नीरज नीर की कविताएं
गोड्डा की मछलियाँ
रातें उदास और ठहरी हुई हैं /
विषण्ण सुबह, सूरज उगता है
आधा डूबा हुआ /
हवाएँ शोक ग्रस्त हैं /
बलदेव बेसरा की थकी हुई आँखों में
छाया है अंधेरा/
दैत्याकार चिमनियों से निकलता
विषैला काला धुआँ/
जहर बनकर घुस रहा है
नथुनों में
पत्तियों पर फैली है
काली धूल/
वृक्ष हाँफ रहे हैं/
बलदेव बेसरा भर देना चाहता है
उस बरगद के पेड़ में
अपनी साँसे
जिसे लगाया था
उसके पुरखों में से किसी एक ने/
पर वह खुद बेदम है/
धान के खेतों में
पसरी हुई है
कोयले की छाई /
दावा है चारो तरफ
बिजली की चमकदार रौशनी
फैलाने का/
पर उसके जीवन में फ़ेल रहा है अंधेरा
बरगद की जड़े ताक रही हैं
आसमान को/
पंछी उड़ चुके हैं
किसी दूर देश को
नए ठौर की तलाश में /
पर तालाब की मछलियां
नहीं ले पा रही हैं साँसे
वे मर कर उपला गयी है
पानी की सतह पर
बलदेव बेसरा भी चाहता है
पंछियों की तरह चले जाना
लाल माटी से कहीं दूर
जहाँ वह ले सके
छाती भर कर साँस,
जहाँ गीत गाते हुये
उसकी औरते रोप सके धान,
जहाँ मेड़ों पर घूमते हुये
रोप सके
अपनी आत्मा में
हरियाली की जड़ें /
पर मछलियों के पंख नहीं होते/
वह साँस भी नहीं ले पा रहा/
उसकी आत्मा छटपटा रही है/
वह भी तालाब की मछलियों की तरह
मरकर उपला जाएगा/
और विस्मृत हो जाएगा
अस्तित्वहीन होकर/
मछलियाँ पानी के बाहर
पलायन नहीं कर सकती हैं/
अंधेरे में जूझती गोड्डा की मछलियों
का अंत निश्चित है
(गोड्डा में एक बड़ी कंपनी के द्वारा किसानों की ज़मीनें छीनी जा रही है। किसान विरोध कर रहे है, छाती पीट रहे हैं, परंतु कंपनी ताकतवर है, वह जमीन छीन कर रहेगी।)
गोड्डा की मछलियाँ- 2
जीवित रहने के लिए
मछलियों को सीखना होगा उड़ना।
उड़ना ऊँचा, उड़कर बैठना
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर।
करना तैयारी
देशांतर गमन की ।
पोखरा, अहरा और तालाब
नदी, नालों के किनारों से दूर
पानी से बाहर निकलकर
पंछियों की तरह पंख फड़फड़ाना
जीना नए परिवेश में
अपने रूप, रंग और गंध से हीन।
अपनी आत्मा को पानी के भीतर मिट्टी में
गहरे दफन करके निकलना बाहर
और संवेदना से शून्य
आकाश में विचरना
गरम हवा में साँसे लेते हुये
संघर्ष करना
जीवन के लिए आमरण ।
मछलियों को बगुलों से शिकायत नहीं है।
वे सीख गयी हैं सहजीविता
उनके साथ
जैसे मुसलमानों के साथ हिन्दू
ब्राह्मणों के साथ अन्य जातियाँ
रहते आए हैं इस देश में साथ साथ।
मछलियों को ख़तरा है
विशाल हाथियों से
जो उतर आए हैं पानी में
विकास और प्रगति के बड़े बड़े बैनर लिए।
गोड्डा की मछलियाँ बेचैन है।
उन्हें विकास में दिख रहा है अपना विनाश।
अनकही सी बात
बात,
जो तुम कह नहीं पाये,
जो रह गयी थी
दो बातों के दरम्यां
अटक कर
तुम्हारे अधरों पर.
जिसे छुपा लिया
तुम्हारी नजरों ने
पलकें झुका कर.
उसे पढ़ लिया था मैंने
और वह शामिल हो गया है
मेरे होने में .
उसी को मैं लिखता हूँ आजकल,
अपनी कविताओं में.
बूँद बूँद
अपने वजूद में डूबोकर.
तुम्हारे लिए
जो थी
एक ज़रा
अनकही सी बात,
वह एक सिलसिला बन गया है
कभी नहीं खत्म होने वाला.
मेरे मन का आकाश
अभी भी ताकता है राह
और फाहे से बनाता है
तरह तरह की तस्वीरें
और फिर फूंक कर उड़ा देता है
इधर उधर
मुस्कुराते हुए.
कभी कभी बरस भी जाता है
आँखों से,
अगर कभी इधर आना
तो लेकर आना
एक नाव.
नदी जो तुम्हें दिखती है सूखी
है दरअसल लबालब भरी हुई.
जिस किनारे पर कभी तुमने लिखा था
अपना नाम,
उसे मैंने अब भी बचाकर रखा है
नदी की धारा से
अपनी देह की आड़ देकर
और तुम्हारी अँगुलियों की छुअन
महसूस करता हूँ
अपनी हथेली पर.
जब आओ तो अपने पैरों के नीचे
रख लेना
एक फूल.
तुम फिर आओगे
तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है
कि बारहा नहीं रह सकती
मौसमे खिजां
कि फिर से लौट आएँगी
बहारे गुल.
फिर से आएगी रवानी
इस नदी में.
ख़त्म हो जायेगा
गर्म हवाओं का मौसम.
बहेगी फिर से बादे शबा.
तुम आओगे
तो फिर से दिखेगा
मैना का जोड़ा
बरगद के दरख़्त पर.
गोरैया फिर से बनाएगी
घोसला
ऊँचे रौशन दान में.
नन्हीं चिड़ियों की चहचाहट के साथ
गूंजेगी मंदिर की घंटियाँ.
आसमान फिर से आज़ाद होगा
कफस ए अब्र से.
हम खोल कर खिड़कियाँ
फिर से निहारेंगे
साफ़ नीले आसमान को,
जहाँ उफ़क के पास
नज़र आती है
एक छोटी सी पहाड़ी
और नदी में
गाता सुनाई देता है
मांझी, अपनी छोटी डोंगी के साथ.
नदी के उस पार
जो ऊँची मीनार है,
मैं उस पर रोज रखूंगा
एक दीया
कि हर जाने वाले को दिखा सके
वापस लौटने की राह .
तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है.
चिड़ियाँ और शिकारी
चिड़ियों के शोर से शिकारी नहीं मरता
और न ही
उसकी तरफदारी करने से
छोड़ देता है
शिकार करना
तोप से नहीं बरसेंगे फूल
तोप के मुंह में घोसला बना लेने से
तोप नहीं समझता है
प्रेम की भाषा
छूरियों की धार
चिड़ियों के गर्दन के लिए है
चिड़ियों को बचना है तो
सीखना होगा ऊँचा उड़ना
और सतर्क रहना
शिकारी की चाल से
तोप की असलियत को पहचानना होगा
छूरियों को चोंच में दबाकर
उड़ना होगा दूर बहुत दूर
जंगल का विकास वाया सड़क
जंगल....
जहाँ थे
ठिठोली करते पीपल, पाकड़, खैर,
सखुआ, महुआ, पलाश
अनेक किस्म के जीव जंतु
छाती भर के घास
जहाँ था ठंढे पानी का कुआँ
उठता था सुबह शाम धुआँ
जहां रहते थे
जीवन चक्र में
सबसे ऊपर रहने वाले लोग
मांदर बजाते लड़के
गीत गाती लडकियाँ
परिवार का हिस्सा थे
गाय, बैल, बकरियां
सहजीविता मूल साधन था
जीवन के साध्य का ......
फिर वहां आयी एक सड़क
और जंगल धीरे धीरे गायब हो गया
जैसे शहर से गायब हो गयी गोरैया
किसी ने नहीं देखा
जंगल के पैर, पंख उगते हुए
पर अब वहां जंगल नहीं है
न जाने किस अदृश्य दिशा की ओर
जंगल, कर गया प्रस्थान
बिना किसी शोर शराबे
हिल हुज्जत के
जंगल के पीछे पीछे गायब हो गए
चुपचाप
जीव –जंतु, कुएं का पानी
गीत और मांदर भी
अब वहां उग आये हैं
पेड़ों से भी गहरी जड़े जमायें
कारखाने, खदान और बड़े बड़े भवन
बांसुरी और मांदर के मधुर संगीत के बदले
है डी जे का कानफाड़ू शोर
आनंद की जगह ले ली है आपाधापी ने
सुबह से शाम तक मची है चूहों की दौड़
पलाश की जगह खिल रहे हैं
बोगनवीलिया के फूल
घर से ज्यादा जरूरी हो गयी हैं चारदीवारियां
और जीवनचक्र में बहुत नीचे आ गए हैं
वहां रहने वाले लोग.
जंगल में इस तरह आया है विकास
सड़क के रास्ते ...
मच्छर
जाड़ा कम होते ही बढ़ जाते हैं मच्छर
जैसे धन कटनी के बाद
दिल्ली के स्टेशन पर
झुण्ड के झुण्ड उतरते हैं
पूरब के बेरोजगार
मच्छरों का उद्धेश्य
किसी का अहित
नहीं होता है
वे भी जीना चाहते हैं
पूरबिया बेरोजगारों की तरह
जो दो पैसे कमाकर भेजना चाहते हैं
अपने गाँव
ताकि बच्चों के बस्ते में आ सके किताबें
बाबूजी खा सके
गर्म भात के साथ आलू का चोखा
लेकिन लुटिएन्स ज़ोन को अखरती है
यमुना किनारे उग आयी बस्तियाँ
मच्छरों को मारने के तरह तरह के उपायों के बाबजूद
बढ़ती ही जा रही है उनकी संख्या
योजना बनायी जा रही है कि कैसे
मच्छरों के पनपने के पहले ही
उन्हें मार दिया जाये
दिल्ली में इस तरह मच्छरों का होना
दिल्ली की सुन्दरता पर बदनुमा दाग है
दौड़
वह दौड़ रहा है
एक थके हुए धावक की तरह
जिसे मालूम है
वह जीत नहीं सकता
पर उसे पूरी करनी है
अपनी दौड़
क्योंकि दौड़ के
होते हैं
अपने कुछ कायदे,
कुछ नियम
जिंदगी की ट्रैक पर
दौड़ रहा किसान
अभिशप्त है
हारने के लिए
अपना पूरा दम लगाने के बाबजूद
फिर भी वह दौड़
पूरी करेगा
फाउल दिए जाने तक
आप क्या चाहते हैं
आपको नफरत है मुसलमानों से
आप घिनाते हैं दलितों से
आपकी पसंद की परिधि में नहीं समाते हैं
यादव, कुर्मी, कोयरी......
आपको सुहाते नहीं हैं
राजपूत, कायस्थ, बनिया
आप चिढ़ते हैं
कान्यकुब्ज, सरयूपारिन और श्रोत्रिय से भी
आपकी पसंद की सूची
सुई की छेद भर है
जिससे खुद सुई का भी निकलना
संभव नहीं
आपको चुभते हैं काँटो की तरह
आपके गोतिया और पड़ोसी
और दुश्मनी की अलगनी पर
आपने टांग रखे हैं
अपने सगे भाई और भतीजों को
ज़रा सोचिये खुद के सिवा
आप किससे करते हैं प्रेम
आप करते हैं घृणा
ब्राह्मणों से
गाली देने की प्रतियोगिता में
आप ठहरना चाहते हैं बीस
सामाजिक न्याय का लक्ष्य
तब तक आप पूरा नहीं मानेंगे
जब तक कि ब्राह्मण नहीं देने लगे
अपनी बेटियां किसी दलित को
पर आप धोबी हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी दुसाध को
आप दुसाध हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी चमार को
आप चमार हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी भंगी को
अजी बेटी छोडिये,
आप रोटी भी नहीं खाना चाहते किसी भंगी की
सूखी नदी में नाव चलाकर
आप पहुँचना चाहते हैं
उस पार
ज़रा सोचिये
कितनी संकरी है वह गली
जिसमें आप समाना चाहते हैं
समानता और बंधुत्व
समस्त विश्व के कल्याण हेतू
आपको उनकी हर बात में
दिखता है कुफ्र
आपको लगते हैं
उनके विचार, उनकी आस्था
उपहास योग्य,
ध्वस्त किये जाने एवं
बदल दिए जाने लायक
आपको होती है चिढ़
शियायों के शोक मनाने से
आप करते हैं परहेज़
दूसरे फिकरे की इबादतगाहों से
अँधेरे कमरे में बंद करके आप
रोते हैं रौशनी को
आपने अपने इर्द गिर्द गढ़ लिया है
भय का एक छद्म किला
जिससे बाहर आप
कभी निकलना नहीं चाहते
आप प्रेम को बनाना चाहते हैं
वन वे ट्रैफिक
जिसमें आना तो हो पर
जाना नहीं हो मुमकिन
आप हँसने की आज़ादी चाहते हैं
पर कोई आप पर नहीं हँसे
इस शर्त के साथ
इस तरह आप कायम करना चाहते हैं
अम्नो अमान की अपनी दुनिया
जो स्वीकार्य हो सभी को
ज़रा सोचिये आप क्या चाहते हैं
गाँव, मसान और गुड़गांव
अब गाँव की फिजाओं में
नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और ऊँचे मचान.
सूना परिवेश
उल्लास हीन गलियां
दृश्य मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती
ढोलक की थाप पर
चैता की तान.
गाँव में नहीं रहते अब,
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा
गए सूरत, दिल्ली और गुडगांव .
पीछे हैं पड़े
बच्चे, स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े .
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता.
देखतें हैं, गिर ना जाये
खाने में छिपकली.
गाँव वाले कहते हैं,
स्साला मास्टर चोर है.
खाता है बच्चों का अनाज
साहब से साला बने मास्टर जी
सोचते हैं,
किस किस को दूँ अब
खर्चे का हिसाब.
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है
तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज ..
इन स्कूलों में पढ़कर,
नहीं बनेगा कोई डॉक्टर और इंजीनियर
बच्चे बड़े होकर बनेगें मजदूर
जायेंगे कमाने
सूरत, दिल्ली , गुडगाँव
या तलाशेंगे कोई और नया ठाँव.
००
नीरज नीर की कविताओं पर गणेश गनी का लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
औरतें कवि होती हैं
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_14.html
परिचय :
नीरज नीर
जन्म तिथि : 14.02.1973
Mob 8797777598
Email – neerajcex@gmail.com
पता :
“आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, पो ऑ – अशोक नगर
राँची – 834002, झारखण्ड
राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक
हंस, वागर्थ, परिकथा, अक्षरपर्व, कथाक्रम, युद्धरत आम आदमी, इन्द्रप्रस्थ भारती, आजकल आधुनिक साहित्य, सरस्वती सुमन, साहित्यअमृत , प्राची, वीणा, नंदन, ककसाड़, परिंदे, दोआबा, समहुत , निकट, यथावत, बिजूका, अट्ठास, सोच विचार, जनसत्ता, प्रभातखबर, दैनिक भास्कर, आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर कवितायें एवं कहानियाँ प्रकाशित.
एक एकल काव्यसंग्रह "जंगल में पागल हाथी और ढोल" प्रकाशित, जिसके लिए प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान प्राप्त.
इसके अतिरिक्त छह साझा काव्यसंग्रह प्रकाशित एवं एक साझा कथा संग्रह भी प्रकाशित
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कहानियों एवं कविताओं का प्रसारण .
सम्प्रति केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर में अधीक्षक के रूप में एवं झारखण्ड के रामगढ़ में पदस्थापित
नीरज नीर |
गोड्डा की मछलियाँ
रातें उदास और ठहरी हुई हैं /
विषण्ण सुबह, सूरज उगता है
आधा डूबा हुआ /
हवाएँ शोक ग्रस्त हैं /
बलदेव बेसरा की थकी हुई आँखों में
छाया है अंधेरा/
दैत्याकार चिमनियों से निकलता
विषैला काला धुआँ/
जहर बनकर घुस रहा है
नथुनों में
पत्तियों पर फैली है
काली धूल/
वृक्ष हाँफ रहे हैं/
बलदेव बेसरा भर देना चाहता है
उस बरगद के पेड़ में
अपनी साँसे
जिसे लगाया था
उसके पुरखों में से किसी एक ने/
पर वह खुद बेदम है/
धान के खेतों में
पसरी हुई है
कोयले की छाई /
दावा है चारो तरफ
बिजली की चमकदार रौशनी
फैलाने का/
पर उसके जीवन में फ़ेल रहा है अंधेरा
बरगद की जड़े ताक रही हैं
आसमान को/
पंछी उड़ चुके हैं
किसी दूर देश को
नए ठौर की तलाश में /
पर तालाब की मछलियां
नहीं ले पा रही हैं साँसे
वे मर कर उपला गयी है
पानी की सतह पर
बलदेव बेसरा भी चाहता है
पंछियों की तरह चले जाना
लाल माटी से कहीं दूर
जहाँ वह ले सके
छाती भर कर साँस,
जहाँ गीत गाते हुये
उसकी औरते रोप सके धान,
जहाँ मेड़ों पर घूमते हुये
रोप सके
अपनी आत्मा में
हरियाली की जड़ें /
पर मछलियों के पंख नहीं होते/
वह साँस भी नहीं ले पा रहा/
उसकी आत्मा छटपटा रही है/
वह भी तालाब की मछलियों की तरह
मरकर उपला जाएगा/
और विस्मृत हो जाएगा
अस्तित्वहीन होकर/
मछलियाँ पानी के बाहर
पलायन नहीं कर सकती हैं/
अंधेरे में जूझती गोड्डा की मछलियों
का अंत निश्चित है
(गोड्डा में एक बड़ी कंपनी के द्वारा किसानों की ज़मीनें छीनी जा रही है। किसान विरोध कर रहे है, छाती पीट रहे हैं, परंतु कंपनी ताकतवर है, वह जमीन छीन कर रहेगी।)
गोड्डा की मछलियाँ- 2
जीवित रहने के लिए
मछलियों को सीखना होगा उड़ना।
उड़ना ऊँचा, उड़कर बैठना
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर।
करना तैयारी
देशांतर गमन की ।
पोखरा, अहरा और तालाब
नदी, नालों के किनारों से दूर
पानी से बाहर निकलकर
पंछियों की तरह पंख फड़फड़ाना
जीना नए परिवेश में
अपने रूप, रंग और गंध से हीन।
अपनी आत्मा को पानी के भीतर मिट्टी में
गहरे दफन करके निकलना बाहर
और संवेदना से शून्य
आकाश में विचरना
गरम हवा में साँसे लेते हुये
संघर्ष करना
जीवन के लिए आमरण ।
मछलियों को बगुलों से शिकायत नहीं है।
वे सीख गयी हैं सहजीविता
उनके साथ
जैसे मुसलमानों के साथ हिन्दू
ब्राह्मणों के साथ अन्य जातियाँ
रहते आए हैं इस देश में साथ साथ।
मछलियों को ख़तरा है
विशाल हाथियों से
जो उतर आए हैं पानी में
विकास और प्रगति के बड़े बड़े बैनर लिए।
गोड्डा की मछलियाँ बेचैन है।
उन्हें विकास में दिख रहा है अपना विनाश।
अनकही सी बात
बात,
जो तुम कह नहीं पाये,
जो रह गयी थी
दो बातों के दरम्यां
अटक कर
तुम्हारे अधरों पर.
जिसे छुपा लिया
तुम्हारी नजरों ने
पलकें झुका कर.
उसे पढ़ लिया था मैंने
और वह शामिल हो गया है
मेरे होने में .
उसी को मैं लिखता हूँ आजकल,
अपनी कविताओं में.
बूँद बूँद
अपने वजूद में डूबोकर.
तुम्हारे लिए
जो थी
एक ज़रा
अनकही सी बात,
वह एक सिलसिला बन गया है
कभी नहीं खत्म होने वाला.
मेरे मन का आकाश
अभी भी ताकता है राह
और फाहे से बनाता है
तरह तरह की तस्वीरें
और फिर फूंक कर उड़ा देता है
इधर उधर
मुस्कुराते हुए.
कभी कभी बरस भी जाता है
आँखों से,
अगर कभी इधर आना
तो लेकर आना
एक नाव.
नदी जो तुम्हें दिखती है सूखी
है दरअसल लबालब भरी हुई.
जिस किनारे पर कभी तुमने लिखा था
अपना नाम,
उसे मैंने अब भी बचाकर रखा है
नदी की धारा से
अपनी देह की आड़ देकर
और तुम्हारी अँगुलियों की छुअन
महसूस करता हूँ
अपनी हथेली पर.
जब आओ तो अपने पैरों के नीचे
रख लेना
एक फूल.
तुम फिर आओगे
तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है
कि बारहा नहीं रह सकती
मौसमे खिजां
कि फिर से लौट आएँगी
बहारे गुल.
फिर से आएगी रवानी
इस नदी में.
ख़त्म हो जायेगा
गर्म हवाओं का मौसम.
बहेगी फिर से बादे शबा.
तुम आओगे
तो फिर से दिखेगा
मैना का जोड़ा
बरगद के दरख़्त पर.
गोरैया फिर से बनाएगी
घोसला
ऊँचे रौशन दान में.
नन्हीं चिड़ियों की चहचाहट के साथ
गूंजेगी मंदिर की घंटियाँ.
आसमान फिर से आज़ाद होगा
कफस ए अब्र से.
हम खोल कर खिड़कियाँ
फिर से निहारेंगे
साफ़ नीले आसमान को,
जहाँ उफ़क के पास
नज़र आती है
एक छोटी सी पहाड़ी
और नदी में
गाता सुनाई देता है
मांझी, अपनी छोटी डोंगी के साथ.
नदी के उस पार
जो ऊँची मीनार है,
मैं उस पर रोज रखूंगा
एक दीया
कि हर जाने वाले को दिखा सके
वापस लौटने की राह .
तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है.
चिड़ियाँ और शिकारी
चिड़ियों के शोर से शिकारी नहीं मरता
और न ही
उसकी तरफदारी करने से
छोड़ देता है
शिकार करना
तोप से नहीं बरसेंगे फूल
तोप के मुंह में घोसला बना लेने से
तोप नहीं समझता है
प्रेम की भाषा
छूरियों की धार
चिड़ियों के गर्दन के लिए है
चिड़ियों को बचना है तो
सीखना होगा ऊँचा उड़ना
और सतर्क रहना
शिकारी की चाल से
तोप की असलियत को पहचानना होगा
छूरियों को चोंच में दबाकर
उड़ना होगा दूर बहुत दूर
जंगल का विकास वाया सड़क
जंगल....
जहाँ थे
ठिठोली करते पीपल, पाकड़, खैर,
सखुआ, महुआ, पलाश
अनेक किस्म के जीव जंतु
छाती भर के घास
जहाँ था ठंढे पानी का कुआँ
उठता था सुबह शाम धुआँ
जहां रहते थे
जीवन चक्र में
सबसे ऊपर रहने वाले लोग
मांदर बजाते लड़के
गीत गाती लडकियाँ
परिवार का हिस्सा थे
गाय, बैल, बकरियां
सहजीविता मूल साधन था
जीवन के साध्य का ......
फिर वहां आयी एक सड़क
और जंगल धीरे धीरे गायब हो गया
जैसे शहर से गायब हो गयी गोरैया
किसी ने नहीं देखा
जंगल के पैर, पंख उगते हुए
पर अब वहां जंगल नहीं है
न जाने किस अदृश्य दिशा की ओर
जंगल, कर गया प्रस्थान
बिना किसी शोर शराबे
हिल हुज्जत के
जंगल के पीछे पीछे गायब हो गए
चुपचाप
जीव –जंतु, कुएं का पानी
गीत और मांदर भी
अब वहां उग आये हैं
पेड़ों से भी गहरी जड़े जमायें
कारखाने, खदान और बड़े बड़े भवन
बांसुरी और मांदर के मधुर संगीत के बदले
है डी जे का कानफाड़ू शोर
आनंद की जगह ले ली है आपाधापी ने
सुबह से शाम तक मची है चूहों की दौड़
पलाश की जगह खिल रहे हैं
बोगनवीलिया के फूल
घर से ज्यादा जरूरी हो गयी हैं चारदीवारियां
और जीवनचक्र में बहुत नीचे आ गए हैं
वहां रहने वाले लोग.
जंगल में इस तरह आया है विकास
सड़क के रास्ते ...
मच्छर
जाड़ा कम होते ही बढ़ जाते हैं मच्छर
जैसे धन कटनी के बाद
दिल्ली के स्टेशन पर
झुण्ड के झुण्ड उतरते हैं
पूरब के बेरोजगार
मच्छरों का उद्धेश्य
किसी का अहित
नहीं होता है
वे भी जीना चाहते हैं
पूरबिया बेरोजगारों की तरह
जो दो पैसे कमाकर भेजना चाहते हैं
अपने गाँव
ताकि बच्चों के बस्ते में आ सके किताबें
बाबूजी खा सके
गर्म भात के साथ आलू का चोखा
लेकिन लुटिएन्स ज़ोन को अखरती है
यमुना किनारे उग आयी बस्तियाँ
मच्छरों को मारने के तरह तरह के उपायों के बाबजूद
बढ़ती ही जा रही है उनकी संख्या
योजना बनायी जा रही है कि कैसे
मच्छरों के पनपने के पहले ही
उन्हें मार दिया जाये
दिल्ली में इस तरह मच्छरों का होना
दिल्ली की सुन्दरता पर बदनुमा दाग है
दौड़
वह दौड़ रहा है
एक थके हुए धावक की तरह
जिसे मालूम है
वह जीत नहीं सकता
पर उसे पूरी करनी है
अपनी दौड़
क्योंकि दौड़ के
होते हैं
अपने कुछ कायदे,
कुछ नियम
जिंदगी की ट्रैक पर
दौड़ रहा किसान
अभिशप्त है
हारने के लिए
अपना पूरा दम लगाने के बाबजूद
फिर भी वह दौड़
पूरी करेगा
फाउल दिए जाने तक
आप क्या चाहते हैं
आपको नफरत है मुसलमानों से
आप घिनाते हैं दलितों से
आपकी पसंद की परिधि में नहीं समाते हैं
यादव, कुर्मी, कोयरी......
आपको सुहाते नहीं हैं
राजपूत, कायस्थ, बनिया
आप चिढ़ते हैं
कान्यकुब्ज, सरयूपारिन और श्रोत्रिय से भी
आपकी पसंद की सूची
सुई की छेद भर है
जिससे खुद सुई का भी निकलना
संभव नहीं
आपको चुभते हैं काँटो की तरह
आपके गोतिया और पड़ोसी
और दुश्मनी की अलगनी पर
आपने टांग रखे हैं
अपने सगे भाई और भतीजों को
ज़रा सोचिये खुद के सिवा
आप किससे करते हैं प्रेम
आप करते हैं घृणा
ब्राह्मणों से
गाली देने की प्रतियोगिता में
आप ठहरना चाहते हैं बीस
सामाजिक न्याय का लक्ष्य
तब तक आप पूरा नहीं मानेंगे
जब तक कि ब्राह्मण नहीं देने लगे
अपनी बेटियां किसी दलित को
पर आप धोबी हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी दुसाध को
आप दुसाध हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी चमार को
आप चमार हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी भंगी को
अजी बेटी छोडिये,
आप रोटी भी नहीं खाना चाहते किसी भंगी की
सूखी नदी में नाव चलाकर
आप पहुँचना चाहते हैं
उस पार
ज़रा सोचिये
कितनी संकरी है वह गली
जिसमें आप समाना चाहते हैं
समानता और बंधुत्व
समस्त विश्व के कल्याण हेतू
आपको उनकी हर बात में
दिखता है कुफ्र
आपको लगते हैं
उनके विचार, उनकी आस्था
उपहास योग्य,
ध्वस्त किये जाने एवं
बदल दिए जाने लायक
आपको होती है चिढ़
शियायों के शोक मनाने से
आप करते हैं परहेज़
दूसरे फिकरे की इबादतगाहों से
अँधेरे कमरे में बंद करके आप
रोते हैं रौशनी को
आपने अपने इर्द गिर्द गढ़ लिया है
भय का एक छद्म किला
जिससे बाहर आप
कभी निकलना नहीं चाहते
आप प्रेम को बनाना चाहते हैं
वन वे ट्रैफिक
जिसमें आना तो हो पर
जाना नहीं हो मुमकिन
आप हँसने की आज़ादी चाहते हैं
पर कोई आप पर नहीं हँसे
इस शर्त के साथ
इस तरह आप कायम करना चाहते हैं
अम्नो अमान की अपनी दुनिया
जो स्वीकार्य हो सभी को
ज़रा सोचिये आप क्या चाहते हैं
गाँव, मसान और गुड़गांव
अब गाँव की फिजाओं में
नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और ऊँचे मचान.
सूना परिवेश
उल्लास हीन गलियां
दृश्य मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती
ढोलक की थाप पर
चैता की तान.
गाँव में नहीं रहते अब,
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा
गए सूरत, दिल्ली और गुडगांव .
पीछे हैं पड़े
बच्चे, स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े .
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता.
देखतें हैं, गिर ना जाये
खाने में छिपकली.
गाँव वाले कहते हैं,
स्साला मास्टर चोर है.
खाता है बच्चों का अनाज
साहब से साला बने मास्टर जी
सोचते हैं,
किस किस को दूँ अब
खर्चे का हिसाब.
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है
तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज ..
इन स्कूलों में पढ़कर,
नहीं बनेगा कोई डॉक्टर और इंजीनियर
बच्चे बड़े होकर बनेगें मजदूर
जायेंगे कमाने
सूरत, दिल्ली , गुडगाँव
या तलाशेंगे कोई और नया ठाँव.
००
नीरज नीर की कविताओं पर गणेश गनी का लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
औरतें कवि होती हैं
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_14.html
परिचय :
नीरज नीर
जन्म तिथि : 14.02.1973
Mob 8797777598
Email – neerajcex@gmail.com
पता :
“आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, पो ऑ – अशोक नगर
राँची – 834002, झारखण्ड
राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक
हंस, वागर्थ, परिकथा, अक्षरपर्व, कथाक्रम, युद्धरत आम आदमी, इन्द्रप्रस्थ भारती, आजकल आधुनिक साहित्य, सरस्वती सुमन, साहित्यअमृत , प्राची, वीणा, नंदन, ककसाड़, परिंदे, दोआबा, समहुत , निकट, यथावत, बिजूका, अट्ठास, सोच विचार, जनसत्ता, प्रभातखबर, दैनिक भास्कर, आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर कवितायें एवं कहानियाँ प्रकाशित.
एक एकल काव्यसंग्रह "जंगल में पागल हाथी और ढोल" प्रकाशित, जिसके लिए प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान प्राप्त.
इसके अतिरिक्त छह साझा काव्यसंग्रह प्रकाशित एवं एक साझा कथा संग्रह भी प्रकाशित
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कहानियों एवं कविताओं का प्रसारण .
सम्प्रति केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर में अधीक्षक के रूप में एवं झारखण्ड के रामगढ़ में पदस्थापित
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