्यों का बोझ भी लाद दिया लेकिन अधिकारों की बात नहीं की। उसपर सारे बंधन, नियम, कानून आदि थोपे गए-
लड़की की पीठ
खाली दीवार
कोई भी पोस्टर लगा जाता है
एक फटता है
बरसते पानी से
दूसरे की इबारत शुरू
न हुआ तो एक जोंक सी
अफवाह ही चिपक गई
उतारते रहो बरसों
धोते रहो
पोंछते रहो, धोते रहो।
सरोज परमार ने संघर्ष भरे अपने जीवन में छोटी छोटी खुशियां खोज निकालने की भरपूर कोशिश की है। दूसरों की पीड़ा को महसूसने का प्रयत्न किया है। वो नदी से भी बतिया लेती हैं-
सच बतलाना नदी
तुम दुख में चीखती क्यों नहीं?
क्यों नहीं करती शिकायत?
कैसे तुम बिन बोले ही मुसीबतों को
उतार लेती हो अतल गहराइयों में
पीड़ा की गठरियां ढोते ढोते
उफ्फ तक नहीं करती क्यों?
सरोज परमार |
सरोज परमार की नदियों पर बहुत कविताएं हैं। यूं लगता है जैसे नदी से उनका एक पक्का रिश्ता है। नदी को वो अपना दोस्त मानती हैं। नदी से बात करती हैं, नदी से सवाल करती हैं और नदी के साथ रहना चाहती हैं-
तुम्हारे संग रहते रहते
बहते बहते
मैं नदी होना चाहती हूं
खोना चाहती हूं वजूद
अपनापन
होना चाहती हूं सागर !
महासागर !
क्या तुम भी औरत होना चाहोगी ?
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परख उन्नीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_30.html?m=1
बहुत अच्छा.
जवाब देंहटाएंस्त्री होने का स्त्री होकर ही समझा जा सकता है